मंगलवार, 21 मार्च 2017

शिव 'राजÓ के अस्पताल बीमार

10 साल में 2676100.37 लाख का बंटाढ़ार
भोपाल। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा की वर्ष 2003-04 में मप्र का कुल बजट जितना था करीब उसके बराबर यानी 2676100.37 लाख रूपए वर्तमान भाजपा सरकार ने पिछले 10 साल में स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च किया है, बावजुद इसके यहां की स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे बदहाल है। बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण प्रदेश में रोजाना 82 बच्चों और 4 महिलाओं की प्रसव के दौरान मौत हो रही है। मप्र में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जीरो टॉलरेंस ही सुशासन का मूल मंत्र है। लेकिन देखा यह जा रहा है कि अफसरशाही कागजी आंकड़े परोस कर सरकार को हवाई सपने दिखा रहे हैं। इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए मप्र में इन 10 सालों में स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर जमकर पैसा बहाया गया है। स्वास्थ्य कार्यक्रमों, स्वास्थ्य योजनाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया गया है। मप्र के सभी 51 जिलों में जिला चिकित्सालय स्थापित किए गए हैं। इन अस्पतालों में 14,150 बिस्तरों की व्यवस्था है। इनके अलावा प्रदेश में 66 सिविल अस्पताल और उनमें 4669 बिस्तर, 335 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 10050 बिस्तर, 1170 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 7020 बिस्तर, 9192 उप स्वास्थ्य केन्द्र, 92 शहरी सिविल डिस्पेंसरी , शहरी परिवार कल्याण केन्द्र 96, अरबन हेल्थ सेंटर 83, टीबी हॉस्पिटल 08, टीबी सेनेटोरियम 01, चेस्ट सेंटर सेनेटोरियम 01, पॉली क्लीनिक 06, क्षेत्रीय नैदानिक केन्द्र 11, ट्रॉमा सेंटर 08 और ग्राम आरोग्य केन्द्र 49,489 हैं। लेकिन ये नाकाफी साबित हो रहे हैं। आलम यह है इन अस्पतालों की क्षमता से अधिक मरीज रोजाना इनमें इलाज के लिए पहुंच रहे हैं। लेकिन उन्हें समुचित इलाज नहीं मिल पा रहा है। दरअसल, सरकार के सारे प्रयास भ्रष्टाचार के शिकार हो रहे हैं। निजीकरण ने बिगाड़ा खेल प्रदेश में स्वास्थ्य क्षेत्र और स्वास्थ्य सेवाओं की लचर हालत का एक बड़ा पक्ष इस क्षेत्र में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों की कमी और रोगियों को ठीक वक्त पर मिलने वाले इलाज और डाक्टरों की उपलब्धता से जुड़ा हुआ है। इस नजरिए से देखें तो प्रदेश में प्रति दस हजार की जनसंख्या पर 21 डाक्टर हैं। इस आंकड़ें को देखकर ये समझा जा सकता है कि मप्र का स्वास्थ्य क्षेत्र पर्याप्त और अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता के मामले में गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक, सामाजिक सूचकांकों पर आम तौर पर बेहतर और अग्रणी माने जाने वाले मप्र की यह हालत निराश करने वाली है। ऐसे में ये सवाल उठता है कि चिकित्सा सेवाओं के विस्तार और उनकी उपलब्धता को बढ़ाने के मामले में चूक कहां हो रही है। क्या ये आंकड़ें नीति-निर्माण के स्तर पर होने वाली चूक और लापरवाही के नतीजे हैं या बीते सालों में स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रति सरकारों की बदली प्राथमिकताओं के? गौर से देखा जाए तो चिकित्सा सुविधाओं और डाक्टरों समेत स्वास्थ्य कर्मियों की बढ़ती अपर्याप्तता स्वास्थ्य क्षेत्र के बढ़ते निजीकरण का नतीजा है। आजादी के बाद के दौर में निजी अस्पताल संख्या के लिहाज से 8 फीसदी से बढ़कर 93 फीसदी हो गए हैं। निजी अस्पतालों के इस तेज गति से बढ़ती संख्या के चलते सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों (डाक्टर, नर्स) की संख्या में भी तेजी से गिरावट आई है। सरकारी आंकड़ें खुद बताते हैं कि इस वक्त देश भर के तमाम राज्यों में 85 फीसदी विशेषज्ञ डाक्टरों के, 75 फीसदी डाक्टरों के, 80 फीसदी लैब तकनीशियनों के 53 फीसदी नर्सों के पद खाली पड़े हैं। ऐसा नहीं है कि इन रिक्त पदों पर नियुक्त होने के लिए व्यवसायिक रूप से प्रशिक्षित डाक्टर स्वास्थ्य क्षेत्र में आ नहीं रहे। इस समय भारत में 355 मेडिकल कालेज (सरकारी और गैर सरकारी) हैं, जिनसे प्रति साल 44,000 प्रशिक्षित डाक्टर निकलते हैं, इनमें 22,000 विशेषज्ञ डाक्टर होते हैं। इसके अलावा 2400 नर्सिंग स्कूलों और 1500 कालेजों से 1.2 लाख नर्सें प्रति वर्ष स्वास्थ्य क्षेत्र में आते हैं, लेकिन अन्य सरकारी सेवाओं के मुकाबले काम की खराब परिस्थितियों, काम के बदले मिलने वाले वेतन और ऐसी ही अन्य समस्याओं के चलते वे निजी क्षेत्र में काम करने को प्राथमिकता दे रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सरकारी अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टर किसी न किसी निजी अस्पताल में सेवाएं दे रहे हैं। ऐसे में उनका ध्यान सरकारी अस्पतालों में आने वाले मरीजों पर कम रहता है। यह साफ है कि स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करने के लिए सरकार को न सिर्फ नीति-निर्माण के स्तर पर बनने वाले योजनाओं में बदलाव करने होंगे बल्कि अपनी प्राथमिकताओं पर भी विचार करना होगा। बड़े अस्पतालों में भी नहीं हैं एक्सपर्ट प्रदेश के सभी अस्पतालों में डॉक्टरों का टोटा है। आलम यह है कि भोपाल के सरकारी अस्पतालों से लेकर प्रदेशभर के अस्पतालों में बिना विशेषज्ञों के ही उपचार किया जा रहा है। अस्पतालों में जरूरत के आधे चिकित्सक भी नहीं है। ऐसे में मरीजों का उपचार मेडिकल ऑफीसर्स के भरोसे ही चल रहा है। स्वास्थ्य विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश में 3195 विशेषज्ञों की जरूरत है। जिनमें से अस्पतालों में महज 1210 पद ही भरे हुए हैं। पर इनमें से भी 1063 विशेज्ञ अस्पतालों में पदस्थ हैं। सिर्फ विशेषज्ञ ही नहीं, प्रदेश में मेडिकल ऑफीसर की भी खासी कमी है। 3859 पदों में से 2989 पद भरे हैं, जिनमें से 2506 पद वास्तविक भरे हुए हैं। बाकी डॉक्टर्स दूसरे विभागों में पदस्थापना के तौर पर काम कर रहे हैं। मामले में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह का कहना है कि यह बात सही है कि डॉक्टरों की कमी है लेकिन इसे दूर करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। इसी तरह प्रदेश में एनिस्थिसिया विशेषज्ञों के आधे पद खाली हैं। ऐसे में कई बार ऑपरेशन टालने पड़ते हैं। स्वास्थ्य विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से सिर्फ सात में ही एनिस्थिसिया विशेषज्ञ सहित अन्य विशेषज्ञ हैं। प्रदेश में एनिस्थिसिया विशेषज्ञ के 308 पद स्वीकृत हैं लेकिन इसमें से महज 172 ही काम कर हैं, इनमें से 100 विशेषज्ञ जिला अस्पतालों में तो बाकी सिविल अस्पताल में पदस्थ हैं। एनिस्थिसिया विशेषज्ञ ना होने से सबसे ज्यादा दिक्कत सीजर डिलेवरी के दौरान होती है। नियमों के मुताबिक सीजर डीलेवरी के दौरान स्त्री रोग विशेषज्ञ, शिशु रोग विशेषज्ञ और एनिस्थिसिया विशेषज्ञ होना जरूरी है। विशेषज्ञ ना होने की दशा में महिलाओं को जिला अस्पताल रैफर कर दिया जाता है। प्रदेश में विशेषज्ञों की स्थिति विषय स्वीकृत पद भरे वास्तविक कार्यरत एनेस्थीसिया 308 172 94 गायनकोलॉजी 594 171 148 पीडियाट्रिक्स 484 199 177 नेत्र विज्ञान 112 81 69 अस्थि रोग 162 112 96 ईएनटी 81 58 55 रेडियोलॉजी 93 54 43 पैथोलॉजी 120 5 5 46 सर्जरी 528 164 148 जनरल मेडिसिन 611 170 149 टीबी 51 22 21 डेंटिंस्ट 51 18 17 कुल 3195 1210 1063 भगवान भरोसे मरीज राजधानी का हमीदिया अस्पताल हो या प्रदेश का कोई अन्य सरकारी अस्पताल हर एक में डॉक्टर से लेकर स्टॉफ तक की कमी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि मरीजों का इलाज ठीक से नहीं हो पा रहा है। यही नहीं अस्पतालों में आपात सुविधाओं का भी अभाव है। कई अस्पतालों में बत्ती गुल होने पर इलाज के लिए कोई वैकल्पिक इंतजाम किए गए। इस कारण इलाज में देरी होने से मरीज की जान भी चली जाती है। अस्पतालों में समय पर डॉक्टर का मिलना भी भाग्य के ऊपर निर्भर है। इसकी मूल वजह है डॉक्टरों की कमी और काम का बोझ। बालाघाट जिले में प्रसूति के लिए डॉक्टरों के 11 पद स्वीकृत हैं, लेकिन सिर्फ दो ही डॉक्टरों के भरोसे पूरा विभाग चल रहा है। जिले में हर साल सात से आठ हजार डिलीवरी केस आते हैं। ज्यादातर केस में नर्स या अन्य स्टाफ को ही डिलीवरी कराना पड़ती है। यह एक अस्पताल का हाल नहीं है बल्कि प्रदेश के अधिकांश सरकारी अस्पतालों की यही स्थिति है। रीवा के संजय गांधी अस्पताल में नवंबर महीने में 340 बच्चों का जन्म हुआ। अस्पताल के रिकॉर्ड के मुताबिक, इनमें से 106 बच्चों की मौत हो गई। अस्पताल के लेबर रूम में इनवर्टर की सुविधा तक नहीं है। ऐसे में कई बार बिजली जाने पर ऑपरेशन थिएटर में टॉर्च की रोशनी में डिलीवरी कराना पड़ती है। सोनोग्राफी की रिपोर्ट जब तक आती है तब तक जच्चा मां बन चुकी होती है। दतिया जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने की तैयारियां जोरों पर चल रही है। लेकिन 30 में से 13 विशेषज्ञ डॉक्टरों के पद रिक्त हैं। हालात यह है कि मेडिसिन का एक भी डॉक्टर न होने से उल्टी-दस्त व पेटदर्द के मरीजों को भी ग्वालियर-झांसी में इलाज कराना पड़ रहा है। इसी प्रकार चर्म रोग, दंत विभाग भी पूरी तरह से खाली पड़े हुए है। जिला अस्पताल में सिर्फ डाक्टरों की ही नहीं बल्कि नर्सिंग स्टाफ की भी कमी है। आलम यह है कि 350 पलंग वाले अस्पताल में 115 स्टाफ नर्स की जरूरत है। लेकिन यहां सिर्फ 61 स्टाफ नर्स हैं। इसी प्रकार आठ ड्रेसर के स्थान पर मात्र चार ड्रेसर है। 15 लेब टेक्नीशियन और नौ लेब असिस्टेंट के विरुद्ध मात्र सात टेक्नीशियन और दो असिस्टेंट अस्पताल में हैं। दतिया जिला अस्पताल में न्यूरो, ट्रॉमा के गंभीर मरीज तो छोडि़ए, उल्टी-दस्त व पेटदर्द की बीमारी का भी इलाज नहीं मिलता। हालात यह है कि बीमारी बड़ी हो या छोटी, मरीज को ग्वालियर-झांसी के मेडिकल कॉलेज में ही इलाज कराना पड़ता है। इसकी वजह से दतिया अस्पताल में आने वाले अधिकांश मरीजों का समय व रुपया दोनों बर्बाद हो रहा है। सीएमएचओ व प्रभारी सिविल सर्जन दतिया डॉ. डीके गुप्ता बताते हैं कि जिला अस्पताल में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भी कमी है। उनकी पूर्ति के लिए शासन को पत्र लिखा जाएगा। हमारा प्रयास है जितने डॉक्टर है उनसे मरीजों को बेहतर इलाज दिया जा सके। डॉक्टरों को भी निर्देश दिए हैं कि मरीजों के इलाज में कोई कमी नही रहे। मंडला जिला अस्पताल को मिला तो आईएसओ सर्टिफिकेट है, पर अंदर जाओ तो नजारा कुछ और ही है। जिला चिकित्सालय का ब्लड बैंक 13 साल से बिना लाइसेंस के चल रहा है। अप्रैल 2015 में जब रिन्युअल की अर्जी पर इंस्पैक्शन हुआ, 21 कमियां मिलीं। न कमियां दूर हुईं न नया लाइसेंस मिला। ब्लड बैंक है कि चल रहा है। नीमच के लोगों को तो यह याद ही नहीं है कि जिला अस्पताल के नेत्र चिकित्सा वार्ड का ताला आखिरी बार कब खुला था। बताते हैं कि अस्पताल के इस वार्ड को स्टोर रूम बना दिया गया है। अस्पताल के कबाड़ का सामान इसी वार्ड में पटककर रखा है। भारतीय मानवाधिकार परिषद के सदस्य और मरीजों की बेहतरी के लिए काम करने वाले परमजीत सिंह फौजी बताते हैं कि अस्पताल में विशेषज्ञ चिकित्सक तो हैं, लेकिन वो कभी इलाज करते नजर नहीं आते हैं। 16 सरकारी अस्पतालों में एंबुलेंस तक नहीं प्रदेश के दूरदराज के हालात कैसे होंगे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भोपाल से सटे होशंगाबाद जिले में यूं तो 16 सरकारी अस्पताल आते हैं, लेकिन किसी भी सरकारी अस्पताल के पास अपनी एम्बुलेंस नहीं है। वैसे एम्बुलेंस का क्या रोना, जब डॉक्टरों की ही आधी जगहें खाली पड़ी हों। जिला अस्पताल के लिए क्लास-1 डॉक्टर के 33 पद स्वीकृत हैं। इसकी जगह केवल 17 डॉक्टर पदस्थ हैं। वहीं, क्लास-2 डॉक्टर के स्वीकृत 25 पदों की जगह 15 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं। नर्सिंग स्टाफ का मामला भी इससे अलग नहीं है। नर्सिंग स्टाफ के स्वीकृत 103 पदों में से 43 पद खाली पड़े हुए हैं। प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व वर्तमान जलसंसाधन एवं जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा के गृह जिले दतिया में जिला अस्पताल में आइसोलेशन, बर्न यूनिट और आईसीयू नहीं है। वहीं, 141 गांव एक एंबुलेंस के भरोसे हैं। वह भी लंबे समय से खराब पड़ी है। वैसे कहने के लिए तो पांच एंबुलेंस हैं पर इनमें से केवल एक एंबुलेंस का इस्तेमाल मरीजों के लिए होता है। यहां के जिला अस्पताल को मेडिकल कॉलेज के रूप में विकसित किया जा रहा है लेकिन, मरीज जरूरी सुविधाओं के लिए मोहताज हैं। चंबल संभाग के मुख्यालय मुरैना का जिला अस्पताल केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का गृह जिला है। इस जिले के सरकारी अस्पताल में पिछले कई महीनों से डायलिसिस, सीटी स्कैन और अल्ट्रा साउंड मशीनें बंद पड़ी हुई हैं। इसके अलावा सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट आग लगने के बाद से बंद है। डायलिसिस केंद्र पिछले साल जनवरी में बंद हो गया। बताया जा रहा है कि आरओ की सुविधा और बिजली सप्लाई सही नहीं होने की वजह से डायलिसिस केंद्र को बंद कर दिया गया। जिला अस्पताल की अल्ट्रासाउंड मशीन पिछले आठ महीने से खराब है। सांसद अनूप मिश्रा की स्टाफ को फटकार को भी छठवां महीना होने को आ गया, पर मशीन न ठीक हो पाई, न बदली गई। जिला अस्पताल में रोजाना 20 से अधिक मरीज ऐसे आते हैं, जिनको अल्ट्रासाउंड के लिए ही यहां रेफर किया जाता है लेकिन यह जांच अस्पताल में न होने से यहां से ये मरीज लौटकर जा रहे हैं। डायलिसिस और अल्ट्रासाउंड मशीन ही बंद नहीं है। बल्कि, अल्ट्रा साउंड सेंटर पर भी ताले डले हुए हैं। मुरैना जिला अस्पताल में पिछले साल एसएनसीयू में आग लग गई थी। नर्सिंग स्टाफ ने अपनी जान खेलकर 35 नवजातों की जान बचाई थी। आग की वजह से एसएनसीयू को काफी नुकसान पहुंचा था। इस वजह से यह सेंटर भी बंद हो गया। एसएनसीयू को दोबारा शुरू करने के लिए काफी खर्चा आएगा। इसका प्रस्ताव बनाकर भोपाल भेजा गया है, लेकिन अब तक बजट मंजूर नहीं होने की वजह से काम शुरू नहीं हो सका है। ऐसे या इससे बदतर हालात अन्य जिलों के सरकारी अस्पतालों के हैं। मरीज खा रहे मौत की खुराक प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को नि:शुल्क दवा उपलब्ध कराने के लिए नवंबर 2012 से सरदार वल्लभ भाई पटेल नि:शुल्क औषधि वितरण योजना आरंभ की गई है। दवा एवं सामग्री खरीदने के लिये मध्यप्रदेश पब्लिक हेल्थ सर्विसेज कार्पोरेशन की भी स्थापना हुई। जिला अस्पतालों में 300 प्रकार की, सिविल अस्पतालों में 131, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 107, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 71 और उप-स्वास्थ्य केन्द्र पर 24 प्रकार की दवाएं उपलब्ध कराने का दावा किया जा रहा है। लेकिन यह दावा कागजी है। अस्पतालों में जो दवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं वे मौत की खुराक साबित हो रही हैं। इसका खुलासा पूर्व में दवाओं की जांच में हो चुका है। यही नहीं सरकारी डाक्टरों द्वारा मरीजों को ऐसी दवाइयां लिखी जा रही हैं जिनको लिखे जाने की अनुमति ही नहीं दी गई है। मरीजों को ऐसी दवाइयों का सेवन अंजाने मेें करना पड़ रहा है जो अमानक हैं। यही नहीं अभी हाल ही में भोपाल का हमीदिया अस्पताल के दवा भंडार में एक्सपायरी डेट वाली दवाएं मिली हैं। कई दवाएं वर्ष 1976 में बनी हुई थीं। जो इस बात का संकेत है कि प्रदेश में मरीजों की जान से किस तरह खिलवाड़ किया जा रहा है। रोजाना 1,250 लाख की अमानक दवाओं की खपत प्रदेश के दवा बाजारों में रोजाना करीब 4,200 लाख रुपए का कारोबार होता है। इसमें करीब 1,250 लाख रुपए की अमानक दवाओं की खपत रोजाना हो रही है। मोटी कमाई के फेर में चल रही नकली दवाओं की बिक्री के खेल से मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ हो रहा है। यह खुलासा स्वास्थ्य विभाग के अफसरों के पास पहुंचे एक पत्र से हुआ है। ग्वालियर से स्वास्थ्य विभाग के अफसरों के पास एक चि_ी पहुंची थी, चि_ी भेजने वाले ने लिखा था कि आगरा के रास्ते करोड़ों रुपए की अमानक दवाएं मध्यप्रदेश और राजस्थान में पहुंचाई जा रही हैं। यह दवाएं प्राइवेट टैक्सी, कार और बसों मे जरिए पहुंचाई जाती हैं और इसके बाद प्रदेश भर में सप्लाई की जाती है। ऐसी दवाएं रोग ठीक नहीं करती हैं बल्कि नक्कालों की जेब भरती हैं। नौनिहालों की कब्रगाह बना मप्र प्रदेश के जनाना अस्पतालों की बदहाली किसी से नहीं छिपी। एक बेड पर चार-पांच प्रसूताएं, प्रसव के जंग लगे उपकरणों का उपयोग आम बात हो गई है। लेकिन इससे भी डरावना सच यह है कि प्रदेश में 123 दिनों में 10 हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हुई है। मध्य प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह ने एक लिखित जवाब में कहा, बताया था कि चार माह अर्थात 123 दिनों में 10 हजार 171 बच्चों की मौत हुई है। मौत की वजह निमोनिया, डायरिया, बुखार, मीजल्स व अन्य कारण भी है। मंत्री रुस्तम सिंह ने अपने जवाब में जुलाई से अक्टूबर तक का ब्यौरा दिया है। सरकार की ओर से दिए गए जवाब से साफ होता है कि राज्य में प्रतिदिन 82 बच्चों की मौत हो रही है। हालांकि, यह आंकड़ा कोई नया नहीं है। लेकिन यह ऐसा सामान्य मसला समझा जाता है जिस पर कभी चर्चा नहीं होती। बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ ने एक कार्यशाला में बताया था कि अकेले मध्य प्रदेश में डायरिया जैसी बीमारियों से हर साल 28 हजार बच्चों की मौत हो जाती है। प्रदेश में बच्चों की मौत के जो कारण सामने आए हैं उनमें समय पर आईसीयू का नहीं मिलना, इमरजेन्सी तथा वार्डों में भर्ती बच्चों को समय पर इलाज नहीं मिलना, सुपरस्पेशलिस्ट डॉक्टर, बच्चों के गैस्ट्रो, न्यूरो, पल्मोनरी मेडिसन, क्रिटिकल केयर, हार्ट सर्जन की कमी आदि के साथ ही अस्पतालों में सीनियर डॉक्टरों की कमी मुख्य कारण है। सुरक्षित नहीं है जननी प्रदेश में बच्चे ही नहीं जननी भी सुरक्षित नहीं है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में प्रेग्नेंसी के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या 113 दर्ज की गई। जिसके बाद एमपी ऐसे टॉप फाइव स्टेट्स में शामिल हो गया है, जहां प्रेगनेंसी के दौरान सबसे ज्यादा महिलाओं की मौत होती है। इस मामले में प्रदेश दूसरे पायदान पर है। रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में टॉप रहा है महाराष्ट्र। यहां 2015 में 633 मामले ऐसे सामने आए हैं। वहीं नेशनल हेल्थ फेमिली सर्वे की 2014-15 रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल बिहार के बाद मप्र सबसे फिसड्डी रहा। गर्भवती महिलाओं का तीन माह में चेकअप के मामले में बिहार में जहां 34.6 प्रतिशत महिलाओं को यह सुविधा मिल रही है, वहीं प्रदेश में 53.1 प्रतिशत की ही जांच हो पा रही है। हैरानी है कि त्रिपुरा, नगालैंड, मिजोरम, सिक्किम, पांडीचेरी, मणीपुर जैसे राज्यों की हालत भी मप्र से बेहतर है। यही हालत संपूर्ण चेकअप को लेकर है। प्रदेश में पिछले साल 13,69,146 प्रसव हुए। इनमें से 1149 महिलाओं ने प्रसव के दौरान दम तोड़ा। यानी प्रदेश में एक लाख प्रसव के दौरान हर साल 221 महिलाएं दम तोड़ रहीं हैं। यह स्थिति तब है जब स्वास्थ्य विभाग गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित प्रसव के नाम पर हर साल करोड़ों खर्च कर रहा है, लेकिन महिलाओं को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा। प्रदेश में 54.6 प्रतिशत महिलाएं एनिमिया का शिकार हैं। राजधानी में भी बदतर हालत है। यहां करीब 62 प्रतिशत महिलाएं सही खान-पान और दवाइयों के अभाव में एनिमिया का शिकार हो रही हैं। यही कारण है कि प्रदेश में मातृत्व मृत्यु दर में कमी नहीं आ पा रही है। प्रदेश सरकार की ओर से इस स्थिति में सुधार के लिए आशा वर्कर्स की व्यवस्था भी की गई। हैरानी की बात यह है कि ये आशा वर्कर्स भी अनट्रेंड हैं, जो नहीं जानती कि एक प्रेगनेंट महिला की केयर कैसे की जानी चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि डिलिवरी के समय ज्यादा खून बहने, बीपी हाई रहने के कारण मौत का यह आंकड़ा बढ़ा है। इन मौतों का एक कारण प्रेगनेंसी के दौरान प्रोपर डायट न मिल पाना, जरूरी सप्लीमेंट्स न मिलने के साथ ही अन्य कई फैक्ट्स हैं, जिनके कारण प्रेगनेंट महिलाओं की मौत हो जाती है। प्रेगनेंसी के दौरान महिलाओं को जरूरी सप्लीमेंट्स नहीं मिल पाते। इनमें आयरन सबसे जरूरी है। इसकी कमी से भी उनकी मौत हो जाती है। 2016 में ऐसे कई मामले सामने आए जिनमें समय पर एम्बुलेंस नहीं पहुंची या पहुंची भी तो प्रेगनेंट महिलाओं को समय पर अस्पताल नहीं लाया जा सका। मंत्री के दावे हवा हवाई स्वास्थ्य मंत्री रूस्तम सिंह ने पदभार संभालते ही दावा किया था कि प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर की जाएंगी। सारी खामियां दूर की जाएंगी। लेकिन आज वे भी हैरान हैं कि सुविधाएं सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ रही हैं। मंत्री कहते हैं कि सरकार ने प्रदेश वासियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए 5611 करोड़ रूपए के सालाना बजट का प्रावधान किया है,ताकि प्रदेश वासियों को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें। प्रदेश में संचालित डायल 108 शासकीय एंबुलेंस सुविधा को 1 नवंबर से केंद्रीकृत कर दिया गया है। नई व्यवस्था के तहत जननी एक्सप्रेस,108 इमरजेंसी वाहन और एंबुलेंस को प्रदेश स्तर पर शुरू की गई है। इससे जरूरतमंद व्यक्ति को तत्काल एंबुलेंस की सुविधा मिल सकेगी। इसके अलावा सभी वाहनों को जीपीएस टेक्नोलॉजी से जोड़ा जाएगा ताकि नजदीकी वाहन का पता करके उसे तत्काल मौके पर भेजा जा सके। लेकिन मंत्री के दावे के विपरीत एंबुलेंस सेवाएं पहले से भी बदत्तर स्थिति में हैं। स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि प्रदेश में कैंसर के रोगियों की कीमोथेरेपी के लिए प्रदेश के सभी जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं शुरू की जाएगी ,इससे प्रदेश के कैंसर पीडि़त मरीजों को प्रदेश से बाहर नहीं जाना पड़ेगा। इसके लिए उज्जैन के डॉक्टरों की टीम ने बहुत अच्छा काम किया है। साथ ही उन्होंने कहा कि आउट सोर्स के माध्यम से डायलासिस की सुविधा भी प्रदेश के सभी जिलों में शुरू की जाएगी। मंत्री रूस्तम सिंह ने बताया कि सीटी स्कैन जैसी महंगी जांच के लिए भी जिला चिकित्सालयों में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड पर जांच सुविधा शुरू की जाएगी ताकि मेनेज होने जैसी शिकायतें नहीं मिले। उन्होंने कहा कि टेक्निशियन अपने कमीशन के लिए मशीन को खराब कर देते हैं, लेकिन जब पीपीपी मोड् पर मशीन का संचालन होगा तो इसकी संभावना समाप्त हो जाएगी। प्रदेश में डॉक्टरों की कमी को देखते हुए मंत्री रूस्तम सिंह ने कहा कि बीएमएस,बीडीएस और एमडीएस के डॉक्टरों की भर्ती पीएससी के जरिए की जाएगी। साथ ही उन्होंने कहा कि बीएमएस के डॉक्टरों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रशिक्षण देकर उनकी सेवाएं भी लिए जाने की योजना तैयार की जा रही है। लेकिन अभी तक सरकार इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पाई है। देश के नामी डॉक्टर करेंगे इलाज उधर, केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गनसिंह कुलस्ते का कहना है कि सरकार स्वास्थ्य सेवा को पटरी पर लाने मेगा हेल्थ कैंप के रूप में पहली मर्तबा प्रयोग कर रही है। इससे सफल बनाने के साथ ही दुरुस्त ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी को दूर करने भी सरकार प्रयास कर रही है। मेडिकल कॉलेज बढऩे के साथ ही डॉक्टरों की संख्या भी बढ़ रही है। जल्द ही मध्यप्रदेश के हर जिले जरुरत के हिसाब से डॉक्टरों की पदस्थापना होगी। डॉक्टरों की कमी से कोई भी मरीज इलाज के लिए नहीं तरसेगा और असमय उसकी मौत नहीं होगी। कुलस्ते का कहना है कि मेगा हेल्थ कैंप जनवरी माह के अंतिम सप्ताह से शुरू होंगे जो प्रदेश के सभी जिलों में लगाए जाएंगे। देश भर के 100 से अधिक डॉक्टरों टीम बनाई गई है, जो हेल्थ कैंप में मरीजों का स्वास्थ्य परीक्षण कर उन्हें बीमारी का इलाज देंगे। एम्स सबसे अधिक बीमार भोपाल में जब एम्स शुरू हुआ तो लोगों को आशा थी कि अब बेहतर इलाज मिल सकेगा। लेकिन एम्स को भी नजर लग गई है। एम्स 13 साल से आश्वासनों के हार ही पहन रहा है। यही कारण है कि अस्पताल में वो सुविधाएं नहीं मिल सकीं जो नाम के अनुरूप इस अस्पताल को शुरुआती वर्षों में ही मिल जानी थी। इन 13 सालों में चार केंद्रीय मंत्री एम्स का दौरा कर चुके हैं। इन सभी ने 6 महीने में बेहतर सुविधाओं का वादा किया। लेकिन गए तो पलट कर नहीं देखा। नतीजा एम्स में बेहतर इलाज का अब तक इंतजार है। एम्स में अभी तक मेडिसिन, गायनेकोलॉजी, पीडियोट्रिक्स, ऑर्थोडिक्स, प्लास्टिक सर्जरी, जनरल सर्जरी, न्यूरोलोजी, न्यूरोसर्जरी, डेंटिस्ट्री, फिजियोथेरेपी विभागों की ओपीडी चल रही है। कॉर्डियोलोजी, कार्डियक सर्जरी, नेफ्रोलोजी, गेस्ट्रोसर्जरी, गेस्ट्रोमेडिसिन और रेडियोथेरेपी विभाग शुरू नहीं हो पाए हैं। अस्पताल भी 100 बिस्तरों का है। जबकि 900 बिस्तर होने चाहिए। एम्स में 13 साल के भीतर अब तक सिर्फ 11 विभाग ही शुरू हो पाए हैं। 31 विभाग अभी भी ऐसे हैं जिसके ताले तक नहीं खुले हैं। न ही एक्सपर्ट डॉक्टरों की नियुक्ति हो पाई है। 2003 में केंद्रीय मंत्री रही सुषमा स्वराज ने एम्स का भूमिपूजन किया। 2014 में डॉ. हर्षवर्धन यहां पर आए। जुलाई 2016 में केंद्रीय राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते और फिर केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा आए। लेकिन हालात जस के तस हैं। दागी कंपनी के हाथ 108 की कमान प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री और अधिकारी यह कहते फुले नहीं समा रहे हैं कि 108 एंबुलेंस सहित तीन अहम चिकित्सा सेवाओं का ठेका एक ही कंपनी को देखकर एकीकृत प्रणाली से जोड़ दिया गया है। लेकिन जिस कंपनी को इनके संचालन का ठेका दिया गया है वह दागी कंपनी है। दूसरे राज्यों की भाजपा सरकार के लिए जो जिगित्सा हेल्थ केयर लिमिटेड (जेडएचएल) भ्रष्टाचारी थी, उसे अफसरों ने बेस्ट परफॉरमर कंपनी बताकर 108 एंबुलेंस सहित तीन अहम चिकित्सा सेवाओं का ठेका दे दिया है। इस कंपनी के खिलाफ राजस्थान की भाजपा सरकार सीबीआई जांच करवा रही है। स्वास्थ्य सेवाओं में भ्रष्टाचार की यूं तो अनेक नजीरें हैं लेकिन नया खेल इस आपात सेवाओं को लेकर है। योजना में बजट समूचा सरकार का और काम दक्षिण की निजी फर्म को। वह भी बिना किसी प्रतिस्पर्धा के। कहा जाता है कि इस संस्था के कर्ताधर्ता भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के करीबी हैं। इन्हीं के दबाव में भाजपा शासित अन्य राज्यों की तरह प्रदेश सरकार ने भी इस फर्म को उपकृत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा सड़क निर्माण के ठेके देने में भी फर्म के प्रति काफी उदारता बरती गई। प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत उपलब्ध कराई जा रही चलित स्वास्थ्य सेवाओं (मोबाइल हैल्थ सर्विस) के लिए जेडएचएल को दिया गया ठेका विवादों में फंस गया है। दरअसल, जेडएचएल ने कई राज्यों में फर्जीवाड़ा किया है, लेकिन इस कंपनी का कनेक्शन इतना मजबूत है कि दागदार होने के बाद भी राज्यों में इस कंपनी को स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। बताया जाता है कि कंपनी के दागदार हाने की खबर सरकार को भी थी, लेकिन वह अफसरों की रिपोर्ट पर विश्वास करते हुए उसे पूरे प्रदेश में एकीकृत प्रणाली के तहत 108 एम्बुलेंस, जननी एक्सप्रेस और मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू) के संचालन जा जिम्मा दे दिया है। साथ ही कंपनी इन तीनों सेवाओं से संबंधित केन्द्रीयकृत कॉल सेंटर (104) को भी चलाएगी। जेडएचल की वेबसाइट के मुताबिक, यह कंपनी मध्य प्रदेश से पहले तक 10 राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं संचालित कर रही थी। इनमें से कई राज्यों में इस कंपनी पर अनियमितताओं के आरोप लगे हैं। जांच की मांग हुई है। कहीं-कहीं तो सीबीआई जांच तक चल रही है। इसीलिए कुछ राज्यों में इसकी सेवाओं का या तो दायरा सीमित कर दिया गया है, या फिर इसे सेवा उपलब्ध कराने लायक ही नहीं समझा गया। लेकिन मप्र में इस कंपनी को साढ़े सात करोड़ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सौंप दी है। यहां बताते चलें कि 108 एम्बुलेंस सड़क दुर्घटनाओं में घायल हुए लोगों को अस्पताल पहुंचाने का काम करती है। जननी एक्सप्रेस गर्भवती महिलाओं और पांच साल तक के बच्चों को आपातकाल की स्थिति में उनके घरों से लेकर अस्पताल पहुंचाती है और ठीक होने पर उन्हें अस्पताल से घर छोड़ती है। तमाम सुविधाओं वाली एमएमयू के जरिए दूरदराज के उन इलाकों में शिविर लगाकर लोगों को स्वास्थ्य सुविधा दी जाती है जहां प्राथमिक अस्पताल भी नहीं हैं। स्थानीय वेंडरों का भी काम छिना अब तक हैदराबाद के कारोबारी गणपति वेंकट कृष्णा (जीवीके) रेड्डी की कम्पनी मप्र में केवल 108 एम्बुलेंस संचालित करती थी जबकि बाकी दो सेवाएं जिला और ब्लॉक स्तरों पर स्थानीय वेंडर चलाते थे। लेकिन स्थानीय वेंडरों के रोजगार के इस साधन को उनसे छिनकर अब, एकीकृत प्रणाली के तहत तीनों सेवाएं जेडएचएल को संचालित करने को दे दिया गया है। एक ऐसी कंपनी जिसका दामन दागदार है जीवीके यानि गणपति वेंकट कृष्णा रेड्डी की कंपनी हैै जो आंध्रप्रदेश के उद्यमी। बड़े उद्योग के क्षेत्र में इन्होंने पहले पॉवर संयंत्र की स्थापना 1997 में की। तब देश में एनडीए की सरकार थी और भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री। यहां यह बताना इसलिए जरूरी है कि इस अल्पावधि में इस फर्म ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की और आज यह ऊर्जा के अलावा रिर्सोसेज, एवीएशन, ट्रांसपोर्टेशन, हॉस्पिटीलिटी व लाइफ साइंस समेत विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही है। हास्पिटीलिटी यानि घायलों को तुरंत चिकित्सा सेवा मुहैया करवाने उन्हें अस्पताल पहुंचाना। यह कार्य भी इस समूह द्वारा किया जा रहा है। इसे इएमआरआई अर्थात इमरजेंसी मैनेजमेंट एंड रिसर्च सेंटर नाम दिया गया है। जीवीके फाउंडेशन के बैनर तले दी जा रही इस आपात सेवा के लिए टोल फ्री नंबर 108 है और आम बोलचाल की भाषा में इसे इसी नाम से जाना जाता है। जीवेके इएमआरआई वर्तमान में मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड, गोआ, तमिलनाडू, कर्नाटक, असम, मेघालय, उत्तरप्रदेश, दादर नगर हवेली व दमन दीव में अपनी सेवाएं दे रहा है। खास बात यह है कि जीवीके ईएमआरआई फाउंडेशन की सेवाओं वाले इन अधिकांश राज्यों में भाजपा या एनडीए के घटक दलों की सरकार है। जो यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा या उससे संबंद्ध घटक दल जीवीके पर खासे मेहरबान रहे हैं। लगा चुकी है करोड़ों की चपत एनआरएचएम के अधिकारियों का दावा है कि अपने शुरूआती दिनों में ही जीवीके ईएमआरआई 108 एंबुलेंस सेवा ने शासन को करोड़ों रुपए की चपत लगा चुकी है। स्वास्थ्य विभाग के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से एनआरएचएम का वह पैसा जो मप्र सरकार ने गरीब लोगों की जान बचाने दिया गया, जीवीके के अफसरों द्वारा आलीशान होटलों और महंगी हवाई व रल यात्राओं पर खर्च कर दिया गया है। अब तक करोड़ों की राशि अनावश्यक खर्चों में उड़ाई जा चुकी है। इतना ही नहीं, सरकार और जीवीके के बीच हुए अनुबंध की धज्जियां उडाकर मनमाने तरीके से सरकारी पैसे पर हाथ साफ किया गया है। जानकारों का कहना है कि सारे मामले की सही तरह से जांच से स्वास्थ्य विभाग के कई आला अफसरों पर भी गाज गिर सकती है। बताया जाता है कि ईएमआरआई द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को लेकर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने टिप्पणी कर नोटशीट स्वास्थ्य विभाग को भेजी थी। उस पर विभाग के तत्कालीन उप संचालक एनआरएचएम डॉ. एलबी अस्थाना ने 29 अप्रैल 2010 को इस कंपनी को आरोप पत्र के जवाब मांगें थे। जिसमें पूछा गया था कि जीवीक ईएमआरआई द्वारा अधिकारियों और कर्मचारियों पर कितनी राशि व्यय की जा रही है? क्या मप्र शासन द्वारा प्रारंभ में 100 एंबुलेंस खरीदी करने की राशि एवं अनमति दी गई थी? 108 एंबुलेंस सेवा के लिए विज्ञापन पर खर्च 30 लाख रुपए की अनुमति किससे ली गई? गेस्ट हाउस पर कितनी राशि खर्च की गई? हैदराबाद से विभिन्न कायक्रमों में कितने लोगों क बुलाकर उन पर कितनी राशि शासन की खर्च की गई? क्या इसकी अनुमति थी? वर्ष 2007-08 से वर्ष 2009- 10 में क्रय किए गए वाहन और उपकरणों पर कितना खर्च किया? एंबुलेंस उपकरण खरीदी, ईदगाह हिल्स भोपाल के भवन पर कितना खर्च किया गया? ईएमआरआई प्रमुख द्वारा शासकीय खर्च पर गोवा-हैदराबाद की हवाई और रेल यात्राओं पर कितना खर्च किया गया है। लेकिन कंपनी ने जवाब देना उचित नहीं समझा।

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