मध्यप्रदेश में कुछ स्वार्थ लोलुप डॉक्टरों द्वारा क्लीनिकल ट्रायल के नाम पर 30 दिन के बच्चे से लेकर 55 साल के प्रौढ़ पर देशी और विदेशी दवाओं का अवैधानिक तरीके से परीक्षण धड़ल्ले से किया जा रहा है। पिछले 15 वर्षों में डॉक्टरों ने इस गोरख धंधे से करोड़ों रुपए की संपत्ति अर्जित कर ली और बड़े-बड़े अस्पताल खोल लिए। यह सभी डॉक्टर प्रदेश के नामी गिरामी डॉक्टरों में गिने जाते हैं। मप्र की औद्योगिक राजधानी इंदौर में यह काम धड़ल्ले से चल रहा है। यहां के डॉक्टरों ने भी स्थानीय समाचार पत्रों में दिए अपने वक्तव्य में कहा है कि इस कार्य से उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए हैं, पर मामले का खुलासा होने पर ऐसा पता चला है कि कई छोटे बच्चे और उम्रदराज लोगों की जाने इस क्लीनिकल ट्रायल के दौरान जा चुकी है। जब इन डॉक्टरों से इस संबंध में बात की गई तो उन्होंने कहा कि हम मरीजों से लिखित अनुमति लेने के साथ ही उनका बीमा भी कराते हैं। पर जब बीमा कंपनियों से इस संदर्भ में बात की गई तो उन्होंने कहा कि इस तरीके का बीमा आज तक हमारी कंपनियों में नहीं हुआ। क्लीनिकल ट्रायल के लिए डॉक्टरों द्वारा अनपढ़ या कम पढ़े मरीजों को अंग्रेजी का फार्म देकर उनसे अंगूठा या हस्ताक्षर कराकर (सहमति पत्र) की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। जबकि कायदा यह है कि उस सहमति पत्र की एक कॉपी मरीज के पास भी होनी चाहिए। इस पूरे मामले में जहां केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलामनबी आजाद ने जांच के आदेश दे दिए हैं वहीं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच करने को कहा है। वहीं प्रदेश के स्वास्थ्य राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया ने कहा है कि एमसीआई के कानून के अनुसार यह ट्रायल चल रहा है तो हमें कोई आपत्ति नहीं। इस वक्तव्य से पता चलता है कि श्री हार्डिया को क्लीनिकल ट्रायल और उससे जुड़ी कानूनी जटिलता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। सच्चाई यह है कि एमसीआई को देश और प्रदेश में जारी इस तरह की दवा परीक्षण गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है।
वैसे तो देश के हर राज्य में क्लीनिकल ट्रायल के नाम पर आदिवासी और गरीब लोगों पर विदेशी दवाओं का परीक्षण धड़ल्ले से चल रहा है, लेकिन मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में उजागर हुआ है। वह भी उस मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जो मध्यप्रदेश को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर रहा है। शिवराज सिंह चौहान ने जब से मुख्यमंत्री का पदभार संभाला है तभी से उनकी प्राथमिकता में जनस्वास्थ्य रहा है। इसके लिए हर साल प्रदेश के कुल बजट में से 900 करोड़ रुपए स्वास्थ्य विभाग को आवंटित किया जाता है ताकि प्रदेश के दूर-दराज के इलाके तक हर एक व्यक्ति को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें। वहीं दूसरी तरफ इंदौर स्थित प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी मेडिकल कॉलेज में सरकारी सुविधा प्राप्त डॉक्टरों द्वारा शासन-प्रशासन और लोगों को अंधेरे में रखकर विदेशी दवाईयों के परीक्षण किए जाने का सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया हैै। हालांकि क्लीनिकल ट्रायल करने वाले डॉक्टर इसको जायज ठहराते हैं लेकिन ऐसे ही डाक्टरों की मनमानी का देश में हर साल हजारों लोग शिकार हो जाते हैं। कुछ मौत के मुंह में समा जाते हैं तो कुछ जीवनभर के लिए गंभीर बीमारी या अपंगता के शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के तहत मप्र में हर साल तकरीबन 20,000 लोगों पर विभिन्न प्रकार की दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है जिसमें से करीब 7500 लोग इसके विपरीत प्रभाव के शिकार हो रहे हैं और हजार के करीब तो मौत के मुंह में समा जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए डॉक्टरों ने किस तरह लोगों को गिनीपिग यानी परीक्षण की वस्तु या फिर यूं कहे कि बलि का बकरा बनाया है। जून 2006 से मार्च 2008 तक देश के सबसे बड़े चिकित्सकीय संस्थान एम्स में ऐसे ही एक ट्रायल के दौरान 48 बच्चों की मौत का मामला सामने आया था। जिसके बाद से ही स्वास्थ्य मंत्रालय ने कानूनों को और कड़े करने का निर्णय लिया था, लेकिन आज तक सब कुछ निर्बाध रूप से चल रहा है। जबकि आंध्र प्रदेश में ड्रग ट्रायल के दौरान छह बच्चों की मौत के बाद वहां ट्रायल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
किसी दवा या टीके को बाजार में उतारने से पहले उसके प्रभाव को पहले किसी जीव और बाद में मरीज पर प्रयोग करके देखना ड्रग ट्रायल है। इसके विपरीत प्रभाव से मरीज की जान का खतरा रहता है। लेकिन डाक्टरी की डिग्री मिलने के बाद से ही करोड़पति-अरबपति बनने का ख्वाब संजोए डाक्टर अनौतिक रूप से ऐसे कार्यों में जुट जाते हैं। हालांकि प्रदेश में यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भोपाल में गैस त्रासदी दौरान भी मरीजों पर कुछ दवाओं का परीक्षण किया गया था। गैस पीडि़तों को गिनी पिग बनाने का खुलासा गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार ने भी किया। उन्होंने बताया कि 24 अगस्त 2008 को भोपाल मेमोरियल हास्पिटल के निदेशक ने चार विभागों को पत्र लिखकर निर्देश दिए थे कि गैस पीडि़तों व अन्य मरीजों पर ट्रायल ड्रग का उपयोग बंद कर दिया जाए।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विकसित दवाओं का धोखे से परीक्षण करने के दौरान प्रदेश में एक महिला मरीज की जान जा चुकी है। जबलपुर के कैंसर अस्पताल में इस मरीज का उपचार चल रहा था। उधर, इंदौर के बाद भोपाल और ग्वालियर के सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में भी ड्रग ट्रायल की अनियमितताएं सामने आई हैं। जबलपुर में अगस्त 2008 में कैंसर रोगियों पर ड्रग ट्रायल शुरू हुआ था। रेडियोथेरेपी की प्रोफेसर डॉ. पुष्पा किरार और डॉ. अमित जोतवानी ने पेट के कैंसर (कार्टिनोमा स्टमक) के चार रोगियों पर दवा का प्रयोग शुरू किया था। चूंकि यह ट्रायल प्लेसिबो (इलाज के बीच में दवा बंद कर दूसरे मरीजों से तुलना करना) था, इसलिए एक महिला रोगी पर सारी दवाइयां बंद कर दी गई। इसी दौरान पीडि़त की मौत हो गई। गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल के सर्जरी एचओडी डॉ. एमसी सोनगरा और डॉ. नितिन वर्मा ने 08 में मूत्र रोग पीडित 40 लोगों पर कैडिला कंपनी की दवा का प्रयोग किया। उन्होंने अहमदाबाद की निजी एथिक्स कमेटी से मंजूरी ली। गाइडलाइन के मुताबिक यदि सरकारी कॉलेज में एथिक्स कमेटी हो, तो बाहर की कमेटी से अनुमति नहीं ली जा सकती है। वर्ष 2005 में ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट संशोधन के मुताबिक ट्रायल को मंजूरी देने वाली एथिक्स कमेटी में एक आम आदमी समेत पांच बाहरी व्यक्ति होना आवश्यक है। ग्वालियर के गजरा राजा मेडिकल कॉलेज में बनी कमेटी में दो लोग बाहरी हैं और इनमें भी आम आदमी नहीं है। यहां न्यूरो सर्जरी के डॉ. आयंगर, स्त्री रोग के डॉ. वी. अग्रवाल, मेडिसिन के डॉ. नवनीत अग्रवाल, धर्र्मेद्र तिवारी, चर्मरोग के डॉ. पीके सारस्वत और आर्थोपेडिक्स के डॉ. सिकरवार ने दस कंपनियों के ट्रायल किए गए। इसमें करीब 3500 रोगियों को चुना गया।
लेकिन इंदौर में तो डॉक्टरों ने हद ही कर दी। यहां के एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले मरीज यहां के डॉक्टरों की नजर में चूहे से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं। देशी-विदेशी दवा कंपनियों में निर्माणाधीन दवा और टीके मरीजों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं। पांच वर्ष में ही छह डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के नाम पर 1170 बच्चों समेत 1521 मरीजों पर प्रयोग करके दो करोड़ का कारोबार किया। सूत्रों के मुताबिक, कई ऐसी दवाओं के प्रयोग भी हो रहे हैं जिन्हें भारत सरकार से अनुमति नहीं है। वैसे तो निगरानी के लिए इथिकल कमेटी है, पर उसे दवाओं व कंपनियां के नाम की ही जानकारी दी जाती है। मरीज, राशि और हिसाब की जानकारी उसे कम ही होती है। मेडिकल कॉलेज ने राज्य सरकार को पूरी तरह अंधेरे में रखा है। सरकार को यह पता नहीं है कि उसके अस्पतालों में मरीजों पर प्रयोग के नाम डॉक्टर क्या कर रहे हैं, कितना कमा रहे हैं। यही नहीं निर्माणाधीन केमिकल फार्मूले (दवा) के मरीजों पर प्रयोग के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े तीन अस्पतालों में ऐसे दफ्तर खुले हैं, जो ड्रग ट्रायल के केंद्र हैं। इनमें करीब तीन दर्जन लोग काम करते हैं, जिन्हें ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टर ही तनख्वाह देते हैं। इन दफ्तरों में कम्प्यूटर, स्केनर, प्रिंटर के साथ ही फैक्स और अलग से लैंड लाइन फोन भी लगे हैं। इस सब कुछ के लिए किसी से भी इजाजत नहीं ली गई।
क्लीनिकल ट्रायल में विवाद का मुद्दा रहता है कि अधिकांश मरीज गरीब और अशिक्षित होते हैं और डॉक्टर्स अंग्रेजी के कंसर्न फार्म पर साइन लेते हैं। हालांकि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में डॉक्टरों ने हिंदी का सहमति पत्र दिया है। कई मरीजों को पता ही नहीं होता कि वे किसी शोध का हिस्सा है या ऐसी दवा ले रहे हैं जो ड्रग कंट्रोलर द्वारा इंडियन मार्केट में बेचने की अनुमति नहीं है। प्रदेश की औद्योगिक राजधानी में ड्रग ट्रायल सरकारी मेडिकल कॉलेज ही नहीं, प्राइवेट संस्थाओं में भी किए जा रहे हैं। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च के क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया की आधिकारिक वेबसाइट पर इंदौर शहर के 20 डॉक्टरों के नाम हैं जिनमें डॉ. राकेश तारन, पुष्पा वर्मा, अनिल भराणी, सुनील एम. जैन, हेमंत जैन, गोविंद मालपानी, अजय चौहान, सलिल भार्गव, राजेश जैन, प्रदीप भार्गव, गजेन्द्र भंडारी, अभय पालीवाल, उज्ज्वल सरदेसाई, रामगुलाम राजदान, अशोक वाजपेयी, प्रदीप मेहता, अतुल शेंडे, आरती कौल, एस.जेड. जाफरी, डॉ. राजेन्द्र मेहता हैं। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग और मेडिसिन विभाग में पांच साल में 40 क्लीनिकल ड्रग ट्रायल किए गए हैं। हालांकि इनमें से आठ-नौ ही इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च में पंजीबद्ध है। अब कॉलेज प्रशासन यह पता लगा रहा है डॉक्टरों ने इन ट्रायल्स का पंजीयन करवाया या नहीं? सरकारी डॉक्टरों के प्राइवेट अस्पतालों में नियमित जाने पर पाबंदी लगा रखी है। आकस्मिक स्थिति में भी डीन की अनुमति जरूरी है। इसको ठेंगा दिखाते हुए डॉक्टर प्राइवेट अस्पतालों में ड्रग ट्रायल भी कर रहे हैं। कई ने तो क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर प्राइवेट अस्पतालों के नाम के साथ खुद का रजिस्ट्रेशन करवा रखा है। इस पर कॉलेज प्रशासन मौन है। वहीं एमवाय अस्पताल अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव द्वारा ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर में खड़ा किया गया करोड़ों का ड्रग ट्रायल के कारोबार की जांच भोपाल के अधिकारी करेंगे। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के लचर रवैये को देखते हुए यह फैसला किया गया है। मनोरोग विभाग के डॉ. रामगुलाम राजदान, डॉ. अभय पालीवाल, डॉ. उज्जवल सरदेसाई और मेडिसीन के डॉ. अतुल शेंडे ने भी डॉ. भार्गव की तर्ज पर निजी अस्पतालों में जाकर ट्रायल के गोरखधंधे में व्यारे-न्यारे किए हैं।
मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों में से कुछ ने तो अस्पताल में ही ट्रायल किए और कॉलेज की एथिक्स कमेटी से इसकी बाकायदा अनुमति ली, लेकिन कुछ डॉक्टर्स ऐसे भी थे जिन्होंने प्राइवेट अस्पताल या क्लिनिक पर ट्रायल किए हैं। डॉक्टरों ने दवा का परीक्षण एमवायएच में न करते हुए बाहर किया ताकि किसी को पता न चले। शहर में मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर्स ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में प्राइवेट डॉक्टर्स भी मरीजों पर शोध के नाम पर ऐसी दवा का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ने भारतीय बाजार में बेचने की अनुमति नहीं दी है। अगर डीजीसीआई इन दवाओं को बेचने की अनुमति नहीं देता तो फिर इनका परीक्षण यहां के मरीजों पर क्यों किया जा रहा है?
जानकारी के अनुसार डॉक्टर्स जो भी शोध करते हैं तो उन्हें एथिक्स कमेटी की मीटिंग में मरीजों पर प्रयोग की गई दवा और उसके असर के बारे में भी बताना पड़ता है। कमेटी के सदस्यों को सारी जानकारी होना चाहिए। मीटिंग के मिनट्स में भी इसका जिक्र होता है। पिछले तीन सालों की बात करें तो स्वास्थ्य मंत्रालय के ड्रग डिवीजन ने करीब 689 ड्रग्स के क्लिनिकल ट्रायल को एनओसी दी है।
किसी भी दवा का ट्रायल जब शुरू किया जाता है तो देशभर के कई केंद्रों पर इनका परीक्षण करवाया जाता है। पर प्रदेश में भी न केवल सरकारी स्तर पर बल्कि प्राइवेट अस्पतालों और डॉक्टरों द्वारा धड़ल्ले से ट्रायल किए जा रहे हैं। इन पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मेडिकल कॉलेज की अलग एथिक्स कमेटी है, वहीं प्राइवेट अस्पतालों ने अलग कमेटी बनाई है। जो डॉक्टर्स किसी अस्पताल में नहीं जाते हैं, उन्होंने इसके लिए अलग एथिक्स कमेटी गठित की है। एथिक्स कमिटी के फार्मेशन व रजिस्ट्रेशन को लेकर क्या नियम है, ये किसी को भी नहीं पता। राज्य के स्वास्थ्य विभाग को भी इसकी जानकारी नहीं है। एमजीएम मेडिकल कॉलेज में क्लिनिकल ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों ने जो जवाब भेजा है, वह चौंकाने वाला है। डॉक्टरों ने कहा है औषधि अनुसंधान पढ़ाई का हिस्सा है, जबकि मेडिकल कॉलेज में ट्रायल किए जा रहे हैं। अनुसंधान और ट्रायल में फर्क होता है। जानकारों के मुताबिक मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के पोस्ट ग्रेजुएट रेगुलेशन में इस बात का उल्लेख नहीं है कि ड्रग ट्रायल पढ़ाई का हिस्सा है। अगर ये एकेडमिक विषय है तो प्रदेश के अन्य चार मेडिकल कॉलेजों में यह ड्रग ट्रायल क्यों नहीं किए जा रहे? सूत्रों के अनुसार कुछ साल पहले फिजियोलॉजी विभागाध्यक्ष ने छात्रों द्वारा शोध के नाम पर दिए गए ड्रग ट्रायल को लेने से मना कर दिया था। अनुसंधान किसी बीमारी या अणु पर एकत्रित की गई जानकारी होती है। इसके लिए डाटा इक_ा किए जाते हैं जबकि ट्रायल का सीधा अर्थ है परीक्षण करना। विदेशों में शोध के बाद बनाई गई दवाइयों का परीक्षण शहर में धड़ल्ले से किया जा रहा है। एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में पांच वर्ष से जारी ड्रग ट्रायल की पूरी जानकारी 500 से अधिक पन्नों में पूरी हुई। यह जानकारी भोपाल भेजी गई है, जिसे विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा। बरसों से एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ड्रग ट्रायल हो रहा है और सरकार को इसकी रत्तीभर भी जानकारी नहीं थी। हालांकि प्रदेशभर में डॉक्टरों के बीच इस बात को लेकर चर्चा थी। सूत्र बताते हैं कि इस गोरखधंधे की पोल उस समय खुली जब कुछ मरीजों ने अपने ऊपर की गई दवाओं के परीक्षण की बात कुछ सहृदयी डॉक्टरों से की। बात निकली तो धीरे-धीरे आगे बढ़ी और शिकायत पहुंच गई रतलाम के विधायक पारस सखलेचा और सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल के पास। दोनों विधायकों ने ड्रग ट्रायल का मामले को गंभीरता से लेते हुए विधानसभा में सवाल पूछा तो मामले में लिप्त सभी डॉक्टरों के कान खड़े हो गए। सूत्रों की माने तो विधानसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में कॉलेज ने जानकारी भेजी कि शिशु रोग और मेडिसिन विभाग में 20-20 ट्रायल हुए हैं। इनमें कॉलेज से संबद्ध चाचा नेहरू अस्पताल में तो सारे ट्रायल डॉ. हेमंत जैन के नाम पर हैं। वे ही सारे ट्रायल के प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर रहे, वहीं मेडिसिन में डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. सलील भार्गव, डॉ. संजय अवासिया, डॉ. अनिल भराणी आदि ने ट्रायल किए। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े सूत्रों की माने तो भारत में अधिकतर उन्ही विदेशी दवाओं का ट्रायल होता है जिन्हें किसी अन्य देश ने ट्रायल करने की अनुमति नहीं मिल पाती है। यही कारण है कि क्लीनिकल ट्रायल या क्लीनिकल रिसर्च (चिकित्सीय अनुसंधान) कारोबार में भारत अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वी चीन से भी आगे बढ़ गया है। देश की लचर स्वास्थ्य प्रणाली और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते आउटसोर्स किए गए चिकित्सकीय परीक्षणों का बाजार आज 2 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। गौरतलब है कि आम हिंदुस्तानी का बड़ी-बड़ी कंपनियों की दवाइयों के लिए गिनीपिग बनने का सिलसिला नया नहीं है।
गौरतलब है कि स्वाथ्य क्षेत्र में कोई नई दवा लोगों के लिए कितनी सुरक्षित है और कितनी प्रभावी है, इसके आंकड़े हासिल करने के लिए क्लीनिकल ट्रायल किया जाता है। किसी देश में यह परीक्षण करने के लिए पहले वहां स्वास्थ्य क्षेत्र की नियामक संस्था या सदाचार समिति से मंजूरी लेनी पड़ती है। भारत में कोई जब किसी दवा का क्लीनिकल ट्रायल करना चाहता है तो उसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद से जुड़ी संस्था नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल स्टेटिस्टिक्स में इसकी रजिस्ट्री करवानी पड़ती है। उसे किसी मरीज पर इस दवा के परीक्षण से पहले डब्ल्यूएचओ के आईसीटीआरपी के मानक के अनुसार कई तरह की जानकारियां देनी पड़ती हैं। इसके साथ ही उसे भारतीय संदर्भ के लिए प्रासंगिक कई जानकारियां भी देनी होती हैं जैसे सदाचार समिति से मंजूरी मिली है या नहीं, डीसीजीआई से मंजूरी मिली है या नहीं आदि। देश में क्लीनिकल ट्रायल का कारोबार तेजी से बढऩे के बावजूद उसका फायदा घरेलू दवा कंपनियां नहीं उठा पा रही हैं। इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है क्लीनिकल ट्रायल के वास्ते ली जाने वाले फीस के लिए कोई मानक का न होना। इस वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के योग्य डॉक्टरों को भारी-भरकम राशि देकर अपनी ओर खींचने में सफल हो जाती हैं जिसका सीधा असर देश में दवा उद्योग के रिसर्च कार्ये पर पड़ रहा है।
विडंबना यह है कि डाक्टरों को दी जाने वाली फीस पर सरकारी नियंत्रण का कोई इंतजाम नहीं है और न ही कोई योजना है। इसी वजह से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां योग्य डाक्टरों को काफी अधिक फीस दे रही हैं और वे छोटी कंपनियों की पहुंच से बाहर हो रहे हैं। मेट्रो शहरों में बड़े डाक्टर क्लीनिकल ट्रायल के वास्ते मरीज को रजिस्टर कराने के लिए दो लाख रुपये प्रति मरीज ले रहे हैं। ऐसे में छोटी कंपनियां बड़े शहरों को छोड़ छोटे शहरों में कम पैसों पर डाक्टरों से क्लीनिकल ट्रायल करवा रही हैं। भारत के दवा महानियंत्रक (डीसीजीआई) के सूत्रों ने बताया कि सरकार क्लीनिकल ट्रायल करने के तरीके पर पूरी नजर रख रही है। लेकिन इसके लिए डाक्टर से तय की जाने वाली फीस पर नियंत्रण करने की योजना पर सरकार अभी कुछ नहीं सोच रही है।
उनका कहना है कि अधिकतर नए मॉलिक्यूल्स बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ही तैयार किए जाते हैं, उनकी लागत भी काफी आती है और ट्रायल के लिए डाक्टर को ये कंपनियां फीस भी अधिक देती हैं। डीसीजीआई का मानना है कि क्लीनिकल ट्रायल के लिए फीस लेना-देना डाक्टर और कंपनी के बीच का मामला है। हालांकि, उनका कहना है कि इसके लिए कोई नियामक बनाने के बजाय डाक्टरों को ही तय करना होगा कि कितना पैसा जायज है। सरकारी संस्थाओं में क्लीनिकल ट्रायल करवाने के लिए काफी मानकों को पूरा करना होता है, इसलिए कंपनियां क्लीनिकल ट्रायल के लिए प्राइवेट डाक्टरों और कॉरपोरेट अस्पतालों को ही अहमियत देती हैं। लेकिन इंदौर में डाक्टरों ने इसके विपरीत कार्य किया है। उधर इस मामले में सीटीआरआई (क्लीनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया) की संचालक आभा अग्रवाल का कहना है कि अब क्लीनिकल ट्रायल का रजिस्ट्रेशन सीटीआरआई में होने लगा है। अभी तक हमारे यहां करीब 1152 ट्रायल रजिस्टर्ड हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या राज्यवार ट्रायल का विवरण भी आपके पास हैं तो उन्होंने कहा कि इस विभाग की अभी-अभी स्थापना हुई है इसलिए हमारे पास अभी पूरा सेटअप नहीं है। सीटीआरआई की संचालक के इस कथन से ही अंदाज लगाया जा सकता है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय लोगो के स्वास्थ्य के लिए कितना तत्पर है?
उल्लेखनीय है कि क्लीनिकल ट्रायल मामले में बॉयोमेडिकल रिसर्च ऑन ह्यïयूमन सब्जेक्ट (रेगुलेशन एंड प्रमोशन) बिल 2006 में तैयार किया था। जिसको सरकार ने स्वीकृत भी कर लिया था लेकिन वह पिछले 4 सालों से लटका हुआ था, लेकिन इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के महानिदेशक डॉ. व्हीएम कचोट ने इसे गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय के पास फाइनल टच के लिए भेजा। यह बिल संशोधित होकर संसद के इसी सत्र में पटल पर रखा जाएगा। ताकि इस बिल में कानूनी खामियों को दूर किया जा सके।
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