इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि पर फैसला देते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया है। राम चबूतरा और सीता रसोई दोनों निर्मोही अखाड़ा को दे दिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ वकील रविशंकर प्रसाद ने बताया कि तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन ह्स्सिों में बांटा जाएगा। उसका एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है हिंदुओं को मंदिर के लिए) दिया जाएगा। दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच की जस्टिस डी. वी. शर्मा, जस्टिस एस. यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल की बेंच ने इस मामले में अपना फैसला कोर्ट नंबर 21 में दोपहर 3.30 बजे से सुनाना शुरू कर दिया। मीडियाकर्मियों को अदालत जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। बाद में डीसी ऑफिस में बनाए गए मीडिया सेंटर में मीडियाकर्मियों को तीनों जजों के फैसलों की सिनॉप्सिस दी गई। यह फैसला बेंच ने बहुमत से दिया। दो जज - जस्टिस एस.यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल - ने कहा कि जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए। जस्टिस डी.वी. शर्मा की राय थी कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की जरूरत नहीं है। वह पूरी जमीन हिंदुओं को देने के पक्ष में थे।
गौरतलब है कि हाईकोर्ट को 24 सितंबर को ही फैसला सुना देना था, लेकिन पूर्व नौकरशाह रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 23 सितंबर को निर्णय एक हफ्ते के लिए टाल दिया था। याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने त्रिपाठी की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद हाई कोर्ट के फैसले सुनाने का रास्ता साफ हुआ।. अर्से पुराने मुद्दे का दोनों समुदायों के बीच बातचीत से कोई हल नहीं निकल सका। पूर्व प्रधानमंत्रियों- पी. वी. नरसिम्हा राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर ने भी इस मुद्दे के बातचीत से निपटारे की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।
हालांकि, उस जमीन पर विवाद तो मध्ययुग से चला आ रहा है लेकिन इसने कानूनी शक्ल वर्ष 1950 में ली। देश में गणतंत्र लागू होने से एक हफ्ते पहले 18 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर रखी गईं मूर्तियों की पूजा का अधिकार देने की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया था।
तब से चली आ रही इस कानूनी लड़ाई में बाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर अनेक पक्षकार शामिल हुए। अदालत ने इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के सैकड़ों गवाहों का बयान लिया। अदालत में पेश हुए गवाहों में से 58 हिन्दू पक्ष के, जबकि 36 मुस्लिम पक्ष के हैं और उनके बयान 13 हजार पन्नों में दर्ज हुए।
हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए वर्ष 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ( एएसआई ) से विवादित स्थल के आसपास खुदाई करने के लिए कहा था। इसका मकसद यह पता लगाना था कि मस्जिद बनाए जाने से पहले उस जगह कोई मंदिर था या नहीं। हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुई खुदाई मार्च में शुरू होकर अगस्त तक चली।
इस विवाद की शुरुआत सदियों पहले सन् 1528 में मुगल शासक बाबर के उस स्थल पर एक मस्जिद बनवाने के साथ हुई थी। हिंदू समुदाय का दावा है कि वह स्थान भगवान राम का जन्मस्थल है और पूर्व में वहां मंदिर था। विवाद को सुलझाने के लिए तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने वर्ष 1859 में दोनों समुदायों के पूजा स्थलों के बीच बाड़ लगा दी थी। इमारत के अंदर के हिस्से को मुसलमानों और बाहरी भाग को हिन्दुओं के इस्तेमाल के लिए निर्धारित किया गया था। यह व्यवस्था वर्ष 1949 में मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्ति रखे जाने तक चलती रही।
उसके बाद प्रशासन ने उस परिसर को विवादित स्थल घोषित करके उसके दरवाजे पर ताला लगवा दिया था। उसके 37 साल बाद एक याचिका पर वर्ष 1986 में फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज ने वह ताला खुलवा दिया था
समय गुजरने के साथ इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। वर्ष 1990 में वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए एक रथयात्रा निकाली, मगर उन्हें तब बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया गया था। केंद्र में उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी। 31 अक्टूबर 1990 को बड़ी संख्या में राम मंदिर समर्थक आंदोलनकारी अयोध्या में आ जुटे और पहली बार इस मुद्दे को लेकर तनाव, संघर्ष और हिंसा की घटनाएं हुईं।
सिलसिला आगे बढ़ा और 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवा करने के लिए जुटी लाखों लोगों की उन्मादी भीड़ ने वीएचपी, शिव सेना और बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। प्रतिक्रिया में प्रदेश और देश के कई भागों में हिंसा हुई, जिसमें लगभग दो हजार लोगों की जान गई। उस समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में पी. वी. नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार थी। हालांकि, इस बार अदालत का फैसला आने के समय वर्ष 1990 व 1992 की तरह कोई आंदोलन नहीं चल रहा था, बावजूद इसके सुरक्षा को लेकर सरकार की सख्त व्यवस्था के पीछे कहीं न कहीं उन मौकों पर पैदा हुई कठिन परिस्थितियों की याद से उपजी आशंका थी।
अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी पहला मुकदमा वर्ष 1950 में गोपाल सिंह विशारद की तरफ से दाखिल किया गया , जिसमें उन्होंने वहां रामलला की पूजा जारी रखने की अनुमति मांगी थी। दूसरा मुकदमा इसी साल 1950 में ही परमहंस रामचंद्र दास की तरफ से दाखिल किया गया , जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया। तीसरा मुकदमा 1959 में निर्मोही अखाड़े की तरफ से दाखिल किया गया, जिसमें विवादित स्थल को निर्मोही अखाड़े को सौंप देने की मांग की गई थी। चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड की तरफ से दाखिल हुआ और पांचवां मुकदमा भगवान श्रीरामलला विराजमान की तरफ से वर्ष 1989 में दाखिल किया गया। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता की अर्जी पर चारों मुकदमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में स्थानांतरित कर दिए गए थे।
अयोध्या विवाद: 1528 से लेकर 2010 तक
अयोध्या में विवादित भूमि का मुद्दा शताब्दियों से एक भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है और इसे लेकर विभिन्न हिन्दू एवं मुस्लिम संगठनों ने तमाम कानूनी वाद दायर कर रखे हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर इतिहास एवं घटनाक्रम इस प्रकार है :-
1528: मुगल बादशाह बाबर ने उस भूमि पर एक मस्जिद बनवाई, जिसके बारे हिन्दुओं का दावा है कि वह भगवान राम की जन्मभूमि है और वहां पहले एक मंदिर था।
1853: विवादित भूमि पर सांप्रदायिक हिंसा संबंधी घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज पहला प्रमाण।
1859: ब्रिटिश अधिकारियों ने एक बाड़ बनाकर पूजास्थलों को अलग अलग किया। अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों को दिया गया और बाहरी हिस्सा हिन्दुओं को।
1885: महंत रघुवीर दास ने एक याचिका दायर कर राम चबूतरे पर छतरी बनवाने की अनुमति मांगी, लेकिन एक साल बाद फैजाबाद की जिला अदालत ने अनुरोध खारिज कर दिया।
1949: मस्जिद के भीतर भगवान राम की प्रतिमाओं का प्राकट्य। मुस्लिमों का दावा कि हिन्दुओं ने प्रतिमाएं भीतर रखवाई। मुस्लिमों का विरोध। दोनों पक्षों ने दीवानी याचिकाएं दायर की। सरकार ने परिसर को विवादित क्षेत्र घोषित किया और द्वार बंद कर दिए।
18 जनवरी 1950: मालिकाना हक के बारे में पहला वाद गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया। उन्होंने मांग की कि जन्मभूमि में स्थापित प्रतिमाओं की पूजा का अधिकार दिया जाए। अदालत ने प्रतिमाओं को हटाने पर रोक लगाई और पूजा जारी रखने की अनुमति दी।
24 अपैल 1950: यूप राज्य ने लगाई रोक। रोक के खिलाफ अपील।
1950: रामचंद्र परमहंस ने एक अन्य वाद दायर किया, लेकिन बाद में वापस ले लिया।
1959: निर्मोही अखाड़ा भी विवाद में शामिल हो गया तथा तीसरा वाद दायर किया। उसने विवादित भूमि पर स्वामित्व का दावा करते हुए कहा कि अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर हटाया जाए। उसने खुद को उस स्थल का संरक्षक बताया जहां माना जाता है कि भगवान राम का जन्म हुआ था।
18 दिसंबर 1961: यूपी सुन्नी सेन्ट्रल बोर्ड आफ वक्फ भी विवाद में शामिल हुआ। उसने मस्जिद और आसपास की भूमि पर अपने स्वामित्व का दावा किया।
1986: जिला जज ने हरिशंकर दुबे की याचिका पर मस्जिद के फाटक खोलने और की अनुमति प्रदान की। मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।
1989: वीएचपी के उपाध्यक्ष देवकी नंदन अग्रवाल ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक ताजा याचिका दायर करते हुए मालिकाना हक और स्वामित्व भगवान राम के नाम पर घोषित करने का अनुरोध किया।
23 अक्तूबर 1989 : फैजाबाद में विचाराधीन सभी चारों वादों को इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच में स्थानांतरित किया गया।
1989 : वीएचपी ने विवादित मस्जिद के समीप की भूमि पर राममंदिर का शिलान्यास किया।
1990: वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने मस्जिद को आंशिक तौर पर क्षतिग्रस्त किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत के जरिए विवाद का हल निकालने का प्रयास किया।
6 दिसंबर 1992 : विवादित मस्जिद को वीएचपी, शिवसेना और बीजेपी के समर्थन में हिन्दू स्वयंसेवकों ने ढहाया। इसके चलते देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिनमें 2000 से अधिक लोगों की जान गई।
16 दिसंबर 1992: विवादित ढांचे को ढहाये जाने की जांच के लिए जस्टिस लिब्रहान आयोग का गठन। 6 माह के भीतर जांच खत्म करने को कहा गया।
जुलाई 1996 : इलाहाबाद हाई कोर्च ने सभी दीवानी वादों पर एकसाथ सुनवाई करवाने को कहा।
2002: हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से खुदाई कर यह पता लगाने को कहा कि क्या विवादित भूमि के नीचे कोई मंदिर था।
अपैल 2002: हाई कोर्च के 3 न्यायाधीशों ने सुनवाई शुरू की।
जनवरी 2003 : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अदालत के आदेश पर खुदाई शुरू की ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वहां भगवान राम का मंदिर था।
अगस्त 2003 : सर्वेक्षण में कहा गया कि मस्जिद के नीचे मंदिर होने के प्रमाण। मुस्लिमों ने निष्कर्षों से मतभेद जताया।
जुलाई 2005: संदिग्ध इस्लामी आतंकवादी ने विवादित स्थल पर हमला किया। सुरक्षा बलों ने 5 आतंकियों को मारा।
जून 2009 : लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच शुरू करने के 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस बीच आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।
26 जुलाई 2010: इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने वादों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा। फैसला सुनाने की तारीख 24 सितंबर तय की।
अयोध्या : कुछ यूं चला देश का सबसे बड़ा मुकदमा
आजादी मिलने और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद की यह घटना है। आजाद भारत में 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में कथित रुप में रामलला प्रकट हुए। सुबह इसकी जानकारी सिपाही माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज रामदेव दुबे को दी। 29 दिसंबर 1949 को आईपीसी की धारा 145 के तहत इसे कुर्क कर लिया गया। इस समय तक भारत पाकिस्तान में आबादी का बंटवारा जारी था, जिसका असर उत्तर प्रदेश के अवध में बेहद कम था। अयोध्या अवध क्षेत्र में है।
अयोध्या विवाद के फैसले के पहले यह जानना जरूरी है कि वास्तव में कानूनी लड़ाई किन लोगों के बीच और किन बिन्दुओं पर है। अयोध्या विवाद आजादी के बाद की मुकदमेबाजी का दिलचस्प और बेहद जटिल नमूना है। अयोध्या मामले में कितने पक्षकार है और कितने मुकदमे है। इसके लिए हमें उन पांच मुकदमो के बारे में जानना होगा जिन पर फैसला सुनाया जाना है। अयोध्या मामले में जिन मुकदमो पर फैसला सुनाया जाना है वे है 1/1989 , 3/1989 , 4/1989, 5/1989 । ये नंबर नए है यानी 1989 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में तीन न्यायधीशों की विशेषखंड पीठ के गठन के बाद दिए गए है। फिर से बता दे कि केस नंबर या 2/1989 वापस हो चुका है, लेकिन विशेष खंडपीठ की सूची में क्रम नहीं बदला गया है। क्रम ज्यों का त्यों है।
आइए अब इन मुकदमो के पक्षकारों को जान लें
पहला मुकदमा : 1/1989 (टाइटिल सूट) गोपाल सिंह विशारद
संविधान लागू होने के ठीक नौ दिन पहले पहला मुकदमा 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने दर्शन पूजन की अनुमति के लिए जिला अदालत में केस दायर किया। जिसमें दर्शन पूजन में विघ्न डालने वालों को रोकने की मांग की गई। इसका पुराना वाद सं या 2/1950-00एस है। इसे गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया था। इनके निधन के बाद 1986 से इनकी जगह इनका बेटा राजेंद्र सिंह विशारद आ गया है।
मुकदमे के प्रतिवादी
गोपाल सिंह विशारद ने यह मुकदमा जिन लोगों के खिलाफ किया है, उनमें 1-जहूर अहमद 2- हाजी फेंकू, 3-मोहम्मद फैकू, 4-मोहम्मद शमी चूड़ीवाला, 5-मोहम्मद अच्छन मियां, 6-उप्र सरकार, 7-डीएम फैजाबाद के के नैयर,8- सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह, 9-एसपी फैजाबाद राम कृपाल सिंह, 10-सुन्नी वक्फ बोर्ड,11-निर्मोही अखाड़ा।
कोर्ट में क्या प्रार्थना की गई
1-यह घोषणा कर दी जाए कि वादी अपने धर्म-नियम तथा रीति के मुताबिक भगवान श्रीराम जन्म आदि विराजमान स्थान जन्मस्थान जिसके पूरब-भंडार चबूतरा, पश्चिम-परती भूमि, उत्तर-सीता रसोई, दक्षिण-परती भूमि के निकट जाकर बिना रोकटोक निर्विवाद निर्विघ्र पूजा दर्शन करने का अधिकारी है।
2-प्रतिवादी गणों विरूद्ध स्थायी व सतत निरोधात्मक आदेश जारी किया जाए, ताकि प्रतिवादी स्थान जन्मभूमि से भगवान रामचंद्र आदि की विराजमान मूर्तियां का उस स्थान से जहां वह है कभी भी न हटाएं। तथा उनके प्रवेश द्वार व अन्य आने जाने के मार्ग बंद न करे पूजा दर्शन में किसी तरह की बाधा न डाले।
क्या किया अदालत ने
अदालत ने सभी प्रतिवादी का नोटिस जारी किया और 16 जनवरी 1950 को अंतरिम आदेश में पूर्जा अर्चना की अनुमति दे दी। 3 मार्च 1951 में अंतरिम आदेश की पुष्टि कर दी। जिला जज भीम सिंह ने अंतरिम आदेश दिया कि यह बात हर तरफ से साबित होती है कि मुकदमा दायर करने से पहले ही मस्जिद में मूर्ति स्थापित थी। कुछ मुसलमानों ने भी अपनी दलील में कहा था कि मस्जिद में 1936 से नमाज के लिए इस्तेमाल नही किया गया जबकि हिन्दू निरंतर इस विवादास्पद स्थान पर पूजा अर्चना करते रहें है। दूसरे पक्ष ने सिविल जज के आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति ओ एच मूथम व रघुवर दयाल की पीठ ने 26 अप्रैल 1955 को अपने आदेश में फैजाबाद सिविल जज के फैसले को बहाल रखा।
दूसरा मुकदमा : 2/1989 (टाइटिल सूट) परमहंस श्रीरामचंद्र दास
पहले मुकदमे की तरह ही दूसरा मुकदमा प्रार्थना पत्र के साथ महंत परमहंस रामचंद्र दास ने 5 दिसंबर 1950 को सिविल जज की अदालत में दायर किया। इस मुकदमे की संख्या थी 25/1950। 1989 में जब हाईकोर्ट की तीन जज की विशेष बेंच बनी तो इसे टाइटिल सूट 2/1989 नाम दिया गया। 1992 में रामचंद्र परमहंस ने यह मुकदमा यानी टाइटिल सूट 2/1989 को 1992 में वापस ले लिया। इसलिए इसका ज्यादा ब्यौरा देने का फायदा नही है।
तीसरा मुकदमा : 3/1989 (टाइटिल सूट) निर्मोही अखाड़ा
विवाद में श्रीरामनंदी निर्मोही अखाड़ा ने तीसरा मुकदमा 17 दिसंबर 1959 को दायर किया गया। दायर किये जाने पर इस मुकदमे का नियमित वाद संख्या 26/1959 00 एस था।
मुकदमे के प्रतिवादी
1- प्रिय दत्त राम रिसीवर रामजन्मभूमि, इनके निधन के बाद जमुना प्रसाद आ गए 2- उप्र सरकार, 3-डीएम फैजाबाद 4-सिटी मजिस्ट्र्रेट5-एसपी फैजाबाद 6-हाजी फेंकू, इनकी मौत के बाद इनके बेटे 6/1 हाजी महबूब और 6/2 अब्दुल अहमद आ गए है। 7-मोह मद फैंक 8-अच्छन मियां, 9-सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड 10-उमेश पांडेय 11-मोह मद फारूख।
मुकदमें में प्रार्थना
यह वाद राम जन्म भूमि के रिसीवर को हटा कर पूजा, पूजन का चढ़ावा, प्रबबंधन सौंपे जाने का दावा करता है। मुकदमें में कोर्ट से प्रार्थना की गई कि जन्मभूमि स्थान उसे सुपुर्दगी में दे दिये जाए।
चौथा मुकदमा : 4/1989 (टाइटिल सूट) सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड
यह वाद पहले वाद के 12 साल पूरे होने के ठीक पहले दाखिल किया गया। इसे सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 16 दिसंबर 1961 में दाखिल किया। इसका नियमित वाद सं या 12/1961 00एस है। फैजाबाद जिला अदालत में दाखिल वाद मस्जिद पक्ष की ओर से पहला है।
क्या प्रार्थना की गई
इस वाद में मांग की गई कि संपत्ति को मस्जिद घोषित कर दिया जाए। मूर्तियों को हटाया जाए और मुसलमानो को कब्जा दिलाया जाए।
कौन है प्रतिवादी
सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपने वाद में निम्रलिखत लोगों व संगठनों को प्रतिवादी बनाया, इन सभी ने पिछले 12 वर्षो के दौरान अलग-अलग समय पर कोर्ट में खुद को इस मुद्दे से प्रभावित बता कर प्रार्थना पत्र दिये थे। 1- गोपाल सिंह विशारद (इनके निधन के बाद इनके बेटे राजेन्द्र सिंह विशारद आ गए) 2- परमहंस रामचंद्र दास (इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्ताराधिकारी सुरेश दास आ गए), 3-निर्मोही अखाड़ा, 4-महंत रघुनाथ दास, 5-उप?्र सरकार, 6-डीएम फैजाबाद 7-सिटी मजिस्ट्र?ेट 8-एसपी फैजाबाद 9-बाबू प्रिय दत्तराम 10-अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, 11-आर्य प्रादेशिक महासभा, 12-अध्यक्ष अखिल भारतीय सनातन धर्मसभा, 13-महंत धर्मदास, 14-पुंडरीक मिश्रा, 15-बाबा बजरंग दास (इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्तराधिकारी महंत रामदयाल शरण आ गए), 16-महंत शेष नरायण दास इन्होने 1991 में समाधि ले ली। 17-रमेशचंद्र त्रिपाठी, 18-महंत गंगा दास, 19-स्वामीगोविंदाचार्य, 20-अखिल भारतीय श्रीराम पुनरोद्धार समिति, 21-प्रिंस अंजुम कदर (शिया समुदाय से इनका इंतकाल हो गया), 22-उमेश पांडेय।
चारों की सुनवाई एक साथ
सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे के दायर होने के तीन साल बाद 6 जुनवरी 1964 को सिविल जज फैजाबाद ने एक आदेश से चार मुकदमों को सुनवाई के लिए एक साथ जोड़ दिया। इसके बाद चारों मुकदमों की एक साथ सुनवाई शुरू हो गई।
पांचवां मुकदमा : 5/1989 (टाइटिल सूट) श्रीरामलला विराजमान
अयोध्या मामले से जुड़े एक मुकदमे में स्वयं श्रीरामलला विराजमान भी वादी है। श्री रामलला का कहना है कि यह मेरी जन्मभूमि है और मेरे भक्तों को मंदिर बनाने में कोई अड़चन न डाली जाए। यह सबसे आखिर में नियमित वाद सं या 236/1989 00 एस नंबर-5/1989 में दाखिल किया गया। इसमें स्वयं श्रीरामलला विराजमान वादी है। सेवानिवृत्त न्यायधीश देवकीनंदन अग्रवाल ने रामलला विराजमान एवं जन्म स्थान को देवतुल्य मान कर वादी मानते हुए दोनों वादियों की ओर से 1 जुलाई 1989 को फैजाबाद की जिला अदालत में दाखिल किया।
प्रार्थना
इस वाद में मुख्य रूप से दो मांग कोर्ट से की गई 1- यह घोषणा की जाए कि अयोध्या में श्री रामजन्म भूमि का संपूर्ण परिसर श्रीरामलला विराजमान का है। 2-प्रतिवादियों के खिलाफ स्थायी स्थगन जारी कर कोई व्यावधान खड़ा करने या कोई आपत्ति करने से या अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि पर नये मंदिर के निर्माण के लिए कोई बाधा खड़ी करने से रोका जाए।
कौन-कौन है प्रतिवादी
इस वाद में उन सभी लोगों को प्रतिवादी बनाया गया जो पिछले मुकदमों में वादी या प्रतिवादी है।
इसमें निम्रलिखित प्रतिवादी है- 1- गोपाल सिंह विशारद की जगह इनके बेटे राजेन्द्र सिंह विशारद 2- सुरेश दास (परमहंस रामचंद्र दास इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्ताराधिकारी आ गए), 3-निर्मोही अखाड़ा, 4-सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, 5-मोहम्मद हाशिम, 6- महमूद अहमद, 7-उप्र सरकार, 8-डीएम फैजाबाद 9-सिटी मजिस्ट्रेट 10-एसएसपी फैजाबाद 11-अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, 12-अखिल भारतीय आर्य प्रतिनिधि महासभा, 13-अध्यक्ष अखिल भारतीय सनातन धर्मसभा, 14-महंत धर्मदास, 15-पुंडरीक मिश्रा, 16- महंत रामदयाल शरण, (बाबा बजरंग दास के समाधि लेने के बाद इनके उत्तराधिकारी के रूप में आ गए), 17-रमेशचंद?्र त्रिपाठी, 18-महंत गंगा दास, 19-स्वामी गोविंदाचार्य, 20-उमेश पांडेय, 21-श्रीरामजन्म भूमि न्यास, 22- शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड, 23- प्रिंस अंजुम कदर 24-हाजी मोहम्मद सिद्दिकी 25-वलीउद्दीन तथा 26-मोह मद हाशिम आब्दी। इन सभी ने कोर्ट में अपने दावेदारी पेश की है।
मुकदमों के वाद बिन्दु
- एस नंबर 1/1989 में 17 इश्यू- एस नंबर 3/1989 में 17 इश्यू- एस नंबर 4/1989 में 28 इश्यू- एस नंबर 5/1989 में 30 इश्यू
इनके मुख्य वाद बिन्दु-
1-क्या विवादित स्थल राम जन्म भूमि है?2-क्या प्रश्रगत स्थल बाबर द्वारा 1528 में बनवायी गई बाबरी मस्जिद है?3-क्या वहां पर भगवान श्रीराम की मूर्तियां विराजमान है?4-क्या प्रश्नागत प्रकरण स्थल पर विवादित ढांचा श्री राम जनमभूमि मंदिर को तोड़कर बनाया गया था?5- क्या प्रश्नगत प्रकरण इस्लामिक ला के मुताबिक मस्जिद नही है, क्योंकि वहां मीनारें नही थी और वजू के लिए काइ? स्थान नही था? 6-क्या प्रश्नगत स्थल तीन तरफ से समाधि से घिरा होने के कारण इस्लामिक ला के हिसाब से मस्जिद नही है? 7- क्या प्रश्नगत भवन के अंदर जो खंभे लगे थे उन पर देवी देवताओं जानवरों और अन्य सजीवों के चित्र उकेरे हुए थे, यदि इसका उत्तर हां है तो क्या उक्त स्थान मस्जिद हो सकता है?8-क्या प्रश्नगत भवन रामजन्म भूमि स्थान को तोड़कर बाबर ने बनवाया था? 9-क्या प्रश्नगत प्रकरण स्थल पर अनादि काल से हिंदू अनवरत पूजा इस आस्था व विश्वास केआधार पर परंपरा से करता आ रहा है कि यह स्थल उनके अराध्य देव भगवान राम की जन्मस्थली रहा है? 10-क्या सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद कालबाधित बार्ड बाई लिमिटेशन है।11-क्या विवादित भवन नजूल प्लाट सं या 583 पर मोहल्ला रामकोट अयोध्या में था।12-क्या प्रश्नगत भवन बाबर ने बनवाया था या मीरबकी ने।
कुल 82 गवाह 12 हिन्दू मस्जिद पक्ष के साथ
इन मुकदमो में दोनो पक्षों से 82 गवाह पेश किये गए। जिनमें 54 हिंदू पक्ष की ओर से थे। जिनकी गवाही 7128 पेज में दर्ज की गई। सुन्नी वक्फ बोर्ड व मस्जिद पक्ष ने 28 गवाह पेश किये। जिनकी गवाही 3343 पेज में दर्ज की गई। इस तरह कुल 11472 पेज में गवाही दर्ज हुई।
विशेष खंडपीठ के आदेश पर एएसआई ने गर्भगृह के दायरे को छोड़ कर आसपास की भूमि का उत्खनन किया। खुदाई के बाद हिन्दू पक्ष की ओर से चार गवाह उपस्थित हुए निकी गवाही 1209 पेज में दर्ज हुई। मस्जिद पक्ष की ओर से आठ गवाह पेश हुए जिनकी गवाही 2311 पेज में दर्ज की गई। मुस्लिम पक्ष की ओर से कुल 35 गवाह पेश हुए जिनमें 12 हिदू धर्म को मानने वाले थे। मंदिर पक्ष की ओर से एक भी मुसलमान ने गवाही नही दी।
अयोध्या मामले की तीन न्यायधीशों की विशेष पीठ ने 1989 में सुनवाई शुरू की, 1993 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया। जहां से 1995 में वापस आया। विशेष खंडपीठ ने सुनवाई पूरी करते हुए 26 जुलाई 2010 ओदश रिजर्व किया। खंडपीठ ने 24 सितंबर को फैसला सुनाने की तिथि तय कि लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर तक फैसला सुनाने पर रोक लगा दी।
बताते चलें कि समझौते की मांग कर अयोध्या विवाद का फैसला टलवाने के मामले में चर्चा में आये रमेश चंद्र त्रिपाठी ने रामजन्म भूमि विवाद को लेकर 1969 मे कोर्ट गए थे। कोर्ट ने इन्हे भी पक्षकार मान लिया त्रिपाठी ने 2005 में श्री राम लला विराजमान की ओर से गवाही दी थी।
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