गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

मध्य प्रदेश में किसानों की आय दोगुना करने का रोडमैप तैयार

इस बार भी प्रदेश के खेतों में लहलहाई उम्मीद की फसल
भोपाल। कृषि उत्पादन में लगातार चार बार कृषि कर्मण अवाडऱ् लेकर मप्र आज कृषि के क्षेत्र में देश का रोल मॉडल बन गया है। मप्र में कृषि विकास दर देखकर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कृषि विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा ने रोडमैप तैयार कर लिया है। मप्र कैसे लक्ष्य प्राप्त करेगा इसकी रिपोर्ट बनाकर राजौरा ने प्रधानमंत्री को भी दिखा दी है। जिसे खुब सराहना मिली है। अब उसी आधार पर मप्र में कृषि विकास और किसानों की आय बढ़ोतरी पर काम हो रहा है। ज्ञातव्य है कि प्रदेश में 'अन्नदाता सुखी भव:Ó के मंत्र के साथ कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया है, जिनमें प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल-बीमा योजना, मुफ्त मृदा स्वास्थ्य-कार्ड, ई-मंडी आदि शामिल हैं। लेकिन, सबसे अधिक महत्वपूर्ण है 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना। यदि सच में ऐसा हो जाये, तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में यह बड़ा कदम होगा। अब प्रश्न यह है कि क्या यह संभव होगा? क्या आय का औसत आंकड़ा बढऩे मात्र से किसान की क्रय-शक्ति बढ़ जायेगी? क्या उसकी बढ़ी हुई आय मुद्रा-स्फीति को परास्त कर पायेगी? क्या बढ़ती आय के मानक सरकारी होंगे या किसान के हाथ कुछ लगेगा भी? सवाल कई हैं लेकिन मप्र के संदर्भ में सबका जवाब है जी हां मप्र का किसान खुशहाल होगा और 2022 तक निश्चित रूप से उसकी आय दोगुनी होगी। क्योंकि सरकार ने उस पर अमल वर्षों पहले ही शुरू कर दिया था। प्रमुख सचिव डॉ. राजेश राजौरा कहते हैं कि कृषि को फायदे का धंधा बनाना है तो लागत घटानी होगी। इसके लिए ज्यादातर देसी संसाधनों को आगे बढ़ाना होगा। जब बीज और तकनीक हमारी होगी तो लागत भी घटेगी। पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने का जो रोडमैप बनाया है, उसमें बीजों पर आत्मनिर्भरता बढ़ाना प्रमुख है। इसमें भी जैविक खेती को बढ़ावा देना सरकार की प्राथमिकता में है। सरकार के इस प्रयास को सफल बनाने के लिए प्रदेश के किसान भी तत्परता से जुटे हुए हैं। ज्ञातव्य है कि सरकार के सहयोग और कृषि विभाग के संकल्प के कारण मध्य प्रदेश में 2014-15 के दौरान कृषि क्षेत्र में 20 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। दस साल पहले 2004-05 में यह दर -4.7 फीसदी थी। इतने लंबे और कामयाब सफर का ही नतीजा है कि राज्य को केंद्र सरकार की ओर से लगातार चार साल तक सर्वाधिक अनाज पैदा करने के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार से नवाजा गया है। पिछले दस साल में यहां खेती से होने वाली पैदावार दोगुनी हुई है और गेहूं की पैदावार के मामले में मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर आ गया है जबकि कुछ साल पहले यह चौथे स्थान पर था। यह संख्या और ज्यादा प्रभावी दिखती है जब इस तथ्य को संज्ञान में लिया जाता है कि देश में कृषि पैदावार 2014-15 में महज 1।1 फीसदी की दर से बढ़ी और सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगातार गिरावट की ओर है। यह सारा कायाकल्प मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में हुआ है और इसमें डा. राजौरा जैसे अफसरों का सहयोग रहा है। कृषि विभाग प्रदेश के 98.8 लाख किसानों को निरंतर सलाह दे रहा है कि कैसे परंपरागत खेती को छोड़कर खेती के प्रगतिशील तरीके अपनाए जाएं ताकि खेती लाभ का सौदा बन सके। हालांकि मध्य प्रदेश में कृषि के कायाकल्प का श्रेय यहां के किसानों का उद्यमी स्वभाव भी है। दस साल पीछे जाकर 2005 में देखें तो उस वक्त मध्य प्रदेश के किसानों के लिए संपन्नता की फसल बताया जा रहा सोयाबीन अचानक कुछ अहम संकटों में फंस गया था। मसलन कम निर्यात, खराब बारिश और कीट नियंत्रण की दिक्कत। अस्सी के दशक के बाद से सोयाबीन की खेती की शुरुआती कामयाबी ने मशीनीकरण और गांवों की संपन्नता में पर्याप्त योगदान दिया लेकिन 2005 में इस फसल से मिलने वाला फायदा कम हो गया। किसानों को अब किसी और चमत्कार का इंतजार था। इसके बाद ही किसानों को बासमती की खेती बेहतर विकल्प के तौर पर नजर आई (मध्य प्रदेश फिलहाल अपनी चावल की फसल को बासमती का दर्जा दिलवाने की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है जो कि एक भौगोलिक टैग है, जैसे चाय के लिए दार्जिलिंग या स्पार्कलिंग वाइन के लिए च्शैम्पेन।ज् अब तक मध्य प्रदेश के चावल को यह दर्जा नहीं मिला है)। मध्य प्रदेश में प्रमुख फसलों की पैदावारपरंपरागत किस्म के धान की खेती तो लंबे समय से प्रदेश के पूर्वी और उत्तरी हिस्सों में होती रही है। हालांकि यहां खेती के लिए सबसे संपन्न और प्रगतिशील माने जाने वाले मध्य नर्मदा के इलाके ने काफी देर से बड़े पैमाने पर धान की खेती शुरू की, जिनमें रायसेन, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और हरदा जिले आते हैं। इसके बाद ही राज्य में खेती के कायाकल्प की जमीन तैयार हो सकी। आज की तारीख में यहां का माल बॉन्डेड राइस कंपनियां खरीद रही हैं, जिनमें अधिकांश का निर्यात किया जा रहा है। हालांकि खरीद मूल्य अंतरराष्ट्रीय कारकों पर निर्भर करता है फिर भी इस फसल ने अप्रत्याशित रिटर्न दिया है, जो प्रति क्विंटल 4,500 रु. तक जा चुका है। यह 90,000 रु. प्रति एकड़ के बराबर है जो सोयाबीन से छह गुना ज्यादा है। बासमती की तरह लंबे दाने वाले चावल के यहां आने से पैदावार में इजाफा हुआ है—यह 2002-03 में प्रति हेक्टेयर 6.64 क्विंटल थी जो 2014-15 में बढ़कर 24.48 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गई। प्रदेश में आज जो कृषि प्रगति का पर्याय बनी है उसमें कृषि विभाग के मुख्य सचिव राजौरा की सोच और उसे साकार करने की योजना को धरातल पर उतारना प्रमुख रहा है। अगर सरकार की ओर से सहयोग नहीं किए गए होते, तो यह कामयाबी शायद मुमकिन न हो पाती। इसमें एक अहम काम सिंचाई के लिए पानी का पक्का इंतजाम कराना रहा है। पहले से घोषित सिंचाई परियोजनाओं के कार्यान्वयन में तेजी लाई गई और जलक्षेत्र की पुनर्संरचना का काम भी किया गया जिसमें विश्व बैंक से मिले सहयोग का भी योगदान रहा है। ग्रामीण विकास विभाग ने भी पैदावार की इस वृद्धि में मनरेगा के तहत कपिल धारा जैसी कुछ योजनाओं के जरिए योगदान दिया। प्रमाणित बीजों की बढ़ी हुई उपलब्धता भी राज्य सरकार के हस्तक्षेप का परिणाम थी। इसे वृद्धि का मुख्य चालक माना गया और बीते 20 वर्षों में प्रमाणित बीजों की उपलब्धता में नौगुने का इजाफा हुआ है। इसी तरह आज से पांच साल पहले तक मध्य प्रदेश की कृषि में खाद की कमी का रोना हमेशा बना रहता था लेकिन अग्रिम भंडारण जैसी प्रशासनिक योजनाओं ने किसानों के लिए इसकी उपलब्धता में इजाफा किया है। प्रदेश में खेती के विकास की वजह से खेती में मशीनों का इस्तेमाल भी लगातार बढ़ा है। पिछले 10 साल में ट्रैक्टरों की बिक्री में तीनगुना इजाफा हुआ है, आंशिक तौर पर इसकी वजह किसानों को मिलने वाले कर्ज की सहज उपलब्धता है। 200 गांवों को यंत्रदूत ग्राम (मशीनों से लैस) के तौर पर विकसित किया गया है जहां कृषि लागत में इजाफे को तीसरे पक्ष की ओर से किए गए मूल्यांकन में दर्ज किया गया है। हालांकि कुछ आलोचकों का कहना है कि ट्रैक्टर की बिक्री में इजाफे का लेना-देना देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के उछाल से है और खासकर इसका ताल्लुक प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत गांवों में हो रहे सड़क निर्माण से है। उनके मुताबिक, इस अवधि में ट्रैक्टरों में निवेश इसलिए बढ़ा, क्योंकि सड़क ठेकेदारों की ओर से किराये पर अर्थमूवर की मांग में इजाफा हुआ था। चाहे जो भी हो, लेकिन ट्रैक्टरों की बढ़ी हुई उपलब्धता ने प्रदेश में ज्यादा रकबे को उपज के दायरे में लाने में मदद जरूर की है। खेती के लिए बिजली की उपलब्धता ऐसा ही एक अन्य कारक है। पिछले कुछ समय से मध्य प्रदेश में बिजली का मुद्दा काफी विवादपूर्ण रहा है तथा बीजेपी ने 2003 के विधानसभा चुनावों में बिजली, सड़क और पानी का मुद्दा उठाया था जिसके चलते कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई थी। यहां 2008 में पंपों के लिए बिजली की उपलब्धता 0.80 किलोवॉट प्रति हेक्टेयर थी लेकिन 2013-14 में यह बढ़कर प्रति हेक्टेयर 1.36 किलोवॉट हो गई है। खेती के लिए करीब 16.1 अरब यूनिट बिजली मुहैया कराई जा रही है जबकि 2009-10 में यह उपलब्धता सिर्फ 6.7 अरब यूनिट थी। शिवराज सिंह चौहान की सरकार की ओर से खेती को दी गई राहतों में सबसे ज्यादा आकर्षक पेशकश 2012-13 से शून्य फीसदी ब्याज दर पर मुहैया कराया जाने वाला कर्ज है। पहले यह पांच फीसदी ब्याज पर दिया जाता था। इससे न केवल यह सुनिश्चित होता है कि किसान बीज और खाद आदि कर्ज पर ले सकता है, बल्कि उसके हाथ में दूसरे कामों के लिए नकद राशि भी बची रह जाती है। सहकारी मंत्री विश्वास सारंग कहते हैं, च्ज्मध्य प्रदेश में करीब 28 लाख किसान हैं जो क्रेडिट नेट के भीतर हैं। हमारी योजना अगले दो साल में इसे 38 लाख तक ले जाने की है। एक साल में राजकीय सहकारी बैंकों की ओर से कुल 13,500 रु. की राशि प्रत्येक किसान को कर्ज के रूप में मुहैया कराई जा रही है। कामयाबी की इस रफ्तार को बनाए रखने के लिए राज्य सरकार ने मिट्टी की सेहत पर अपना जोर केंद्रित करने का फैसला किया है ताकि यह पता लग सके कि किस किस्म की खादों की जरूरत होगी। 10.7 करोड़ किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड दिए जाएंगे तथा मौसमी बदलावों के बेहतर पूर्वानुमान के लिए राज्य में 1,200 ऑटोमेटेड मौसम केंद्र और 33,000 रेन गेज स्थापित किए जाएंगे। जरूरत के हिसाब से खेती के उपकरणों को मुहैया कराने पर भी जोर है ताकि मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके। गर्मियों में तीसरी फसल चक्र के लिए ज्यादा रकबा बढ़ाने पर भी जोर होगा जो फिलहाल 3.6 लाख हेक्टेयर है। राज्य सरकार ने अगले पांच साल में खेती से होने वाली आय को दोगुना करने का लक्ष्य भी रखा है। वैसे आलोचक एक दिलचस्प आंकड़े की ओर ध्यान दिलाते हैं जो प्रदेश की कामयाबी की इस दास्तान पर दाग की तरह नजर आता है। राज्य में 2001 की जनगणना के हिसाब से 1.1 करोड़ किसान थे लेकिन 2011 की जनगणना में यह संख्या घटकर 98.8 लाख रह गई यानी दस साल में 11.2 लाख लोग खेती को छोड़कर चले गए। मध्य प्रदेश में खेती अगर असल में फायदे का सौदा थी तो किसानों ने खेती क्यों छोड़ी? यह सवाल कुछ आलोचक पूछ रहे हैं। इतना ही नहीं, 2001 में 70 लाख लोग खेतिहर मजदूर थे जबकि 2011 में यह संख्या बढ़कर 1.22 करोड़ हो गई। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि किसान खुद अपनी ही जमीन पर मजदूर में तब्दील होता जा रहा है या फिर मजदूरों की तादाद में इजाफा कहीं और से हुआ है? गेहूं उत्पादन में दूसरे स्थान पर डा. राजौरा के नेतृत्व में मप्र ने एक और बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए मध्यप्रदेश अब गेहूँ के उत्पादन में पंजाब को पीछे छोड़कर देश में दूसरे स्थान पर आ गया है। प्रदेश में वर्ष 2014-15 में 1 करोड़ 84 लाख मीट्रिक टन गेहूँ का उत्पादन हुआ जबकि पंजाब का गेहूँ उत्पादन 1 करोड़ 71 लाख मीट्रिक टन रहा। वर्ष 2013-14 में गेहूँ की उत्पादकता 2405 किलो प्रति हेक्टेयर थी, जो वर्ष 2014-15 में बढ़कर 3079 किलो प्रति हेक्टेयर हो गयी है। प्रदेश की कृषि विकास दर वर्ष 2014-15 के अनुमानों के हिसाब से 20.11 प्रतिशत है। विगत चार वर्ष से प्रदेश की कृषि विकास दर औसतन 15 प्रतिशत रही है। दलहन और तिलहन फसलों की पैदावार के मामले में देशभर में पहले पायदान पर काबिज मध्यप्रदेश अब देश का प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य भी बन गया है। सोयाबीन स्टेट और टाइगर स्टेट की पहचान के लिये पहले से विख्यात मध्यप्रदेश अब देश का व्हीट स्टेट (गेहूं राज्य) बनने की दिशा में बढ़ चुका है। गेहूं अनुसंधान निदेशालय करनाल हरियाणा के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. आर.के. गुप्ता के मुताबिक वैज्ञानिक मापदण्डों के आधार पर जांचने-परखने के बाद प्रदेश के गेहूं का टेस्ट वेट पूरे देश में सर्वाधिक पाया गया है। यहाँ का गेहूं रोटी के लिये सबसे स्वादिष्ट और पोषक तत्वों से भरपूर है। देशी ही नहीं विदेशी भी यहाँ के खास शरबती गेहूं की पौष्टिकता एवं जायके के दीवाने हैं। देश के गेहूं उत्पादन में प्रदेश का 18 प्रतिशत योगदान है। विदेशों को निर्यात किये जाने वाले गेहूं में 35 से 40 प्रतिशत मध्यप्रदेश का होता है। जिन देश में प्रदेश के गेहूं को काफी पसंद किया जाता है, उनमें ओमान, यमन, यूएई, साउथ कोरिया, कतर, बांगलादेश, सउदी अरब, मलेशिया, साउथ अफ्रीका और इंडोनेशिया शामिल हैं। हरियाणा के करनाल जिले में स्थित भारत सरकार के गेहूं अनुसंधान निदेशालय के वैज्ञानिक ने फूड कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया के गोदामों से मध्यप्रदेश, पंजाब और हरियाणा राज्य के गेहूं के वर्ष 2012-13 एवं वर्ष 2013-2014 के दौरान कुल 7 हजार 777 सेम्पल लिये थे। इसमें करीब दो हजार सेम्पल मध्यप्रदेश के गेहूं के थे। प्रदेश के गेहूं के नमूनों की वैज्ञानिक पहलुओं पर जाँच के बाद मैदा निष्कर्षण की दर 70.7 प्रतिशत पाई गई, जो देश में सर्वाधिक है। प्रदेश के सामान्य से सामान्य किस्म के गेहूं में औसत रूप से 12.6 प्रतिशत प्रोटीन, 43.6 पार्टस पर मिलियन आयरन कंटेन्ट तथा 38.2 पार्टस पर मिलियन जिंक कन्टेंट पाया गया है। इसी प्रकार कठिया प्रजाति के गेहूं में प्रोटीन कन्टेंट का औसत 12.9 प्रतिशत, आयरन कन्टेंट 44.5 पार्टस पर मिलियन तथा जिंक कन्टेंट 39.8 पार्टस पर मिलियन मिला है। इसके अलावा गेहूं की हार्डनेस इंडेक्स भी राष्ट्रीय औसत से बेहतर पाई गयी। विश्लेषण के बाद प्रदेश के गेहूं की प्रजाति एमपी 1203 में सर्वाधिक 13.23 प्रतिशत प्रोटीन तथा एमपी 1202 में माइक्रो न्यूट्रियेन्ट्स जैसे आयरन 42.5 पीपीएम, जिंक 41.9 पीपीएम तथा मैग्नीज 51.9 पीपीएम पाया गया है। इन्हीं विशेषताओं के चलते मध्यप्रदेश के गेहूं को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। प्रदेश ने एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करते हुए। वर्ष 2014-15 में 1 लाख 9 हजार हेक्टेयर पड़त भूमि को कृषि क्षेत्र में लाया गया। साथ ही 5 लाख 48 हजार हेक्टेयर में श्री पद्धति से धान उत्पादन क्षेत्र बढ़ाया गया। सभी बड़ी फसलों में बीज प्रतिस्थापन की दर 14.03 प्रतिशत से बढ़ाकर 27.12 प्रतिशत की गई। इसमें धान बीज प्रतिस्थापन दर 8.82 प्रतिशत से बढ़ाकर 24 प्रतिशत, मक्का 10.94 प्रतिशत से बढ़ाकर 69.44 प्रतिशत, चना 2.90 प्रतिशत से 13.59 प्रतिशत, सोयाबीन 14.77 प्रतिशत से 22.37 प्रतिशत और सरसों की बीज प्रतिस्थापन दर 16.88 प्रतिशत से बढ़ाकर 40.90 प्रतिशत की गई। मध्यप्रदेश ने चावल के उत्पादन में भी पिछले वर्ष की तुलना में 95 प्रतिशत वृद्धि हासिल की है। वर्ष 2013-14 में प्रदेश में धान उत्पादन 27 लाख 70 हजार मीट्रिक टन था, जो 2014-15 में बढ़कर 54 लाख 38 हजार मीट्रिक टन हो गया है। सिंचाई सुविधाओं का विस्तार कृषि के क्षेत्र में मध्यप्रदेश की इन उपलब्धियों में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वर्ष 2010-11 में जहाँ नहरों से सिंचित क्षेत्र मात्र पौने दस लाख हेक्टेयर था, वहीं वर्ष 2014-15 में यह बढ़कर 32 लाख 29 हजार हेक्टेयर हो गया है। अकेले वर्ष 2014-15 में 3 लाख 26 हजार हेक्टेयर क्षेत्र सिंचाई के अन्तर्गत लाया गया । प्रदेश में वर्ष 2012-13 में सभी स्त्रोतों से कुल सिंचित क्षेत्र 89 लाख 25 हजार हेक्टेयर था जो वर्ष 2014-15 में बढ़कर 1 करोड़ 2 लाख 48 हजार हेक्टेयर हो गया है। पिछले दो वर्ष में सभी स्त्रोतों से सिंचित क्षेत्र में 13 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। मशीनीकरण को प्राथमिकता राज्य सरकार ने खेती के मशीनीकरण को प्राथमिकता दी है। वर्ष 2014-15 में प्रदेश में 510 कस्टम हायरिंग सेन्टर स्थापित किये गये। प्रदेश में कृषि ऊर्जा वर्तमान में 1.73 किलोवाट प्रति हेक्टेयर है जो वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय औसत से अधिक हो जायेगी। प्रदेश में वर्ष 2014-15 में किसानों को 13 हजार 598 करोड़ के सहकारी ऋण वितरित किये गये जबकि 2010-11 में 5845 करोड़ के ऋण दिये गये थे। अकेले वर्ष 2014 में 4 लाख 17 हजार किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड जारी किये गये। अभी तक 51 लाख 51 हजार किसानों को किसान कार्ड वितरित किये गये। अगले साल किसानों को 20 हजार करोड़ रुपये के ऋण दिये जायेंगे। पिछले वर्ष लगभग 6 लाख 33 हजार अस्थाई और 3 लाख 3 हजार स्थाई सिंचाई पम्प कनेक्शन दिये गये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें