गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

नक्सलियों के फर्जी आत्मसमर्पण का गोरखधंधा

10 साल में 24,70,00000 की चपत
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मांगी राज्यों से रिपोर्ट भोपाल। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में 4 अक्टूबर को 57 नक्सलियों ने माओवादियों का साथ छोड़कर मु यधारा में लौटने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए आईजी बस्तर एसआरपी कल्लूरी के समक्ष आत्मसमर्पण किया। आत्समर्पित 57 नक्सलियों में से 17 नक्सलियों ने भरमार बंदूक के साथ समर्पण किया। इनमें 11 घोषित ईनामी व 7 स्थायी वारंटी है। सभी समर्पित नक्सलियों को दस हजार रुपए का प्रोत्साहन राशि दिया गया। आत्समर्पित नक्सलियों के अनुसार आंध्र के नक्सलियों के शोषण, अत्याचार व भेदभाव की वजह से उनका नक्सलवाद से मोह भंग हुआ। दूसरी तरफ सरकार की पुनर्वास नीति व जंगल में बढ़ते पुलिस के दबाव के चलते उन्होंने नक्सलियों का साथ छोडऩे का मन बना लिया। लेकिन अभी हाल ही में एक अन्य नक्सली दंपत्ति और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के खुलासे के बाद इस आत्मसमर्पण को भी संदेह की नजर से देखा जा रहा है। दरअसल, करीब 10 वर्षों तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में कई बड़ी वारदातों को अंजाम देने वाले नक्सली दंपत्ति जित्तू सबलम और उसकी पत्नी सपक पोज्जे ने 22 सितंबर को आत्मसमर्पण किया तो मप्र और छत्तीसगढ़ पुलिस ने थोड़ी राहत की सांस ली। मप्र के बालाघाट में कई वर्षों तक नक्सली संगठन को मजबूत करने में लगे रहे इस दंपत्ति ने अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का ताड़मेटला कांड में में सक्रिय भूमिका निभाई थी, जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे। इस दंपत्ति ने दो दर्जन से अधिक जवानों को मौत के घाट उतारा था। लेकिन छत्तीसगढ़ के पुलिस मु यालय में इस दंपत्ति ने यह कह कर सनसनी फैला दी की नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सलियों के फर्जी आत्मसमर्पण का गोरखधंधा जोरों पर चल रहा है। उन्होंने दावा किया की स्थानीय पुलिस, खुफिया ईकाई, बिचौलिए और सीआरपीएफ के बड़े अधिकारियों की मिलीभगत से फर्जी आत्मसमर्पण का गोरखधंधा चल रहा है। जानकारी के अनुसार इस गोरखधंधे में करीब 1235 फर्जी नक्सलियों ने आत्मस र्पण किया है जिससे सरकारों को करीब 24,70,00000 रूपए की चपत लगी है। नक्सली दंपत्ति के दावों को नकारा ाी नहीं जा सकता है, क्योंकि अभी हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने ाी लगातार मिल रही शिकायतों के बाद राज्यों से आत्मसमर्पण से संदर्भित रिपोर्ट मांगी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सितंबर माह में झारखंड और छत्तीसगढ़ में बैठक कर आत्मसमर्पण के इस गोरखधंधे की पड़ताल की। आयोग ने नक्सलवाद से प्रभावित देश के डेढ़ दर्जन प्रदेशों से पिछले 10 साल में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की जानकारी मांगी है। अभी तक जिन 1235 फर्जी नक्सलियों के आत्म समर्पण की बात सामने आई है उसमें 2 दर्जन से अधिक मप्र के आदिवासी युवा हैं। 2011-12 के मामलों से उजागर हुआ गोरखधंधा दरअसल, जब भी देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सली गतिविधियां बढ़ती है, उसी दौरान नक्सलियों के आत्मसमर्पण के मामले भी बढ़ जाते हैं। इससे लगता है कि सुरक्षा बलों के दबाव और सरकार की अपील के कारण नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में एक मामला ऐसा सामने आया है जिसमें नक्सलियों के फर्जी आत्मसमर्पण का गोरखधंधा उजागर हुआ है। मामला 2011-12 का है, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे अभी अपने संज्ञान में लिया है। दरअसल, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में इस दौरान खुंखार नक्सली लगातार वारदात कर रहे थे। ऐसे में पुलिस प्रशासन, सीआरपीएफ और सरकार की खुब फजीहत हो रही थी। चारों ओर से आलोचनाओं का दौर शुरू होते ही स ती बरती गई और शुरू हुआ बड़ी सं या में नक्सली आत्मसमर्पण का। उसके बाद से आत्मसमर्पण का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि लगने लगा जैसे नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। लेकिन तब से अब तक नक्सलियों ने कई बड़े-बड़े घटनाक्रम को अंजाम दिया है। एक तरफ आत्मसमर्पण और दूसरी तरफ नक्सलियों के खूंखार मंसूबों से पुलिस प्रशासन और सीआरपीएफ संदेह के घेरे में आने लगी। इसी दौरान नक्सल प्रभावित झारखंड में 100 से अधिक लोगों के पहचान और पैसे समेत सब कुछ गंवाने के आरोप सामने आए लेकिन किसी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। अब करीब चार साल बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इसमें सच्चाई नजर आ रही है। आयोग के सूत्रों के अनुसार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र में करीब 1235 ऐसे तथाकथित नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है जिनका नक्सलवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। सैन्य खुफिया ईकाई और सीआरपीएफ के बड़े अधिकारियों ने उन्हें बतौर नक्सली आत्मसमर्पण करने के लिए कहा था। इन अधिकारियों ने आदिवासियों को प्रति व्यक्ति के लिहाज से 2 लाख रुपए भी दिए और उन्हें अद्र्धसैनिक बलों में नौकरी देने का वादा किया। बाद में इन कथित नक्सलियों ने अधिकारियों की तरफ से मुहैया कराए गए हथियार के साथ पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और फिर औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें कुछ दिनों के लिए जेल में रखा गया। उन्हें बताया कि जेल से बाहर आने के बाद उन्हें अद्र्धसैनिक बलों में जगह दी जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मसमर्पण करने वाले युवाओं में लगभग सभी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के युवा शामिल हैं। जांच रिपोर्ट भेजी गई गृह मंत्रालय बताया जाता है की बतौर नक्सली 2011-12 में जिन युवाओं से आत्मसमर्पण कराया गया था उनकी पुष्टि हो चुकी है। रांची में एक सार्वजनिक सुनवाई में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एलएल दत्तू ने कहा, प्राथमिक तौर पर आरोप सही लगते हैं। जांच रिपोर्ट गृह मंत्रालय के साथ राज्य सरकार को भेजी जा चुकी है। एनएचआरसी ने तीन महीनों के भीतर राज्य सरकार से इस मामले में रिपोर्ट मांगा है। यह पूरा मामला न केवल चौंकाने वाले भ्रष्टाचार के मामले का है बल्कि यह बताता है कि किस तरह से वरिष्ठ अधिकारियों ने निजी छवि चमकाने के लिए नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि इस पूरे प्रकरण से सैंकड़ों आदिवासियों की जान खतरे में पड़ गई। साथ ही वामपंथ से प्रभावित इलाके में यह बड़े घोटाले की तस्दीक करता है। झारखंड ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ में भी नक्सलवादी बिना किसी उचित कारण के सैंकड़ों की सं या में आत्मसमर्पण कर रहे हैं। दत्तू जिस मामले की तरफ इशारा कर रहे हैं वह 2011 से 2012 के बीच का है। मास्टर माइंड पूर्व खुफिया अधिकारी फर्जी नक्सली आत्मसमर्पण का मास्टर माइंड एक पूूर्व सैन्य खुफिया अधिकारी और पश्चिम सिंहभूम का निवासी बलात्कार आरोपी रवि बोदरा है। इन दोनों ने कथित तौर पर 2011 की शुरुआत में झारखंड के अधिकारियों से संपर्क किया ताकि नक्सलियों से आत्मसमर्पण कराया जा सके। राज्य सरकारें भी नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में आत्मसमर्पण की नीति को कारगर मानती हैं। क्योंकि किसी के आत्मसमर्पण करने से उनके अन्य सहयोगियों के मनोबल पर बुरा असर पड़ता है। इसके अलावा हिंसा से भी मुक्ति मिलती है। इसलिए अधिकारियों ने बोदरा की योजना को लेकर सहमति जताई और उसने कई अन्य लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए प्रेरित किया। ऐसे लोगों की सं या करीब 500 थी। केस के मु य आरोपी रवि बोदरा को मिलिट्री खुफिया से जुड़ा पूर्व मुखबिर बताया जाता है। केस के दूसरे मु य आरोपी दिनेश प्रजापति को बोदरा का मुखबिर बताया जाता है। प्रजापति दिगदर्शन कोचिंग चलाता था। अक्टूबर 2012 में सीआपीएफ के नए आईजी एमवी राव ने देखा कि जेल में कुछ लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं और उन्होंने झारखंड के डीजीपी को पत्र लिखकर इस बारे में कार्रवाई करने के लिए कहा। मार्च 2014 में पुलिस ने इस मामले में मुकदमा दर्ज करते हुए दो बिचौलियों को गिर तार किया। हालांकि किसी वरिष्ठ अधिकारी से कोई पूछताछ नहीं हुई। मई 2014 में झारखंड की हेमंत सोरेन की सरकार ने इस मामले की सीबीआई से जांच कराए जाने की सिफारिश कर दी। मार्च 2015 में झारखंड विधानसभा में जबरदस्त हंगामा होने के बाद सोरेन ने राज्य सरकार को आश्वासन दिया कि वह इस मामले में एक बार फिर से सीबीआई से संपर्क करेंगे। उन्होंने इसे घोटाला करार देते हुए दावा किया कि गृह मंत्रालय की यह महत्वाकांक्षी परियोजना गलत साबित हो गई। रिपोट्र्स के मुताबिक सीबीआई ने इस मामले को लेने से मना कर दिया। करीब छह सालों बाद भी इस मामले के पीडि़तों को समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करें। मानवाधिकार आयोग का दखल फर्जी नक्सली आत्मसमर्पण की लगातार आ रही शिकायत और पीडि़तों की गुहार के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में दखल दी और तमाम मामलों का अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार की। एनएचआरसी की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इसमेंं कई आदिवासी प्रभावित हुए। हालांकि जब आप आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि कितने लोगों को अब तक इसका शिकार होना पड़ा। किस तरह से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। वहीं इस मामले में सबसे बड़ी खामी यह रही कि मामले में शामिल अधिकारियों के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। 2011 में कथित घोटाले के बाद से कुल 227 नक्सलियों ने समर्पण किया। 2012 में यह सं या बढ़कर 414 हो गई। एक साल बाद यह सं या बेहद तेजी से बढ़करर 1,930 हो गई। जबकि 2014 में समर्पण करने वाले नक्सलियों की सं या घटकर 656 हो गई। वहीं 2015 में 615 नक्सलियों ने समर्पण किया जबकि इस साल अगस्त महीने तक 1,548 नक्सलियों ने समर्पण किया है। इनमें से कौन असली नक्सली है और कौन नकली अब मानव अधिकार आयोग इसकी पड़ताल करेगा। मप्र भी शक के दायरे में छत्तीसगढ़ में जिस तरह पिछले कुछ सालों से नक्सलियों द्वारा सामुहिक समर्पण किया जा रहा है उससे यह तो शक के दायरे में हैं ही, मप्र भी दायरे में आ गया है। क्योंकि झारखंड में जिन फर्जी नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है उनमें 2 दर्जन युवा मप्र के आदिवासी हैं। यही नहीं इस साल जनवरी माह में बस्तर में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समर्पण का मतलब भी नहीं पता था, इसमें भी 4 युवक मप्र के निवासी थे। पुलिस के सूत्रों का दावा है कि उन्हें बदले में घर और नौकरी का वादा किया गया था लेकिन उन्हें यह अभी तक नहीं मिल पाया है। छत्तीसगढ़ पुलिस और गृह मंत्रालय भले ही सं या को बढ़ा चढ़ाकर पेश करें लेकिन सच यह है कि राज्य सरकार अभी तक 10 बड़े नक्सलियों का आत्मसमर्पण तक नहीं करा पाई है। वहीं बड़ी सं या में फर्जी तरीके से निर्दोष लोगों को नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराने की वजह से उनकी जान खतरे में पड़ गई है। नक्सलियों को यह लोग पुलिस के एजेंट लगते हैं। ऐसे समय में दत्तू की तरफ से जांच का वादा इस मामले में उ मीद की किरण बनकर आया है। उधर, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस सिलसिले में नक्सल प्रभावित राज्यों में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की रिपार्ट मांगी है। जानकारों का कहना है कि नक्सली गतिविधियां भले ही मप्र में कम हो रही हैं लेकिन यहां के बालाघाट, सिंगरौली, सीधी, अनूपपुर, उमरिया, शहडोल, डिंडोरी और मंडला आदि जिलों में नक्सली पनाह लिए हुए हैं। अकेले बालाघाट में नक्सलियों का कई समूह सक्रिय है। वर्ष 2015 में यहां दो नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था जबकि 16 को गिर तार किया गया। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से बड़ी सं या में आदिवासी युवा नक्सली संगठनों में शामिल हो रहे हैं। यही नहीं नक्सली घर-घर जाकर एक लड़का और एक लड़की की मांग कर रहे हैं। उनकी बालाघाट को तीन राज्यों का हब बनाने की तैयारी चल रही है। नक्सलियों के निशाने पर बालाघाट के अलावा सिंगरौली जिला भी है, जहां उनकी गतिविधिया तेजी से आगे बढ़ रही हैं। प्रदेश का बालाघाट जिला नक्सल प्रभावित छत्ताीसगढ़ के राजनांदगाव और महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की सीमा से लगा है। अभी तक नक्सलियों का हब छत्ताीसगढ़ का बस्तर और दंतेवाड़ा जिला था। सूत्र बताते हैं कि नक्सली अब वहा से कूच करना चाह रहे हैं। उनकी मंशा बालाघाट से मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में अपनी गतिविधिया संचालित करने की है। बालाघाट में सबसे ज्यादा नक्सली गतिविधिया लांजी और बैहर में संचालित हो रही हैं। सरेंडर करने वालों का कैरियर खतरे में पैसा और पुलिस में नौकरी के प्रलोभन में आकर सरेंडर करने वाले युवाओं का कैरियर खतरे में आ गया है। आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि युवाओं से पैसे वसूले गए। जमीन और मोटर साइकिल बेचकर छात्रों ने पैसे दिए थे। जिन्हें नक्सली बताया गया था, वे नक्सली नहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार, जून 2011 से फरवरी 2013 के बीच झारखंड के तीन जिलों खूंटी, सिमडेगा और गुमला में एक गुमनाम अभियान चलाया गया था। इस अभियान के तहत एक पूूर्व सैन्य खुफिया अधिकारी और रवि बोदरा ने मप्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर युवाओं को बहला-फुसलाकर फर्जी नक्सली बनाकर समर्पण करवाया। युवाओं को करीब 20 माह तक कोबरा बटालियन के संरक्षण में रखा गया था। इन्हें सरकार के पैसे पर खाना और संसाधन उपलब्ध कराया जा रहा था। यह अभियान नक्सलियों के लिए था, लेकिन युवाओं को शामिल कर सरेंडर कराया गया था। इसमें सीआरपीएफ और जिला बल के कुछ अधिकारी भी थे। सबसे बड़ी बात यह है कि इस गोरखधंधे में कई राज्यों के युवाओं को शामिल किया गया था, ताकि किसी को संदेह न हो सके। सब कुछ केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर हो रहा था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पूरे मामले पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने 8 सितंबर को ज्यूडिशियल एकेडमी में प्रेसवार्ता के दौरान यह स्वीकार किया कि बड़े ही सुनियोजित तरीके इस इस फर्जीवाड़े को अंजाम दिया गया है। सदस्यों ने बताया कि आयोग की टीम ने अपने स्तर से जांच की थी। इसमें प्रारंभिक तौर पर आदिवासी युवाओं का सरेंडर फर्जी होने की बात सामने आई है। इस मामले में आयोग को पूर्व में शिकायत मिली थी कि आम आदमी को नौकरी का झांसा देकर नक्सली बताते हुए सरेंडर कराया गया था। आयोग की प्रारंभिक जांच में यह पुष्टि हुई कि जिन लोगों को सरेंडर कराया गया था, वे आम लोग थे न कि नक्सली। ऐसे में आम लोगों को नक्सली बताना मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बनता है क्योंकि पीडि़त पक्ष को कोई मुआवजा सरकार की ओर से अब तक नहीं दिया गया है। इसी आधार पर राज्य सरकारों से जवाब-तलब किया गया है। जवाब मिलने के बाद आगे की कार्रवाई आयोग के स्तर से की जाएगी। हालांकि आयोग की ओर से यह नहीं बताया गया कि कितने युवाओं का सरेंडर फर्जी था। इस दौरान आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एचएल दत्तू, सदस्यों में जस्टिस साइरस जोसेफ, डी मुरुगेशन और जस्टिस एससी सिन्हा और आयोग के अन्य अधिकारी मौजूद थे। उल्लेखनीय है कि आरोपी पक्ष ने कोर्ट में नौकरी देने के नाम पर 514 युवाओं के फर्जी सरेंडर का आरोप सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के अधिकारियों के साथ कोचिंग संस्थान दिग्दर्शन सहित अन्य पर लगाया था। झारखंड सरकार ने वर्ष 2010 से 2015 तक 79 लोगों के सरेंडर की बात कोर्ट को बताई थी। बताया जाता है कि गुपचुप तरीके से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने झारखंड में एक सितंबर से छह सितंबर 2014 तक रहकर पूरे मामले की जांच की थी। टीम ने पीडि़त युवाओं और अधिकारियों से मुलाकात की थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने रवि बोदरा को झारखंड भेजा था। उसे इसकी जवाबदेही सौंपी गई थी कि वह नक्सलियों का समर्पण कराए। वैसे नक्सली जिनके विरुद्ध मामले दर्ज हों। युवाओं को गलत ढंग से सरेंडर कराने का मामला जब खुलने लगा तो कैंप जेल को सिविक्स एक्शन कैंप में बदल दिया गया। यह भी एक साजिश थी। सीआरपीएफ के आइजी ने 3 अक्तूबर 2012 को इस पूरे मामले का खुलासा किया था, लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और गुमनाम ऑपरेशन विफल हो गया। युवाओं से नौकरी दिलाने के नाम पर समर्पण करने को कहा गया था। इसके लिए प्रत्येक छात्रों से तीन से पांच लाख रुपए की वसूली की गई थी। रांची के लोअर बाजार थाना में इस संबंध में कांड सं या 77-2014 दर्ज है। घोटालेबाजों को राज्य सरकारों का समर्थन झारखड़ में पहली बार 514 आदिवासी युवाओं के आत्मसमर्पण में 1.82 करोड़ रुपए का घोटाला सामने आने के बाद दायर याचिका की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने झारखंड़ सरकार से पूछा था कि क्यों न मामले की सीबीआई जाच कराई जाए? इस पर सरकार ने कहा था कि सीबीआई जांच की जरूरत नहीं है। पुलिस की जांच ठीक चल रही है। सीबीआई के पास पूर्व से ही बहुत काम है। इसका हवाला देकर सीबीआई पहले ही जाच में असमर्थता जता चुकी थी। उसके बाद झारखंड़ हाईकोर्ट ने इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ और मप्र सरकार से भी जवाब मांगा था, क्योंकि सरेंडर करने वालों में इन राज्यों के भी युवा थे। लेकिन सरकारों के तरफ से कोई जवाब नहीं दिया गया। पुलिस ने मामले में पहली चार्जशीट 28 नवंबर 2014 को और दूसरी चार्जशीट 17 अगस्त 2015 को दाखिल की थी। मामले में आरोपी दिग्दर्शन कोचिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर दिनेश प्रजापति (सिल्ली, राची निवासी), टेबो पश्चिमी सिंहभूम के रवि बोदरा, खूंटी के रनिया निवासी वैशाली केरोलिना केरकेट्टा और खूंटी कर्रा रोड नवटोली निवासी मस्सी केरकेट्टा पर लगे आरोप सही पाए गए। इन सभी को गिर तार कर जेल भेज दिया गया था। अन्य अभियुक्तों के खिलाफ अभी जांच जारी है। मामले का ट्रायल शुरू हो गया है। अभियुक्तों के विरुद्ध अभियोजन साक्ष्य के लिए गवाही चल रही है। गवाही के लिए मामले के गवाह जनक लाल और पमेश प्रसाद को गवाही के लिए स मन निर्गत किया है। सरकार ने अपने जवाब में बताया है कि किसी आरोपी ने सीआरपीएफ या झारखंड पुलिस के द्वारा पैसा लेने की बात नहीं कही है। उधर, युवकों को फर्जी तरीके से नक्सली बताकर सरेंडर कराने के केस में नए सवाल उठ गए है। इस केस में सीबीआई जांच सवालों के घेरे में है। केस के पीडि़तों का कहना है कि हाथ में हथियार थमाने से लेकर सरेंडर कराने तक सारा काम सीआरपीएफ के सामने हुआ। झारखंड, छत्तीसगढ़ और मप्र के जंगलों में रहने वाले आदिवासी बेरोजगार युवकों को गलत तरीके से कागजों पर नक्सली बनाकर समर्पण करने के लिए मजबूर किया गया। कोबरा बटालियन में शामिल होना चाहते थे नौजवान साल 2012 में सरेंडर करने वाले 514 युवकों में से ज्यादातर कोबरा बटालियन में शामिल होना चाहते थे। इन युवकों से तब रुपए लेकर ये दावा किया गया था कि नक्सली बनकर आत्मसमर्पण करने से नौकरी जल्दी मिल जाएगी। साल 2012 में आत्मसमर्पण करने वाले 24 वर्षीय कुलदीप बारा ने बताया कि नौकरी के लिए मेरे परिवार ने रुपए उधार लेकर 1 लाख रुपए दिए। कुलदीप का कहना है कि आत्मसमर्पण के वक्त मुझे गन थमा दी गई। मुझसे वादा किया गया था कि आत्मसमर्पण करने के बाद नौकरी मिलने में आसानी रहेगी। भर्ती के लिए रिश्वत देने के लिए कई युवाओं के परिवार के लोगों ने घर बेचने से लेकर अपनी जमीन तक गिरवी रख दी। लेकिन झूठे वादों और ठगों के चलते किसी भी युवा को नौकरी तो नहीं मिली, लेकिन पूर्व नक्सली कहा जाने लगा। साल 2012 में आत्मसमर्पण करने वाले नकली नक्सली कर्मदयाल ने बताया कि हम 9 महीने कैंप में रहे। नौकरी के लिए 50 हजार रुपए रिश्वत दी। हमारे पास पैसे नहीं थे, इसलिए रुपयों के इंतजाम के लिए खेत तक गिरवी रखा दिया, लेकिन आखिर में हमारे हाथ में गन थमाकर हमें नकली नक्सली बना दिया गया। आत्मसमर्पण से पहले 514 युवाओं को रांची के पुराने जेल में रखा गया था। नौजवानों को जेल में सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन में होने का दिलासा दिया गया। हालांकि कुछ महीने बाद उन्हें वहां से निकालकर आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया। खुंखार नक्सलियों की पनाहगार मप्र इस साल छत्तीसगढ़ में हर सप्ताह नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं और वे खुंखार आतंकियों को मध्यप्रदेश के घने जंगलों में छुपे रहने की बात कह रहे हैं। नक्सलियों के अनुसार माओवादियों के लिए ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश सुरक्षित पनाहगार है। छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे आंध्रप्रदेश में पुलिस का नेटवर्क तगड़ा होने के भय से माओवादी वहां जाने से डरते हैं। जिससे मध्यप्रदेश के जंगलों की ओर माओवादी भागते हैं। माओवादियों ने मध्यप्रदेश में सुरक्षित पनाह लेने के लिए राजनांदगांव के रास्ते नया कॉरीडोर बनाया है। वे नारायणपुर, कांकेर के जंगली इलाके से राजनांदगांव के जंगलों से होकर मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले शहडोल, मंडला, डिंडौरी, बालाघाट पहुंचते हैं। इसके साथ ही उमरिया और अनूपपुर के जंगलों को भी संभावित माना जाता है। लेकिन केंद्र सरकार ने बालाघाट को ही नक्सल प्रभावित माना है जबकि सीधी, सिंगरौली, मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर और उमरिया आदि जिले भी नक्सल प्रभावित हैं। खुफिया रिपोर्ट के अनुसार नक्सलियों की योजना छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमा से लगे बालाघाट जिले को अपना डिवीजनल मु यालय बनाकर इसे पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के अभेद्य दुर्ग की तरह बनाने की तैयारी है। प्रदेश पुलिस की सतर्कता के कारण अभी यहां नक्सलवाद पूरी तरह सक्रिय नहीं हो पा रहा है। मप्र में घटनाओं, गतिविधियों और भौगोलिक दृष्टि से शासन ने भले ही 8 जिलों को नक्सल प्रभावित माना है। लेकिन इनकी गतिविधियां अन्य जिलों में भी चल रही है। इनमें बालाघाट के बाद सिंगरौली ही सर्वाधिक नक्सल प्रभावित माना गया है। जोड़ी के हटने से नक्सलियों को मिलेगा बल नक्सल प्रभावित बालाघाट पुलिस के लिए हमेशा चुनौती रहा है। लेकिन पिछले कुछ साल से आईजी के बतौर तैनात अफसर डीसी सागर और एसपी गौरव तिवारी ने नक्सलियों के खिलाफ जमकर मुहिम चलाई इसका परिणाम यह रहा की नक्सली पनप नहीं पाए। लेकिन पहले एसपी और अब आईजी का तबादला कर दिए जाने से नक्सलियों को फिर से बल मिलगा। दरअसल, सरकार आईजी डीसी सागर को हटाना नहीं चाहती थी। लेकिन बैहर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुरेश यादव की पुलिस द्वारा की गई पिटाई के मामले में सरकार ने आईजी और एसपी असित यादव को हटा दिया। आईजी डीसी सागर की जगह पुलिस मु यालय में पदस्थ आईजी नक्सल ऑपरेशन जी जनार्दन को बालाघाट भेजा गया है। एसपी असित यादव को हटाकर अमित सांघी को नया जिला पुलिस अधीक्षक बनाया गया है। इस मामले में अब तक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक से लेकर सिपाही तक सस्पेंड हो चुके हैं। शासन ने एएसपी राजेश शर्मा, टीआई जिया उल हक सहित दो अन्य पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जा चुका है। बालाघाट में पुलिस विभाग में हुए इस बदलाव से नक्सलियों को राहत की सांस मिली है, क्योंकि क्षेत्र में वर्षों से काम कर रहे इन पुलिस अधिकारियों का नक्सलियों की एक-एक गतिविधियों की खबर होती थी। बालाघाट के लोगों का कहना है कि डीसी सागर और गौरव तिवारी की जोड़ी की प्लानिंग से बालाघाट में सक्रिय टाडा दलम और मलाजखंड दलम पस्त पड़ गए थे। लेकिन इन अफसरों के बदलाव के बाद बालाघाट में एक बार फिर से नक्सलियों की गतिविधियां बढऩे की आशंका बढ़ गई है। वैसे भी बालाघाट में नक्सलियों की चुनौती को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये विस्तार की कवायद में जुटे रहते हैं। कई साल पहले बंद हो चुके दरकेसा और परसवाड़ा दलम को जिंदा किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के युवकों को इनमें भर्ती किया गया है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये अब बच्चों को भी माओवाद की ओर प्रेरित कर रहे हैं। युवाओं में नक्सलवाद के प्रति बढ़ रहा आकर्षण नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सलवाद के प्रति युवाओं का आकर्षण बढ़ रहा है। ये दावा किया जा रहा है अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्था फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्युरिटी(फिंस) की ओर से आत्मसमर्पित नक्सलियों पर की गई स्टडी रिपोर्ट में। रायपुर के साइंस कॉलेज के अंतर्गत डिफेंस डिपार्टमेंट के सहयोग से तैयार की गई स्टडी रिपोर्ट में, नक्सली क्यों बनते हैं और उनके आत्मसमर्पण करने की वजह को लेकर अध्ययन किया गया है। टीम ने पाया कि नक्सलियों की वर्दी, हथियार, प्रभाव, चेतना नाट्य मंच, नृत्य और नारे का आकर्षण लोगों को लुभा रहा है। 92 फीसदी नक्सली बनने की वजह यही है। वहीं 4 प्रतिशत लोग गरीबी और बेरोजगारी के कारण और 4 प्रतिशत लोग व्यक्तिगत एवं पारिवारिक दुश्मनी के चलते नक्सली बन रहे हैं। वहीं आत्मसमर्पण नीति प्रचार-प्रसार न होने के कारण केवल 33 फीसदी ही नक्सलियों को आकर्षित कर समर्पण के लिए प्रेरित कर पा रही है। इसके अलावा नक्सलियों को सभी ठेकेदारों से 5 प्रतिशत ठेका की राशि, कर्मचारियों का एक दिन का वेतन और किसानों से भोजन और अन्य सामग्री मिल रही है। स्टडी के मुताबिक नक्सली किसी माक्र्सवाद या माओवाद की विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं बन रहे हैं। नक्सलियों ने साक्षात्कार में खुद स्वीकारा है कि वे किसी भी नक्सली, माक्र्सवाद और माओवाद की विचारधारा को नहीं समझते हैं। साल 2011-12 के बाद नक्सलियों की भर्ती भी बंद है। स्टडी टीम में डिफेंस स्टडी सेंटर साइंस कॉलेज के एचओडी एवं फिंस मेंबर डॉ. गिरीश कांत पाण्डेय, पुणे से सोशल वर्कर चंदन हेगुंडे, आर्मी रिटायर्ड कैप्टन स्मिता गायकवाड़, नागपुर के अधिवक्ता मिलिंद महाजन, प्रोजेक्ट फेलो आईसीएसएसआर नई दिल्ली डॉ.वर्णिका शर्मा एवं अन्य शामिल रहे। टीम ने पाया कि नक्सली प्रभाव के कारण ज्यादातर अशिक्षित युवा इस खाई की ओर खिंचते जा रहे हैं। स्टडी टीम ने दिस बर 2014 में महाराष्ट्र के धुर माओवादी इलाके चंद्रपुर, गढ़चिरौली, बलारशाह नागपुर में माओवादी के 2 परिवार, 13 आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के समूह और आईजी रैंक के पुलिस ऑफिसर्स एवं अन्य पुलिस अधिकारियों से लेकर पुलिस और नक्सली दोनों से साक्षात्कार लिया। साथ ही जनवरी 2015 में मप्र के बालाघाट में नक्सलियों के परिजनों और पुलिस अधिकारियों के साथ बातचीत कर रिपोर्ट तैयार की गई। इसी तरह जुलाई 2015 में छत्तीसगढ़ के जगदलपुर, सुकमा और दंतेवाड़ा नक्सली परिवार और 12 आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली समूह और एक आईजी रैंक, एसपी, एएसपी एवं अन्य पुलिस अधिकारियों के साक्षात्कार लेकर पहली स्टडी रिपोर्ट तैयार की है। 11 सालों में 16,231 नक्सली वारदातें देश के डेढ़ दर्जन प्रदेश नक्सलवाद से प्रभावित हैं। इन प्रदेशों में पिछले 11 सालों में 16 हजार 231 नक्सली वारदातें हो चुकी हैं। जानकारी के अनुसार 2006 से 2016 (30 जून) तक नक्सल प्रभावित प्रदेशों में 1782 जवान शहीद हुए और 1527 नक्सली मारे गए। आंकड़ों से साफ जाहिर है कि एक नक्सली को मारने में एक से ज्यादा जवान को अपनी जान गवांनी पड़ी। गृह मंत्रालय में 4 जून 2016 को लगाई गई आरटीआई के एक भाग का जवाब वामपंथी उग्रवाद प्रभाग (ले ट विंग एक्सट्रीमिस्ट) ने 20 जुलाई को दिया। आरटीआई के मुताबिक 2011 से 2016 तक 7095 नक्सली घटनाएं हुईं। 2009 में सबसे ज्यादा 2258 और वर्ष 2010 में 2213 नक्सली वारदातें हुईं। हालांकि, इसके ठीक बाद के छह सालों में नक्सली वारदातों में लगातार कमी आई। वर्ष 2011 में 1760, वर्ष 2012 में 1415, वर्ष 2013 में 1136, वर्ष 2014 में 1091, वर्ष 2015 में 1088 और वर्ष 2016 (30 जून तक) में 605 नक्सली घटनाएं हुईं। गृह मंत्रालय के मुताबिक 2011 से 2016 तक 2124 लोग मारे गए। इनमें सुरक्षा बलों समेत आम नागरिक भी शामिल हैं। इन छह सालों में सबसे ज्यादा झारखंड में 2272, छत्तीसगढ़ में 2194, बिहार में 1006, उड़ीसा में 710, महाराष्ट्र में 485 और आंध्र प्रदेश में 213 नक्सली वारदातें हुईं। 2015 में सबसे कम हुई नक्सल हिंसा मोआवाद प्रभावित राज्यों में पिछले साल हिंसा में खासी गिरावट आई और यह छह साल में सबसे कम नक्सली हिंसा थी। नक्सल प्रभावित 10 राज्यों आंध्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में एक लाख अर्धसैनिक कर्मियों की तैनाती जारी है। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2010 में नक्सली हिंसा में 1,005 लोगों की मौत हुई। 2011 में 611 लोगों की मौत हुई थी। आंकड़ों के अनुसार 2014 में 10 राज्यों में माओवादी हिंसा में 31 लोगों की मौत हुई। 2015 में हिंसा में कुल 226 लोगों की मौत हुई। इनमें से 168 लोग आम नागरिक थे जबकि 58 सुरक्षाकर्मी थे। उस साल, 89 माओवादी मारे गए जबकि 1668 गिर तार हुए। इस साल 570 माओवादी प्रशासन के समक्ष आत्मसमर्पण किया। 2014 में कुल 310 लोगों की मौत हुई। इनमें से 222 लोग आम नागरिक थे जबकि 88 सुरक्षाकर्मी थे। उस साल, 63 माओवादी मारे गए जबकि 1696 गिर तार हुए। इस साल 676 माओवादियों ने प्रशासन के समक्ष आत्मसमर्पण किया। सुरक्षा बलों पर माओवादियों के हमले की घटनाओं में भी गिरावट आई। 2014 में 155 हमले हुए जबकि 2015 में 118 हमले। बहरहाल, इस दौरान विद्रोहियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ की घटनाएं 2014 की 221 से बढ़ कर 2015 में 247 हो गईं। सुरक्षा बलों ने 2015 में नक्सलवादियों के पास से कुल 723 हथियार बरामद किए थे जबकि 2014 में 548 हथियार बरामद किए गए थे।

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