सोमवार, 2 नवंबर 2015

3,20,00,00,000 खर्च के बाद मप्र को मिले 3 आईएएस

कोचिंग का धंधा है चंगा: सालाना कमाई 1220 करोड़ से अधिक
3,20,00,00,000 खर्च के बाद मप्र को मिले 3 आईएएस
देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम
इस कारण बिगड़ रहा परिणाम
- मप्र में सर्विस परीक्षा का माहौल नहीं।
- आबादी मुख्यत: कृषि और व्यापार क्षेत्र में संलग्न है। इस बारे में नहीं सोचते।
- जौखिम उठाने की शक्ति नहीं।
- बिहारियों से जैसा जुझारूपन और संघर्ष नहीं।
- प्रशासनिक शक्ति के प्रति आकर्षण नहीं है।
- सिविल सर्विस की तैयारी के अच्छे संस्थान नहीं।
- बच्चों में सोच की कमी, प्रारंभिक परीक्षा में 90 प्रतिशत केवल अनुभव के लिए बैठते हैं।
- प्रदेश में एमपी बोर्ड और कॉलेजों में पढ़ाया जाने वाले सिलेबस से सिविल सर्विस परीक्षाओं में मदद नहीं मिल रही।
- 10वीं में तय हो जाने वाला यूपीएससी का टारगेट ग्रेजुएशन और इंजीनियरिंग के बाद तय हो रहा है।
- अच्छे शिक्षकों की कमी है। तैयारी का माहौल नहीं मिलने से उम्मीदवार बाहर जा रहे हैं। (आईएएस अधिकारी एवं विशेषज्ञों से चर्चा के अनुसार)
भोपाल। आपको जानकार आश्चर्य होगा की मप्र तेजी से एजुकेशन हब बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के छात्र यहां आकर इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या अन्य विषयों में उच्च शिक्षा लेकर देशी-विदेशी संस्थानों और सरकारी नौकरियों में बड़े ओहदे पर जा रहे हैं। जबकि मप्र सरकार से मिले समर्थन-सहयोग और 3,20,00,00,000 रूपए कोचिंग में सालाना खर्च करने के बाद भी यहां के औसतन तीन-चार परीक्षार्थी ही आईएएस बन रहे हैं। दरअसल, मप्र देशभर के कोचिंग संस्थानों के लिए कमाई का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। आलम यह है कि प्रदेश की राजधानी भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर में तो जितने स्कूल और कॉलेज नहीं है उससे ज्यादा यहां कोचिंग संस्थान है। मप्र में कोचिंग का धंधा कितना फायदेमंद है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के किसी भी कोचिंग संस्थानों में प्रवेश पाना भी अपने आप में बड़ी सफलता है।
प्रदेश में मप्र की सरकार राज्य को बीमारू से विकासशील राज्य बनाने का दावा कर रही है और कई क्षेत्रों में ग्रोथ के आंकड़े सामने रखे जा रहे हैं लेकिन इस विकास के प्रकाश का भारतीय प्रशासन में मप्र के लोगों की भागीदारी की बदतर स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। वर्ष 2014 बैच के लिए देशभर से जिन 260 युवकों को चयन आईएएस के लिए हुआ उनमेंं मप्र से केवल तीन उम्मीदवार देवाशिश मुखर्जी, मनीष कुमार गुप्ता और आरके मिश्रा ही आईएएस में चयनित हो पाए। यहीं नहीं वर्ष 2013 में भी तीन ही उम्मीदवार आईएएस बनने में सफल हो पाए थे जबकि मप्र से छोटे हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र और इसी श्रेणी के अन्य राज्यों से बड़ी संख्या में उम्मीदवारों का चयन इस सेवा के लिए हुआ। प्रदेश में हर साल सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा में मप्र से करीब 30-32 हजार उम्मीदवार शामिल होते हैं। इससे पहले के सालों में भी इसी के आसपास उम्मीदवारों की संख्या रही है। इनमें से करीब 15 से 20 प्रतिशत ही प्रारंभिक परीक्षा में चयनित होकर मुख्य परीक्षा तक पहुंचते हैं। मुख्य परीक्षा के नतीजों बाद मप्र के अभ्यर्थियों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं बचती।
एक बार फिर दांव पर प्रतिष्ठा
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने 12 अक्टूबर को सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा 2015 का परिणाम घोषित कर दिया। कुल 15008 परीक्षार्थियों को मुख्य परीक्षा के लिए सफल घोषित किया गया है। इस बार रिकॉर्ड 9 लाख 45 हजार 908 उम्मीदवारों ने परीक्षा के लिए आवेदन किया था, जिसमें से तकरीबन 4.63 लाख उम्मीदवार 23 अगस्त को हुई प्रारंभिक परीक्षा में बैठे थे। मुख्य परीक्षा 18 दिसंबर 2015 से होगी। लेकिन इस बार भी सबकी निगाह मप्र के परीक्षार्थियों पर है। क्योंकि आबादी में छटवां और क्षेत्रफल के हिसाब से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य हमारा मध्यप्रदेश एक साल में तीन आईएएस से ज्यादा नहीं पाता है। देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम है। मप्र से हर साल हजारों उम्मीदवार सिविल सर्विस की प्रारंभिक परीक्षा में बैठते हैं लेकिन हजारों की यह संख्या सिलेक्शन तक पहुंचते-पहुंचते औसतन तीन से आगे नहीं बढ़ पाती।
प्रदेश का कमजोर सिलेबस मुख्य कारण
मप्र में यूपीएससी संस्थानों द्वारा प्रति छात्र एक लाख रूपया सालाना लिया जाता है। प्रदेश में औसतन 32 हजार छात्र इस परीक्षा की तैयारी करते हैं। इस तरह प्रदेश में यूपीएससी की परीक्षा में पास होने के लिए प्रदेश के छात्र करीब 3,20,00,00,000 रूपए कोचिंग में ही खर्च कर दिए जाते हैं। अगर वर्ष 2014 के परीक्षा परिणाम पर नजर डालें तो परिणाम इस बार प्रदेश के लिए काफी खराब रहा। सिविल सर्विस परीक्षा में हर साल 30 से 35 सफल उम्मीदवारों के नाम सामने आते रहे हैं, लेकिन इस बार संख्या 15 पर सिमट गई। इनमें से केवल 3 ही आईएएस में चयनीत हुए बाकी अन्य सेवाओं के लिए चयनीत हुए। देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम होने के कारणों की पड़ताल की गई तो पता लगा कि स्कूल और कॉलेज स्तर का सिलेबस इस स्तर का नहीं है कि सिविल सर्विस परीक्षा में उम्मीदवारों को फायदा मिले। दोयम दर्जे की शिक्षा व्यवस्था है यहां। ऐसे स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी हैं जिनमें टीचर ही नहीं। एक टीचर पूरा विभाग को चला रहा है। ऐसे में यहां का छात्र कैसे किसी राष्ट्रीय परीक्षा में आ सकता है। छात्र होनहार हैं लेकिन उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिलता। इसी वजह से न आईआईटी में, न कैट में, न सिविल सर्विस जैसी परीक्षाओं में चयन हो पाता है। पूरा दोष शिक्षा व्यवस्था है। और सबसे बड़ी बात सिविल सर्विस के लिए चलने वाली कोचिंग क्लासेस को तो बंद कर देना चाहिए। यहीं बच्चों में भटकाव शुरू हो जाता है।
एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है कि यहां सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारी करने वाले ज्यादातर अभ्यर्थी इंजीनियरिंग या ग्रेजुएशन के बाद आ रहे हैं, जबकि यूपी-बिहार में 10वीं से ही छात्र टारगेट बना लेते हैं। कुछ समय से पंजाब और तमिलनाडु से भी सिलेक्शन बढ़ा है। इस बार इंदौर से यूपीएससी में सफल हुए उम्मीदवारों का भी मानना है कि प्रदेश में उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए उम्मीदवारों को सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है। प्रदेश में लगातार सिलेक्शन गिरने का बड़ा कारण अच्छा माहौल नहीं मिल पाना और उच्च स्तर पर पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नहीं हैं इसलिए ज्यादातर छात्र बाहर जा रहे हैं। चयनित उम्मीदवार अखिल पटेल का मानना है कि दिल्ली की यूनिवर्सिटी का सिलेबस सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारी में मदद करता है, जबकि प्रदेश का सिलेबस सीमित है। वहीं एक्सपट्र्स का मानना है कि अब जाकर यूपीएससी और एमपी पीएससी के पैटर्न में समानता आना शुरू हुई है।
एंबीशन अकादमी के संचालक राहुल शर्मा कहते हैं कि हमारे यहां उतनी जागरूकता नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि हमारे यहां शिक्षा का स्तर उतना अच्छा नहीं है। हमारे यहां के सिलेबस सिविल सर्विसेज के सिलेबस से मैच नहीं खाते। केरल, तमिलनाडू जैसे राज्यों में सरकार ऐसे बच्चों की फीस भी चुकाती हैं, हमारे यहां भी ऐसी व्यवस्था है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसमें खामियां हैं। सरकार ने अपने खुद के कुछ केंद्र चला रखे हैं जहां बच्चों को तैयारी कराई जाती है लेकिन इनका स्तर पर अच्छा नहीं है। हमने सरकार से कहा था कि इन्हें पीपीपी मोड में निजी क्षेत्रों को दे लेकिन कोई विचार नहीं हुआ। हमारे यहां के बच्चे दिल्ली जाकर तैयारी करते हैं और वहीं का पता डालते हैं, यह भी एक कारण है।
यूनिक आईएएस अकादमी के संचालक गौरव मारवाह कहते हैं कि निश्चित तौर पर अभी हमारे यहां सिविल सर्विस को लेकर ज्यादा जागरूकता नहीं है। दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि हमारे बच्चों का बेस बहुत मजबूत नहीं है। मप्र की कॉलेज एजूकेशन में बहुत सुधार की जरूरत है। दक्षिणी राज्यों के कॉलेजों की तरह। सरकारी योजना इसलिए फेल हैं कि वहां स्कूल के लेक्चर पढ़ा रहे हैं। आज एक भी बच्चा इन योजनाओं के लाभ से सिलेक्ट नहीं हुआ। मप्र से चयन का आंकड़ा इसलिए भी कम है कि कई बच्चे बाहर पढ़ाई करते हैं, वहीं का पता भी देते हैं।
मप्र की ये योजनाएं भी बेअसर
मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिए सिविल सेवा परीक्षा प्रोत्साहन योजना लागू है। इस योजना का उद्देश्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को सिविल सेवा परीक्षाओं के विभिन्न स्तरों पर सफलता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन स्वरूप वित्तीय सहायता प्रदान करना है। विद्याथिर्यों को संघ लोक सेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण होने पर 25 हजार रुपये, मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करने पर 50 हजार रुपये तथा साक्षात्कार उपरांत चयन होने पर 25 हजार की राशि दी जाती है। प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उम्मीदवारों के लिए भी इसी तरह की योजना लागू है। इस योजना में प्रदेश में संभागीय मुख्यालयों पर परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केंद्र संचालित किए जाते हैं। इसके अलावा इन वर्गों के उम्मीदवारों को परीक्षा की तैयारी के लिए निजी कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई के लिए फीस की प्रतिपूर्ति की जाती है लेकिन नियमों की जटिलता के कारण चुनिंदा उम्मीदवार भी इसका लाभ नहीं उठा पा रहे। भारत की कुल जनसंख्या में से 20.3 प्रतिशत आबादी मप्र में निवास करती है। आबादी के मप्र देश में छटवें नंबर है। ऊपर के पांच राज्यों में उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और आंधप्रदेश हैं। मप्र से ज्यादा आईएएस देने वाले राज्य केरल, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडू, दिल्ली, कर्नाटक की आबादी की मप्र से बहुत कम है।
राजस्थान में 6 साल में बने 111 आईएएस
मध्यप्रदेश की ही तरह कभी पिछड़ा माना जाने वाला राजस्थान अब देश को आईएएस अफसर देने में आगे निकल रहा है। पिछले छह सालों में ही राजस्थान से 111 आईएएस अफसरों का सलेक्शन हो चुका है। यानी कुल चयनित अफसरों में से 11 फीसदी राजस्थान से हैं। यह उपलब्धि इसलिए भी अहम है क्योंकि कभी राजस्थान से सालाना छह या सात आईएएस अफसर ही चयनित हो पाते थे। पिछले साल हुई सिविल सेवा परीक्षा में प्रदेश से 18 आईएएस सलेक्ट हुए। उससे पिछले साल यानी 2013 में तो आंकड़ा 28 तक पहुंच गया था। बहरहाल, पिछले साल देशभर से 180 आईएएस को केन्द्रीय कार्मिक मंत्रालय ने हाल ही कैडर अलॉट किया है। राजस्थान से सलेक्ट 18 में से दो आईएएस को होम कैडर मिला है। 2014 में राजस्थान से 18 आईएएस चयनित हुए। जबकि केरल से आठ, उत्तरप्रदेश से 16, बिहार से 8, कर्नाटक से 11, आंध्रप्रदेश से 17 आईएएस चयनित हुए। ये वो राज्य हैं जिनका सिविल सेवा परीक्षाओं में सबसे ज्यादा दबदबा रहता है। 2014 में सर्वाधिक 25 आईएएस तमिलनाडु से चयनित हुए। वहीं मध्यप्रदेश से मात्र 3 आईएएस ही चयनीत हुए। इसी तरह 2013 में राजस्थान से 28 आईएएस चयनित हुए। यानी कुल स्ट्रेंथ का 15.55 फीसदी। इससे राजस्थान यूपी, बिहार, दिल्ली और दक्षिणी राज्यों के बराबर आकर खड़ा हो गया। वहीं मप्र में इस साल भी 3 ही प्रत्याशी आईएएस के लिए चयनीत हुए। दरअसल, राजस्थान सरकार ने न केवल अपने सिलेबस में बदलाव किया है बल्कि वहां इसके लिए माहौल भी बनाया गया है, जबकि मप्र में अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है।
मप्र में यूपी, बिहार, राजस्थान का दबदबा
यूपीएससी में मप्र के छात्रों के खराब प्रदर्शन का नतीजा यह हो रहा है कि यहां यूपी, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र के मूल निवासी आईएएस की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्तमान समय में डायरेक्ट आईएएस के मामले में प्रदेश में उत्तर प्रदेश के मूल निवासी आईएएस की संख्या अधिक है। वहीं मप्र के मूल निवासी डायरेक्ट आईएएस जहां 53 हैं वहीं प्रमोटी 80 के करीब हैं। वह भी उस स्थिति में जब प्रदेश में पिछले कई साल से राप्रसे अफसरों को आईएएस अवार्ड नहीं मिल रहा है। इस साल भी केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (डीओपीटी) द्वारा राप्रसे से आईएएस की डीपीसी का फार्मूला बदले जाने से दावेदार राप्रसे अफसरों को आईएएस अवार्ड फिलहाल अटक गया है। डीओपीटी का कहना है कि मार्च 2014 तक की सभी अफसरों की सीआर (गोपनीय प्रतिवेदन) भेजें। दरअसल आधा दर्जन अफसर ऐसे हैं, जिन्होंने इन वर्षों की सीआर नहीं लिखवाई है। इनमें रवि डफरिया, आरपी भारतीय, अमर सिंह बघेल, शैलबाला मार्टिन, ललित दाहिमा और गोपाल डाड के नाम शामिल हैं। जब तक सभी अफसरों की सीआर दिल्ली नहीं भेजी जाती, तब तक राप्रसे से आईएएस की डीपीसी नहीं होगी। सबसे बड़ी बात है कि इनमें कुछ अधिकारी ऐसे हैं, जिन पर विभागीय जांच लंबित है। ऐसे में उन्हें पता है कि उनका आईएएस में चयन नहीं होगा। यही वजह है कि इन अफसरों ने अब तक अपनी सीआर नहीं लिखवाई है। कार्मिक विभाग भी इसी बात को लेकर परेशान है। कारण कि जब तक संबंधित व्यक्ति स्वयं अपनी सीआर लिखवाने के लिए प्रयास नहीं करेगा, तब तक उनकी सीआर नहीं लिखी जा सकेगी। उल्लेखनीय है कि राप्रसे अफसरों को आईएएस में पदोन्न्त करने के लिए तीन वर्षों 2012, 2013 और 2014 की डीपीसी एक साथ किया जाना है। इसमें 20 अफसरों को आईएएस अफसर बनने का मौका मिलेगा। कार्मिक विभाग ने आईएएस अवार्ड के लिए वर्ष के हिसाब से अफसरों के जोन तैयार किए हैं। हालांकि आईएएस में पदोन्नत होने का मौका सिर्फ 1992 बैच तक के अफसरों को ही मिलने की संभावना है।
बड़े उद्योग में तब्दील हुआ कोचिंग का धंधा
अर्थव्यवस्था का तेज रफ्तार से विकास, भू-मंडलीकरण के चलते भारत में तेजी से बढ़ा विदेशी निवेश और मध्यवर्ग की आय में हुई बढ़ोत्तरी ने देश में शिक्षा के प्रति गंभीर रूझान पैदा किया है। इसकी स्वाभाविक वजह भी है, देश के लगभग सभी क्षेत्रों में पेशेवरों की मांग में नाटकीय बढ़ोत्तरी हुई है। इस सबके चलते चाहे देश के बड़े-बड़े महानगर हों या मझोले शहर अथवा कस्बे, हर जगह बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह कोचिंग सेंटर खुल गए हैं। पैदा हुए अनन्त अवसरों को हासिल करने के लिए ये कोचिंग सेंटर एक किस्म की गारंटी के रूप में भी देखे जा रहे हैं। यह अलग बात है कि इसमें थोड़ी सच्चाई है तो बड़ा हिस्सा महज खूबसूरत अफसाने का है। बहरहाल, इससे कोचिंग के कारोबार को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सफलता की दर चाहे जो भी हो, लेकिन यह हकीकत है कि पिछले एक दशक के भीतर मप्र में कोचिंग का कारोबार धीरे-धीरे एक व्यवस्थित कारोबार का रूप ले लिया है। हाल ही में एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (एसोचैम) द्वारा कराए गए एक अध्ययन सर्वे के मुताबिक मप्र में कोचिंग का व्यवस्थित कारोबार 1220 करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर से ऊपर पहुंच गया है।
सिर्फ ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के शिक्षा के प्रति बढ़े रूझान और अवसरों को हासिल करने की ललक का ही परिणाम नहीं है कोचिंग का भारी-भरकम कारोबार, बल्कि इसके पीछे कुछ आधारभूत अधिसंरचनात्मक कमियां भी हैं। जैसा कि एसोचैम के अध्यक्ष सज्जन जिंदल कहते हैं, भारत में तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख छात्र उच्चतर शिक्षा के लिए नामांकन कराते हैं। लेकिन देश में पर्याप्त शिक्षकों का अभाव है। शिक्षक महज 3.5 लाख ही हैं। यही नहीं, पिछले कुछ सालों से बोर्ड की परीक्षाओं में पास होने के लिए भी मां-बाप के साथ-साथ बच्चे भी गंभीर हो रहे हैं। इन सब वजहों से देश में बड़ी तादाद में शिक्षकों की जरूरत बढ़ी है, जिसकी भरपाई ये कोचिंग सेंटर कर रहे हैं। और भी कई वजहें हैं कोचिंग केन्द्रों के तेजी से एक व्यवस्थित कारोबार में तब्दील होने की। दरअसल संचार सुविधाओं और प्रौद्योगिकी के बेहतर होने की वजह से अब पढऩे-लिखने के तमाम गैर-पारंपरिक माध्यम भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, जैसे- डिस्टेंस लर्निंग तथा ऑनलाइन एजुकेशन। इस कारण भी कोचिंग सेंटर्स की मांग बढ़ी है, क्योंकि बिना फिजिकली क्लास अटेंड किए पढ़ाई के दौरान जो कमियां महसूस होती हैं, उनकी भरपाई ये कोचिंग केन्द्र कराने का दावा करते हैं। वैसे कोचिंग सेंटर्स के इस तरह शहर-दर-शहर, कस्बे-दर-कस्बे फैलने के पीछे हमारी शिक्षा व्यवस्था में कुछ नीतिगत खामियां हैं। मप्र के एक वरिष्ठ आईएएस कहते हैं कि 70 के दशक तक देश में कोचिंग सेंटर नहीं हुआ करते थे या यूं कहें कि इस तरह कोचिंग सेंटर्स का देश में जाल नहीं फैला था। व्यक्तिगत रूप से ही ट्यूशन पढ़ाने वाले कुछ अध्यापक या अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए कमजोर आय वर्ग के छात्रों का ही यह पेशा हुआ करता था।
लेकिन जब देश में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिला पाने वालों की तादाद वहां उपलब्ध सीटों के मुकाबले कई गुना ज्यादा बढ़ गयी, तो दाखिला नीति में एक व्यापक परिवर्तन हुआ और परीक्षाओं के जरिए दाखिला मिलने लगे, जबकि इसके पहले तक महज मेरिट के आधार पर छात्रों को मेडिकल तथा इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन मिल जाते थे। 90 के दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ और विकास की रफ्तार भी तेज हुई, तो कई क्षेत्रों में पेशेवरों की मांग अचानक बढऩे लगी। यही नहीं, पिछले दो दशकों में विभिन्न क्षेत्रों में हुए व्यापक तकनीकी विकास के चलते दर्जनों किस्म के नए अवसर उभर कर सामने आए हैं जिसमें सबसे बड़ा क्षेत्र है कंप्यूटर और इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का। 80 के दशक तक जहां इस क्षेत्र में महज कुछ हजार लोगों को रोजगार हासिल था, वहीं आज प्रत्यक्ष तौर पर 40 लाख से भी ऊपर और अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग 1 करोड़ लोगों को आईटी क्षेत्र में रोजगार हासिल है और इसका सालाना का टर्नओवर बढ़कर
40 अरब डॉलर के आसपास पहुंच गया है।
अर्थव्यवस्था में 8 फीसदी से ऊपर की तेजरफ्तार विकास दर ने सभी क्षेत्रों के लिए बड़े पैमाने पर पेशेवरों की मांग पैदा कर दी है। दूसरी तरफ लगभग 25 करोड़ की आबादी वाला भारतीय मध्यवर्ग आज अपनी शिक्षा और कॅरिअर के लिए किसी भी हद तक खर्च करने को तैयार है। इस सबका नतीजा यह निकला है कि पिछले तीन दशकों में तमाम नए तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों के खुलने के बावजूद इन संस्थानों में प्रवेश चाहने और पाने वालों की संख्या में भारी अंतर बढ़ता जा रहा है। दो दशक पहले तक जहां देश भर की तकरीबन 8 हजार इंजीनियरिंग सीटों के लिए मुश्किल से 45 से 50 हजार के बीच में छात्र जोर-आजमाइश करते थे, वहीं आज 16 से 20 हजार सरकारी या उच्च प्रतिष्ठा वाले इंजीनियरिंग संस्थानों के लिए 8 से 9 लाख के बीच छात्र जोर-आजमाइश करते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक-एक सीट के लिए कितने-कितने उम्मीदवार होते हैं। दरअसल अवसरों की भरमार और इन अवसरों के लिए तैयार कराने वाले संस्थानों के सीमित होने की वजह से ही कोचिंग कारोबार में बेतहाशा उछाल आया है।
देश के कई शहरों की आज पहचान ही कोचिंग केन्द्र के रूप में होने लगी है, जैसे कोटा। कोटा संभवत: देश का अकेला वह शहर है जिसने अपने कोचिंग सेंटर्स की बदौलत न सिर्फ पूरे देश में भौगोलिक पहचान बनायी है बल्कि नए युग के नालंदा के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की है। शायद कोटा के अलावा देश में कोई दूसरा ऐसा छोटा शहर नहीं होगा जहां उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम यानी देश के हर हिस्से के छात्र महज कोचिंग लेने के लिए वहां आते हों। सुदूर दक्षिण से केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पूरब में उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर पूर्व में मणिपुर, मेघालय, पश्चिम से मुंबई, गुजरात, उत्तर से जम्मू, मध्य से जबलपुर, भोपाल यानी देश का कोई ऐसा कोना नहीं है जहां से छात्र कोटा महज कोचिंग लेने के लिए न आते हों। यूं तो देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय जैसे दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई और हैदराबाद में भी देश के अलग-अलग हिस्सों से छात्र पढऩे के लिए आते-जाते हैं, लेकिन कोटा जैसे किसी दूसरे शहर में पूरे देश के छात्र नहीं मिलते। कोटा में मौजूद ये नामचीन कोचिंग सेंटर ही हैं जिन्होंने इसे इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों में दाखिले का गेटवे बना दिया है। कोटा के मशहूर कोचिंग सेंटर्स में कॅरिअर प्वाइंट, इनसाइट दासवानी, चैतन्य कोचिंग संस्थान, एनएन कॅरिअर और बंसल कोचिंग ने पूरे देश में अपना नाम बनाया है।
इंदौर में कोचिंग लघु उद्योग बना
कोटा के बाद मप्र के कई शहरों ने अपने आपको कॅरिअर लांचर के रूप में स्थापित किया है। इनमें इंदौर के बाद अब इस कतार में भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर भी पूरी तैयारी के साथ शामिल हो गए हैं। इंदौर में तो यह एक लघु उद्योग ही है। इंदौर में लगभग 250 से ज्यादा देश के विभिन्न हिस्सों के कोचिंग सेंटर्स की शाखाएं और यहां के निजी कोचिंग केन्द्र हैं। यहां मप्र ही नहीं देश के विभिन्न शहरों के छात्र विभिन्न स्तरों की पढ़ाई व विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। यहां कोचिंग केन्द्रों के चलते हजारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिला हुआ है। लेकिन खेद की बात है कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में यहां के छात्रों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। हालांकि देश के बड़े कोचिंग सेंटर्स के रूप में अभी भी दिल्ली और चेन्नई जैसे शहरों का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन ये इतने बड़े शहर हैं और यहां इतने बड़े और विविधता वाले उद्योग हैं कि उन सबके बीच कोचिंग एक प्रमुख उद्योग के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाता। जबकि हकीकत यही है कि देश के कोचिंग कारोबार की राजधानी दिल्ली ही है। क्वालिटी के लिहाज से भी और क्वांटिटी के लिहाज से भी।
जिस तरह से दिनोंदिन कोचिंग का यह कारोबार भारी-भरकम आकार ग्रहण करता जा रहा है, उसको देखते हुए बड़े कार्पोरेट खिलाडिय़ों का इसकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक ही है। वैसे सत्यम कंप्यूटर्स और एनआईआईटी जैसी बड़ी कार्पोरेट कंपनियां पहले से ही एक क्षेत्र विशेष में मौजूद हैं। अब जो खबर है उसके मुताबिक रिलायंस, विप्रो जैसी कंपनियां भी इस क्षेत्र में एक बड़ी रूपरेखा के साथ कूदने जा रही हैं। हालांकि यह अभी शुरुआती दौर की ही खबरें हैं, लेकिन इस उद्योग में भविष्य के लिए जो शानदार संभावनाएं दिख रही हैं, उसके चलते यह तय है कि आज नहीं तो कल कोचिंग कारोबार में बड़े कार्पोरेट खिलाड़ी अवश्य दिखायी देंगे।
इधर, इंदौर में यूपीएससी की कोचिंग संचालक के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज हुआ है। बताया जा रहा है कि ओशो आईएएस एकेडमी का संचालक कोचिंग पर ताला डालकर फरार होने की तैयारी में है। छात्रों की शिकायत पर पुलिस ने कोचिंग संचालक के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। छात्रों का कहना है कि उनकी कोचिंग का संचालक जमा की गई फीस को लेकर फरार होने वाला है। लिहाजा उनके पैसे रिफंड कराए जाएं। उन्होंने बताया कि इस कोचिंग में करीब 60 छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और कोचिंग ने हर स्टूडेंट से एक लाख रूपए फीस के तौर पर लिया है। यह कोचिंग कुछ महीने पहले ही खुली है। छात्रों का कहना है कि एक महीने तक कोचिंग सही ढंग से चली, लेकिन अब एकाएक सभी टीचर कोचिंग छोड़ कर जाने लगे हैं। ऐसे में जब छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हुई, तो उन्होंने कोचिंग के मैनेजर से बात की। कोचिंग के मैनेजमेंट ने शुरू में तो छात्रों की बातों का गोल-मोल जवाब दे दिया, लेकिन जब छात्रों ने थोड़ी सख्ती दिखाई तो उन्होंने कह दिया कि कोचिंग का मालिक कोचिंग बंद करने जा रहा है। जिसके बाद छात्रों ने अपनी फीस वापस मांगी, लेकिन कोचिंग के मैनेजमेंट ने किसी भी स्टूडेंट की फीस रिफंड करने से मना कर दिया।
यहां भी आसान नहीं है दाखिला
भले कोचिंग केन्द्र पैसा कमाने का जरिया हों, भले यह सपना दिखाकर अच्छी-खासी कमाई कर रहे हों, लेकिन यह भी तय है कि प्रतिष्ठित कोचिंग केन्द्रों में हर किसी का दाखिला आसान नहीं है। दिल्ली, कोटा यहां तक कि इंदौर और भोपाल में भी कई प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर हैं, जहां हर छात्र एडमिशन पाना चाहता है भले ही इनकी फीस दूसरे सेंटर्स के मुकाबले दोगुनी ही क्यों न हो। लेकिन ये सेंटर सभी छात्रों को एडमिशन नहीं दे पाते। एक तो व्यवस्थागत मजबूरी है और दूसरी बात साख का भी सवाल है। ये प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर अपने यहां अच्छे छात्रों को ही एडमिशन देते हैं ताकि वे सफल हों और इससे इन केन्द्रों की प्रसिद्घि भी बरकरार रहे। इसके लिए ये कोचिंग सेंटर प्रवेश हेतु एंटेंस एग्जाम लेते हैं और उसमें सफल छात्रों को ही एडमिशन देते हैं। एक कोचिंग संचालक का कहना है कि कोचिंग केन्द्रों की फीस अलग-अलग पाठ्यामों, परीक्षाओं और शहरों पर निर्भर करती है। साथ ही कोचिंग सेंटर के नाम और प्रतिष्ठा से भी फीस में फर्क पड़ता है। बहरहाल, दिल्ली में जहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी कराने वाले औसत कोचिंग सेंटर सालाना 75 से 80 हजार रुपए फीस लेते हैं, वहीं इलाहाबाद में यह फीस 40 हजार, कोटा में 45 से 50 हजार, इंदौर में 30 से 35 हजार और कानपुर तथा लखनऊ में 35 से 40 हजार के बीच रह जाती है। इसी तरह अलग-अलग परीक्षाओं की तैयारी और पाठ्यामों के लिए औसत फीस ली जाती है। सबसे ज्यादा आईआईटी, पीएमटी, सीपीएमटी, एमसीए, एमबीए, सिविल सर्विसेज, यूजीसी नेट, एमएसजी/सीपीओ/ एमएससी/रेलवे तथा हाईस्कूल और इंटरमीडिएट (10जमा2) के बोर्ड एग्ज़ाम्स की कोचिंग होती है। कोचिंग का कारोबार दिखने में तो सिर्फ परीक्षाओं और शिक्षा से जुड़ा कारोबार ही लगता है, लेकिन हकीकत यह है कि यह बहुउद्देश्यीय और बहुस्तरीय कारोबार की नींव रखता है। जिन भी शहरों में बड़े पैमाने पर कोचिंग केन्द्र खुले हैं, वहां खाने-पीने के सामानों की बिक्री, किराए के आवासों की मांग और इसी तरह की दूसरी तमाम जरूरत की चीजों की मांग बढ़ जाती है जिससे कोचिंग के साथ टिफिन बॉक्स और हॉस्टल उद्योग भी तेजी से फलता-फूलता है।

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