शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

जीत हार पार अयोध्या

''कुछ भी कहो इन पर असर नहीं होता।
खानाबदोस आदमी का कोई घर नहीं होता।।
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा हैं साहिब।
जो किसी की आसुओं से तर नहीं होता।।ÓÓ
30 सितंबर से पहले अयोध्या मसले को लेकर हर किसी की यही सोच हुआ करती थी, लेकिन इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ ने जो ऐतिहासिक फैसला सुनाया है उससे अब लोग कहने लगे हैं कि दिलों की दूरियां मिट जाए, अब ऐसी सुलह हो। हालांकि अदालत के बाहर फ़ैसले की आस संजोने वाले लोगों की दलील रही है कि धार्मिक भावनाओं से जुड़े मसलों को कभी भी कोर्ट के गलियारे में नहीं सुलझाया जा सकता। आपसी समझ और मेलजोल ही इस मसले को हल कर सकता है। हल के तौर पर यह फ़ैसला सद्भाव के सबसे करीब दिखता है, लेकिन बातचीत के लिए हुई पिछली पच्चीस कोशिशें इस तरह के हल की संभावना को बस जुमला ही साबित करती आ रही हैं। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी और निर्मोही अखाड़े के पीठाधीश्वर वैष्णवाचार्य गोस्वामी वल्लभराय ने इस बात के संकेत दे दिया है कि मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने से पहले मध्यस्थता की गुंजाईश है।
एक स्थान से जुड़ी आस्था देश की राजनीति को बुरे के लिए बदल सकती है तो उसका एक सर्वमान्य हल उसी राजनीति को एक नई और बेहतर दिशा भी दिखा सकता है। अयोध्या पर अदालती फैसले के बाद इस मुद्दे को राजनीति के दायरे से बाहर लाना होगा। इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का वक्त खत्म हो चुका है। अब इस मुद्दे में आम आदमी को उलझा कर नहीं रखा जा सकता। इस फ़ैसले के साथ ही न्यायपालिका (अगर मामला सुप्रीम कोर्ट नहीं जाता है तो) की जिम्मेदारी खत्म हो गयी है लेकिन ठीक यहीं से शुरू होती है कार्यपालिका की चुनौती। अब यह उसकी जिम्मेदारी होगी कि अदालत के फ़ैसले को लागू करवाये और कानून-व्यवस्था की हालत बिगडऩे न दे। अगर इस चुनौती से पार पा लिया गया तो पूरी दुनिया के सामने देश के लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उभर कर आ जायेगी।
इतिहास गवाह है कि अयोध्या मसला न्याय से ज्यादा अहम की लडाई का रहा है और इसे अहम की लड़ाई हमारे यहां की सांप्रदायिक राजनीति ने बनाया है। हिंदू समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह डाल दिया गया है कि हमारे देश में आकर, हमारी इतनी संख्या होने के बावजूद कोई हमारे सबसे बड़े आराध्य के जन्म स्थान को हमसे कैसे छीन सकता है (भले इसके कोई प्रमाण हों या न हों)। वहीं मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह घर करा दिया गया है कि अगर हम इस तरह से हार मान लेंगे तो पता नहीं किन-किन बातों पर हमें बहुसंख्यक समुदाय के साथ समझौते करने पड़ेंगे। लेकिन हाईकोर्ट ने दोनों समुदाय के फिरकापरस्त नेताओं की मंशा पर पानी फेरते हुए यह पैगाम दे दिया है कि अयोध्या जीत हार की लड़ाई से आगे निकल चुकी है और देश की जनता भी इस बात को भली-भांति जान गई है कि...
'फूंका है कभी मस्जि़दों को तो
कभी मंदिर जलायें हैं,
क़ौम के ठेकेदारों ने जाने कितने घर जलायें हैं,
सेंकी है रोटियां कभी हिन्दुओं की चिताओं पर,
कभी मुस्लमानों की लाशों से कफऩ
खींचकर जलायें हैं।
इबादत नहीं इन्हें तो फिऱकापरस्ती ही आती है,
कभी राम को सरेआम मारा कभी अल्ला-अकबर जलायें हैं।Ó
इसीलिए अब कोर्ट के फैसले के बाद देश की फिजाओं में यह बात गूंजने लगी है कि तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय, न तुम हारे, न हम हारे। गर सचमुच फैसले को दोनों पक्ष इसी नजरिए से देखें, तो अयोध्या पर अदालती फैसला न सिर्फ ऐतिहासिक, अलबत्ता राष्ट्रीय एकता की अनूठी मिसाल होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के तीनों जजों ने राम जन्मभूमि को कानूनी मान्यता दी। तो बाकी अन्य पक्षों को भी निराश नहीं किया। भले तीनों जजों की राय में फर्क हो पर फैसला यही हुआ कि विवादित जमीन तीन हिस्सों में बांटी जाए। रामलला विराजमान यानी मूर्ति वाली जगह का हक भगवान राम को तो सीता रसोई और राम चबूतरा का हक निर्मोही अखाड़े को। चूंकि लंबे समय से मुस्लिम भी इबादत करते आ रहे थे सो एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी दे दिया। यों तो एक अक्टूबर को रिटायर हो रहे बैंच के एक जज धर्मवीर शर्मा ने तो समूची जमीन भगवान राम की बताई पर जस्टिस एसयू खान और सुधीर अग्रवाल ने तीन हिस्से में बांटने का फैसला दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग की रपट से माना गया, मस्जिद किसी इमारत को तोड़कर बनाई गई थी सो इस्लामिक मान्यता के तहत ऐसी जमीन पर मस्जिद को मान्यता नहीं दी गई पर नौ हजार पन्नों के फैसले में कोर्ट का लब्बोलुवाब यही रहा कि रामलला की पूजा अनंतकाल से होती आ रही, सो मंदिर भी बने।
यानी कानून से परे हट अदालत ने शायद पहली मर्तबा आस्था को महत्व दिया। जिस पक्ष का जैसा था, उसको करीब-करीब वैसा ही मिल गया। सचमुच इतने उलझे हुए केस का इससे सुलझा हुआ हल नहीं हो सकता सो सभी पक्षों को अब लचीला रुख अपनाना चाहिए। अदालती फैसले को आधार बना नए सिरे से बातचीत हो। तो सिर्फ विवादित जमीन ही नहीं, समूची 70 एकड़ जमीन का फैसला हो जाए सो अब केंद्र सरकार की भूमिका भी अहम है जिसने 1993 में 67 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर ली थी। हाईकोर्ट ने तो रामलला और निर्मोही अखाड़े की जमीन तय कर दी पर मुस्लिमों की इबादत की जगह तय नहीं की। अलबत्ता तीनों के लिए बराबर व्यवस्था करने का जिम्मा सरकार पर छोड़ दिया। अगर केंद्र चाहे, तो अब दोनों पक्षों में समझौता कराने की पहल कर सकता। भले दोनों पक्ष फैसले से पूरी तरह संतुष्ट नहीं, पर पूरी तरह असंतुष्ट भी नहीं हैं सो सरकार ईमानदार और प्रभावी पहल करे, तो विवाद हाईकोर्ट के फैसले से ही खत्म हो सकता है।
यों फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान कर दिया तो मंदिर के पैरोकारों में भी कुछ ऐसे कट्टरपंथी, जो मस्जिद के लिए एक तिहाई जमीन के फैसले को चुनौती देने के मूड में। यों फैसले के फौरन बाद संघ-बीजेपी ने इस पर चुप्पी साध ली। सर संघचालक मोहन भागवत ने यह फैसला संत उच्चाधिकार समिति पर छोड़ दिया पर भागवत-आडवाणी दोनों अपनी खुशी का इजहार चतुराई से कर गए। कहा- हिंदुओं का हक साबित हो गया सो अब गर्भगृह पर भव्य राम मंदिर बने। हाईकोर्ट का फैसला राष्ट्रीय एकता का नया अध्याय और सांप्रदायिक सौहार्द का नया युग। मोहन भागवत ने फैसले पर खुशी को स्वाभाविक बताया पर संयम की अपील करते हुए कहा- कोई ऐसा कुछ न करे, जो दूसरे की भावना को ठेस पहुंचाए। संघ परिवार ने मुस्लिम समाज से भूली ताहि बिसारने की अपील करते हुए मंदिर निर्माण में जुटने का न्योता भी दिया। पर संघ की ओर से जारी बयान में मंदिर आंदोलन में मारे गए लोगों की कुर्बानी का भी जिक्र कर गए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के फैसले से कांग्रेस और भाजपा दोनों की मुश्किलें कुछ कम हो गई हैं। हाईकोर्ट ने विवादित परिसर को रामजन्म स्थान बताकर संघ परिवार के दावे पर मुहर लगा दी है। इससे कांग्रेस एक बड़े संकट से बच भी गई है। लंबे समय से विवादित इस मसले पर आए फैसले में हर पक्ष के लिए कुछ न कुछ है। शायद यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बड़े सधे शब्दों में कहा फैसले को किसी पक्ष की हार या जीत के रूप में नहीं लेना चाहिए।
विवादित स्थान के जीपीआरएस सर्वे और उसके बाद एएसआई की रिपोर्ट ने मुकदमे की दिशा पहले ही काफी कुछ तय कर दी थी। अगर अदालत ने अपने फैसले में जन्म स्थान के बारे में कोई शक-शुबहा की गुंजाइश छोड़ी होती तो उसे लेकर कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए राजनीतिक समस्याएं खड़ी होती। अब यह तय है कि संघ परिवार केंद्र सरकार पर यह दबाव बनाएगा कि अधिग्रहीत जमीन भी हिंदुओं को दे दी जाए। केंद्र सरकार व कांग्रेस के सामने संघ परिवार के इस दबाव का धर्म संकट जरूर बढ़ेगा। दरअसल अदालत को जो फैसला देना था उसने दे दिया है। अब आगे का रास्ता राजनीतिक नेतृत्व को तय करना है। इतना ही नहीं जहां अब कांग्रेस के दोनों समुदायों को साथ लेकर चलने के राजनीतिक कौशल की परीक्षा होनी है, वहीं भाजपा के सामने अपनी कट्टर हिंदुत्ववादी छवि से निकलने का अवसर भी है। यही वजह है कि आज भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा फैसले ने राष्ट्रीय एकता के लिए एक नया अध्याय खोला है और दोनों समुदायों के बीच रिश्तों के नए युग की शुरुआत की है।
दरअसल उच्च न्यायालय के तीनों माननीय न्यायाधीशों ने राम लला के जन्म स्थान पर एकमत होकर जो फैसला दे दिया है उससे भाजपा व संघ परिवार को अनचाहे एक बढ़त मिली है। पार्टी की सोच है कि मंदिर न बनने से जो तबका नाराज था उसकी नाराजगी उच्च न्यायालय के फैसले से अपने आप दूर होगी। फैसले के बाद उभरे नए राजनीतिक परिदृश्य ने सपा के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है। किसी भी तरह का ध्रुवीकरण सपा के लिए राजनीतिक फायदे का हो सकता था। फैसले ने उस गुंजाइश को ही खत्म कर दिया है। जबकि दूसरी तरफ बसपा का राजनीतिक मिजाज मंदिर मस्जिद का कभी रहा ही नहीं। इसलिए फैसले से सीधे तौर पर उसका कोई नुकसान होता नहीं दिखता। हालांकि फैसले ने कांग्रेस, केंद्र सरकार व भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौतियां भी खड़ी की हैं। यों देश की जनता की परिपक्वता को अपना भी सलाम, जिसने फैसले को न्याय के तौर पर कबूला। फिर भी राजनीति नहीं होगी, ऐसा कहना बेमानी है। मायावती ने तो फैसले के फौरन बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चि_ी लिख दी। केंद्र की ओर से 67 एकड़ जमीन अधिग्रहण का इतिहास याद कराते हुए माया ने फैसले के मुताबिक यथोचित कार्रवाई करने की मांग की। उनने बार-बार दोहराया, इस विवाद में जो भी करना है, वह केंद्र ही करेगा। यानी माया ने एक पक्ष की थोड़ी निराशा को देख अपना पल्ला फौरन झाड़ लिया। ताकि कहीं कुछ गड़बड़ हो, तो ठीकरा केंद्र के ही सिर फूटे। पर कांग्रेस कोई भाजपा-बसपा की तरह गबरू जवान पार्टी नहीं है। अलबत्ता सवा सौ साल पुरानी तजुर्बेकार पार्टी है। सो मामले की संवेदनशीलता देख हर बार की तरह इस बार भी फैसले का स्वागत किया। कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी आध्यात्मिक गुरु बन गए। रामचरित मानस की चौपाई का जिक्र किया- प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्था, न मम्ले वनवास दुखत। मुखाम्बुजश्री रघुनंदनस्य मे, सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।। अर्थात भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ या वनवास हुआ। पर चेहरे पर कभी खुशी या दुख नहीं। अलबत्ता स्थिरप्रज्ञ की तरह रहे। यानी राम को शरणागत होकर कांग्रेस ने संयम की अपील की। सचमुच देश के लिए इम्तिहान का दौर था। 30 सितंबर को फैसले के प्रति देश की निगाहें इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच पर टिकी हुई थीं। हर तरफ बापू के भजन, ईश्वर-अल्लाह के बोल गूंज रहे थे। सन्मति दे भगवान की धुन बजती रही। फैसले के बाद मीटिंग्स, बयानबाजियों का दौर चला। प्रधानमंत्री ने भी देश की जनता पर भरोसा जताया। देश की जनता ने भी परिपक्वता दिखा राजनीति की रोटी सेकने वालों को बतला दिया, 1992 का दौर अब खत्म हो चुका। यानी अयोध्या पर फैसला भी आ गया, दोनों समुदायों के बीच फासला भी नहीं बढ़ा सो अब अपील कि जा रही है कि जो भी फासला बचा, सुलह के प्रयासों से ही मिट जाए और किसी को सुप्रीम कोर्ट जाने की जरूरत न पड़े। अयोध्या का विवाद आजादी मिलने और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद शुरू हुआ। आजाद भारत में 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में कथित रुप में रामलला प्रकट हुए। सुबह इसकी जानकारी सिपाही माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज रामदेव दुबे को दी। 29 दिसंबर 1949 को आईपीसी की धारा 145 के तहत इसे कुर्क कर लिया गया। उसके बाद से ही यह विवाद सुर्खियों में रहा और 30 सितंबर 2010 की सुनवाई से पूर्व यह देश का सबसे संवेदनशील मामला था।
अयोध्या में विवादित स्थल की जगह पर मस्जिद के अस्तित्व में आने से काफी पहले मंदिर होने के नतीजे तक पहुंचने में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट की अहम भूमिका मानी जा रही है। एएसआई रिपोर्ट में संबंधित स्थल पर ढाई हजार साल पहले से कोई न कोई ढांचा मौजूद रहने के संकेतों की बात कही गई है। 29 मुसलमानों सहित 131 मजदूरों की टीम द्वारा खुदाई के दौरान मिले साक्ष्यों के आधार पर एएसआई ने रिपोर्ट में विवादित स्थल पर मस्जिद से पहले 10वीं सदी का एक ढांचा होने के प्रमाण मिलने की बात कही है, जो हिंदू मंदिर की तरह था। एएसआई को राम चबूतरा के पास एक चैंबर और 11 खंभों के आधार मिले हैं। एएसआई की रिपोर्ट में पांच स्तरीय ढांचे की बात भी है, जिसमें हर स्तर पर चूना-सुर्खी के गारे के इस्तेमाल के सबूत पाए गए। एएसआई ने अगस्त 2003 में 574 पेज की रिपोर्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच को सौंपी थी। पुरा अवशेषों में कमल, कौस्तुभ आभूषण जैसे हिंदू प्रतीक चिह्न् पाए गए हैं। यहां मिलीं ईटें बाबर के काल के पहले की पाई गई हैं। कुछ पुरावशेष जमीन से 20 फीट नीचे पाए गए हैं। एएसआई का मानना है कि 20 फीट से नीचे पाई गई सामग्री 1500 साल पुरानी होनी चाहिए। विवादित स्थल पर मूल सतह 30 फीट तक नहीं मिली है, जिससे अनुमान लगाया गया है कि उस स्थान पर 2500 साल पूर्व तक कोई न कोई ढांचा रहा है।
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि एएसआई की रिपोर्ट के अलावा कोर्ट ने ऐतिहासिक दस्तावेजों का सहारा भी लिया होगा। इन दस्तावेजों में यात्रा वृत्तांत से जुड़े गैजेटियर, बाबरनामा बाकी ताशखंडी, ईस्ट इंडिया गैजेटियर 1828 और गैजेटियर ऑफ द टेरिटरीज 1858 शामिल हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक के मुकदमे में फैसला सुनाते हुए संभवत: एएसआई की रिपोर्ट का सहारा लिया है। लेकिन पहली बार 28 अप्रैल, 2003 को दाखिल की गई पहली रिपोर्ट पर ही इतिहासकारों ने अपनी आपत्ति जता दी थी। हालांकि, एएसआई की रिपोर्ट में मंदिर के अस्तित्व पर सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन रिपोर्ट में अहम जगहों पर दिलचस्प और महत्वपूर्ण जैसे शब्दों का इस्तेमाल और सबूत मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं।
ये बात हमें साफ-साफ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का जमीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। 1855 तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेजों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन गौर करने योग्य बात ये है कि आजादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताकत और सत्ता के जरिये इस जमीन को कब्जियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आजादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुजाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!
इतिहास इसका गवाह रहा है कि महंगाई और गरीबी देश के सामने हमेशा ही मुद्दा रही है। लेकिन धार्मिक उन्माद ने उन सभी मुद्दों को पीछे छोड़ा है। राजनीतिक निहितार्थ के मद्देनजर भी आज यह मसला उतना ही जीवित है। जिन नायकों की पहचान ही इसी मुद्दे के आधार पर गढ़ी गई थी वे आज भले ही इस मुद्दे को लेकर हां और ना दोनों के साथ दिख रहे हों। लेकिन 23 और 24 सितंबर को जिस तरह से ये चेहरे बयान जारी कर रहे थे उससे साफ़ जाहिर हो रहा था कि इस मसले को राजनीतिक रंग देने के प्रयास आज भी कमजोर नहीं हुए हैं। दूसरी तरफ़ है आम जनता। महंगाई से जूझ रही आम जनता। कॉमनवेल्थ में गेम्स लेन के बगल जाम से जूझ रही जनता। दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रही आम जनता के मन में राम-रोटी की भूख क्या आज भी उतनी ही तेज है? देश में हम अभी तक गरीबी का प्रतिशत तय ही नहीं कर पाए हैं। एनएसएस का आंकड़ा गरीबी को 27 फ़ीसदी दिखाता है तो अर्जुन सेन कमेटी में यह आंकड़ा 77 फीसदी तक चला जाता है। दुनिया के पंद्रह करोड़ कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारत में हैं। शिक्षा का अधिकार हम अपने देश के बच्चों को अभी तक उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। ऐसे हालात में मंदिर या मस्जिद का सवाल देश के आम आदमी की बेहतरी की दिशा में भला क्या योगदान कर पाएगा? अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद से आगे बढ़कर देश के सामने पेश इन चुनौतियों के बारे में ठोस कदम उठाया जाए। बीते दो दशकों में देश के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और अयोध्या भी बदले इसी में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भलाई है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें