शुक्रवार, 21 मार्च 2014

प्रेशर पॉलिटिक्स के सहारे दिग्विजय!

मप्र से दिग्गी की बिदाई के बाद अब समर्थकों को भी किया जा रहा किनारे
भोपाल। मप्र की राजनीति में दिग्विजय सिंह को ऐसा अमीबा कहा जाता है जिसे जितना काटो-छांटो वह उतना अधिक फलता-फूलता है। लेकिन पिछले तीन-चार माह में घटे राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर डाली जाए तो हम पाते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री अपने दौर के सबसे बुरे समय को जी रहे हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान जिस तरह से उनकी और उनके समर्थकों की उपेक्षा शुरू हुई है, उसने टीम दिग्गी को अंदर से हिला कर रख दिया है। फिलहाल दिग्गी के पास अब सिर्फ प्रेशर पॉलिटिक्स का सहारा ही बचा है, वो भी उनके समर्थकों के जरिए। लेकिन फिलहाल उनका बस चलता दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल, गुटबाजी की शिकार कांग्रेस अभी भी इस बीमारी से उबर नहीं पाई है। इसके चलते पहले जहां विधानसभा चुनावों में जहां उसे सत्ता गंवानी पड़ी वहीं लोकसभा सिर पर होने के बाद भी ये समस्या हल नहीं हो पा रही है। इस समय बड़े नेताओं की कांग्रेस छोडऩे की अफवाहें गर्म हैं। भागीरथ प्रसाद ने जिस तरह से ऐन मौके पर धोखा दिया है, उसके बाद संभावना बनी हुई है कि कुछ और नेता भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं। हालांकि धुंधली छंट रही है, उम्मीद कम ही है कि कोई बड़ा नाम अब भाजपा का दामन थामेगा। उसके पीछे वजहें हैं, जिस तरह से दिग्गी और उनके समर्थकों को पार्टी ने किनारे किया है। उनके अंदर बौखलाहट बढ़ गई है या कहें कि उनके लिए पार्टी के अंदर राजनीतिक जीवन बचाने की चुनौती खड़ी हो गई है। इसी चुनौती की वजह से दिग्गी समर्थकों ने एक साथ हल्ला बोल दिया। एक तरफ जहां गोविंद सिंह का भाजपा में जाने की अफवाह उड़ी तो वहीं आरिफ अकील और अजय सिंह ने पार्टी पर जोरदारी से हमला बोला। मतलब साफ थे, पार्टी के अंदर ही अपना वजूद दिखाने की कोशिश भर थी।
भागीरथ प्रसाद के कांग्रेस छोडऩे से लेकर गोविंद सिंह और आरिफ अकील की नाराजगी तक हर घटना के तार कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से जुड़ रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस में जो बदलाव हुआ वह दिग्विजय और उनके समर्थकों के अनुकूल नहीं है। नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक हैं और अरुण यादव भी सिंधिया से ग्रीन सिग्नल के बाद ही प्रदेशाध्यक्ष बने हैं। इससे पहले इन दोनों पदों पर दिग्विजय गुट का ही कब्जा था। कांतिलाल भूरिया और अजय सिंह दोनों ही दिग्विजय के करीबी थे। शायद यही वजह है कि दिग्विजय के समर्थक या तो प्रदेश नेतृत्व पर उंगली उठा रहे हैं या पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं।
नहीं कर पा रहे समर्थकों की मदद
कांग्रेस के भीतर लोग इस बात को मान रहे हैं कि दिग्विजय अब अपने समर्थकों की मदद नहीं कर पा रहे हैं। पूर्व आईएएस अफसर भागीरथ प्रसाद दिग्विजय सिंह से जुड़े हुए थे। वे यह बात समझ गए थे कि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया की मर्जी के बिना कांग्रेस की राजनीति संभव नहीं है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह सीधी से टिकट चाह रहे थे, लेकिन वहां से इंद्रजीत पटेल को उम्मीदवार बनाया गया है। इंद्रजीत इन दिनों सिंधिया के साथ हैं। सत्यदेव कटारे को 'हिटलरÓ कहने वाले गोविंद सिंह दिग्विजय समर्थक हैं, वे लोक लेखा समिति के अध्यक्ष नहीं बन पाए।
रीवा से सपा ने जिन पूर्व मंत्री राजमणि पटेल को उम्मीदवार घोषित कर दिया, वे भी दिग्विजय समर्थक हैं। अंतिम समय में पटेल सपा में जाने से मुकर गए, लेकिन उनकी नाराजगी की बात सामने आ ही गई। दिग्विजय के गृह क्षेत्र राजगढ़ से पहली सूची में उम्मीदवार घोषित न होना भी इस बात की पुष्टि करता है कि दिग्विजय की मर्जी के फैसले नहीं हो रहे। बताया जाता है कि दिग्विजय यहां से आमलावे को उम्मीदवार बनाने के पक्ष में नहीं हैं, जबकि इस क्षेत्र में करीब पौने तीन लाख मतदाता सौंधिया समाज के हैं।
बात यहीं खत्म नहीं होती विदिशा से टिकट न मिलने पर पार्टी छोडऩे वाली सीहोर जिला महिला कांग्रेस अध्यक्ष उषा सिंह चौहान भी दिग्विजय समर्थक हैं। भोपाल से दिग्विजय समर्थक पीसी शर्मा भी कटारे के ग्रीन सिग्नल के बाद ही टिकट पाने में सफल हो पाए हैं, लेकिन इससे दिग्विजय के दूसरे समर्थक आरिफ अकील नाराज हो गए हैं। वे खुले आम नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे को नौसिखिया कह रहे हैं।
किंतु सच्चाई अब यह है कि बीते दिनों कांग्रेस ने उन्हीं दिग्विजय सिंह को उनके गृह राज्य मप्र से ही राज्यसभा का सांसद बनाया है। सवाल है कि समय के इस पड़ाव पर आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से दिग्विजय सिंह को भी अब संसद के उसी कथित पीछे के दरवाजे से जाना पड़ गया है। लेकिन यह जानने से पहले यह जानना दिलचस्प रहेगा कि दिग्विजय सिंह की राजनीति क्या है? राज्यसभा में सांसद बनने की हालिया घटना के ठीक पहले तक भी वे यही कहते रहे कि सागर, इंदौर और विदिशा लोकसभा सीट में से किसी एक से चुनाव लडेंगे। गौर करें तो सागर लोकसभा सीट का एक बड़ा हिस्सा राघौगढ़ रियासत के अधीन आता था। लिहाजा दिग्विजय सिंह के अति विश्वसनीय समर्थकों ने सागर संसदीय क्षेत्र में चुनाव की तैयारी शुरू भी कर दी थी। लेकिन नतीजा दिग्विजय सिंह के कथन से ठीक उलट ही आया। और आखिर पहली दफा कांग्रेस ने उन्हें चुनावी राजनीति के फेर में पडऩे की बजाय राज्यसभा के लिए चुन लिया।
इस पूरी सियासी पैंतरेबाजी के बीच दिग्विजय सिंह की राज्यसभा टिकट की यदि पड़ताल की जाए तो साफ होता है कि जैसा दिखता है वैसा है नहीं। यहां यह बात अहम नहीं है कि दिग्विजय सिंह क्या चाहते है। और न ही यह सवाल जायज है कि जैसा वे चाहते हैं वैसा पाने की हैसियत उनकी है या नही। बुनियादी सवाल यह है कि पार्टी उनका उपयोग किस प्रकार करना चाहती है। और दिग्विजय सिंह क्या उसके अनुरुप खुद को ढाल पाएंगे? पुराने तजुर्बे देंखे तो सिंह जैसे परिपक्व नेता जानते हैं कि पार्टी की लाइन असल में तलवार की ऐसी धार होती है जिससे फिसलते ही उनका कटना तय है। वे जानते हैं कि पार्टी हाइकमान नहीं चाहता कि दिग्विजय सिंह मप्र की राजनीति में सक्रिय दिखे। और यही वजह है कि खुद दिग्विजय सिंह भी सालों से यही दोहरा रहे हैं कि वे केंद्र की राजनीति में ही रहेंगे। यह सच है कि गृहराज्य होने की वजह से पार्टी के हर निर्णय के पीछे यहां उनकी भूमिका तलाशी जाती है। यह भी सच है कि उनके धुर समर्थक और विरोधी सियासी नफा-नुकसान के लिए उनका नाम मप्र की राजनीति में बार-बार घसीट लाते हैं। लेकिन दिग्विजय सिंह इस मामले में हमेशा से यह सर्तकता बरत रहे हैं कि यदि उन्होंने मप्र की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने में दिलचस्पी दिखायी तो यह उनके भविष्य की राजनीति के लिए ठीक नहीं रहेगा। यही वजह है कि बीते दस सालों से पार्टी ने भी उन्हें राज्य की राजनीति में कभी निर्णायक भूमिका नहीं सौंपी। 2008 का विधानसभा चुनाव जहां सुरेश पचौरी के नेतृव्य में लड़ा गया वहीं 2013 का चुनाव ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे करके लड़ा गया। 2013 के ही चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में उन्होंने सिंधिया के पीछे बैठते हुए यही जताना चाहा कि राज्य की राजनीति में या तो वे पीछे बैठे हुए हैं या उन्हें पीछे ही बैठाया गया है। और अब जबकि उन्हें राज्यसभा से चुना गया है तो सीधी-सी बात है कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर ही उनकी भूमिका तय की है।
दूसरी बात यह है कि हाइकमान के काफी निकट होने की वजह से दिग्विजय सिंह जैसे सधे हुए नेता जानते हैं कि पार्टी का अगला कदम क्या होगा। उनका अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़ विधानसभा सीट से लड़ाने के साथ ही यह स्पष्ट हो चुका था कि अब उनके लिए मप्र में कोई बड़ी संभावना नहीं बची है। दरअसल सभी दलों ने खास तौर से युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए कई प्रकार की मुहिम चलायी हुई हैं। ऐसे में राहुल गांधी ने मप्र में भी युवा नेतृव्य को ही मौका दिया है। यही वजह है कि उन्होंने खंडवा से युवा सांसद अरूण यादव को जहां पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है वहीं कई बुजुर्ग विधायकों की मौजूदगी के बावजूद सत्यदेव कटारे को नेता प्रतिपक्ष बनाया है। जाहिर है कि लोकसभा का चुनाव पार्टी युवाओं को आगे करके लडऩा चाहती है। और इसीलिए हाइकमान ने दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाना मुनासिब समझा। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के काफी पहले ही दिग्विजय सिंह ने भी अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राजनीति में लाने का रास्ता साफ कर दिया था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक पदाधिकारी के मुताबिक, 'सिंह के विरोधियों ने राहुल गांधी तक ऐसी बातें पहुंचा दी थीं कि जब तक राज्य में सिंह जैसे बरगद रहेंगे तब तक पार्टी के भीतर नये पौधे पनप पहीं पाएंगे।Ó इसीलिए हाइकमान ने सिंह को राज्यसभा में ससम्मान ले जाकर उनकी जिम्मेदारी बढ़ा दी है।
वहीं दिग्विजय सिंह के राज्यसभा में जाने के कुछ अलग मायने भी हैं। जैसा कि वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरजा शंकर बताते हैं कि भाजपा और कांग्रेस सहित सभी दलों में अब यह परंपरा-सी बन गई है कि जो नेता पार्टी के लिए अनिवार्य हैं उन्हें राज्यसभा से चुन लिया जाए। वहीं जिन नेताओं के बिना भी पार्टी का काम चल सकता है उन्हें लोकसभा से लडऩे का मौका दिया जाए। यदि वे लोकसभा चुनाव जीतकर संसद तक पहुंचे तो अच्छी बात है, अन्यथा कोई बात नहीं। यदि भाजपा में ही देंखे तो अरूण जेटली और वेंकैया नायडू के अलावा राज्यसभा से पहुंचाये गए कई जरूरी नेताओं की एक लंबी सूची मिलेगी। गिरजा शंकर के मुताबिक, 'यदि दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाया गया है तो सीधी बात है कि बाकी नेताओं के मुकाबले पार्टी में उनका महत्व अधिक है। साथ ही इसका मतलब यह भी है कि पार्टी के लिए अब वे एक अनिवार्य नेता भी बन चुके हैं।Ó इसके इतर देखा जाए तो कांग्रेस की तरफ से उनके पास कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों का प्रभार भी है। कर्नाटक में कांग्रेस की जहां नई-नवेली सरकार बनी है वहीं तेलंगाना राज्य की मांग के चलते आंध्र प्रदेश अत्यंत संवेदनशील राज्य बन चुका है। जाहिर है कि मप्र के बाहर ही दिग्विजय सिंह के कंधों पर पहले से ही इतनी अधिक जिम्मेदारियां डाल दी गई हैं कि उन्हें निभाना ही अपनेआप में बड़ी चुनौती रहेगी।

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