मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

साझा मुल्क साझी विरासत

असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
सरयू नदी में पंडे धर्म-कर्म कराते थे और मुसलिम समुदाय के लोग फूल चढ़वाने का काम करते थे. जहूर मियां बाबरी मस्जिद का केस भी लड़ते थे और संत-महंत सामने से गुजर जाएं तो दुआ-सलाम व आदर देने में कहीं भी कोताही नहीं करते थे. हाशिम मियां के क्या कहने, उनका महंत परमहंस जी से तो याराना जैसा था. हाशिम मियां आज भी हैं वे बाबरी मस्जिद के एक पक्षकार भी हैं और इसी मामले में हिंदू पक्ष की ओर से पक्षकार रहे रामचंद्र परमहंस के साथ एक ही गाड़ी में बैठकर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा लडऩे के लिए जाते थे.
फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिंदू-मुसलिम साथ खड़े दिखते हैंभाजपा के सांसद रहे ब्रह्मचारी विश्वनाथ दास शास्त्री की यह बात उस अयोध्या की झलक देती है जिसकी हर ईंट में गंगा-जमुनी तहजीब और सद्भाव की मिट्टी बसी है. फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न मेले-त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिन्दू-मुसलिम साथ-साथ दिखाई देते हैं. पूजा के लिए दिए जाने वाले फूलों से लेकर मंदिरों में चढऩे वाली माला को पिरोने के काम में लगे मुसलिम समुदाय के लोग शहर के ताने-बाने में ऐसे रचे बसे हैं कि यदि ये न हों तो शायद अयोध्या की जिंदगी ही ठहर जाए.
कनकभवन के बगल में स्थित सुंदरभवन में रामजानकी का मंदिर है. अन्सार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 1945 से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों तक इस मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में तो वे पुजारी के काम में मंदिर में हाथ भी बंटाते थे. वे पंचवक्ती नमाजी थे लेकिन क्या मजाल इसे लेकर अयोध्या में कोई विवाद हुआ हो.
अयोध्या के साधु-संतों के लिए विशेष तौर पर अयोध्या के मुसलिम कारीगरों द्वारा जो खड़ाऊं बनायी जाती है उसे 'चुन्नी-मुन्नीÓ कहते हैं. इसका वजन 50 से लेकर 100 ग्राम तक होता है. इसे बनाने वाले एक मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि यह एक खास हुनर है . इनके पिता भी यही काम करते थे और खानदान के लगभग एक दर्जन लोग इसे अपना व्यवसाय और सेवा बनाए हुए हैं. 6 दिसम्बर, 1992 को बाहरी उपद्रवी लोगों ने इनका घर जलाकर खाक कर दिया फिर भी इन्होंने न तो अयोध्या छोड़ी और न खड़ाऊं बनाना. हनुमानगढ़ी सहित तमाम मंदिरों में ये खड़ाऊं चढ़ाई जाती है. जब विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण स्थितियां खराब होने के अंदेशे में खड़ाऊं के कारोबार में लगे मुसलिम कारीगर थोड़े दिनों के लिए अयोध्या छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए तो विश्व हिंदू परिषद को भरतकुंड के खड़ाऊ पूजन का कार्यक्रम पूरा करने के लिए जरूरी खड़ाऊं उपलब्ध नहीं हो सकी.
इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि अयोध्या में कई मंदिर और अखाड़े हैं जिन्हें मुसलिम शासकों ने समय-समय पर जमीन और वित्तीय संरक्षण दिया. फैजाबाद के सेटिलमेंट कमिश्नर रहे पी कारनेगी ने भी 1870 में लिखी अपनी रिपोर्ट में इस आशय के कई उल्लेख किए हैं. रामकोट क्षेत्र, जहां अयोध्या विवाद का मुख्य केंद्र बिंदु विवादित परिसर है, उसी के उत्तर में स्थित जन्मस्थान मंदिर 300 वर्ष पुराना है. यह वैष्णवों के तडग़ूदड़ संप्रदाय का मंदिर है और कार्नेगी ने लिखा है कि इसके लिए जमीन अवध के नवाब मंसूर अली खान ने दी थी. रामकोट में प्रवेश द्वार पर ही एक टीलेनुमा किले के रूप में दिखती है हनुमानगढ़ी. सीढिय़ां देख लीजिए तो लगता है जैसे पहाड़ी पर चढऩा है. हनुमानगढ़ी को नवाबों के समय में दी गई भूमि पर बनाया गया था और आसफुदौला के नायब वजीर राजा टिकैतराय ने इसे राजकोष के धन से बनवाया. आज भी यहां फारसी में लिपिबद्ध पंचायती व्यवस्था चल रही है. जिसका मुखिया गद्दीनशीन कहलाता है. इस समय रमेशदास जी इसके गद्दीनशीन हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास ने 2003 में अयोध्या के इतिहास में हनुमानगढ़ी परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन करके हिन्दू-मुसलिम के बीच अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप आई कुछ दूरियों को समाप्त करने के लिए एक नया अध्याय खोला और इसके बाद सादिक खां उर्फ बाबू टेलर ने मस्जिद परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ कराकर अवध की उसी गंगा-जमुनी तहजीब का परिचय दिया जिसका अयोध्या भी एक हिस्सा है.
हनुमानगढ़ी के महंत, षटदर्शन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं कि नागापनी संस्कार में उनके गुरू द्वारा बताया गया था कि अवध के नवाब आसफुदौला और सूबेदार मंसूर अली खान के समय में मंदिर को दान मिला था. महन्त ज्ञानदास फारसी में लिखे उस फरमान को दिखाते हैं जिसके अनुसार मंदिर को दान मिला. वे कहते हैं, जहां तक मुझे ज्ञात है कि नवाब के नायब नवल राय द्वारा अयोध्या के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ. बाबा अभयराम दास को भी नवाबों के काल में भूमि दी गई थी.
इसी अयोध्या में बाबर के समकालीन मुसलिम शासकों ने दंतधावन कुंड से लगे अचारी मंदिर जिसे दंतधावनकुण्ड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, को पांच सौ बीघे जमीन ठाकुर के भोग, राग, आरती के लिए दान में दी थी. महंत नारायणाचारी बताते हैं कि अंग्रेजों ने भी इस जमीन पर मंदिर का मालिकाना हक बरकरार रखा और जमीन को राजस्व कर से भी मुक्त रखा, इस शर्त पर कि मंदिर द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया जाएगा.
अयोध्या में ही उदासीन संप्रदाय का नानकशाही रानोपाली मंदिर भी है. यह वही मंदिर है जिसकी चौखट पर ऐतिहासिक 'धनदेवÓ शिलालेख जड़ा है जिसमें पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा यहां एक ऐतिहासिक यज्ञ करने का वर्णन है. इस मंदिर का क्षेत्र ही इतना बड़ा है कि मंदिर परिसर के अंदर खेती भी होती है. तहलका ने कुछ साल पहले जब यहां महंत दामोदरदास से मुलाकात की थी तो उन्होंने नवाब आसफुद्दौला का एक दस्तावेज दिखाया था जो फारसी में लिखा था. उन्होंने बताया था, 'नवाब ने मंदिर के लिए एक हजार बीघे जमीन दान में दी थी लेकिन इसकी जानकारी हमें नहीं थी. 1950 में इसका पता चला जब महंत केशवदास से मार्तंड नैयर और शकुंतला नैयर ने मंदिर की जमीन का बैनामा करा लिया. मामला आगे बढ़ा तो पता चला कि यह तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जमीन दान की थी उसी दौरान हमें आसफुद्दौला की ग्राण्ट का यह प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ था जिसे कोर्ट में लगाया गया और बैनामा खारिज हुआ. कोर्ट ने कहा कि दान की भूमि को बेचा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि शकुंतला नैयर तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर की पत्नी तथा मार्तंड नैयर उनके बेटे थे. केकेके नैयर के समय ही 22/23 दिसंबर 1949 को मूर्तियां बाबरी मस्जिद के अंदर रखी गई थीं. बाद में ये पति-पत्नी जनसंघ के टिकट पर सांसद भी निर्वाचित हुए थे.
सरयू किनारे स्थित लक्ष्मण किले के बारे में उल्लेख मिलता है कि यह मुबारक अली खान नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बनवाया था. यह अब रसिक संप्रदाय का मंदिर है जिसके अनुयायी रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रूप में मान्यता देते हैं. अयोध्या-फैजाबाद दो जुड़वां शहर हैं. फैजाबाद नवाबों की पहली राजधानी रही है. गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव फैजाबाद की दुर्गापूजा पर भी दिखता है जब चौक घंटाघर की मस्जिद से दुर्गा प्रतिमाओं के जुलूस पर फूलों की वर्षा की जाती है. यह परंपरा कब शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उसी रूप में आज भी जारी है.
असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
वेद-कुरान का ज्ञान
संकरी गलियों की भूलभुलैया वाला इलाहाबाद का करेली मोहल्ला. मुसलिम बहुल इसी मोहल्ले की एक गली में तकुआ इस्लामिक स्कूल है जहां हमें वेदों और कुरान की शिक्षा एक साथ देने वाली शिक्षिका असमा शम्स मिलती हैं. वे कहती हैं, 'सभी धर्म एक ही मंजिल की ओर इशारा करते हैं. यदि आप भगवद गीता, वेद, उपनिषद या फिर कुरान से सुरे इख्लास, सुरे फातेहा पढ़ें तो आप पाएंगे कि इन सबमें एक समानता है. ये सभी ईश्वर की एकता की बात कहते हैं. यही बात स्वामी दयानंद द्वारा लिखी गई किताब सत्यार्थ प्रकाश और ब्रह्मसूत्र में भी कही गई है.
मदरसे में बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने की तालीम भी मिलती हैइस इलाके में मदरसों की भरमार है. परंतु इस स्कूल का मिजाज इन मदरसों से बिलकुल जुदा है. नाम भले ही इस्लामिक स्कूल हो लेकिन यहां हर मजहब के बच्चों का स्वागत है. स्कूल इस्लामिक एजुकेशन एंड रिसर्च संस्थान (ईरो) द्वारा चलाया जाता है. पेशे से कंप्यूटर प्रोग्रामर जिया-उस-शम्स इस संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष हैं. अप्रैल 2010 में इस स्कूल की शुरुआत करने वाले जिया कहते हैं कि वे ऐसा संस्थान शुरू करना चाहते थे जहां बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ ही विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने और भाईचारे को बढ़ावा देने की तालीम दी जाए.
ईरो की स्थापना जनवरी, 2008 में जागरूक नागरिकों के एक समूह ने विभिन्न धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से की थी. इस्लाम के बारे में फैली भ्रांतियां दूर करना भी इसकी स्थापना की एक मुख्य वजह थी. तभी से यह संस्थान शांति और विभिन्न धर्मों में सामंजस्य बैठाने की दिशा में अनथक प्रयास कर रहा है. जिया बताते हैं, यहां एक अनूठी लाइब्रेरी भी है जहां आपको कुरान, हदीस, बाइबिल, गीता और वेद एक साथ रखे हुए मिल जाएंगे. यहां विभिन्न भाषाओं में धर्म ग्रंथ उपलब्ध हंै ताकि आम जनता उन्हें आसानी से पढ़ और समझ सके. यहां आप बाइबिल और भगवद गीता उर्दू में या फिर कुरान अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं. हमारा मकसद लोगों को सिर्फ अपने धर्म के बारे में पढऩे और समझने के लिए प्रेरित करना नहीं बल्कि दूसरे धर्मों को समझना और उसके बारे में फैली गलतफहमियों को दूर करना भी है. जिया के इस कदम को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. वे अब ऐसे और स्कूल खोलने की भी सोच रहे हैं. उनके मुताबिक विभिन्न धर्मों के बीच फैले वैमनस्य की मुख्य वजह गलतफहमी और अविश्वास है. वे कहते हैं, 'विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने पर कोई भी आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि सभी धर्म एक ही बात कहते हैं. शांति, सामंजस्य और इंसानियत ही सभी धर्मों का सार है. हम चाहे उसे जिस नाम से बुलाएं या जिस तरीके से उसकी इबादत करें. परंतु वह एक है. स्कूल में पढऩे वाली अल शिफा कहती हैं शिक्षा ही लोगों को शांति और एकता की राह दिखा सकती है. अगर सब आपस में प्यार से रहें तो धरती ही जन्नत बन जाएगी.
ईरो द्वारा समय-समय पर भाईचारे और आपसी विश्वास को बढ़ावा देने के लिए बैठकें, परिचर्चा और गोष्ठियां भी आयोजित की जाती हैं. इन आयोजनों में सभी समुदायों के बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता भाग लेते हैं और एक मंच से शांति के प्रसार और विभिन्न धर्मों के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास करते हैं.
आधुनिक विज्ञान के साथ संस्कृत और अरबी पढ़ते तकुआ इस्लामिक स्कूल के बच्चे आश्वस्त करते लगते हैं कि वे आगे जाकर सभी धर्मों को समझने वाले और उनका आदर करने वाले जिम्मेदार नागरिक जरूर बनेंगे.

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