मध्यप्रदेश का मालवांचल हमेशा से सिमी का गढ़ रहा है। भले ही पुलिस दावे करे कि मालवांचल सहित पूरे प्रदेश में सिमी के गढ़ को नेस्तानाबूत कर दिया गया है, लेकिन राख में आग अभी भी सुलग रही है। खूफिया सूत्रों की माने तो पुलिस के तेज होते पहरे के बीच सिमी कार्यकर्ताओं ने नक्सलियों से हाथ मिला लिया है और उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचा रहे हैं। इसमें सिमी का साथ दे रहे हैं प्रदेश में अफीम की अवैध खेती करने वाले माफिया।
अफगानिस्तान में अगर नशे का कारोबार और खेती तालिबानी आतंकवादियों लिए आर्थिक संजीवनी बनी हुई है तो भारत में अफीम की खेती नक्सलवाद के लिए आर्थिक आधार का प्रमुख स्रोत हो गया है मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में अफीम की खेती के कारोबार के जरिए नक्सली अपने लिए धन जुटा रहे हैं। भारत में वैसे तो अफीम की खेती तीन राज्यों क्रमश: मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है। लेकिन अभी भी सबसे अधिक अफीम का उत्पादन मध्यप्रदेश के २ जिलों क्रमश: नीमच और मंदसौर में होता है। हालांकि अफीम की खेती करने वालों पर पुलिस की नजर रहती है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि अपनी लचर प्रणाली और सांठ-गांठ के कारण वह अवैध खेती पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। जिसके कारण यहां हो रही अफीम की अवैध खेती की कमाई नक्सलियों को पहुंचाई जा रही है।
कुछ दिनों पहले तक मध्य प्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।
अफीम की खेती के लिए सबसे उपर्युक्त जलवायु ठंड का मौसम होता है। इसके अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी का शुष्क होना जरुरी माना जाता है। इसी कारण पहले इसकी खेती सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही होती थी। हालांकि कुछ सालों से अफीम की खेती उत्तर प्रदेश के गंगा से सटे हुए इलाकों में होने लगी है, पर मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुकाबले यहाँ फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता अच्छी नहीं होती है। अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा। इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढिय़ा से पकड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माध्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। खूफिया सूत्र बताते हैं कि अफीम की खेती में पारंगत मध्यप्रदेश के किसान यहां आकर नक्सलियों का हाथ बटा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से ७० करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओइस्ट के अंतर्गत काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी ३०० करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है। हाल ही में बिहार पुलिस ने नवादा और औरंगाबाद में छापेमारी कर काफी मात्रा में अफीम की फसलों को तहस-नहस किया था। औरंगाबाद के कपासिया गाँव जो कि मुफसिल थाना के तहत आता है से दो किसानों को अफीम की खेती करने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। औरंगाबाद जिला में प्रमुखत: सोन नदी के किनारे के इलाकों मसलन, नवीनगर और बारुल ब्लॉक में अफीम की खेती की जाती है। एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनायी जाती है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाती है।
कुछ दिनों पहले नवादा पुलिस ने नवादा और जमुई की सीमा से लगे हुए हारखार गाँव में एक ट्रक अफीम की तैयार फसल को अपने कब्जे में लिया था। चूँकि सामान्य तौर पर बिहार और झारखंड में अफीम की खेती पठार और पहाड़ों में अवस्थित जंगलों में की जाती है। इसलिए पुलिस के लिए उन जगहों की पहचान करना आसान नहीं होता है। बावजूद इसके बिहार पुलिस सेटेलाईट की मदद से अफीम की खेती जहाँ हो रही है उन स्थानों की पहचान करने में जुटी हुई है।
आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है। जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके शिकंजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।
नक्सली नासूर धीरे धीरे पूरे देश में अपना पैर फैला रहा है। कुल मिलाकर आंतरिक युद्ध की स्थिति हमारे देश में व्याप्त है। अगर अब भी नक्सलियों पर काबू नहीं पाया गया तो किसी बाहरी देश को हम पर हमला करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारा देश अपने वालों से ही तबाह हो जाएगा। अगर इसे रोकना है तो हमें इनके आर्थिक स्रोत को किसी तरह से भी रोकना ही होगा। क्योंकि इस गैर कानूनी व्यवसाय में लागत की तुलना में मुनाफा हजारों गुणा ज़्यादा है। कम लागत और बेतहाशा मुनाफे को देखकर अधिकांश लोग अफीम की खेती करने में जुट गए हैं। अफीम की पैदावार से नक्सलियों को बतौर लेवी कमीशन भी मिलने लगा है।
मध्यप्रदेश के चंबल घाटी के मुरैना शहर में मुस्लिम आतंकवादी संगठन का एक कमांडर पकड़ा जाएगा यह किसी ने नहीं सोचा। चंबल घाटी के लोग तो अपनी बंदूकों और हत्यारों पर भरोसा करते हैं और बाहर से आने वालो को खदेड़ देते हैं। मगर पिछले साल २७ मई को आठ साल से फरार सिमी का कमांडर इशाक खान पकड़ा गया था और पकड़े जाने पर उसने बताया कि नौ साल पहले २० मई २००० को चेन्नई एक्सप्रेस में बम भी उसने रखा था और बम ग्वालियर से प्रकाशित होने वाले अखबारो में लिपटा हुआ था इसलिए जाहिर है कि ग्वालियर भी सिमी से मुक्त नहीं है।
आम तौर पर देश का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश और उसके भी मालवा अंचल में स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंंट ऑफ इंडिया-सिमी के अड्डे और हत्यारों के खजाने होंगे यह पहले किसी ने नहीं सोचा था। मगर आतंकवादियों का तो पुराना रवैया है कि जहां उनके होने का किसी को अंदेशा भी नहीं हो, वहीं जा कर रहा जाए। मध्यप्रदेश में सिमी का नेटवर्क काफी मजबूत रहा है और इंदौर के पास एक अड्डा बना कर ये लोग बाकायदा आतंक का प्रशिक्षण दे रहे थे। प्रशिक्षण भी ऐसा वैसा नहीं,। एकदम सेना के गौरिल्ला कमांडो जैसा।
२००८ में सिमी के तेरह नेताओं को इंदौर के पास नदी के किनारे उनके अड्डे से पकड़ा गया था। इनमें सिमी का महासचिव सफदर नागौरी और उसका भाई कमरूद्दीन भी था। भोपाल और इंदौर के बीच और भोपाल से पैतीस किलोमीटर दूर चोराल नाम की रमणीक जगह पर भी सिमी का एक और अड्डा था जहां केरल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के मुस्लिम आतंकवादी प्रशिक्षण लेते थे और इसमें इस्लामिक मुजाहिदीन जैसे खतरनाक संगठन के लोग थे। यहां जब छापा मारा गया तो सिमी के कर्नाटक चीफ हाफिज हुसैन और केरल में सिमी का संयोजक कमरूद्दीन कापडिय़ा भी पकड़ा गया। कापडिय़ा की तलाश अहमदाबाद में हुए धारावाहिक धमाकों के अभियुक्त के तौर पर की जा रही है।
इसके बाद आजमगढ़ का रहने वाला और जयपुर, अहमदाबाद में दर्जनों लोगों की जान लेने वाला सैफ उर्र रहमान भी जबलपुर से पकड़ा गया। ये लोग मध्य प्रदेश में आकर बसे थे और अपना पूरा कर्तव्य कर रहे थे इससे जाहिर है कि इन्हें मध्य प्रदेश बहुत ज्यादा सुरक्षित लग रहा था लेकिन ये पकड़े गए इससे जाहिर है कि मध्य प्रदेश में सरकार आंख बंद कर के नहीं बैठी है। हालांकि इसका कोई राजनैतिक अर्थ नहीं हैं मगर १९९३ से २००३ तक मध्य प्रदेश में आतंकवादियों और मुस्लिम खूनी संगठनो का असर लगातार बढ़ा। इसे आप संयोग कह सकते हैं कि इस दौरान प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने जब छापे मारे तो खरगौन जिले के झीरामिया गांव से अपार विस्फोटक और आधुनिक हथियार बरामद हुए। संयोग से यह गांव उस सोहराबुदीन शेख का घर है जिसको फर्जी मुठभेड़ में मारने के मामले में नरेंद्र मोदी की सरकार अब तक फंसी हुई है। यहां तो आधुनिक हथियार बनाने और देशी हथियारों को आधुनिक बनाने का बाकायदा एक अड्डा बन गया था।
चाहे आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो या फिर खुफिया संस्थाओं के गैरकानूनी अभियान, उनके भरण-पोषण का यह एक बड़ा आधार है। अब नशीले पदार्थों की तस्करी आम आपराधिक या तस्कर गिरोहों के हाथ में नहीं रही। खुफिया एजेंसियों और आतंकवादी संगठनों ने इस पर कब्जा कर लिया है। सासाराम और मोहनियां उत्तर भारत में ड्रग स्मगलिंग के पुराने केंद्र रहे हैं। यहां के ड्रग माफियाओं के तौर अफगानिस्तान और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया से जुड़े हैं। यहां से हेरोइन, मार्फिन आदि मुंबई के रास्ते अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचता है। उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल में पहली बार २००६ में चतरा जिले में अफीम की खेती की विधिवत शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में स्थानीय बाजारों में खपत के अलावा यहां की अफीम के खरीददार भी नेपाली माओवादी ही थे। ४० से ५० हजार रुपए किलो अफीम, एक लाख रुपए किलो ब्राउन शुगर और लाख-डेढ़ लाख रुपए प्रति किलो हेरोईन बेची जाने लगी।
ऐसे में प्रदेश सरकार को चौतरफा लड़ाई लडऩी पड़ रही है। यदि मादक पदार्थों की तस्करी और और उसके व्यवसाय को छोड़ भी दिया जाय तो माओवाद और अलगावादी ताकते चुनौती के रूप में सामने हैं। माओवादियों ने छत्तीसगढ़ सीमा के जिलों खास तौर पर बालाघाट में हथियार बनाने के कई अड्डे बना रखे हैं वहीं सिमी का जाल पूरे प्रदेश में फैल गया है। सिमी और माओवादियों को मदद देने वालो में भू माफिया और मालवा के मंदसौर इलाके से अफीम की तस्करी करने वाले लोग भी मोटी कीमत पर सहायता बेच रहे हैं। इनमें से कई सिमी और इंडियन मुजाहिद्दीन कार्यकर्ताओं पर अदालत में मुकदमे चल रहे हैं और ज्यादातर मामलों में गवाह सामने नहीं आ रहे हैं। इसीलिए मध्य प्रदेश सरकार ने महाराष्ट्र के मकोका की तर्ज पर मध्य प्रदेश में इन मामलों को जल्दी निपटाने के लिए विशेष अदालते बनाने के इरादे से एक विधेयक पारित तो कर लिया मगर केंद्र सरकार की सहमति अब तक नहीं मिल पाई है।
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