गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

8,55,544 करोड़ स्वाहा, फिर भी मप्र कंगाल-बेहाल

एमडीजी, एसआरएस, एसोचैम की रिपोर्ट्स ने खोली 'शिव-राजÓ की कलई
भोपाल। मध्य प्रदेश के मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने हर भाषण में यह बात कहना नहीं भूलते कि उन्होनें मध्यप्रदेश को बीमारु से तेजी से दौड़ते हुए राज्य के रुप में खड़ा कर दिया है। लेकिन हकीकत इससे परे है। भाषणों में मध्यप्रदेश जरुर तेजी से दौड़ रहा है जमीनी धरातल में आज भी बीमारु राज्य की श्रेणी में खड़ा हुआ है। यह खुलासा एमडीजी(सहस्राब्दि विकास लक्ष्य या एमडीजी), एसआरएस(सै पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम), एसोचैम(एसोसिएटेड चै बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्टीज ऑफ इंडिया), यूनीसेफ (यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड), रंगराजन समिति की रिपोर्ट्स में हुआ है। पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के किसी भी देश से ज्यादा आबादी रहती है। इसी आधार पर इन देशों से भी राज्य की तुलना की गई है। और बताया गया है कि मानव विकास के 18 सूचकांकों के औसत के हिसाब से सार्क देशों में श्रीलंका सबसे बेहतर है। जबकि मध्य प्रदेश नीचे से दूसरे पायदान पर। उससे नीचे सिर्फ अफगानिस्तान है। मध्य प्रदेश को बीमारू राज्य के दाग से मुक्त करने के लिए पिछले 10 साल में करीब 8,55,544 करोड़ का बजट खर्च किया गया है। सरकार का दावा है कि प्रदेश आज बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर आ गया है, लेकिन हाल ही में आई कई रिपोट्र्स ने सरकार के दावों की कलई खोल कर रख दी है। रिपोट्स के अनुसार, प्रदेश में योजनाओं-परियोजनाओं की भरमार के बाद भी सामाजिक प्रगति की कसौटी पर मध्य प्रदेश अन्य राज्यों से ही नहीं हमारे पड़ोसी छोटे-छोटे देशों से भी काफी पीछे है। औद्योगिक विकास, सर्विस सेक्टर , घरेलु उत्पादन आदि श्रेणियों में मध्यप्रदेश बिहार से पिछड़ा हुआ है। यही नहीं वित्तीय वर्ष 2015-16 में झारखंड की विकास दर सबसे ऊपर है। विकास दर के आंकड़ों में झारखंड ने बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे बीमारू राज्यों को तो पछाड़ा ही है इसके अलावा कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों को भी वह पीछे छोड़ा है। सामाजिक प्रगति की कसौटी पर मप्र फेल मिलेनियम डेवलपमेंट गोल(एमडीजी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सामाजिक प्रगति (सामाजिक ढांचे का आशय शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण आदि )की कसौटी पर मध्य प्रदेश अन्य राज्यों से ही नहीं हमारे पड़ोसी छोटे-छोटे देशों से भी काफी पीछे है। मप्र सरकार गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य की स्थिति, महिलाओं के लिए प्रतिकूल वातावरण को दूर करने के अपने वादे से चूक गई है। साफ है कि प्रदेश को बीमारू राज्यों की श्रेणी से निकालकर विकसित राज्यों की कतार में खड़ा करने का राज्य सरकार का दावा हकीकत से कोसों दूर है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार की प्रमुख नीतियां अपना लक्ष्य पाने में सफल नहीं हो पाईं। गरीबों की कुल आबादी के मामले में मध्य प्रदेश निचले क्रम पर ही पाकिस्तान की बराबरी पर नजर आता है। यानी मध्य प्रदेश में पाकिस्तान के बराबर लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। सबको प्राथमिक शिक्षा दिलाने के लक्ष्य के हिसाब से मध्य प्रदेश का दर्जा श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से भी नीचे है। मातृ एवं शिशु मृत्यु दर के मामले में भी ये चारों देश मध्य प्रदेश से बेहतर हैं। जबकि शिक्षा व रोजगार में लैंगिक भेदभाव (महिलाओं और पुरुषों के बीच) पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बाद सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में पाया गया है। एमडीजी की रिपोर्ट के अनुसार, सामाजिक क्षेत्र में की जा रही अनदेखी को इसकी प्रमुख वजह माना गया है। राज्य सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और अन्य महत्वपूर्ण सेक्टरों पर भी कम खर्च किया है। सोशल सेक्टर पर मध्यप्रदेश अपने बजट का 39 प्रतिशत हिस्सा की खर्च करता है, जबकि छत्तीसगढ़ 46 प्रतिशत, बिहार 45 प्रतिशत , ओडिशा 42 प्रतिशत और उत्तरप्रदेश 41 प्रतिशत राशि खर्च करता है। इस पर राष्ट्रीय औसत 42 प्रतिशत है। इस मामले में देश के 17 बड़े राज्यों में मध्य प्रदेश से नीचे सिर्फ गोवा (36.30 प्रतिशत), पंजाब (35 प्रतिशत) और केरल (34.89 प्रतिशत) जैसे तीन राज्य ही हैं जिनका सामाजिक ढांचा मध्य प्रदेश की तुलना में पहले से ही बेहतर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश के आठ राज्यों को ए पावर्ड एक्शन ग्रुप (ईएजी) के तहत रखा गया है। यानी ऐसे राज्य जहां मानव विकास के सूचकांकों पर काफी करने की जरूरत है। इन राज्यों में बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश शामिल हैं। देश के आठ ए पॉवर्ड एक्शन ग्रुप में भी प्रदेश की स्थिति बेहतर नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को जल्द ही इसपर कुछ करना चाहिए, जिससे सोशल सेक्टर में कुछ बदलाव आ सके। मध्य प्रदेश में गरीबी 31.65 फीसदी एमडीजी रिपोर्ट (2014-15) के मुताबिक गरीबी का अनुपात पूरे देश का 21.92 फीसदी है तो मध्य प्रदेश का 31.65 फीसदी। पिछले एक दशक में देश में गरीबों की सं या में 23.4 फीसदी कमी आई है, लेकिन मध्यप्रदेश में यह कमी मात्र 11.1 प्रतिशत ही है। प्रदेश में 2.28 करोड़ लोग गरीब हैं, जो पाकिस्तान में रह रहे गरीबों की सं या के बराबर हैं। रंगराजन समिति की रिपोर्ट की मानें तो देश में गरीबों की तादाद में करीब 10 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के आखिरी वक्त में गठित रंगराजन समिति ने अपनी ताजा रिपोर्ट में गरीबी को लेकर तेंदुलकर समिति के आंकड़ों को खारिज करते हुए देश में गरीबों की सं या का नया आंकड़ा पेश किया था। इसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में दो करोड़ 34 लाख गरीब हैं। यानी मप सरकार ने जो अंत्योदय के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाई हैं वह बेअसर साबित हो रही हैं। 10 साल में 11 लाख गरीब बढ़ें अगर प्रदेश सरकार के आंकड़ों को माने तो आश्चर्यजनक पहलू तो यह है कि सरकार के तमाम दावों के बाद भी प्रदेश में 10 साल में 11 लाख गरीब बढ़े हैं। यह जानकारी मध्यप्रदेश के ग्रामीण विकास व पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव ने जुलाई में विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जवाब में दी थी। विधानसभा में कांग्रेस विधायक कमलेश्वर पटेल के एक सवाल के जवाब में भार्गव ने बताया कि वर्ष 2002-03 हुए सर्वेक्षण के आधार पर प्रदेश में बीपीएल कार्डधारियों की सं या 54 लाख 68 हजार थी, जो अप्रैल 2016 में बढ़कर 61 लाख 82 हजार हो गई थी। उसके बाद ग्रामोदय से भारत उदय अभियान के दौरान और भी नाम जुड़े। इससे बीपीएल कार्डधारियों की सं या बढ़कर 65 लाख आठ हजार हो गई। इस तरह बीते 10 वर्षों में 11 लाख बीपीएल कार्डधारी बढ़े हैं। मप्र का स्वास्थ्य दिन पर दिन बदतर क्या आप विश्वास करेंगे कि जिस राज्य में चिकित्सा और पेयजल के लिए इस वित्तीय वर्ष में 11,950 करोड़ का बजट दिया गया हो वहां पिछले दो महिने में करीब 543 लोगों की मौत डायरिया से हो गई है। लेकिन यह हकीकत है। ऐसा मध्य प्रदेश में हुआ है। मध्य प्रदेश का गिरता स्वास्थ्य कोई नई बात नहीं है लेकिन स्वास्थ्य विभाग अब अपने आंकड़ों को दुरूस्त करने में लगा है। सरकार का दावा है कि अस्पतालों में डायरिया के मरीजों के इलाज के लिए पर्याप्त इंतजाम है, जबकि इनमें से अधिकांश की मौत इलाज के दौरान ही हुई है। यह प्रदेश में बेहाल, बेलगाम, बेकाबू होती जा रही स्वास्थ्य सेवाओं का परिणाम है। स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि प्रदेश में डायरिया बाढ़ के कारण फैल रहा है। जबकि यूनिसेफ का दावा है कि समाज में व्याप्त भ्रांतियों और गलत धारणाओं के कारण राज्य में हर साल पांच वर्ष की आयु तक के 28 हजार बच्चे डायरिया जैसी बीमारियों के चलते मौत का शिकार हो रहे हैं। और इसका मूल कारण है दुषित पानी और उचित इलाज का अभाव। यानी प्रदेश में सरकार के तमाम दावों और प्रयासों के बाद भी लोगों को न तो पीने का शुद्ध पानी मिल रहा है और न ही उचित इलाज। 8,526 करोड़ किसके लिए प्रदेश की साढ़े सात करोड़ आबादी के स्वास्थ्य लाभ के लिए वित्तीय वर्ष 2016-17 में सरकार ने 8,526 करोड़ रूपया दिया है। इसमें से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन हेतु 2038 करोड़, स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत 5,643 करोड़ और चिकित्सा शिक्षा के लिए 845 करोड़ है। लेकिन इतना बड़ा बजट किसके लिए? क्योंकि प्रदेश में जरूरतमंदों को स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसी का परिणाम है कि जबलपुर, सतना, रीवा, छतरपुर, डिंडौरी, छिंदवाड़ा, बालाघाट, सिवनी, सिंगरौली, मंडला, छतरपुर, बैतूल आदि जिलों में डायरिया कोप बन कर टूटा है। आलम यह है कि कई जिलों में अस्पतालों में मरीजों को भर्ती करने का की जगह नहीं है। मरीजों के लेटने के लिए बेड तक की व्यवस्था नहीं है। अस्पतालों में मरीजों का जमीन पर इलाज किया जा रहा है। अस्पतालों में दवाओं की कमी है। कुपोषित बच्चों की तादाद 57.9 फीसदी मप्र में कुपोषण रोकने के लिए जितनी योजनाएं और फंड है उतना किसी अन्य राज्य में नहीं है। इसके बावजुद तीन साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की तादाद पूरे देश में जहां 40.4 फीसदी है तो मध्य प्रदेश में 57.9 फीसदी। यूनीसेफ के साथ मिलकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी ने इस रिपोर्ट को तैयार किया है। इसके मुताबिक, मानव विकास के अधिकांश सूचकांकों पर मध्य प्रदेश का प्रदर्शन बेहद खराब है। बच्चों को जन्म देते वक्त महिलाओं की मौत के मामले में मधयप्रदेश देश का पांचवां सबसे खराब राज्य है। यहां हर एक लाख गर्भवती महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 167 है। इसी तरह, मध्यप्रदेश देश का दूसरा ऐसा राज्य है, जहां जन्म के वक्त सबसे ज्यादा बच्चों की मौत होती है। प्रति हजार में यहां 54 नवजात दम तोड़ देते हैं, जबकि इस मामले में पूरे देश का औसत 40 है। मध्य प्रदेश देश का दूसरा ऐसा राज्य है, जहां जन्म के वक्त सबसे ज्यादा बच्चों की मौत होती है। प्रति हजार में यहां 54 नवजात दम तोड़ देते हैं, जबकि इस मामले में पूरे देश का औसत 40 है। भारत सरकार के हेल्थ मैनेजमेंट इंफोर्मेशन सिस्टम 2013-14 के मुताबिक मध्य प्रदेश में बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह सेप्सिस, एसपेक्सिया और जन्म के समय उनका कम वजन होना है। पूरे देश में यही तीन कारण शिशुओं की मौत की सबसे बड़ी वजह बने हुए हैं। 20 प्रतिशत बच्चों की मौत जन्म के 24 घंटे से लेकर एक सप्ताह की अवधि में कम वजन होने की वजह से हो जाती है। 1 माह से लेकर 11 महीने तक की अवस्था में 19 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण निमोनिया, डायरिया, मीजल्स से संबंधित बुखार बनता है। यह पूरा मसला समाज के पोषण से भी जुड़ा है, जिस देश में लोगों की खाद्य सुरक्षा ही इतनी अनिश्चित और असंतुलित हो, वहां ऐसे कलंक तो होना ही है। इन कारणों का ही विश्लेषण कर लीजिए, साफ समझ आता है कि शिशुओं की इतनी बड़ी मौत के गुनाहगार तो सभी हैं। यह कलंक इस राज्य का पीछा नहीं छोड़ रहा। बीते 12 बरस से मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा शिशु मृत्यु दर वाला राज्य बना हुआ है, जो कि सब-सहारन अफ्रीका के कुछ हिस्सों से भी बदतर स्थिति है। ऐसा लगता है कि इस सूबे ने इस कलंक के साथ ही जीना स्वीकार कर लिया है। तभी मध्य प्रदेश की सरकार इस दिशा में कोई काम नहीं कर रही। किसी समुदाय के स्वास्थ्य का सूचक आइएमआर (शिशु मृत्यु दर) भी इस राज्य के समूचे सामाजिक-आर्थिक हालात की सूचना देता है। मध्य प्रदेश का खराब आइएमआर जीडीपी वृद्धि के 10 फीसदी से ज्यादा के आंकड़े और 21 फीसदी से ज्यादा की सकल कृषि वृद्धि दर को मुंह चिढ़ाता नजर आता है। 2014-15 के आंकड़ों के आधार पर नमूना पंजीकरण प्रणाली 2016 के अनुसार मध्यप्रदेश का आइएमआर 54 है। यह भारत में सबसे ज्यादा है। असम और ओडिशा इसके बाद 49 अंकों के साथ आते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश 48 अंकों के साथ तीसरे स्थान पर है। यूनिसेफ, मध्य प्रदेश में स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. वंदना भाटिया कहती हैं, मध्य प्रदेश को सुरक्षित प्रसव समेत जच्चा-बच्चा की देखभाल की गुणवत्ता, घर से लेकर अस्पताल तक फीडिंग के तरीके, टीकाकारण, निमोनिया और हैजा नियंत्रण आदि पर ध्यान केंद्रित करना होगा। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह डॉक्टरों, खासकर विशेषज्ञों की कमी की बात को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, हमें समस्या का अंदाजा है और हम समाधान निकालने का प्रयास कर रहे हैं। राज्य सरकार ने एक प्रस्ताव दिया है कि महाराष्ट्र के एक संस्थान से स्नातक चिकित्सकों को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे विशेषज्ञों के स्तर पर आ सकें। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 का कहना है कि मध्य प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में प्रसव के लिए जाने वाले एक शहरी निवासी को 1,746 और गांव के निवासी को 1,259 रुपए अलग से खर्च करने पड़ते हैं। यह पैसा वार्ड ब्वॉय से लेकर दूसरे कर्मचारियों को दी जाने वाली रिश्वत के काम आता है। विभाग में भ्रष्टाचार पर एक पूर्व आइपीएस अधिकारी कहते हैं कि यह समस्या थी, लेकिन अब इसे नियंत्रित कर लिया गया है। सबसे अधिक भ्रूण हत्या मप्र में एमडीजी और एसआरएस के आए साल 2014 के आंकड़े हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। इनमें सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि इसके टॉप पर देश का हृदय स्थल कहे जाने वाला मध्य प्रदेश है। टॉप पांच राज्यों में उत्तरप्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ शामिल हैं। केवल एक राज्य असम ही है, जिसे हम हाशिए का प्रदेश कहते हैं। सै पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों ने एक बार फिर बच्चों से संबंधित योजनाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह सर्वेक्षण खुद भारत सरकार का रजिस्ट्रार कार्यालय वर्ष 1969-70 से करवाता है। हर साल जारी होने वाल इसके आंकड़े मु यत: भारत में जन्म और मृत्यु की स्थितियों को दर्शाते हैं। उधर, 5 अगस्त को लोकसभा में दिए गए एक जवाब के अनुसार, 2014 में, सबसे अधिक कन्या भ्रूण हत्या के मामले मध्यप्रदेश (15) में दर्ज हुए हैं, जबकि राजस्थान में 11, पंजाब में 7 , उत्तर प्रदेश में और हरियाणा में 4-4 मामले दर्ज हए हैं। सरकार ने संसद को बताया कि मार्च 2016 तक, भारत भर में अवैध लिंग-निर्धारण परीक्षण के लिए कम से कम 2,296 मामले दर्ज हुए हैं। 2015 में, देश भर में दर्ज की गई 107 भ्रूण हत्याओं में से मध्य प्रदेश में सबसे अधिक (30), राजस्थान (24), उत्तर प्रदेश (11), पंजाब (10) और इसके बाद महाराष्ट्र (7) में दर्ज की गई है। 2014 में लड़कियों से अधिक लड़कों के भ्रूण हत्या के मामले दर्ज हुए हैं। राष्ट्रीय अपराध डेटा के यह नवीनतम उपलब्ध आंकड़े इस संबंध में कम मामले दर्ज होने के संकेत देते हैं। 2014 में कम से कम 53 लड़कों के भ्रूण हत्या के मामले दर्ज हुए हैं जबकि लड़कियों के 50 भ्रूण हत्या के मामले सामने आए हैं। यह जानकारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों में सामने आई है। चार भ्रूण के लिंग अज्ञात पाए गए हैं। 2015 के लिए अस्थायी आंकड़ों के अनुसार कन्या भ्रूण हत्या के 52 मामले दर्ज हुए हैं और इनमें मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के लिए आंकड़े सबसे अधिक है, प्रत्येक राज्य में 12। ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं नगण्य आंकड़ों का विश्लेषण अपने आप में एक कहानी बयान करता है। वह यह कि मध्य प्रदेश के भीतरी इलाकों में अब भी स्वास्थ्य सुविधाओं का पहुंचना बाकी है। राज्य का स्वास्थ्य विभाग, खासकर ज्यादा आइएमआर वाले ग्रामीण इलाकों में (जो शहरी 35 अंक के आइएमआर के मुकाबले गांवों में 57 है) स्टाफ और संसाधनों की कमी से जूझ रहा है। राज्य में 51 जिला अस्पताल, 66 उपजिला अस्पताल, 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), 1,171 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 9,192 उपकेंद्र हैं, जबकि यहां की अनुमानित आबादी 7.64 करोड़ है। ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे का हाल बहुत बुरा है। सरकारी स्वास्थ्य केंद्र द्वारा कवर की गई औसत आबादी मध्य प्रदेश में अन्य राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा है। यहां एक उपकेंद्र 5,000 से 7,000, एक पीएचसी 40,000 से एक लाख और एक सीएचसी एक से तीन लाख लोगों को कवर करता है। भारत में 30 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के पीएचसी जितनी औसत आबादी को सेवाएं दे रहे हैं, वह मध्य प्रदेश से कम है। 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उपकेंद्रों के मामले में यह औसत बेहतर है, जबकि 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सीएचसी द्वारा कवर की गई औसत आबादी बेहतर है। जाहिर है, मध्य प्रदेश इन सबसे बहुत नीचे है। लक्षद्वीप में एक सीएचसी औसतन 4,714 लोगों को सेवाएं देता है, जबकि मध्य प्रदेश में एक सीएचसी 1,57,357 की औसत आबादी को सेवा देता है। अरुणाचल प्रदेश में एक पीएचसी यदि 9,114 की औसत आबादी को सेवाएं देता है तो मध्य प्रदेश में यह संक्चया 44,882 है। राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में भी एक उपकेंद्र 3,574 लोगों को सेवाएं देता है जबकि मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा 5,718 का है। यह अंतर बहुत ज्यादा है। इससे भी बुरी बात यह है कि राज्य के सीएचसी, पीएचसी और उपकेंद्रों में कर्मचारियों का जबरदस्त अकाल है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण मध्य प्रदेश में कुल 3,436 पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों के पद रिक्त पड़े हुए हैं, जबकि पीएचसी और उपकेंद्रों में महिलाओं के 207 पद रिक्त हैं। इसके अलावा प्रसूति रोग, बाल रोग और महिला रोग विशेषज्ञों की भारी कमी है। स्वास्थ्य विभाग भ्रष्टाचार का गढ़ मप्र के स्वास्थ्य विभाग को भ्रष्टाचार का गढ़ माना जाता है। राज्य के स्वास्थ्य विभाग को आइएमआर कम करने की जि मेदारी सौंपी गई है। यहां अक्षमताओं और भयंकर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इस विभाग में पिछले एक दशक में करीब 6 अरब रूपए का भ्रष्टाचार हुआ है। विभाग के तीन पूर्व निदेशकों डॉ.योगीराज शर्मा, डॉ. अशोक शर्मा और डॉ. एएन मित्तल के यहां पड़े छापों में विभाग के भ्रष्टाचार की हकीकत सामने आ चुकी है। डॉ. योगीराज और डॉ. अशोक पर आयकर के छापे 2007 और 2008 में पड़े थे, जबकि तत्कालीन स्वास्थ्य निदेशक एएन मित्तल पर लोकायुक्त का छापा मई, 2012 में पड़ा था, जिसमें 38 लाख रुपए नकद के अलावा 72 लाख रुपए. के गहने, जमीन मालिकाने के कागजात और विदेशी मुद्रा पाई गई थी। इस विभाग में रिश्वतखोरी का मु य स्रोत माल की खरीद है। योजनाओं की भरमार, फिर भी बेहाल मध्य प्रदेश की यह स्थिति तब है, जब शिवराज सरकार की लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान योजना, अन्नपूर्णा योजना, मजदूर सुरक्षा योजना जैसी करीब दर्जन भर सामाजिक योजनाएं खासी सुर्खियां बटोर चुकी हैं। शिवराज सिंह चौहान की दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता का श्रेय भी उनकी ऐसी ही योजनाओं को दिया जाता है। इस लोकप्रियता का आलम यह है कि शिवराज को प्रदेश के बच्चों का 'मामाÓ तक कहा जाने लगा है। लेकिन एमडीजी रिपोर्ट को देखकर तो लगता है कि 'मामाÓ शिवराज नहीं, असल में प्रदेश की जनता बनी है। क्योंकि राज्य में 10 साल के 'शिव-राजÓ के बाद भी विकास के दावों की सड़क पर गड्ढे अब तक बरकरार हैं। 14 प्रतिशत घटा निवेश शिवराज सरकार ने प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने के लिए तरह-तरह के दावे किए हैं। शिवराज सरकार गुणगान कर रही है कि पिछले 12 सालों में दुनियाभर के निवेशक मध्यप्रदेश में निवेश के लिए आकर्षित हुए हैं। सरकार का दावा है कि प्रदेश में निवेश बढऩे से बेरोजगारों को काम मिला है। खासकर सीएम शिवराज सिंह के प्रयासों से ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट ने प्रदेश में निवेश की संभावनाएं बढ़ा दी है। इन दावों के विपरीत हकीकत कुछ और है और एसोसिएटेड चै बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्टीज ऑफ इंडिया (एसोचेम)की माने तो न प्रदेश में निवेश बढ़ा है, न ही बेरोजगारों को नौकरियां हासिल हुई हैं और न ही औद्योगिक उत्पादन बढ़ा है। 87 प्रतिशत निवेश पिछले 57 महीनों से अफसरशाही के जाल में फंसा हुआ है जबकि 44 हजार करोड़ रुपए की निवेश घोषणाएं ऐसी हैं जो केवल घोषणाएं ही थीं। यह स्थिति तब है जब मप्र को औद्योगिक हब बनाने प्रदेश सरकार ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए जहां अरबों रूपए अभी तक के 9 इंवेस्टर्स समिट में फूंका है, वहीं खरबों रूपए का लैंड बैंक तैयार कर रखा है। इन सब के बावजुद प्रदेश में करीब 53,000 करोड़ का औद्योगिक निवेश कागजों में अटका है। आलम यह है कि निवेशक द तरों का चक्कर लगाकर थक गए हैं, ऐसे में नौकरशाही के निक मेपन के कारण वे अब कई निवेशक दूसरे प्रदेशों का रूख कर चुके हैं। प्रदेश में वर्ष 2008 से लेकर अब तक कुल 9 इंवेस्टर्स समिट हुई हैं। इनमें कुल 327 एमओयू हुए हैं, जिनमें करीब 20 करोड़ 5 लाख 20 हजार रुपए से अधिक की राशि खर्च हुई है। उद्योगों के लिए मूलभूत सुविधाओं का अभाव एसौचेम के मुताबित प्रदेश में उद्योगों के लिए मूलभूत सुविधाओं का अभी भी अभाव है। बिजली, पानी की समस्या ने प्रदेश के जाने-माने औद्योगिक क्षेत्रों में भी निवेशकों को परेशान करके रखा है इसके अलावा पर्यावरण और प्रदूषण के नाम पर प्रदेश में निवेशकों को होने वाली परेशानियों के कारण भी निवेशक कतरा रहे हैं। एसोचैम ने 2014-2015 में देश के बीमारु राज्यों की श्रेणी में शामिल मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के विकास पर भी रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में भी मध्यप्रदेश सरकार कई बीमारू राज्यों से अभी भी पिछड़ा हुआ है। औद्योगिक विकास, सर्विस सेक्टर, घरेलू उत्पादन जैसे मामलों में मध्यप्रदेश की स्थिति बिहार से भी खराब है। साल 2004-05 से 2012-1013 के समयकाल में तैयार की गयी रिपोर्ट में मध्यप्रदेश की औद्योगिक विकास दर 9 फीसदी रही तो बिहार में ये दर 14 फीसदी देखने को मिली। इन दस सालों में मध्यप्रदेश के विकास में उद्योगों का योगदान सिर्फ 28 फीसदी रहा। 2014 में तो साल 2012-2013 की तुलना में निवेश में 83 प्रतिशत की गिरावट आई है। बड़े-बड़े करार और दावे फेल प्रदेश में निवेश को बढ़ाने के लिए शिवराज सरकार ने कई प्रयास किए लेकिन ये प्रयास धरातल पर लागू नहीं हो सके। सीएम शिवराज सिंह ने अपने आप को मध्यप्रदेश का सीईओ कहकर चीन, जापान और अमेरिका जैसे देशों को रिझाने में लगे हैं, लेकिन निवेशक इनवेस्टर्स समिट में हिस्सा लेकर बड़े-बड़े करार तो करते हैं, लेकिन समिट के बाद सब करार सरकार के दावे और वादों में नजर आते हैं। धरातल पर नजर नहीं आते। उल्लेखनीय है कि किसी भी राज्य में इंडस्ट्री लगाने के लिए जमीन की उपलब्धता और जरूरी मंजूरियां मिलना पहली जरूरत होती है। हाल ही में जारी वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार इन दोनों मामलों में मध्य प्रदेश देश में पहले नंबर पर है। मध्य प्रदेश में मौजूद लैंड बैंक, जमीन की ऑनलाइन इंफॉर्मेशन और अलॉटमेंट की निश्चित टाइम लाइन होने के चलते राज्य को 72.73 फीसदी अंकों के साथ देश का बेहतरीन राज्य माना है। मध्य प्रदेश के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और आंध्र प्रदेश को भी इस सूची में पहले पांच पायदानों पर जगह दी गई है। फिर भी निवेशकों को मप्र से मोहभंग होना किसी सदमें से कम नहीं है। एनालिसिस के मुताबिक 2013-2014 के इंडिस्ट्रयल आंकड़ों में रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि मध्य प्रदेश में 2013-2017 में जहां 60 फीसदी इंवेस्टमेंट प्रस्ताव खारिज किए गए। हालांकि रिपोर्ट के आधार पर 2015-2016 में राज्य में करीब 700 से अधिक इंवेस्टर्स ने वहां के इंडस्ट्रीयल सेक्टर में इंटररेस्ट जताया है। पिछले वित्त वर्ष के दौरान राज्य में निर्माण क्षेत्र में सर्वाधिक लगभग 68 प्रतिशत नया निवेश आया। इसके अलावा बिजली (19 प्रतिशत), सेवा (11.5 प्रतिशत) और निर्माण (01 प्रतिशत), गैर-वित्तीय सेवाओं के क्षेत्र में 12 प्रतिशत, सिंचाई क्षेत्र में छह प्रतिशत, खनन में चार प्रतिशत, निर्माण एवं रियल एस्टेट में तीन प्रतिशत नया निवेश आया। अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2015-16 तक कुल 5.75 लाख करोड़ रुपये का लाइव (सक्रिय) निवेश हासिल हुआ था। इस तरह एक साल में 4.5 प्रतिशत की वृद्धि दर प्राप्त हुई, जबकि एक साल (2014-15) पहले तक राज्य में 5.50 लाख करोड़ रुपए का लाइव निवेश आया था। इस निवेश के प्रस्तावों में से लगभग तीन लाख करोड़ की परियोजनाएं विभिन्न कारणों से अटकी पड़ी हैं। अध्ययन के अनुसार, राज्य में करीब 87 प्रतिशत निवेश परियोजनाएं ऐसी हैं, जो औसतन 57 महीने विल ब से चल रही हैं। देरी के कारण 57 निवेश परियोजनाओं की लागत 35 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गई, जिससे करीब 67 हजार करोड़ रुपए तक की लागत बढ़ चुकी है। रपट के अनुसार, इन परियोजनाओं की वास्तविक लागत लगभग दो लाख करोड़ रुपए ही थी। जो बढ़कर दो लाख 67 हजार करोड़ रुपए हो गई है। पूर्ण होने में विल ब के कारण परियोजनाओं की बढ़ी कुल लागत में बिजली क्षेत्र की सर्वाधिक 60.5 प्रतिशत हिस्सेदारी है। वहीं सिंचाई (27 प्रतिशत), गैर-वित्तीय सेवाओं (सात प्रतिशत) और विनिर्माण (06 प्रतिशत) की हिस्सेदारी है। 70 फीसदी कामगार कृषि पर निर्भर एसोचैम के अध्ययन के अनुसार, भौतिक तथा सामाजिक ढांचे के अव्यवस्थित विकास की वजह से भागीदारी के मामले में निजी क्षेत्र की दिलचस्पी घटी है। इसकी वजह से मध्य प्रदेश में निवेश परिदृश्य की चमक फीकी हुई है। रपट के अनुसार, देश की अर्थव्यवस्था में मध्य प्रदेश का योगदान वर्ष 2005-06 के चार प्रतिशत के स्तर के मुकाबले 2013-14 में 3.9 प्रतिशत रहा। यानी इसमें मात्र 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई है। अध्ययन के अनुसार, राज्य के करीब 70 प्रतिशत कामगार अपनी रोजी-रोटी के लिए कृषि पर निर्भर हैं, फिर भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में इस क्षेत्र का योगदान आशा के अनुरूप नहीं है। वर्ष 2004-05 में जहां मध्य प्रदेश के जीएसडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 27.7 प्रतिशत था, वहीं वर्ष 2014-15 में यह 28.1 प्रतिशत तक ही पहुंच सका। चिंताजनक पहलू यह भी है कि राज्य की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान वर्ष 2010-11 में सर्वाधिक 26 प्रतिशत के मुकाबले 2014-15 में 22 प्रतिशत के स्तर तक जा गिरा। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र में कामगारों की निर्भरता भी वर्ष 2001 में चार प्रतिशत के मुकाबले 2011 में घटकर तीन प्रतिशत हो गई। यानी मप्र सरकार पिछले एक दशक से प्रदेश के विकास के जो दावे कर रही है वह कागजी साबित हुए हैं। शिवराज की लोकप्रियता भी घटी तीन साल पहले तक गुजरात के तत्कालिन मु यमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे लोकप्रिय मु यमंत्री रहे मप्र के मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता भी घटी है। विभिन्न न्यूज एजेंसियों, वेब साईट्स के सर्वे में यह तथ्य सामने आया है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने से मु यमंत्रियों की आपसी प्रतिस्पर्धा कई तरह से बदल गई। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा शासित प्रदेशों के जिन मु यमंत्रियों का नाम कभी प्रमुखता से लिया जाता था, वे आज एक तरह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व यानी नरेंद्र मोदी पर निर्भर हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर कभी मध्य प्रदेश के मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर भी देखा जाता था। वे आज ताकतवर तो हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अब दोनों की कोई तुलना ही नहीं है। अगर कभी कोई ऐसा मोड़ आता है जब भाजपा को नरेंद्र मोदी के विकल्प की जरूरत हो तो जो लोग प्रमुखता से दिखते हैं, उनमें शिवराज अहम हैं। लेकिन लोकप्रियता के मामले में वे बिहार के मु यमंत्री नीतीश कुमार, दिल्ली के मु यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आंध्र प्रदेश के मु यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बाद चौथे स्थान पर हैं। हालांकि देश में भाजपा के जितने भी मु यमंत्री हैं, उनमें अभी सबसे ताकतवर मध्य प्रदेश के मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही हैं। इसके साथ-साथ इस बात से भी इनकार करने वाले लोगों की सं या न के बराबर होगी कि शिवराज उतने ताकतवर अभी नहीं हैं जितने कि वे सितंबर, 2013 तक थे। 2013 के सितंबर महीने का जिक्र इसलिए क्योंकि इसी महीने में गुजरात के मु यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री का उ मीदवार घोषित किया था। इस घोषणा से पहले केंद्र की जि मेदारी को लेकर नरेंद्र मोदी का जब भी जिक्र होता था तो साथ में शिवराज सिंह चौहान का नाम भी इसमें जुड़ जाता था। लेकिन उस घोषणा से यह तय हो गया कि भाजपा की आगे की राष्ट्रीय राजनीति नरेंद्र मोदी को आगे करके चलेगी। सर्वेक्षण में माना गया है कि एक मु यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान अपने तीनों कार्यकाल में प्रभावी दिखे हैं। विकास के मामले में उन्होंने मध्य प्रदेश में काफी अच्छा काम किया है। कृषि के साथ-साथ उद्योग की तरफ भी उन्होंने जरूरी ध्यान दिया है। उनके कार्यकाल में मध्य प्रदेश कई फसलों के उत्पादन के मामले में देश का शीर्ष राज्य बना। कुपोषण के लिए बदनाम मध्य प्रदेश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी कई प्रयोग शिवराज सिंह चौहान ने किए हैं। गवर्नेंस के पैमाने पर भी वे प्रभावी दिखते हैं। राज्य में उन्होंने अपनी पहचान जनता के मु यमंत्री के तौर पर बनाई है। यही वजह है कि वे पार्टी में भले ही कमजोर हुए हों लेकिन न सिर्फ अपने राज्य में बल्कि मध्य प्रदेश के बाहर भी उनके प्रति लोग अच्छी राय रखते हैं। हालांकि, व्यापमं शिवराज सिंह चौहान की साफ छवि पर एक दाग जैसा है और इसकी चर्चा पूरे देश में हुई है। फिर भी अगर देखा जाए तो कुल मिलाकर उनकी पहचान एक साफ-सुथरी छवि वाले नेता की है। यह एक ऐसी छवि है जो आम आदमी को पसंद आती है। यही बात उनके पक्ष में तब जाती दिखती है जब गठबंधन राजनीति में स्वीकार्यता के पैमाने पर उन्हें देखा जाए। अभी भाजपा के पास नरेंद्र मोदी हैं लेकिन अगर कभी कोई ऐसा मोड़ आता है जब पार्टी को उनके विकल्प की जरूरत हो तो जो लोग प्रमुखता से दिखते हैं, उनमें शिवराज अहम हैं। यही अहमियत उन्हें पार्टी के अंदर थोड़ा कमजोर होने के बावजूद भाजपा के दूसरे मु यमंत्रियों के मुकाबले ताकतवर बनाए हुए है। उनकी ताकत उस वक्त और बड़ी लगती है जब यह पता चलता है कि उन्होंने अपने राज्य में विपक्ष को तकरीबन तहस-नहस कर दिया है। कुछ उसी अंदाज में जिस अंदाज में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मु यमंत्री रहते हुए वहां किया था।

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