गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

मप्र में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन

दलितों की 3,49,26,20,00,000 की भूमि रसूखदारों के कब्जे में
भोपाल। मध्य प्रदेश में 10 अक्टूबर को मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वन अंचलों में निवासरत आदिवासियों और दलितों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करने के लिए दीनदयाल वनांचल सेवा की शुरुआत की। सरकार का दावा है कि इससे 24 हजार गांवों को फायदा होगा। लेकिन वन अंचलों में रहने वाले लोगों को सरकार की इस योजना पर विश्वास नहीं है। दरअसल, आज तक केंद्र या राज्य सरकार ने जितनी भी योजनाएं इनके लिए शुरू की हैं वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं। सुविधाएं मिलना तो दूर आदिवासियों को उनके मूल निवास यानी वनों से तो बेदखल किया ही जा रहा है उनको सरकार द्वारा दी जा रही जमीन को भी हड़पा जा रहा है। प्रदेश में पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह सरकार ने 1999 से 2002 के बीच प्रदेश के अनुसूचित जाति और जनजाति के 3 लाख 24 हजार 329 परिवारों को 6 लाख 98 हजार 524 एकड़ जमीन आवंटित की थी। जिसकी वर्तमान समय में कीमत करीब 3,49,26,20,00,000 रूपए है। लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद भी हाल यह है कि इनमें से 70 फीसदी लोग अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं। उनकी जमीन या तो किसी रसूखदार ने हड़प ली है या फिर वह कागजों में कैद है। दरअसल, मप्र में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन हो रहा है। जहां वन विभाग उनके सिर से छत छीन रहा है वहीं उनको आवंटित जमीन रसूखदारों द्वारा कबजाई जा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि आदिवासी या तो सड़क के किनारे या वन क्षेत्र के बाहर झोपड़ी लगाकर दिन काट रहे हैं। हालांकि शासन और प्रशासन की लगातार उपेक्षा से अब आदिवासी और दलित लामबंद होने लगे हैं और आंदोलन कर रहे हैं। सरकारी बदमाशी, बेबस आदिवासी करीब 15 साल प्रदेश में आदिवासियों और दलितों को पट्टा दिया गया था। उस समय ऐसा लगा जैसे दलितों के भाग्य ही बदल गया। लेकिन आज करीब 15 साल बाद ाी दलित पट्टा लेकर दलित अपनी जमीन तलाश रहे हैं। वे जब भी अपने जिले के अधिकारियों के पास जाते हैं उन्हें फटकार ही मिलती है। आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी कहते हैं, कि प्रदेश के करीब सवा तीन लाख आदिवासियों और दलितों को सरकार द्वारा 15 साल पहले जो पट्टा दिया गया था, वह जमीन तो मिली नहीं। जिस जमीन पर आदिवासी काबिज हैं उससे भी बेदखल किया जा रहा है। वह कहते हैं कि बैतूल जिले के चिचौली क्षेत्र पश्चिम वन मंडल की सांवलीगढ़ रेंज में उमरडोह वनग्राम में रहने वाले आदिवासियों को बार-बार उनके आशियाने उजाड़ कर उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। यही नहीं उनकी फसल भी रौंद दी जाती है। पिछले साल तो इतनी बेरहमी से बेदखल की कार्रवाई की गई थी कि मु यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। लेकिन आज तक उन आदिवासियों को दोबारा बसने नहीं दिया गया। लगभग आधा सैकड़ा आदिवासी किसान परिवार जो वर्षों से उमरडोह वनग्राम में छप्पर बनाकर रह रहा था । वह यहीं खेती किसानी करते हैं और अपना परिवार पालते हैं। अनुराग मोदी कहते हैं, 'जिस जमीन पर ये परिवार दशकभर से अधिक समय से रह रहे हैं, वन विभाग उसे अपनी जमीन बताता है। इसलिए इन परिवारों को वहां से हटाना चाहता है। लेकिन अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी अधिनियम (वन अधिकारों की मान्यता), 2006 के तहत यह गैरकानूनी है। इस कानून में प्रावधान है कि वे आदिवासी जो 2005 के पहले से जिन वन क्षेत्रों में रह रहे हैं उन्हें वहां से हटाया नहीं जाएगा। पर वन विभाग वन अधिकार अधिनियम 1927 के पुराने कानून के तहत काम कर रहा है। यह गलत है।Ó उमरडोह वासियों के साथ ऐसा पहली बार भी नहीं हुआ। इससे पहले भी वन विभाग 2011 में एक ऐसी ही कोशिश कर चुका है। 2005 से ही वन विभाग के ऐसे प्रयास जारी हैं। पर हर बार वन विभाग के अमले के जाते ही ये लोग अपने छप्पर फिर से डालकर रहना शुरू कर देते थे। पट्टे मिलने लेकिन जमीन नहीं मिली 15 साल पहले जब दिग्विजय सरकार ने दलितों को जमीनों के पट्टे दिए तो लोग बहुत खुश हुए थे कि वे भी अब जमीन के मालिक बनेंगे। लेकिन कइयों की जमीन कागजों पर ही रह गई, कइयों को नदी-नालों और पहाड़ों में मिली और कइयों के साथ ऐसा हुआ कि इसे पाने की लड़ाई में उनके बर्तन तक बिक गए। आज आलम यह है कि अपनी जमीन के लिए अपना सब कुछ गंवा चके दलित-आदिवासी दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं। अपना और अपने घर वालों का पेट पालने के लिए इन्हें दूसरों के खेत में मजदूरी करनी पड़ रही है। ऐसे ही लोगों में देवास जिले के मोखा पिपलिया गांव में रहने वाले सिद्धूजी ाी शामिल हैं। दूसरों के खेत में मजदूरी करते हुए उनकी कई पीढिय़ां गुजर चुकी हैं। जब सरकार ने उन्हें जमीन का पट्टा दिया था तो एक दलित परिवार के मुखिया सिद्धूजी ने सोचा कि देर से ही सही, उनके भाग जग गए। उनका ऐसा सोचना लाजमी था। उन्हें सरकार ने बाकायदा पट्टा लिखकर अपने ही गांव की पांच बीघा जमीन का मालिक करार दे दिया था। लेकिन सरकारी कागज मिलने के अगले ही दिन 60 साल के सिद्धूजी के सारे सपने तार-तार हो गए। उन्हें सरकार ने जो जमीन दी थी, वहां तो नदी बह रही थी। उन्हें समझ में नहीं आया कि वे बहती हुई नदी में खेती कैसे करें। तब से अब तक उन्होंने गांव से जिले तक सब तरफ कोशिश की, पर समस्या वहीं की वहीं है। प्रदेश में यह अकेले सिद्धूजी की कहानी नहीं है। प्रदेश के 30 से ज्यादा जिलों में रहने वाले करीब सवा दो लाख दलित और आदिवासी परिवारों का यही हाल है। 1999 से 2002 के बीच सरकार ने निर्धन भूमिहीन दलित-आदिवासी परिवारों को खेती के लिए जमीन के पट्टे बांटे थे। ये पट्टे उनके ही गांव की सरकारी जमीन में से दिए गए थे। सरकार ने ाी मानी गलती 2003 में जब मप्र में सरकार बदली और दलित की बेटी उमा भारती मु यमंत्री बनीं तो लोगों को लगा की जल्द ही उनको उनके पट्टे की जमीन मुहैया करा दी जाएगी। लेकिन पहले उमा भारती, फिर बाबूलाल गौर भी आदिवासियों और दलितों का दुख नहीं हर सके। 2005 में सत्ता संभलते ही शिवराज सिंह चौहान ने आदिवासियों और दलितों के उत्थान का खाका तैयार करवाया। उनके इस उपक्रम से ऐसा लगा की सरकार भूमिहीन दलित-आदिवासी परिवारों को खेती के लिए जमीन मुहैया करा देगी। लेकिन आलम यह है कि आज तक 70 फीसदी लोगों को सरकार उनके हिस्से की जमीन नहीं दिला सकी है। खुद सरकार ने विधानसभा में यह बात मानी है। फरवरी 2013 में तत्कालीन राजस्व मंत्री करण सिंह वर्मा ने कांग्रेस विधायक केपी सिंह के एक सवाल के जवाब में बताया था कि प्रदेश के कई जिलों में पट्टेधारकों को उनकी जमीन पर काबिज नहीं कराया जा सका है। हालांकि उन्होंने विधानसभा में इस आंकड़े को 60 प्रतिशत ही बताया था लेकिन, प्रदेश भर में सर्वे करने वाली संस्था भू अधिकार अभियान का दावा है कि यह 70 फीसदी है। यानी लोगों के हाथों में पट्टे के कागज तो हैं पर उनकी नियति वही है जो पहले थी। भू अधिकार अभियान के गजराज सिंह कहते हैं, कुछ लोगों को तो यह तक पता नहीं था कि सरकार ने उनके नाम कोई जमीन की है। सूचना के अधिकार से उन्हें अब इस बात का पता चल पा रहा है। कई लोगों को पट्टे तो मिल गए पर उन्हें आज तक कब्जा नहीं मिला। उनकी जमीनों पर आज भी दबंग या प्रभावी लोग ही खेती कर रहे हैं। गजराज कहते हैं कि कुछ को जमीन तो मिल गई पर उनकी जमीन तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं दिया गया। ऐसे में वे खेती नहीं कर पा रहे। कई जगह जंगल की जमीन आवंटित कर दी है, वहां वन विभाग खेती नहीं करने दे रहा। वहां राजस्व और वन विभाग के बीच दलित दो पाटन के बीच की तरह पीस रहे हैं। किसी को नदी-नालों पर ही पट्टे दे दिए। किसी को पहाड़ पर तो किसी को रास्ते पर। किसी को आधी तो किसी को चौथाई हिस्सा जमीन ही मिल पायी है। गजराज यह भी बताते हैं कि जब सरकार ने सारी कृषि जमीनों का विवरण कंप्यूटराइज्ड किया तब कई जिलों में पट्टे की जमीनों को कंप्यूटर रिकार्ड में चढाया ही नहीं गया। बाद में जब इसकी शिकायत हुई तो सुधार किया गया। ऐसे में प्रभावितों को शासकीय रिकार्ड कैसे मिलता? कुल मिलाकर कहें तो सरकारी अमले की निष्क्रियता से पूरी योजना ही मटियामेट हो चुकी है। रसूखदारों के लिए नियमों में बदलाव तत्कालीन दिग्विजय सरकार ने पट्टे दिए जाने वाले घोषणापत्र में स्पष्ट उल्लेख किया था कि ये अहस्तांतरणीय रहेंगे। लेकिन वर्तमान प्रदेश सरकार ने बीते साल जो आदेश किया उससे प्रभावितों की मुश्किलें और बढ़ गईं। 21 अगस्त 2015 को जारी राजपत्र में मप्र भू राजस्व संहिता के प्रावधानों में संशोधन करते हुए दलितों को दिए गए पट्टों को अहस्तांतरणीय से बदलकर दस सालों बाद हस्तांतरणीय कर दिया गया। इससे जमीन पर ल बे समय से कब्जा कर रहे दबंगों को अप्रत्यक्ष रुप से फायदा मिलेगा। अब वे इन्हें डरा-धमकाकर या थोड़े पैसों का लालच दिखाकर इनकी पट्टे की जमीन को वैधानिक तौर पर अपने नाम करा सकेंगे। दिग्विजय सरकार ने घोषणापत्र में यह भी कहा गया था कि लोगों को अपनी जमीन पर काबिज करवाने का पूरा जि मा प्रशासन का होगा और जिला कलेक्टर इस काम की निगरानी करेंगे। इसके बावजूद प्रदेश में कहीं कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पा रही। सबसे बुरी स्थिति छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह, उज्जैन, देवास, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, विदिशा, सागर और इंदौर जिलों की है। शाजापुर जिले में नलखेडा तहसील के चांपाखेडा के कंवरलाल अब तक अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं। सीहोर जिले की इछावर तहसील के 14, आष्टा तहसील के 111, नसरुलागंज में बालागांव के 47 लोगों को अब तक कब्जे नहीं मिले। टीकमगढ़ जिले की बड़ागांव तहसील के कनेसनगर में 18 तथा नीमच की मनासा तहसील के कुंडला में 21 तो महागड में 10 लोगों की जमीन पर अब भी दबंगों का कब्जा है। देवास जिले में सोनकच्छ के धन्धेड़ा में तो अजीबोगरीब दलील दी गई कि राजस्वकर्मियों के पास गांव का सरकारी नक्शा ही नहीं है, इस वजह से अब तक यहां पट्टों की जमीन बताई ही नहीं जा सकी है। अभियान के सर्वे में मिली जानकारी के अनुसार प्रदेशभर में करीब दो लाख से ज्यादा लोगों को आज तक भी अपनी जमीनों पर कब्जा नहीं मिल सका है। अदालत पर भारी दबंगों की गुंडागर्दी दलितों की जमीन हड़प कर बैठे दबंगों पर शासन और प्रशासन का तो जोर चल ही नहीं रहा है। साथ ही वे अदालत के निर्णयों की भी अव्हेलना करने में बाज नहीं आ रहे हैं। छतरपुर जिले में महाराजपुर के सैला गांव में 55 वर्षीय अजोध्या अहिरवार ने पट्टे की जमीन पर दबंगों के कब्जे को लेकर न्यायालय में गुहार लगाई तो फैसला उनके पक्ष में आया। फैसले से उत्साहित अजोध्या ट्रैक्टर लेकर तिल्ली बोने अपने खेत पर गए तो वहां मौजूद दर्जनभर से ज्यादा दबंगों ने उनकी लाठियों से पीट-पीट कर हत्या कर दी। देवास जिले के बागली में बडियामांडू के 70 साल के दोलूजी से गांव के ही दबंग लोगों ने पट्टे की जमीन पर काबिज होने की बात पर दो बार खून-खराबा किया। आखिरकार परिवार सहित उन्हें गांव से भागना पड़ा। हालात इतने बुरे हैं कि पट्टे की जमीन पर बरसों से कब्जा जमाए दबंग अब किसी की सुनने को तैयार नहीं है। कई बार तो वे कब्जा दिलाने खेत पर पहुंचे सरकारी अमले पर भी हमला करने से भी बाज नहीं आते। कुछ समय पहले देवास जिले के खेड़ा माधौपुर में एक परिवार के लिए जमीन का सीमांकन कर उसे कब्जा दिलाने गए पटवारी विनोद तंवर, चौकीदार और कालू को 30-40 दबंगों ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। विनोद तंवर बताते हैं कि उन्हें सात दिन अस्पताल में रहना पड़ा। आरोपियों पर कोर्ट में मामला भी लंबित है। जिले के ही निपनिया हुरहुर, इस्माइल खेड़ी, राजोदा और सामगी गांव में भी यही हालात हैं। शाजापुर जिले के गांव खड़ी में भगवंता बाई दबंगों के साथ हुए टकराव में बंदूक के छर्रे लगने से ज मी हो गई थीं। प्रदेश में कई जगह पट्टों की जमीन को लेकर दलितों का खून बहाया गया पर फिर भी कब्जे नहीं मिले। विधवा जसोदाबाई अपनी आपबीती सुनाते हुए फफक पड़ती हैं। सीहोर जिले में आष्टा के रामपुरा की 55 वर्षीया जसोदाबाई को पांच एकड़ जमीन का पट्टा मिला था। लेकिन इस पर काबिज दबंगों ने आज तक उन्हें कब्ज़ा नहीं दिया। वे परिवार में अकेली हैं और मजदूरी करके अपना पेट पालती हैं। उन्हें हर दिन काम की तलाश में दूसरों के खेत पर जाना पड़ता है। वे पूछती हैं, जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, तब तक तो ठीक पर उसके बाद किसका सहारा? कौन रोटी देगा और कौन इलाज़ कराएगा? थोड़ी सी जमीन मिल जाती तो बुढ़ापा सुधर जाता। दबंग उन्हें धमकाते हैं कि कहीं शिकायत की तो ठीक नहीं होगा। जसोदाबाई के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ नजर आती हैं। इसी गांव की रहने वालीं और विकलांग 50 साल की रेशमबाई की पांच एकड़ जमीन पर भी दबंग ही खेती कर रहे हैं। उज्जैन जिले की तराना तहसील के नांदेड गांव में मोहनलाल को जो जमीन मिली वह दबंगों के कब्जे में थी। मोहनलाल ने जमीन के लिए बहुत संघर्ष किया पर 2012 में जमीन का सपना लिए ही उनकी टीबी से मौत हो गई। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें जमीनें तो मिल गई हैं लेकिन, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इनका क्या करें। विदिशा जिले की लटेरी तहसील के गांव बांदीपुर में हरप्रसाद और जवाहरसिंह को सिंद नदी का ऊबड़-खाबड़ कराड़ (खाईनुमा) किनारा मिला है। लटेरी में ही रतनलाल अहिरवार को गोलाखेडा और बाबूलाल अहिरवार को आनंदपुर में नालों की जमीन का पट्टा मिला है। टीकमगढ़ के बक्सोई में प्रभुदयाल तनय को भी नाले की जमीन का पट्टा दे दिया गया। टीकमगढ़ जिले में बडागांव के अमरपुर में अमना तनय वंशकार को 0.5 हेक्टेयर पहाड़ी जमीन दी गई लेकिन, वहां चट्टानों के सिवा कुछ नहीं है। यहां मु_ी भर मिटटी ही नजर नहीं आती तो खेती की बात तो बहुत दूर की है। सीहोर जिले के इछावर ब्लाक में जमोनिया गांव के दलित अशोक कुमार बताते हैं कि उन्हें 2002 में जमीन का पट्टा मिला था। वे बताते हैं, कुछ सालों बाद कब्जा भी मिल गया लेकिन हमारी जमीन तक जाने के लिए रास्ता ही नहीं है। हमने दो बार फसल भी बोई लेकिन खेत के पड़ोसी ने दोनों बार नष्ट कर दी और कुल्हाड़ी लेकर हमें जान से मारने की धमकी देता है। अब हम खेत तक जाएं ही कैसे? श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी कहते हैं कि दरअसल दबंगों को शासन-प्रशासन का साथ मिल रहा है। वह कहते हैं कि सरकार भले ही अपने आप को आदिवासी और दलित हितैषी माने लेकिन उसकी कार्यप्रणाली दलित विरोधी है। वह कहते हैं कि प्रदेश के सभी जिलों में दलितों और आदिवासियों को प्रताडि़त किया जा रहा है। आलम यह है कि पीडि़त मु यमंत्री निवास पर जाकर प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। प्रदेश में दलित और आदिवासी केवल वोट बैंक बनकर रह गए हैं। जमीन की जंग में बर्तन तक बिक चुके मध्यप्रदेश में पिछले दस सालों से आदिवासियों और दलितों की जमीन उन्हें दिलाने के लिए जंग तेज हो गई है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के श्रीकांत कहते हैं कि अधिकांश प्रभावित यह लड़ाई ल बे समय से लड़ रहे हैं। अब तो उनका धीरज भी जवाब देने लगा है। कुछ बुजुर्ग तो जमीन मिलने से पहले ही जिंदगी की लड़ाई हार चुके हैं तो कुछ इस फेर में जिले और तहसील के चक्कर लगाते-लगाते थक चुके हैं। कई परिवारों की पहले से बिगड़ी माली हालत और बदतर हो चुकी है। उनके बर्तन तक बिक चुके हैं। भू अधिकार अभियान नाम की संस्था बीते 10 सालों से प्रदेश के करीब 16 जिलों में जमीन की लड़ाई में इन परिवारों का हौसला बढ़ा रही है। संस्था के कार्यकर्ता पीडि़त परिवारों को कानूनी सलाह और परामर्श तो देते हैं ही, प्रशासन और पीडि़तों के बीच कड़ी का काम भी करते हैं। संस्था से जुड़े राजेन्द्र सिंह बताते हैं, हम कोशिश कर रहे हैं कि इन पीडि़तों की आवाज प्रशासन और सरकार तक पहुंचा सकें ताकि इन्हें न्याय मिल सके। आदिवासियों को वनभूमि पर अधिकार देने के लिए पिछली यूपीए सरकार के अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 बनाकर लागू किया इसके तहत आदिवासियों को वनभूमि पर अधिकार दिया जाना था लेकिन हाल ही के आंकड़ों (31.05.2016 तक के आंकड़े) पर नजर डाली जाए तो स्थिति स्पष्ट होती है कि इसे भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। पूरे देश में अब तक 4, 311, 211 लोगों ने व्यक्तिगत दावे किये हैं, जबकि 1,702,846 को अधिकार पत्र दिये गए इसी प्रकार 116,380 ने सामुदायिक दावे पेश किये इनमें से कुल 43,492 को ही अधिकार मिल सका, कुल मिलाकर पूरे देश में 4,427,613 दावे आये जबकि 1,746,338 को ही अधिकार मिल सका इससे अर्थ निकाला जा सकता है कि सरकार आदिवासी हित से जुड़े इस मामले को कितनी गंभीरता से ले रही है। मध्यप्रदेश की ही बात करें तो यहां व्यक्तिगत् और सामुदायिक कुल 610,591 दावे पेश किए गए जबकि 223,680 को वनभूमि पर अधिकार मिल सका। विसंगतियों की हो रही जांच प्रदेश सरकार का दावा है कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जिस तरह पट्टों का वितरण किया गया उसमें कई तरह की विसंगतियां हैं। उसकी जांच कराई जा रही है। लेकिन आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार 2013 से ही जांच की बात कह रही है लेकिन आज तक किसी से पूछताछ नहीं हुई है। आंदोलनकारियों का कहना है कि जब भी पट्टे धारी आंदोलन पर उतरते हैं उन्हें शासन-प्रशासन द्वारा जांच का आश्वासन दिया जाता है। लेकिन यह जांच कब पूरी होगी पता नहीं..? उधर प्रदेश की सरकार में काबीना मंत्री रामपाल सिंह भी मानते हैं कि पट्टों का वितरण किया गया उसमें कई तरह की विसंगतियां हैं। वे कहते हैं, हमने इन विसंगतियों की जांच करने के आदेश दिए हैं। जांच का काम प्रदेश में पूरा हो गया है हालांकि अब तक जांच रिपोर्ट नहीं मिल सकी है। जांच रिपोर्ट को विधानसभा में रखा जाएगा। सरकारी दावे निकले खोंखले वहीं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और सांसद कांतीलाल भूरिया कहते हैं कि प्रदेश में पिछले 12 सालों में आदिवासियों को वन क्षेत्र से बेदखल करने के अलावा कोई कार्य नहीं हुआ है। वह कहते हैं कि मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आदिवासी और दलित हितैषी होने का दावा खूब कर रहे हैं लेकिन 15 साल पहले इनको मिले पट्टे की जमीन दिलवाने में उनके दावे फेल हो रहे हैं। वह कहते हैं कि प्रदेश के बजट का करीब 22 प्रतिशत बजट आदिवासियों के नाम पर किया जाने लगा है, लेकिन बावजूद इसके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खाद्यान्न, भूमि सहित हर क्षेत्र में आदिवासियों का पिछड़ापन दूर नही हो सका। वहीं कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि प्रदेश में आदिवासियों की योजनाओं में जमकर भ्रष्टाचार किया जा रहा है। इसका प्रमाण है श्योपुर में कुपोषण से आदिवासी बच्चों की मौत। वह कहते हैं कि हद तो यह है कि सरकार यह मानने को तैयार ही नहीं है कि श्योपुर में कुपोषण से आदिवासी बच्चों की मौत हुई है। यादव कहते हैं कि मप्र सरकार के पिछले 12 साल के कार्यकाल में आदिवासी योजनाओं में जिस कदर भ्रष्टाचार हुआ है उतना पहले कभी नहीं हुआ। वह कहते हैं कि वर्तमान सरकार ने आदिवासियों के नाम पर वनांचल की जमीनों को हड़पने का काम किया है। आलम यह है कि प्रदेश के वन क्षेत्र के आसपास भाजपा नेताओं, उद्योगपतियों और अधिकारियों के फार्म हाउस बन गए हैं। ये उस जगह पर हैं जहां पहले आदिवासी या तो निवास करते थे या खेती। नर्मदा बचाओ आंदोलन के श्रीकांत हैं कि मध्य प्रदेश में तमाम लुभावने दावों के बावजूद आदिवासियों की स्थिति जस की तस है। आलम यह है कि बीते दस साल में 357 अरब से ज्यादा की राशि आदिवासियों पर खर्च की गर्ई, फिर भी कहीं इलाज के अभाव में आदिवासी दम तोड़ रहे हैं तो कहीं जमीन से बेदखल होने की नौबत है। हर बार चुनाव के पहले लुभावने वादे जरूर होते हैं, लेकिन जीत के बाद कोई दल पलटकर नहीं देखता। राज्य सरकार के विभिन्न सरकारी विभागों में आदिवासियों के लिए सौ से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं चलती हैं, लेकिन आदिवासी उत्थान की र तार सुस्त है। योजनाओं की भरमार फिर भी आदिवासी बीमार मप्र में आदिवासियों के लिए सरकारी स्कूल, आवासीय छात्रावास, छात्रवृत्ति, रोजगार प्रशिक्षण, कपिलधारा योजना में सबसिडी, किसानों को स्वरोजगार अनुदान, रानी दुर्गावती स्वरोजगार योजना में उद्योग के लिए अनुदान, अधोसंरचना विकास और पुनर्वास योजना चल रही हैं। लेकिन ये योजनाएं केवल कागजों पर चल रही हैं। अगर कहीं चल भी रहीं हैं तो भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं। प्रदेश में आदिवासियों की स्थिति जमीन के मामले में भी खराब है। वनाधिकार अधिनियम-2006 के तहत वनभूमि के पट्टे मिलने के दावे हकीकत के सामने खोखले नजर आते हैं। अगस्त-2012 तक प्रदेश में 4 लाख 60 हजार 947 आवेदन में से अनुसूचित जनजाति के लोगों को केवल 1 लाख 59 हजार 172 पट्टे दिए गए थे। वहीं 2 लाख 78 हजार 758 दावे खारिज कर दिए गए। करीब 4 लाख 50 हजार 619 दावे व्यक्तिगत थे, जबकि दस हजार 328 सामुदायिक दावे थे। लेकिन आलम यह है कि आदिवासी मारे-मारे फिर रहे हैं। अनुराग मोदी कहते हैं कि आदिवासियों की मु य समस्याएं सरकारी योजनाओं का लाभ न मिल पाना - मनरेगा में पूरी मजदूरी नहीं मिलना - वनभूमि के पट्टे से बेदखल करना - चिकित्सीय सुविधाएं नहीं मिल पाना - अशिक्षा, रोजगार-स्वरोजगार की व्यवस्था नहीं होना - समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार होनाऔर कुपोषण-घेंगा जैसे रोग से ग्रसित होना। इनके समाधान के लिए आदिवासियों के नाम से अरबों रूपए आ रहे हैं, लेकिन सरकारी तंत्र उसका गबन कर रहा है। आदिवासियों की मूल जरूरतें पूरी करने की बजाए छीना जा रहा है। जागृत आदिवासी दलित संगठन मप्र की माधुरी बेन कहती हैं कि आदिवासियों के लिए विशेष योजनाएं और विशेष कानून हैं, लेकिन उसी के नाम पर उनका शोषण हो रहा है। उनको जमीन से बेदखल कर रहे। योजनाओं में आदिवासियों से धोखा करने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए। लेकिन सरकार निष्क्रिय बनी हुई है। मप्र हर क्षेत्र में पिछड़े आदिवासी संबंधित योजनाएं ठेकेदारों और अधिकारियों का घर भर रही हैं। आजादी से अब तक तमाम योजनाओं के बावजूद आदिवासी हर क्षेत्र में पिछड़ा है। जिन योजनाओं में आदिवासी ने कर्ज लिया, वहां वह और बर्बाद हो गया। आजाद देश के गुलाम नागरिक जागृत आदिवासी दलित संगठन मप्र की माधुरी बेन कहती हैं मप्र ही नहीं बल्कि देश भर में आदिवासियों की स्थिति खराब है। भारत को आजाद हुए 70 साल होने जा रहे हैं लेकिन आज भी भारत के आदिवासियों को स्वतंत्रता का लाभ नहीं मिला.... आदिवासियों ने आजादी के समय नगरीय समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया नतीजतन आदिवासी प्रभुत्व एवं बहुलता वाले क्षेत्रों में अंग्रेज कभी पूर्ण रूप से अपनी सत्ता स्थापित नहीं कर सके, लगातार संघर्ष के चलते अंग्रेजों ने अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों को एक्सक्लूडिड एरियाज यानी विनियमन मुक्त क्षेत्र (जहां अंग्रेजों के कानून लागू नहीं होंगे) घोषित कर रूढ़ीजन्य मान्यताओं के पालन हेतु स्वतंत्र ही रखा, हालांकि वन कानून के जरिए आदिवासियों के संसाधनों पर पीछे के रास्ते उन्होंने काफी लूट खसूट की। लेकिन बावजूद इसके आदिवासी काफी हद तक स्वतंत्र रहे। लेकिन आजादी के बाद सुविधाओं के अभाव, वनों और वन भूमि से उनके अधिकार छीन उन्हें गुलाम बना दिया गया है। वह कहती हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में अनुसूचित जनजातियों की साक्षरता दर 54 प्रतिशत है, लेकिन जनजाति में कुल 6.8 प्रतिशत और 5.6 प्रतिशत महिलाएं ही 12वीं पास हैं, यही हाल उच्च शिक्षा का है, आदिवासियों में कुल 3.9 प्रतिशत पुरुष और 2.7 प्रतिशत महिलाएं ही स्नातक या उससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त कर सकी हैं जबकि सामान्य वर्ग में यह 11 (पुरुष) और 9.2 (महिलाएं) प्रतिशत है। जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है, यहां आज भी नवजात मृत्युदर 62.1 प्रति हजार है, जबकि राष्ट्रीयदर 57 है, मृत्युदर में अधिकता का एक कारण संस्थागत् प्रसूतियों का अभाव है, क्योंकि इन क्षेत्रों में अस्पताल व अन्य स्वास्थ्य केंद्र उउपलब्ध नहीं हैं, इसी प्रकार 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर 95.7 है जबकि शेष भारत में यह 74.3 है क्योंकि भुखमरी और कुपोषण यहां की स्थाई समस्या है, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2005-06) के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के 54.4 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कम वजन के हैं इसी प्रकार 53.9 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं, तथा 27.6 प्रतिशत बच्चे कमजोर हैं। हालांकि 2013-14 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए बच्चों के तीव्र सर्वेक्षण के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के 36.7 प्रतिशत बच्चे कम भार, 42.3 प्रतिशत बच्चे अविकसित और 18.7 प्रतिशत बच्चे कमजोर पाए गए। आदिवासियों की मृत्युदर भी 3.12 है जो शेष भारत (2.7) की तुलना में अधिक है। आजाद भारत में आदिवासी अपनी उपेक्षा से दुखी है, वो शोषण की शिकायत करता है, ऑटोनामी का नारा देता है, नक्सलियों की मदद करता है, वर्तमान को वे खण्ड-खण्ड में देखने का आदि हो गया है, भविष्य का उसके पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। सरकार की नीतियों के अभाव में पूरा समाज ही दिशाहीन हो चुका है। मोदी राज में भी फंड्स का बंटाढ़ार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद दलितों और आदिवासियों के उत्थान के लिए कई कदम उठाए गए । लेकिन 2014-15 में केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा दलितों और आदिवासियों के लिए बने दो फंडों (अनुसूचित जाति उप योजना (एससीएसपी) और जनजातीय उप योजना (टीएसपी)) के लिए आंवटित राशि में से एक-तिहाई से अधिक खर्च ही नहीं किया जा सका। इसका कारण भ्रष्टाचार बताया जा रहा है। दरअसल 2014 के आम चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने केरल में दलित और पिछड़े वर्ग की एक सभा को संबोधित करते हुए स्वंय को छुआछूत का शिकार बताया था। उन्होंने कहा कि, अगला 10 वर्ष आपका होने जा रहा है। और वहां जमा हुई भीड़ ने इस बात पर जम कर उनकी वाहवाही की थी। सरकार बनते ही मोदी ने अपना वादा निभाया और 2014-15 के बजट में दलितों और आदिवासियों के लिए बने दो फंड (अनुसूचित जाति उप योजना (एससीएसपी) और जनजातीय उप योजना (टीएसपी)) के आंवटन में 25 फीसदी की वृद्धि की गई है। हालांकि, केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा आंवटित राशि में से एक-तिहाई से अधिक यानि 32,979 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए गए। पिछले वर्ष की तुलना में इस कर राशि में 250 फीसदी की वृद्धि हुई है। मप्र के एक अधिकारी बताते हैं कि लगभग सभी प्रदेशों की सरकारों ने इन विशेष कोष का कम उपयोग किया है। उद्हारण के लिए 1997 और 2002 के बीच मप्र को दलित कल्याण योजनाओं के लिए करोड़ों रुपए आवंटित किए गए थे। डेढ़ दशक बाद जब जानने की कोशिश की गई कि इनमें से कितनी राशि दलितों पर खर्च हुई है तो जवाब मिला कि पूरी रिपोर्ट एकत्र की जा रही है। 35 वर्ष पहले शुरु किए जाने के बावजूद दोनों फंड सरकारों द्वारा अधिकांश अछूते ही हैं। इस कारण अनुसूचित जातियों और जनजातियों के जीवन में सुधार करने के लिए निर्धारित 2.8 लाख करोड़ रुपए (42.6 बिलियन डॉलर) खर्च नहीं किए गए हैं जबकि आदिवासी गंभीर रूप से जरूरत मंद हैं। समस्या ठीक करने के लिए विधान की आवश्यकता आदिवासी विकास विभाग के एक अधिकारी कहते हैं कि योजनाओं के शुरु होने के तीन दशक बाद भी इनके समर्थन के लिए कोई भी केंद्रीय कानून नहीं है । इस कारण केंद्रीय योजनाओं का लाभ आदिवासियों को नहीं मिल पा रहा है। केंद्रीय कानून बनाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। दलित मानवाधिकार राष्ट्रीय अभियान के राष्ट्रीय समन्वयक बीना जे. पाल्लीकल कहते हैं कि नौकरशाहों का कहना है कि यह सिर्फ एक दिशानिर्देश है न कि कानून है। और यह इसका इस्तेमाल दलितों और आदिवासियों को उनका उचित हिस्सा देने में इंकार करते हैं। यह योजनाएं नीति आयोग द्वारा समय -समय पर जारी दिशा-निर्देशों पर चलाए जा रही हैं । लेकिन आयोग के पास उन्हें लागू करने की शक्ति का आभाव है इसलिए दिशा-निर्देशों की अनदेखी की जाती है। पाल्लीकल का मानना है कि कानून बनने से धन की उपक्षा करने के संबंध में अधिकारियों की जबावदेही बनेगी। जहां तक मप्र का सवाल है तो यहां की बड़ी आबादी जनजाति की है, अर्जुनसेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश की 78 प्रतिशत आबादी की आय बीस रुपए प्रतिदिन से कम है, प्रदेश के आदिवासी बहुल जिला मु यालय झाबुआ, धार, खरगोन, बड़वानी आदि आजादी के 70 वर्ष बाद भी रेल सुविधा से वंचित हैं, दूरदराज के अंचलों में यातायात, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ पीने के पानी के लाले पड़े हैं। रोजगार के लिए बड़ी आबादी हर वर्ष अस्थायी पलायन के लिए बाध्य है। आजादी से अबतक की सरकारों ने आदिवासी कल्याण के नाम पर विभिन्न योजनाएं लेकर आईं, अरबों रुपये का फंड स्वीकृत किया फिर भी नतीजा शून्य है। आदिवासियों की हालत में सुधार क्यों नहीं हुआ। यह पैसा कहां गया। आदिवासियों को तो शिक्षा और ही स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ पहुंचाया जा रहा है। न तो विकास और न ही कोई सुविधाएं। रोजगार के साधन भी नगण्य। स्वास्थ्य सुविधाएं भी नदारद। अब आदिवासी या अनुसूचित जनजाति को स्वाभाविक रूप से पर्यायवाची वंचित, गरीब और पिछड़े हुए लोगों की प्रजाति के रूप में देखा जाने लगा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार आदिवासी योजनाओं का फायदा किसको हो रहा है? 99999999999999999

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें