मंगलवार, 21 मार्च 2017

अन्नदाताओं को मौत

भोपाल। मप्र जहां एक तरफ अनाज उत्पाद में पिछले चार साल से कृषि कर्मण सम्मान पा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में किसान निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं। है न चौंकाने वाली बात। दरअसल, प्रदेश में किसान सरकार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिकार्ड अनाज उत्पादन तो करता है लेकिन इसके लिए उसे बड़ी राशि व्यय करनी पड़ती है। जब उत्पादित अनाज या समान का वाजिब दाम उसे नहीं मिलता है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर होता है। अभी हाल ही में कर्ज की वजह से खरगोन जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर उमरखली गांव में एक किसान दिनेश ने अपनी जान दे दी। दिनेश ने खेत में ही कीटनाशक दवाई पीकर खुदकुशी कर ली। उस दिन दिनेश ने ही नहीं बल्कि कुछ छह किसानों ने आत्महत्या की होगी। क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)के अनुसार,मप्र में रोजाना 6 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। एक तरफ सरकार पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के बीच किसानों की बदहाली की एक बेहद दुखद तस्वीर सामने आई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने खुलासा किया है कि वर्ष 2015 में कुल 8007 किसानों ने आत्महत्या की, जो वर्ष 2014 में आत्महत्या करने वाले 5650 किसानों की संख्या की तुलना में 42 फीसदी अधिक है। हालांकि, इस दौरान कृषि श्रमिकों की खुदकुशी दर में 31 फीसदी से अधिक की कमी भी दर्ज की गई। वर्ष 2014 में जहां 6710 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की थी, वहीं वर्ष 2015 में 4595 कृषि श्रमिकों ने जीवन त्याग दिया। दरअसल प्रदेश में खेती-किसानी की आधारभूत नीति नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है। प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं किसान हैं और खेती-किसानी को लेकर वे निरंतर चिंतित रहते हैं। लेकिन अधिकारियों की नाफरमानी और लापरवाही के कारण स्थिति बिगड़़ रही है। प्रदेश में आंकड़ों की खेती हो रही है। वातानुकूलित दफ्तर में बैठे अफसर खेती-किसानी का खाका तैयार कर रहे हैं। आंकड़ों में सुविधाएं खेती के लिए बिजली, पानी, खाद-बीज की जरूरत होती है। सरकार का दावा है कि वह किसानों को सारी सुविधाएं मुहैया करा रही है। जबकि हकीकत यह है कि सिर्फ कागजों पर ही किसानों को बिजली-पानी मिल रहा है। जहां तक खाद बीज का सवाल है तो वह तो किसानों की आत्महत्या के लिए सबसे बड़ा कारण है। दरअसल प्रदेश में किसानों को अमानक खाद बीज मुहैया कराया जाता है। किसान बैंकों से कर्ज लेकर खेती करता है और पूरे परिवार सहित रात दिन मेहनत करके सरकार के लक्ष्य की पूर्ति करता है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि पिछले चार साल में प्रदेश में रिकार्ड अनाज का उत्पादन हो रहा है। नहीं मिल रहा वाजिब मूल्य प्रदेश में किसान बैंक, महाजन या अन्य स्रोतों से कर्ज लेकर खेती करता है ताकि फसल बेचकर वह चुकता कर देगा। लेकिन किसान की उत्पादित फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। इसका नजारा पिछले साल प्याज और अब टमाटर और आलू की फसल आने के बाद साफ दिख रहा है। आलम यह है कि किसान जब अपनी फसल लेकर मंडी पहुंच रहा है तो उसे अपनी फसल के बदले भाड़े तक की रकम नहीं मिल पा रही है। ऐसे में किसान के पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। अफसर बना रहे ख्याली पुलाव मध्यप्रदेश में अफसरशाही सरकार को स्वर्णिम खेती का सपना दिखा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि किसानों पर लगातार बोझ बड़ रहा है। किसानों पर बढ़ता बोझ देख मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल किसानों की प्याज खरीदवा ली थी। इसके पीछे अफसरों ने तर्क दिया था कि उसे कुछ दिनों बाद अधिक दाम पर बेंच दिया जाएगा। लेकिन अफसरशाही के तिकड़म में पड़कर सरकार ने प्याज तो खरीद लिया, लेकिन वह मंडियों में पड़े-पड़े सड़ गया। अफसरशाही के साथ ही किसानों को हर कोई लूट रहा है। चाहे वह पटवारी हो, बैंक, महाजन, बीज-खाद कंपनी, पटवारी, पुलिस, झोलाछाप डॉक्टर या चिटफंड कंपनी। यानी हर एक के निशाने पर किसान है। ऐसे में किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है। मप्र में रोज 6 खुदकुशी लगातार हो रही धोखाधड़ी के कारण मप्र में किसानों के खुदकुशी के मामले बढ़े हैं। 2015 में रोजाना औसतन चार किसान जान दे रहे थे, जो 2016 में बढ़कर छह हो गए। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2015 में 1290 किसान-श्रमिकों ने जान दी। एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015 की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की 87 फीसदी आत्महत्या महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र और तमिलनाडु में हुई हैं। गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने पिछले दिनों विधानसभा में जवाब दिया था कि एक फरवरी 2016 से 15 नवंबर 2016 के बीच 1685 किसानों ने जान दी। इनमें डिंडोरी में सबसे ज्यादा 68 किसानों ने अपने प्राण त्यागे। वहीं सागर में 45, झाबुआ में 33, अलीराजपुर में 32, खरगौन में 30 किसानों ने खुदकुशी की। बड़े जिलों में भोपाल में एक, जबलपुर में 12, ग्वालियर में खुदकुशी के 2 मामले सामने आए। इस बीच इंदौर में एक भी घटना नहीं हुई। एक ही उपाय, मौत आखिर किसानों की बढ़ती आत्महत्या की वजहें क्या है? मोटे तौर पर इसकी जो वजहें हैं उनमें मानसून का बदलता मिजाज प्रमुख है। तमाम आधुनिक उपकरणों की उपलब्धता के बावजूद तथ्य यह है कि ज्यादातर किसान अब भी फसलों की बुवाई और सिंचाई के मामले में बारिश पर ही निर्भर हैं। लेकिन बीते कोई डेढ़ दशक से मौसम के लगातार बदलते मिजाज और बेमौसमी बरसात ने उनकी तबाही के रास्ते खोल दिए हैं। कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश उनकी तबाही की वजह बन जाती है तो कहीं बेमौसम बारिश फसलों की काल बन जाती है। सूखा और बाढ़ की समस्या तो लगभग हर साल सामने आती है। इसके अलावा कर्ज का लगातार बढ़ता चक्र भी एक अहम वजह है। बैकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से किसानों को बीज, खाद और सिंचाई के लिए पैसों की खातिर महाजनों और सूदखोरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह लोग 24 से 50 फीसदी ब्याज दर पर उनको कर्ज देते हैं। लेकिन फसलों की उपज के बाद उसकी उचित कीमत नहीं मिलने की वजह किसान पहले का कर्ज नहीं चुका पाता। वह दोबारा नया कर्ज लेता है और इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज के भंवरजाल में फंसती रहती है। आखिर में उसे इस समस्या से निजात पाने का एक ही उपाय सूझता है और वह है मौत को गले लगाना। कीमतें तय करना जरूरी विडंबना यह है कि बंपर फसल भी किसानों के लिए जानलेवा होती है और फसलों की बर्बादी भी। कपास और गन्ना जैसी नकदी फसलों के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है। लेकिन उपज से लागत भी नहीं वसूल हो पाती। यही वजह है कि आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं इन नकदी फसलों वाले राज्यों में ही होती हैं। फसल पैदा होने के बाद उनकी खरीद, कीमतें तय करने की कोई ठोस नीति और विपणन सुविधाओं का अभाव किसानों के ताबूत की आखिरी कील साबित होते हैं। तो आखिर इस समसया पर अंकुश लगाने का कारगर तरीका क्या है? विशेषज्ञों का कहना है कि प्राकृतिक विपदाओं पर काबू पाना तो किसी के वश में नहीं है। लेकिन फसल पैदा होने के बाद उनकी कीमतें तय करने की एक ठोस और पारदर्शी नीति जरूरी है ताकि किसानों को उनकी फसलों की उचित कीमत मिल सके। इसके अलावा विपणन सुविधाओं की बेहतरी और खेती के मौजूदा तौर-तरीकों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विभिन्न सहकारी कृषक समितियों के साथ मिल कर इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा। उसी हालत में किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकेगा। बस आंकड़ों की बाजीगरी प्रदेश के किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एनसीआरबी ने जो रिपोर्ट दी है वह आंकड़ों की बाजीगरी लग रही है। अब तक यही माना जाता रहा है कि किसानों की आत्महत्या का कारण खेती में नुकसान, कर्ज तले दबना ही है। जबकि हकीकत इससे जुदा है। एनसीआरबी की ओर से जारी 2015 की रिपोर्ट बताती है कि बताती है कि 2015 में खेती से जुड़े 1290 लोगों ने जान दी। इनमें से असल में किसान केवल 581 लोग ही थे। शेष तो कृषि से जुड़े मजदूर थे। मप्र में कर्ज के चलते छह किसानों ने आत्महत्या की है। जो कई राज्यों की तुलना में बेहद कम है। कर्ज के चलते किसानों की आत्महत्या के सबसे ज्यादा 1237 मामले महाराष्ट्र में सामने आए हैं। कर्नाटक में 787, तेलंगाना में 384 और पंजाब में 49 किसानों ने आत्महत्या की। गरीबी के चलते आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या मप्र में तीन रही, जबकि दीवालिया घोषित किए जाने पर 13 किसानों ने आत्महत्या की है। मप्र में किसानों की आत्महत्या के मामलों में सबसे ज्यादा घरेलू विवाद वजह रहा। घरेलू विवाद के चलते 183 किसानों ने जान दी। इसके अलावा 24 ने वैवाहिक जीवन की परेशानियों के चलते खुदकुशी की। वहीं विवाहेत्तर संबंध भी चार किसानों की खुदखुशी की वजह बनी। दहेज प्रताडऩा के चलते भी छह महिला किसानों ने आत्महत्या की। 47 मामलों में किसानों की आत्महत्या की मूल वजह का पता ही नहीं चल पाया। समाज में इज्जत खोने के डर से भी दो किसानों ने मौत को गले लगाया। यही नहीं घरेलू विवाद के बाद आत्महत्या के बड़े कारणों में बीमारी भी एक वजह रही है। अपनी बीमारी से तंग आकर 300 से ज्यादा किसानों ने मौत को गले लगाया। इनमें 108 ने लंबी बीमारी से त्रस्त होकर जान दी। 42 किसानों के खुदकुशी करने का कारण उनकी मानसिक बीमारी थी। यही नहीं नशे और शराब की लत के कारण भी किसानों ने मौत को गले लगाया है। इसके कारण 74 किसानों ने आत्महत्या की है। रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में फसल न बिकने के चलते आत्महत्या का एक भी मामला सामने नहीं आया। किसान विरोधी हैं मप्र सरकार की नीतियां मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अरुण यादव ने इस मामले में सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि मप्र सरकार की नीतियां किसान विरोधी हैं। लगातार प्रकृति की मार से किसान और कर्जदार हुआ है, लेकिन सरकार उन्हें सिर्फ आश्वासन ही दे रही है। परेशान किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं पर सरकार मानने को तैयार नहीं है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि 1995 से 3.18 लाख से किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बीते दो दशक में हर साल यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। नीतियां बनाने वालों के लिए ये बस आंकड़े हैं। मौत का ग्राफ बढ़ ही रहा है।

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