शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गुजरात मॉडल बेहतर या मध्य प्रदेश का

इंदौर। उम्मीद तो थी कि इंदौर में एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर, नए युवा अध्यक्ष की अगुआई में बीजेपी नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरुआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए।

बीजेपी में एक नई बहस की शुरुआत हो गई है और इसकी सूत्रधार सुषमा स्वराज हैं। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेता नरेन्द्र मोदी के सुशासन की कसीदे पढ़ रहे थे, तब सुषमा ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि मध्य प्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सब कुछ ठीक चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी जहां युवाओं को ज्यादा तरजीह देने की बात कर रहे थे, वहीं आडवाणी भी चौथी पीढ़ी को जिम्मेदारी संभालने को तैयार रहने पर जोर दे रहे थे। इन सबके बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हीरो थे।

पार्टी के ज्यादातर नेता सिर्फ मोदी मॉड्यूल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे। तब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला और साफ किया कि गुजरात के मुकाबले मध्य प्रदेश किसी मायने में पीछे नहीं है।
नरेन्द्र मोदी के बराबर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खड़ा करना था कि पार्टी के भीतर एक नई बहस शुरू हो गई। यानी क्या बीजेपी के मोदीकरण से वाकई पार्टी को नुकसान हो रहा है। हालांकि पार्टी प्रवक्ता इस मामले में स्पष्ट नजरिया तो नहीं रख सके, लेकिन चौहान की तारीफ करने से भी पीछे नहीं रहे।

सियासी हलकों में सुषमा के बयान के मायने निकाले जा रहे हैं। दो दिन पहले ही गडकरी ने मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों से सहयोग की अपील की। यानी पार्टी अल्पसंख्यकों के करीब पहुंचना चाहती है। ऐसे में पार्टी को मोदीकरण चेहरे से बाहर निकालना ही होगा।

आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर। संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएं और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बनने दें। राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी विवादित स्थल के बगल में एक भव्य मस्जिद का निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी।
आप ही बताएं दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद क्या बीजेपी के पास वाकई इस अपील का नैतिक अधिकार है?, पर जो भी हो आज जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी की चाल-ढाल में बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में \'मंदिर वहीं बनाएंगे \' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है।
हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।

लेकिन अफसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांच सितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई। इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए।

आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है।
जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं। नहीं.... बिल्कुल नहीं, क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है। और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं। थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें