भ्रष्टाचार ऐसा दंश है जो देश के हर संवेदनशील, विवेकवान और विचारशील के मस्तिष्क को अक्सर अथवा यदा-कदा आंदोलित करता रहता है। देश की नौकरशाही भी इस प्रश्र से उद्वेलित है परंतु वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई है, क्योंकि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनेताओं ने अपना एक अलग विधान बना लिया है। जिससे सत्ता और सर्वजन का संतुलन बनाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। संतुलन के खेल में नेताओं के बजाए नौकरशाह मोहरा बन गए है। अगर कोई नौकरशाह राजनेता के सांचे में नहीं ढ़लता है तो सत्ता और संतुलन के संघर्ष में वह फुटबाल की तरह इस पोस्ट से उस पोस्ट के बीच घूमता रह जाता है। ऐसे में उसे मोहरा बनाने के अलावा और कोई चारा दिखता नहीं है।
भले ही प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया कहा जाता है लेकिन सत्ता के साथ संतुलन बनाने में वे इतने लचीले हो जाते हैं कि एक अंगूठा छाप मंत्री उन्हें अपने इशारे पर घुमाता रहता है। जबकि इस देश का नौकरशाह ईमानदार होने की दृढ़ इच्छाशक्ति प्रदर्शित करे तो वह देश का कायाकल्प कर सकता है।
देश की नौकरशाही ने नागरिक प्रशासन को अत्यधिक निराश किया है। इन्हें देश में श्रेष्ठ नागरिक प्रशासन के लिए चुना गया था लेकिन ये भी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से भी बदतर होते जा रहे हैं। इनकी कार्यप्रणाली इतनी बदनाम और ध्वस्त हो चुकी है कि उस पर जनसामान्य भी यकीन करने को तैयार नहीं है। देश के खजाने के अरबों रुपए इनकी ढपोरशंखी नीतियों और भ्रष्टाचार जनित रणनीतियों पर खर्च होते हैं। कुछ एक निम्न वर्ग की बात छोड़ दी जाए तो भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में समाज के सबसे संपन्न और प्रभुत्वशाली वर्गों के लोग ही आते रहे जो अपने संस्कारों से ही स्वयं को प्रभुवर्ग का समझते हैं। वे देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत और आम जनता की समस्याओं के प्रति कतई संवेदनशील नहीं होते। उनके अंदर यह भाव शायद ही कभी आता है कि एक लोकसेवक के रूप में उनका उत्तरदायित्व जनता की समस्याओं को प्रभावी रूप से दूर करने का प्रयास करना है। वे नहीं समझते कि देश के विकास की तमाम नीतियों और कार्यक्रमों को तैयार करने तथा उन्हें कार्यान्वित करने में सबसे अहम भूमिका उन्हीं की है।
अब तक की दस पंचवर्षीय योजनाओं में देश के विकास के नाम पर जनता से एकत्र किए गए राजस्व में से लाखों करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं, लेकिन बजट की अधिकांश धनराशि को नौकरशाह, राजनेता, माफिया और बिचौलिये ही हड़पते रहे हैं। आम जनता तक उनका पूरा लाभ नहीं पहुंच पाता है और देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी विकास की पटरी से बहुत दूर है।
यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। यह संभव भी नहीं है जब तक कि नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव नहीं आ जाता है। हालांकि नौकरशाही पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम मानते हैं कि राजनीतिक नियंत्रण हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता, सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें तो पाँच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है इसलिए वो बदलाव नहीं करते।
आलम यह है कि जिलों और विभागों में पदस्थ बेहतर और अनुभवी अधिकारियों को ताक में रखकर अधिकारियों की पदस्थापनाएं की जा रही है। इसके पीछे निष्ठा सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। यही कारण है कि अधिकांश विभागों में ऐसे अधिकारियों को बिठा दिया गया है जिन पर या तो भ्रष्टाचार के आरोप हैं अथवा वह किसी मंत्री या पदाधिकारी के खासम खास बने रहने का दावा करते हैं। सरकार द्वारा बनाई गई विशेष योजनाओं का लाभ से वंचित रह जाने का सबसे बड़ा कारण भी यही है कि कैडर में शामिल प्रशासनिक क्षमताओं से परिपूर्ण ऐसे अधिकारियों को वह स्थान नहीं मिल पाता है जिसके की वह हकदार हैं। ऐसे में भला यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उन योजनाओं का लाभ देश के उस तबके को भी मिलेगा जिसके खून पसीने की गढ़ी कमाई को हथियाने की गरज से अफसरशाह ईमानदारी का चोला ओढ़कर बैठे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो क्या आजाद भारत के लिए दुनिया के विकसित देशों के समकक्ष आने में ६५ वर्ष का समय कम है?
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