मंगलवार, 21 मार्च 2017

मध्य प्रदेश में खुदकुशी की खेती

सालाना 3 लाख करोड़ कमाई, फिर भी मौत नहीं रूक पाई
भोपाल। सरकारी आंकड़ों में मध्य प्रदेश में खेती की खूब बहार है। गेंहू, सोयाबीन और अन्य फसलों की हो रही बंपर पैदावार। सरकारी दावे के अनुसार, खेती-किसानी के मामले में मध्य प्रदेश बेहद समृद्ध राज्य बन गया है। राज्य की 74.73 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है और कृषि पर निर्भर है। कृषि से सालाना कमाई भी 3 लाख करोड़ के पार पहुंच गई है। इसलिए प्रदेश को लगातार चार कृषि कर्मण अवार्ड मिल चुके हैं। यानी मप्र खेती-किसानी में है सबसे खुशगवार। सरकारी दावों के इतर काश ऐसा होता। सरकार के तमाम दावों के बीच दुखद पहलू यह है कि पिछले एक दशक से मप्र के खेतों में खुदकुशी की खेती हो रही है। यानी मप्र में जैसे-जैसे फसलों की पैदावार बढ़ रही है वैसे-वैसे किसानों की खुदकुशी के मामले भी बढ़ रहे हैं। आलम यह है कि प्रदेश में रोजाना छह किसान मौत को गले लगा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ सरकार प्रदेश की खेती-किसानी को पर्यटन का केंद्र बनाने की तैयारी कर रही है। केंद्र और राज्य सरकार द्वारा कृषि विकास व किसानों की आमदनी दोगुनी करने के तमाम दावों के बावजूद नए साल की शुरुआत किसानों से संबंधित एक निराशाजनक खबर से हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने बताया है कि वर्ष 2015 में 12,602 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की। 'एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडियाÓ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मजदूरों की संख्या 6710 थी, वहीं 2015 में 8,007 किसानों ने जबकि 4,595 कृषि मजदूरों ने खुद को खत्म कर लिया। इस प्रकार देखें तो किसान-आत्महत्या के मामले में एक साल में बयालीस फीसदी का इजाफा हुआ, जो कि बेहद चिंताजनक है। हालांकि मजदूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 प्रतिशत की गिरावट जरूर दर्ज की गई है। मप्र में रोजाना 6 खुदकुशी अगर मप्र की बात करें तो लगातार हो रही धोखाधड़ी के कारण यहां किसानों के खुदकुशी के मामले बढ़े हैं। 2015 में रोजाना औसतन चार किसान जान दे रहे थे, जो 2016 में बढ़कर छह हो गए। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2015 में 1290 किसान-श्रमिकों ने जान दी। वहीं एक फरवरी 2016 से 15 नवंबर 2016 के बीच 1685 किसानों ने जान दी। यह जानकारी विधानसभा में शीतकालीन सत्र के दौरान गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने दी थी। इनमें डिंडोरी में सबसे ज्यादा 68 किसानों ने अपने प्राण त्यागे। वहीं सागर में 45, झाबुआ में 33, अलीराजपुर में 32, खरगौन में 30 किसानों ने खुदकुशी की। बड़े जिलों में भोपाल में एक, जबलपुर में 12, ग्वालियर में खुदकुशी के 2 मामले सामने आए। इस बीच इंदौर में एक भी घटना नहीं हुई। किसानों के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ, उलटे खुदकुशी करने वाले किसानों की तादाद में इजाफा क्यों हुआ? इस सवाल का जवाब गहरे कृषि संकट में छिपा है। आय दोगुनी करने का रोड-मैप का क्या? 18 फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीहोर जिले के शेरपुर में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लागू करने के साथ ही किसानों की आय को वर्ष 2022 तक दुगना करने का संकल्प लिया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री को विदाई देने के चंद घंटे बाद ही एक उच्च-स्तरीय बैठक में किसानों की आय दोगुना करने का रोडमैप बनाने के दिशा-निर्देश दिए। इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया। मध्यप्रदेश देश में पहला राज्य बना जिसने किसानों की आय दोगुना करने का रोड मैप तैयार कर लिया। लक्ष्य यह है कि प्रधानमंत्री ने 2022 का जो समय निर्धारित किया है उसके एक वर्ष पूर्व ही उनका यह सपना प्रदेश में पूरा हो जाये। प्रदेश सरकार द्वारा तैयार कृषि रोड मैप किसानों को 360 डिग्री पर सहायता करने के उद्देश्य से बनाया गया है। इसमें किसानों को मौसम की प्रत्येक परिस्थिति के अनुरूप सुविधाएं तो उपलब्ध करवाई ही जाएगी। साथ ही कृषि संबंधी शोध, बीज, खाद, पर्याप्त बिजली-पानी, सरकार की योजनाओं, उत्पादन की लागत, मंडी के दामों इत्यादि को सरलता से किसानों तक पहुंचाया जाएगा। लेकिन हकीकत क्या है? टमाटर मुफ्त के भाव खरीदने वाले भी नहीं मिल रहे हैं, मटर 6-8 रूपए भी कोई नहीं पूछ रहा है, भाजी पशुओं को खिलाया जा रहा है। ऐसे में किसान की आय दोगुनी कैसे हो पाएगी? ऐसे में खेती लाभ का धंधा कैसे बन पाएगी? खेती-किसानी की यह दुर्दशा देखकर ऐसा लगता है जैसे सरकार की प्राथमिकता में खेती है ही नहीं। एक तरफ अधिकारियां-कर्मचारियों की सुख-सुविधाओं, वेतन-पेंशन आदि के लिए जो भी आयोग बनते हैं, जो भी नीति बनती है उसका क्रियान्वयन झट से हो जाता है, जबकि खेती को तो भगवान का भी सहारा नहीं मिल पा रहा है। अपनी फसल का वाजिब दाम नहीं मिलने पर या तो किसान मंडी में फसल छोड़ जा रहा है या मुफ्त में बांट रहा है। लेकिन ने तो सरकार और न ही मोटा-मोटा वेतन लेने वाले कृषि विभाग के अधिकारी यह सोच रहे हैं कि किसान ऐसे ही मुफ्त में अपनी उपज बांटने लगे या माटी मोल बेचने को मजबूर हो तो फिर वह जिंदा कैसे रहेगा? ऐसे में उसके सामने सल्फास, कीटनाशक या फांसी का फंदा नजर आते हैं? क्या करे, फिर वो बच्चों को क्या खिलाए, खुद क्या खाए? किसान की उपज की मार्केटिंग की व्यवस्था नहीं किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्का जी कहते हैं कि किसान की आय दोगुना करने के रोड मैप में उत्पाद को बाजार मुहैया करना मुख्य विषय है। लेकिन एक दशक से खेती को लाभ का धंधा बनाने का प्रचार करने वाली सरकार किसान की उपज की मार्केटिंग की कोई ठोस व्यवस्था नहीं बना पाई है? टमाटरों का कैचप बनाने के बड़े-बड़े वादों का कचमूर कैसे निकल गया? बाजार में अचानक टमाटर के भाव गिर जाने से किसानों की कमर टूट गई है। वर्तमान समय में टमाटर का मूल्य महज दो से पांच रुपए तक पहुंच गया है। इस कीमत में भी टमाटर के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। जिसके कारण टमाटर बेचने वाले किसानों की स्थिति काफी खराब हो गई है। बाजार में टमाटर का अंबार लगा हुआ है लेकिन किसानों को टमाटर के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। जिससे किसान खेतों में लगे टमाटर को खेत से तोडऩे की भी जहमत नहीं उठा रहे हैं। अब टमाटर खेत में ही बर्बाद हो रहे हैं। दरअसल, सरकार किसानों को उद्यानिकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित तो कर रही है लेकिन उनकी फसलों के लिए बाजार नहीं तैयार कर पा रही है। इसी का परिणाम है कि किसानों को उनके उत्पाद का भाव नहीं मिल पा रहा है। कक्का जी कहते हैं कि किसानों से बार बार कहा गया और अब भी कहा जा रहा है कि वे केवल पारंपरिक फसलों गेहूं, चना, सोयाबीन के भरोसे न रहे, फल, सब्जी, फूल इत्यादि की भी खेती साथ में करें। इसमें मुनाफा ही मुनाफा है। अब टमाटर और हरी सब्जियों के दाम दो कौड़ी के कैसे हो गए? और वे कैसे फिंक रहे हैं या मुफ्त बांटने की हैसियत वाले लग्जरी किसान मुफ्त बांट रहे हैं और असल किसान दो-दो आंसू रोने की स्थिति में है। खाद्य प्रसंस्करण के उद्योगों के सपनों का क्या हुआ? क्या होगा खेती के अलावा अन्य तरह की खेती की राहों का? क्यों करते हैं किसान आत्महत्या फसल की बर्बादी और ऋणों का बोझ किसानों को आत्महत्या के दहलीज पर पहुंचा देते हैं। 2015 में जितने किसानों ने आत्महत्या की उनमें से अधिकतर मामलों में कर्ज ना चुका पाना प्रमुख कारण था। मैग्सेसे अवार्ड विजेता पी. साईनाथ का कहना है कि मौसम की मार, ऋणों के बोझ सहित कई अन्य कारणों से किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या कर रहे किसानों का असल दर्द फसलों की बर्बादी से उपजी आर्थिक तंगहाली ही है। परिवार की जिम्मेदारी ना उठा पाने की ग्लानि भी उनमें रहती है। मप्र जहां एक तरफ अनाज उत्पाद में पिछले चार साल से कृषि कर्मण सम्मान पा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में किसान निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं। है न चौंकाने वाली बात। दरअसल, प्रदेश में किसान सरकार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिकार्ड अनाज उत्पादन तो करता है लेकिन इसके लिए उसे बड़ी राशि व्यय करनी पड़ती है। जब उत्पादित अनाज या समान का वाजिब दाम उसे नहीं मिलता है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर होता है। दरअसल प्रदेश में खेती-किसानी की आधारभूत नीति नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है। प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं किसान हैं और खेती-किसानी को लेकर वे निरंतर चिंतित रहते हैं। लेकिन अधिकारियों की नाफरमानी और लापरवाही के कारण स्थिति बिगड़़ रही है। प्रदेश में आंकड़ों की खेती हो रही है। वातानुकूलित दफतर में बैठे अफसर खेती-किसानी का खाका तैयार कर रहे हैं। नहीं मिल रहा वाजिब मूल्य प्रदेश में किसान बैंक, महाजन या अन्य स्रोतों से कर्ज लेकर खेती करता है ताकि फसल बेचकर वह चुकता कर देगा। लेकिन किसान की उत्पादित फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। इसका नजारा पिछले साल प्याज और अब टमाटर और आलू की फसल आने के बाद साफ दिख रहा है। आलम यह है कि किसान जब अपनी फसल लेकर मंडी पहुंच रहा है तो उसे अपनी फसल के बदले भाड़े तक की रकम नहीं मिल पा रही है। ऐसे में किसान के पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। गुलाबी तस्वीर लाल क्यों? सवाल है कि कृषिक्षेत्र की गुलाबी तस्वीर पेश करने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद ये आंकड़े घटने के बजाय बढ़ क्यों रहे हैं? दरअसल, किसान-आत्महत्या का यह सिलसिला दोषपूर्ण आर्थिक नीति का नतीजा है। एक ऐसी नीति जिसमें गरीब और गरीब हो रहे हैं, जबकि अमीर और अमीर। कृषि को व्यवस्थित तौर पर ऐसा बनाया गया है कि वह पुसाने लायक नहीं रह गई है, जिसके कारण किसान कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं। आजादी के समय जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान पचास फीसदी से ज्यादा था वहीं मौजूदा दौर में बीस फीसदी भी नहीं रहा। जरा सोचिए कि क्या कारण है कि एक किसान मंडी में टमाटर पचास पैसे प्रति किलो बेचने जाता है, लेकिन खरीदार पच्चीस पैसे प्रति किलो देने को कहता है और वह किसान एक ट्रैक्टर टमाटर को जमीन पर रौंद कर चला जाता है? किसानों की बदहाली और आत्महत्याओं के लिए सरकारों की दोषपूर्ण नीतियां जिम्मेदार हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि हालात ऐसे भी बुरे नहीं है कि सरकार इसे नियंत्रित ना कर पाए। लेकिन सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है। खेती छोड़कर अब नौकरी करने वाले सवाई सिंह परमार कहते हैं कि सरकारें किसानों के हित की बात तो करती हैं पर उनकी परेशानियों को नहीं समझतीं। किसानों के लिए जो सुविधाएं या सब्सिडी मिलती है वह काफी नहीं है। अक्सर सरकारी सुविधाओं का लाभ सिर्फ बड़े किसानों को मिलता है। समृद्ध किसानों की सब्सिडियों को रोक कर छोटे, मझोले किसानों को मदद देना होगा। बेहतर ऋण व्यवस्था, दोष मुक्त फसल बीमा और सिंचाई प्रणाली में सुधार लाकर सरकार किसानों की स्थिति में सुधार ला सकती है। मप्र में किसानों के लिए सिंचाई सबसे बड़ी समस्या है। सरकार का दावा है कि वर्ष 2003 में जहां सिर्फ सात लाख हेक्टेयर के आसपास सिंचित क्षेत्र था। वहीं जल संसाधन विभाग ने इसे तीस लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया है। नर्मदा घाटी विकास, पंचायत और अन्य विभाग की योजनाओं से बढ़े सिंचाई रकबे की गणना अलग है। आने वाले वर्षों में मध्यप्रदेश में साठ लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता पहुंच जाएगी। इसके विपरीत स्थिति यह है कि प्रदेश में किसानों की फसल सिंचाई के अभाव में सूख जाती है। खेती के लिए बिजली, पानी, खाद-बीज की जरूरत होती है। सरकार का दावा है कि वह किसानों को सारी सुविधाएं मुहैया करा रही है। जबकि हकीकत यह है कि सिर्फ कागजों पर ही किसानों को बिजली-पानी मिल रहा है। जहां तक खाद बीज का सवाल है तो वह तो किसानों की आत्महत्या के लिए सबसे बड़ा कारण है। दरअसल प्रदेश में किसानों को अमानक खाद बीज मुहैया कराया जाता है। किसान बैंकों से कर्ज लेकर खेती करता है और पूरे परिवार सहित रात दिन मेहनत करके सरकार के लक्ष्य की पूर्ति करता है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि पिछले चार साल में प्रदेश में रिकार्ड अनाज का उत्पादन हो रहा है। कृषि मजदूर भी त्रस्त प्रदेश में बीते एक दशक में खेतों में काम करने वाले मजदूरों की आत्महत्या के मामले भी तेजी से बढ़े हैं। पांच में से तीन मजदूर पारिवारिक वजहों और बीमारी के कारण खुदकुशी कर लेते हैं। हैरानी की बात यह कि देश में पारिवारिक वजहों से अपनी जिंदगी खत्म करने वाले लोगों की संख्या इन मजदूरों से कम है। यही नहीं, एनसीआरबी के आंकड़े कहते हैं कि किसानों के मुकाबले उनके साथ खेतों में काम करने वाले मजदूर पारिवारिक वजहों और बीमारी के चलते ज्यादा त्रस्त हैं। आंकड़ों के अनुसार, खुदकुशी करने वालों में 40.1 फीसदी कृषि क्षेत्र के मजदूर पारिवारिक वजहों से ऐसा कदम उठाते हैं। वहीं, साल 2015 में 1843 मजदूरों ने इन कारणों से अपनी जिंदगी समाप्त कर ली थी। वर्ष 2015 में 60 फीसदी कृषि क्षेत्र के मजदूर बीमारी के कारण मर गए। इनकी संख्या 4595 है। बीमारी से मरने वाले किसानों की तुलना में इनका आंकड़ा बहुत अधिक है। बता दें कि बीमारी से मरने वाले लोगों का औसत प्रतिशत करीब 43 फीसदी है। इसके अलावा हर साल समूचे देश में पारिवारिक वजहों के कारण 27.6 फीसदी और बीमारी के कारण 15.8 फीसदी आत्महत्या कर लेते हैं। इस लिहाज से कृषि क्षेत्र के मजदूर की खुदकुशी के मामले ज्यादा हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा खेती करने वाले मजदूर आत्महत्या करते हैं। साल 2015 में 1261 मजदूरों ने अपना जीवन समाप्त किया। इसके बाद खुदकुशी के मामले में मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर आता है। इस मियाद में यहां 709 मजदूरों ने आत्महत्या की। तमिलनाडु में 604, आंध्र प्रदेश में 400, कर्नाटक में 372, गुजरात में 244 और केरल में 207 मजदूरों ने खुदकुशी की। 80 प्रतिशत आत्महत्याओं के लिए बैंक जिम्मेदार प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के मामले में स्थानीय साहूकारों को आम तौर पर विलेन की तरह पेश किया जाता है, लेकिन सरकारी आंकड़े इसके उलट एक अलग तस्वीर पेश करते हैं। आंकड़ों के अनुसार 2015 में 80 प्रतिशत किसानोंं ने बैंकों और पंजीकृत माइक्रो फाइनेंस संस्थानों से ऋण लेने और फिर दिवालिया होने के कारण आत्महत्याएं की। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किसानों की आत्महत्याओं से संबंधित डाटा के अनुसार 2015 में 3000 से अधिक किसानों ने बैंकों से ऋण लेने और फिर दिवालिया होने की वजह से ऐसा कदम उठाया। जिसमें से 2474 किसानों ने माइक्रो फाइनेंस संस्थानों से लोन लिया था। इनमें मप्र के करीब 870 किसान हैं। एनसीआरबी ने पहली बार किसान आत्महत्याओं को ऋण लेने और दिवालियापन के स्रोतों के आधार पर वर्गीकृत किया है। वहीं बैंकों और साहूकारों दोनों से ऋण लेने के कारण 10 प्रतिशत किसानों ने ही आत्महत्याएं की। जिसमें साहूकारों से लोन लेने वाले लोग 9.8 प्रतिशत हैं। बैकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से किसानों को बीज, खाद और सिंचाई के लिए पैसों की खातिर महाजनों और सूदखोरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह लोग 24 से 50 फीसदी ब्याज दर पर उनको कर्ज देते हैं। लेकिन फसलों की उपज के बाद उसकी उचित कीमत नहीं मिलने की वजह किसान पहले का कर्ज नहीं चुका पाता। वह दोबारा नया कर्ज लेता है और इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज के भंवरजाल में फंसती रहती है। आखिर में उसे इस समस्या से निजात पाने का एक ही उपाय सूझता है और वह है मौत को गले लगाना। योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन कहते हैं कि ज्यादातर किसान साहूकारों से ही ऋण लेते हैं। वे बैंकों व माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस की अपेक्षा लचीले होते हैं। इंस्टीट्यूशन ग्राहक से ऋण वसूली के लिए सामाजिक दबाव बनाते हैं। बस आंकड़ों की बाजीगरी प्रदेश के किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एनसीआरबी ने जो रिपोर्ट दी है वह आंकड़ों की बाजीगरी लग रही है। अब तक यही माना जाता रहा है कि किसानों की आत्महत्या का कारण खेती में नुकसान, कर्ज तले दबना ही है। जबकि हकीकत इससे जुदा है। एनसीआरबी की ओर से जारी 2015 की रिपोर्ट बताती है कि बताती है कि 2015 में खेती से जुड़े 1290 लोगों ने जान दी। इनमें से असल में किसान केवल 581 लोग ही थे। शेष तो कृषि से जुड़े मजदूर थे। मप्र में कर्ज के चलते छह किसानों ने आत्महत्या की है। जो कई राज्यों की तुलना में बेहद कम है। कर्ज के चलते किसानों की आत्महत्या के सबसे ज्यादा 1237 मामले महाराष्ट्र में सामने आए हैं। कर्नाटक में 787, तेलंगाना में 384 और पंजाब में 49 किसानों ने आत्महत्या की। गरीबी के चलते आत्महत्या करने वाले किसानों की सं या मप्र में तीन रही, जबकि दीवालिया घोषित किए जाने पर 13 किसानों ने आत्महत्या की है। मप्र में किसानों की आत्महत्या के मामलों में सबसे ज्यादा घरेलू विवाद वजह रहा। घरेलू विवाद के चलते 183 किसानों ने जान दी। इसके अलावा 24 ने वैवाहिक जीवन की परेशानियों के चलते खुदकुशी की। वहीं विवाहेत्तर संबंध भी चार किसानों की खुदकुशी की वजह बनी। दहेज प्रताडऩा के चलते भी छह महिला किसानों ने आत्महत्या की। 47 मामलों में किसानों की आत्महत्या की मूल वजह का पता ही नहीं चल पाया। समाज में इज्जत खोने के डर से भी दो किसानों ने मौत को गले लगाया। यही नहीं घरेलू विवाद के बाद आत्महत्या के बड़े कारणों में बीमारी भी एक वजह रही है। अपनी बीमारी से तंग आकर 300 से ज्यादा किसानों ने मौत को गले लगाया। इनमें 108 ने लंबी बीमारी से त्रस्त होकर जान दी। 42 किसानों के खुदकुशी करने का कारण उनकी मानसिक बीमारी थी। यही नहीं नशे और शराब की लत के कारण भी किसानों ने मौत को गले लगाया है। इसके कारण 74 किसानों ने आत्महत्या की है। रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में फसल न बिकने के चलते आत्महत्या का एक भी मामला सामने नहीं आया। अफसर बना रहे ख्याली पुलाव मध्यप्रदेश में अफसरशाही सरकार को स्वर्णिम खेती का सपना दिखा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि किसानों पर लगातार बोझ बड़ रहा है। किसानों पर बढ़ता बोझ देख मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल किसानों की प्याज खरीदवा ली थी। इसके पीछे अफसरों ने तर्क दिया था कि उसे कुछ दिनों बाद अधिक दाम पर बेंच दिया जाएगा। लेकिन अफसरशाही के तिकड़म में पड़कर सरकार ने प्याज तो खरीद लिया, लेकिन वह मंडियों में पड़े-पड़े सड़ गया। अफसरशाही के साथ ही किसानों को हर कोई लूट रहा है। चाहे वह पटवारी हो, बैंक, महाजन, बीज-खाद कंपनी, पटवारी, पुलिस, झोलाछाप डॉक्टर या चिटफंड कंपनी। यानी हर एक के निशाने पर किसान है। ऐसे में किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है। भारतीय किसान यूनियन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दीवान चन्द चौधरी का कहना है कि एक दशक से शिवराज सरकार और तीन साल से मोदी सरकार भी खेती को लाभ का धंधा बनाने का ढोल पीट रही है। इसके लिए योजनाएं, परियोजनाएं लाई जा रही हैं, लेकिन व्यवस्था नहीं बदली जा रही है। इस व्यवस्था से तो कृषि लाभ का धंधा नहीं बनने वाली। इस व्यवस्था ने आज खेती को इतना बदहाल कर दिया है कि किसान बंपर उत्पाद करके भी बेहाल है। टमाटर, प्याज और आलू पिछले कुछ सालों में अपनी ऊंची कीमतों के कारण ही चर्चा में रहे हैं। प्याज ने तो राजनीतिक दलों को वो दिन भी दिखाए थे कि चुनाव में हार जीत का मुद्दा बनी कई बार ये प्याज। इसी प्याज के नाम पर सियासी दलों ने आंसू भी बहाए। लेकिन उसी प्याज ने किसानों को सड़क पर ला दिया। सरकार के मुनाफाखोर अफसरों ने भी सरकार से प्याज खरीदवाकर बहती गंगा में हाथ धो लिया। टमाटर और हरी सब्जियों की इस रिकार्ड आवक का दोष यकीनन सरकार को नहीं दिया जा सकता। बाजार तो मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर चलता है। लेकिन सरकार की महती भूमिका तो यहां फिर भी है। भूमिका इस रुप में कि खेती को लाभ का धंधा बनाने का दम भरने वाली सरकार अगर चाहती तो किसान की मेहनत का टमाटर उसे मजबूरी में यूं फेंकना नहीं पड़ता और प्याज इस तरह से कौडिय़ों के मोल में नहीं बेची जाती। असल में यहां चिंता कोल्ड स्टोरेज की, की जानी चाहिए थी। यूं भी कोल्ड स्टोरेज में रखा टमाटर ही साल भर इस्तेमाल होता है। लेकिन फिलहाल प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज का कोई बंदोबस्त ही नहीं है जिसमें टमाटर और प्याज का स्टॉक सहेजा संभाला जा सके। आज किसान औने पौने दाम में अपनी मेहनत बेच रहा है इधर बाजार में उपभोक्ता को दस रुपए के किलो-डेढ किलो के हिसाब से टमाटर मिल रहा है। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुनाफा ना किसान के हाथ पहुंच रहा है ना फायदा उपभोक्ता के हाथ है। इस बंपर आवक का लाभ भी उठा रहा है तो तीसरा जो बिचौलिया है। जिस प्रदेश में सूखे और लाचारी से किसान खुद$कुशी कर रहा हो वहां उनकी मेहनत का इस तरह से बर्बाद होना शुभ नहीं है। ये आत्मावलोकन का सही समय हो सकता है सरकार के लिए। खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने के लिए यह जरूरी है कि कृषि के साथ-साथ उससे जुड़े अन्य घटकों जैसे पशुपालन, उद्यानिकी, मछलीपालन, डेयरी आदि गतिविधियों को आपस में जोड़ा जाए। इसके बगैर खेती को लाभ के व्यवसाय में परिवर्तित करना संभव नहीं है। खेती से जुड़ी इन सभी गतिविधियों का आपस में समन्वय स्थापित कराते हुए किसानों की आर्थिक उन्नति में सहायता की जा सकती है। किसान और कृषि के लिए संचालित विभागीय योजनाओं के समन्वय के साथ ही ग्रामीण विकास विभाग के सहयोग से कृषकों को उन्नतिशील किसान बनाने में मदद मिल सकती है, लेकिन सवाल वही कि क्या ऐसा करना संभव है? इसके लिए हमें योजनाबद्ध तरीके से कार्य करना होगा। हमें यह कोशिश करनी होगी कि किसान पुराने ढर्रे पर चल रही खेती के तरीके को बदले और नई जानकारी के अनुसार लाभ की खेती करें। इसके लिए प्रत्येक जिले में सौ-सौ किसानों का चयन कर उन्हें प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनके यहां इन सभी गतिविधियों का संचालन कराया जा सके। इससे होगा यह कि इन कृषकों से प्रेरणा लेकर अन्य किसान भी उन्नति कर अपनी आर्थिक स्थिति को और भी ज्यादा मजबूत करने आगे आएंगे। खेती में पढ़े-लिखे युवाओं की दिलचस्पी को बढ़ाना भी आवश्यक है ताकि वे व्यावसायिक उद्यानिकी फसलों के उत्पादन के साथ ही मसाला व औषधीय पौधों के उत्पादन में रुचि लें। देखा यह गया है कि पढ़े-लिखे लोग खेती में दिलचस्पी नहीं लेते, वे गांवों से पलायन कर रहे हैं। खेती को बचाना है और उत्पादन बढ़ाने के साथ खाद्य संकट से निपटना है तो पढ़े-लिखे लोगों को खेती से जोडऩे के लिए अभियान चलाना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोका जाए। इसके लिए कर्ज लेने वाले किसानों को कर्ज के उपयोग के बारे में प्रशिक्षित किया जाए। प्रशिक्षण में उन्हें खेती के आधुनिक तरीकों से भी अवगत कराया जाए ताकि मौसम की विपरीत परिस्थितियों में भी वे नुकसान में न रहें। राष्ट्रीय चिन्ह की तरह प्रत्येक गांव और जिले का अपना उत्पाद, फल, पशु-पक्षी और फूल हो और उस उत्पाद पर आधारित उद्योग स्थापित किए जाएं। साथ ही उन पहचान चिन्हों पर प्रमुखता से कार्य हो। क्योंकि गांवों की तस्वीर बदलेगी और गांव विकसित होंगे तभी देश और प्रदेश खुशहाल होंगे। कीमतें तय करना जरूरी कृषि विशेषज्ञों केअनुसार, विडंबना यह है कि बंपर फसल भी किसानों के लिए जानलेवा होती है और फसलों की बर्बादी भी। कपास और गन्ना जैसी नकदी फसलों के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है। लेकिन उपज से लागत भी नहीं वसूल हो पाती। यही वजह है कि आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं इन नकदी फसलों वाले राज्यों में ही होती हैं। फसल पैदा होने के बाद उनकी खरीद, कीमतें तय करने की कोई ठोस नीति और विपणन सुविधाओं का अभाव किसानों के ताबूत की आखिरी कील साबित होते हैं। तो आखिर इस समसया पर अंकुश लगाने का कारगर तरीका क्या है? विशेषज्ञों का कहना है कि प्राकृतिक विपदाओं पर काबू पाना तो किसी के वश में नहीं है। लेकिन फसल पैदा होने के बाद उनकी कीमतें तय करने की एक ठोस और पारदर्शी नीति जरूरी है ताकि किसानों को उनकी फसलों की उचित कीमत मिल सके। इसके अलावा विपणन सुविधाओं की बेहतरी और खेती के मौजूदा तौर-तरीकों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विभिन्न सहकारी कृषक समितियों के साथ मिल कर इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा। उसी हालत में किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकेगा। किसान विरोधी हैं मप्र सरकार की नीतियां मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अरुण यादव ने इस मामले में सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि मप्र सरकार की नीतियां किसान विरोधी हैं। लगातार प्रकृति की मार से किसान और कर्जदार हुआ है, लेकिन सरकार उन्हें सिर्फ आश्वासन ही दे रही है। परेशान किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं पर सरकार मानने को तैयार नहीं है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि 1995 से 3.18 लाख से किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बीते दो दशक में हर साल यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। नीतियां बनाने वालों के लिए ये बस आंकड़े हैं। मौत का ग्राफ बढ़ ही रहा है। किसानों की मौत का पर्यटन यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। कुछ इस तर्ज पर मप्र सरकार बदहाल किसानों को अपनी खेतीबाड़ी को कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र के रूप में तैयार करने की सलाह दे रही है। सरकार का कहना है कि कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र बनाकर किसान उपज के अलावा अतिरिक्त आय भी अर्जित कर सकते हैं। प्रदेश सरकार ने इसके लिए पिछले महीने ही विधिवत नोटिफिकेशन जारी किया है। जल्द ही इसे अमलीजामा पहनाने की कवायद शुरू की जाएगी। कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र स्थापित करने के लिए किसानों को विधिवत एनओसी लेना होगी। इन पर्यटन केन्द्रों में खेतीबाड़ी से जुड़ी गतिविधियां ही रहेंगी जिसमें सबसे अधिक उद्यानिकी फसलों को तवज्जो दी जाएगी। फल, फूल, मछली पालन, कला प्रदर्शनी से लेकर योगा जैसी गतिविधियां संचालित की जाएंगी। मनोरंज से जुड़ी सारी सुविधाएं उपलब्ध रहेंगी। इससे किसानों की आमदनी में इजाफा होने के अलावा दूसरे किसानों भी खेती के तौर तरीके सीखने का अवसर प्राप्त होगा। उद्यान विभाग के अफसरों का कहना है कि इस संबंध में दिशा निर्देश मिलने के बाद अमल शुरू किया जाएगा। कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र तैयार करने के लिए किसान के पास कम से कम 1 हेक्टेयर जमीन होना जरूरी है। नोटिफिकेशन जारी कर 1 हेक्टेयर में पर्यटन की दृष्टि से अलग-अलग उत्पादन और स्ट्रेक्चर तैयार करना होगा। इसके लिए जमीन भी निर्धारित की गई है। एक हेक्टेयर जमीन में ढलुआ छत सहित संरचना की अधिकतम ऊंचाई 7.5 मीटर रहेगी। सभी और न्यूनतम खुला क्षेत्र 7.5 मीटर होगा। भूखंड के लिए पहुंच मार्ग की चौड़ाई भी 7.5 मीटर होगी। कृषि फार्म, फूलोद्वान, फलोद्यान, मधु मक्खी पालन, पशुपालन, मछली पालन, सैरीकल्चर, कैंपिंग सुविधाएं, अस्तबल, कला प्रदर्शनी के लिए हॉल, पर्यटकों के लिए कॉटेज, रेस्टोरेंट, योगा हॉल, प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र, खेल सुविधा, रख-रखाव के लिए कर्मचारी आवास, स्वीमिंग पूल और केवल रहने वाले पर्यटकों के लिए मनोरंजन के लिए ओपन एरिया थिएटर भी रहेगा। अब सवाल यह उठता है कि प्रदेश के जिस किसान के पास खाद-बीज खरीदने के लिए पैसा नहीं होता है वह अपने खेत पर इतनी सारी सुविधाएं कहां से जुटाएगा। पूर्व विधायक सुनीलम कहते हैं कि किसानों की आड़ में सरकार यह सब कार्पोरेट घरानों और रसूखदारों के लिए कर रही है। दरअसल सरकार किसानों के खेतों को छिनने की तैयारी कर रही है। मुख्यमंत्री खेती को फायदे का धंधा बनाने की बात करते थे। करोड़पति कारोबारियों ने इस लाइन के नए अर्थ निकाले हैं। वो चाहते हैं कि मप्र के किसानों से उनके खेत लंबे समय के लिए लीज पर ले लिए जाएं। इसमें बीज से लेकर बिक्री तक का काम कारोबारी करेंगे। बदले में किसान को खेत का किराया नहीं देंगे, बल्कि फायदा हुआ तो किसान को भी एक हिस्सा दे देंगे। एक तरफ करोड़पति कारोबारियों के उच्च शिक्षित सीए दूसरी तरफ अनपढ़ किसान। लागत, भाव, बिक्री, खर्चेे, ह्रासमेंट सब काटपीट के कितना शुद्ध लाभ आया कैसे पता चल पाएगा। औद्योगिक घरानों के प्रस्ताव के अनुसार लीज अवधि में खेती से मार्केटिंग तक का अधिकार निवेशक के पास और जमीन का मालिकाना हक किसान के पास रहे। दोनों के बीच एक करार होगा जिसमें किसान को फायदे में भागीदार बनाया जाएगा। उद्योगपतियों के अनुसार यह मॉडल पंजाब में लागू है। 10 हजार करोड़ की सड़ जाती हैं फल व सब्जियां भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में खाद्य प्रबंधन की बदइंतजामी के चलते खेत से खलिहान और यहां से उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले ही लगभग 10 हजार करोड़ रुपये मूल्य के फल, सब्जियां और अन्य खाद्य वस्तुएं हर साल सड़कर नष्ट हो जाती हैं। खाद्य वस्तुओं के रखरखाव के लिए प्रदेश में कोल्ड स्टोर की संख्या जरूरत से बहुत कम होने की वजह से यह दिक्कत पेश आ रही है। पोस्ट हार्वेस्ट के बाद कच्ची वस्तुओं के खराब होने की दिक्कतें बहुत अधिक हैं। दरअसल इस बाबत कृषि और खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के सहयोग से कोल्ड चेन बनाने की योजना को मंजूरी मिली है। लेकिन इसके लिए व्यापक परियोजना नहीं बन पाई है, जिसके चलते यह पूरी तरह सफल नहीं हो पा रही है। किसान के खेत से उपज को सीधे खाद्य प्रसंस्करण उद्योग इकाइयों तक पहुंचाना और उसके बने उत्पादों को बाजार तक ले जाने की समग्र व्यवस्था का अभाव है। कृषि मंत्रालय ने इस नुकसान को रोकने के लिए कृषि प्रसार में सुधार की योजना तैयार की है। इसके तहत देश के 29 राज्य व तीन केंद्र शासित क्षेत्रों के 652 ग्रामीण जिलों को लिया गया है, जहां के किसानों को इसके लिए प्रशिक्षण, उनके समक्ष बचाव का प्रदर्शन, स्टडी टूर और स्कूलों में इसके बारे में विस्तार से जानकारी दी जाएगी। इस दौरान किसानों को भंडारण की आधुनिक व परंपरागत तरीकों से वाकिफ कराया जाएगा। इसके लिए प्रत्येक ब्लाक में किसान सलाहकार समिति का गठन किया जाएगा, जो किसानों को हर संभव सुविधा मुहैया करायेगी। फिलहाल देश में कोल्ड स्टोर बनाने का दायित्व व्यक्तिगत उद्यमी, उद्योग समूह, सहकारी संस्थाएं, स्वयं सहायता समूह, किसान उत्पादक संगठन, एनजीओ और सरकारी कंपनियों पर है। लेकिन फिलहाल कोल्ड स्टोर बनाने की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र ही निभा रहा है। संकट में रेशम कोषा उद्योग सरकार खेती को लेकर कितनी तत्पर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बालाघाट जिले में रेशम कोषा उद्योग दम तोड़ रहा है। मलबरी रेशम का धागा तैयार करने लगाई गई यूनिट बंद होने की कगार पर आ गई है। पिछले दो साल में तैयार हुआ धागा विभाग बेच नहीं पाया है। दूसरी तरफ सरकार ने कोकून के दाम घटा दिए हैं जिससे रेशम उत्पादन करने वाले किसान भी बरबादी की कगार पर आ गए हैं। तैयार कोकून किसान कम दाम में बेच नहीं पा रहे हैं जिससे रेशम के उत्पादन और धागा तैयार करने लगाई गई यूनिट करोड़ों के घाटे में नजर आ रही हैं। अन्य राज्यों में रेशम विभाग की धागा विक्रय नीति शासन के अधीन नहीं है। खुले बाजार आसानी से तैयार धागा बिक रहा है। जबकि मध्य प्रदेश में तय दरों पर धागा बिकने बनाई गई नीति इसके विक्रय में अड़चन पैदा कर रही है। मध्य प्रदेश में मलबरी धागे की दर 3100 से 3500 रुपये किलो निर्धारित की गई है। जबकि दक्षिण के राज्यों में खुले बाजार में रेशम का धागा बिक रहा है। इससे बाजार मांग और आपूर्ति प्रभावित नहीं हो रही है। दो वर्षों से रेशम विभाग में डंप पड़े धागे को बेचने सरकार ने आगे कदम नहीं बढ़ाए तो कोकून के दाम भी घट गए। धागे के कारोबार से जिले का किसान भी टूट गया है। शासन ने मलबरी कोकून के रेट 100 से 150 रुपए कम कर दिए हैं। मसलन, पहले जो मलबरी कोकून 100 रुपए से लेकर 350 रुपए कीमत तक में खरीदता जाता था। अब 100 से 250 रुपए प्रति किलो बिकेगा जिससे किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ रहा है। जिले में करीब 400 से 450 की संख्या में रेशम की खेती करने वाले किसानों के सामने मौसम के बाद रेट की समस्या खड़ी हो गई है। 2007 से रेशम की खेती कर रहे लालबर्रा क्षेत्र के किसान जगदीश बिसेन ने बताया कि पहले ही मौसम में परिवर्तन के कारण रेशम की खेती बिगड़ गई है। दूसरी ओर शासन ने रेट भी कम कर दिए हैं। इससे रेशम की लाभ की खेती अब घाटे का सौदा बन रही है। रेशम अधिकारी डीपी सिंह कहते हैं कि जिले में धागा बेचने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। धागा बिकने की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही कोकून के दामों में वृद्घि होगी। इससे किसानों को नुकसान नहीं होगा। गन्ना लील गया अरहर प्रदेश में खेती किस भेड़ चाल से चल रही है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के किसानों को सरकार जो भी सलाह देती है वह उनके लिए घातक बन जाती है। नरसिंहपुर जिले आज से एक दशक पहले अरहर की जमकर खेती होती थी। लेकिन मौसम की मार को देखते हुए सरकार ने गन्ने की खेती की सलाह दी। उसका परिणाम यह हुआ है कि गन्ना अरहर की खेती को ही लील गया है। जिले में वर्ष 2005-06 में 27 हजार हेक्टेयर में अरहर बोई गई थी। उस समय खरीफ मौसम में किसानों ने महज 13 हजार हेक्टेयर में ही गन्ना की बोवनी की थी। इस तरह गन्ने से दोगुने से ज्यादा रकबे में अरहर लहलहा रही थी। पर दस साल में तस्वीर पूरी तरह बदल गई। गन्ने की ओर किसानों का रुझान ऐसा बढ़ा कि गन्ने का रकबा पूरे पांच गुना बढ़ गया, जबकि अरहर का रकबा दोगुना भी नहीं हुआ। सन 2015-16 में गन्ने का रकबा बढ़कर 65 हजार हेक्टेयर पर जा पहुंचा जबकि अरहर का रकबा 43 हजार हेक्टेयर रहा। जाहिर है इन दस सालों में गन्ने ने दलहनों को मानो लील ही लिया। अरहर के रकबे और उत्पादन में अपेक्षानुरूप वृद्धि नहीं होने का सीधा असर दाल मिलों पर पड़ा। देशभर में अपनी क्वालिटी के लिए जानी जाती जिले की तुअर दाल का उत्पादन थम गया। कभी हमारी पहचान रहा दाल उद्योग सिमट गया। जिले में तीन दशक पहले छोटी-बड़ी करीब दो सौ दाल मिलें थीं। गाडरवारा में ही दाल मिलों की संख्या 123 तक पहुंच गई थी। अब यहां महज सात बड़ी मिलें बचीं हैं और दो-तीन छोटी मिलों में दाल उत्पादन हो रहा है। यह स्थिति कैसे आई? गाडरवारा के प्रमुख व्यवसायी नवनीत काबरा के पिता ने सन 1960 में शहर में पहली दाल मिल खोली थी। नवनीत बताते हैं कि एक समय था जब क्षेत्र के करीब सत्तर फीसदी हिस्से में दलहनें बोई जाती थी। यहां की अरहर के साथ ही चना की भी क्वालिटी बेमिसाल थी। दालों की देशभर से जबर्दस्त मांग आती थी। अस्सी के दशक के मध्य तक जिले का दाल उद्योग हजारों लोगों को रोजगार दे रहा था। ठीक उसी समय ने दाल आयात करने के नियम शिथिल कर दिए। सरकार की गलत नीति जिले के दाल उद्योग पर भारी पड़ गई। रही-सही कसर गन्ने ने पूरी कर दी। गन्ने का रकबा बढ़ता गया और दलहनों का रकबा और उत्पादन सिमटता गया। नरसिंहपुर के दाल मिल संचालक राकेश नेमा बताते हैं कि दालों की आयात नीति जहां मिल संचालकों के लिए घातक रही वहीं दलहनों में होता नुकसान किसानों के लिए तकलीफदेह रहा। दलहन उत्पादन मौसम के कारण बेहद प्रभावित रहा और किसानों को उचित दाम भी नहीं मिले। मजबूरन किसान गन्ने की ओर झुके जिससे दलहनों के साथ ही दाल उत्पादन भी थम गया। मंत्री का दावा: खेती-किसानी में समृद्ध होता मध्यप्रदेश एक तरफ फसल बर्बाद होने, कर्ज का बोझ बढऩे, फसल का बाजिब मूल्य नहीं मिूलने के कारण प्रदेश के किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, वहीं दूसरी कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है कि आज प्रदेश खेती-किसानी में समृद्ध हो रहा है। आज से ग्यारह वर्ष पूर्व सिंचाई सुविधा नहीं थी, उत्पादन और लागत में बड़ा अंतर था। कर्ज की ब्याज दर 13.14 प्रतिशत थी, बिजली नहीं थी और इस पर अगर प्राकृतिक आपदा आ गयी, तो किसान की तो कमर ही टूट जाती थी। खेती से जुड़े मजदूरों के सामने रोजी-रोटी की विकट समस्या हो जाती थी। लेकिन अब प्रदेश में खेती लाभ का धंधा बन रही है। खेती-किसानी पर आने वाली आपदा से पीडि़त किसानों को राहत देने में भी सरकार ने पिछले 11 साल में किसानों की हमदर्द बनने की जो मिसाल कायम की है वह बेमिसाल है। वर्ष 2005-06 से वर्ष 2015-16 तक किसानों को 11 हजार 262 करोड़ 16 लाख 90 हजार रुपये की राशि वितरित की गयी। यह एक इतिहास है। इससे प्रभावितों को न केवल राहत मिलीए बल्कि वे आपदा का भी सामना कर पाये। पिछले चार वर्ष में हमारी कृषि विकास दर 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष है। यह दर प्राप्त करने वाला मध्यप्रदेश देश का एकमात्र राज्य है। यही नहीं प्रदेश का सकल घरेलू उत्पादए जो 10.5 प्रतिशत हैए में कृषि का योगदान 5 प्रतिशत हैए यह भी देश में सर्वाधिक है। सरकार के प्रयासों से प्रदेश के कृषि क्षेत्र में भी पिछले ग्यारह वर्ष में वृद्धि हुई है। वर्ष 2004-05 में 1 करोड़ 92 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र था जो अब बढ़कर 2 करोड़ 37 लाख हेक्टेयर हो गया है। कृषि के क्षेत्र में इस दौरान 45 लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई है।

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