बुधवार, 30 जून 2010

सियासत में न डूब जाए आंसू

भोपाल में 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यिानी रात को विश्व की भीषणतम गैस त्रासदी में बीस हजार से अधिक लोग असमय ही काल कलवित हो गए थे, पांच लाख से ज्यादा प्रभावित या तो अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं या फिर घिसट घिसट कर जीवन यापन करने पर मजबूर हैं, पर जनसेवकों को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। लेना देना हो भी तो क्यों, उनका अपना कोई सगा इसमें थोड़े ही प्रभावित हुआ है। देश की जनता की जान की कीमत इन सभी जनसेवकों के लिए कीडे मकोडों से ज्यादा थोडे ही है। मोटी चमडी वाले जनसेवकों ने तो भोपाल हादसे में मारे गए लोगों के शवों पर सियासी रोटियां सेकने से भी गुरेज नहीं किया। छब्बीस साल तक गैस पीडित अपना दुखडा लेकर सरकारों के सामने गुहार लगाते रहे पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती ही साबित हुई है। अब जब फैसला आ गया है तब सारे दलों के लोगों का जमीर जागा है, वह भी जनता को लुभाने और दिखाने के लिए, अपना वोट बैंक पुख्ता करने के लिए।
भोपाल के साथ यह विडंबना रही है कि चुनावी राजनीति में वह कभी भी निर्णायक की भूमिका में नहीं रहा। ना ही भारत में, ना ही अपने राज्य में जिसकी वजह से राजनीतिज्ञ उनके मतभेदों की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। चार सप्ताह के अंदर भोपाल में आम चुनाव हुए थे, लेकिन 1984 में मतदाताओं के मन को इंदिरा गांधी की शहादत ने बदल दिया था। कांग्रेस मध्य प्रदेश के सारे सीट जीती और पूरे देश में लगभग यही आलम था। पांच साल बाद देश मंडल और राम मंदिर के साथ बोफोर्स घोटाले में व्यस्त हो गया। ऐसे में अगर यहां के वाशिंदों के आंसू सियासत की भेंट चढ़ जाते हैं तो हैरानी की कोई बात नहीं।
भारत गणराज्य में मानवीय मूल्यों पर निहित स्वार्थ पूरी तरह हावी हो गए हैं। कहने को तो भारत गणराज्य का प्रजातंत्र समूचे विश्व में अनूठा है, पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है। आज सत्ताधारी दल के साथ ही साथ विपक्ष ने अपने आदर्श, नैतिकता, जनसेवा पर अपने खुद के बनाए गए स्वार्थों को हावी कर लिया है। ''हमें क्या लेना देना, हमारे साथ कौन सा बुरा हुआ, हम क्यों किसी के पचडे में फंसें, जनता कौन सा खाने को देती है, कल वो हमारे खिलाफ खड़ा हो गया तो, हमें राजनीति करनी है भईया, हम उनके मामले में नहीं बोलेंगे तो कल वे हमारे मामले में मुंह नहीं खोलेंगे, आदि जैसी सोच के चलते भारत में राजनैतिक स्तर रसातल से भी नीचे चला गया है।
छब्बीस साल पहले देश के हृदय प्रदेश भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के बाद उसके लिए जिम्मेदार रहे अफसरान को न केवल उस वक्त केंद्र और सूबें में सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस ने मलाईदार ओहदों पर रखा, वरन जब विपक्ष में बैठी भाजपा को मौका मिला उसने भी भोपाल गैस त्रासदी के इन बदनुमा दागों को अपने भाल का तिलक बनाने से गुरेज नहीं किया। देश की सबसे बडी अदालत में जब जस्टिस ए.एस.अहमदी ने धाराओं को बदला तब केंद्र सरकार शांत रही। फिर उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद मोटी पेंशन देने के बाद भी उनके पुनर्वास के लिए उन्हें किसी निगम मण्डल, आयोग, ट्रस्ट का सदस्य या अध्यक्ष बनाने की अपनी प्रवृत्ति के चलते इनकी लाख गलतियां माफी योग्य हो जाती हैं।
इसी तर्ज पर जस्टिस अहमदी को भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट का अध्यक्ष बना दिया गया। क्या सरकार ने एक बारगी भी यह नहीं सोचा कि इन धाराओं को बदलकर जस्टिस अहमदी ने भोपाल में मारे गए बीस हजार से अधिक लोगों और पांच लाख से अधिक पीडि़त या उनके परिवारों के साथ अन्याय किया है। सच ही है राजनीति को अगर एक लाईन में परिभाषित किया जाए तो ''जिस नीति से राज हासिल हो वही राजनीति है।'' कांग्रेस या भाजपा को इस बात से क्या लेना देना था और है कि किन परिस्थितियों में धाराओं को बदला गया।
भोपाल में न्यायालय में मोहन प्रकाश तिवारी ने जो फैसला दिया उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि उन्होंने अपने विवेक से सही फैसला दिया है। जब प्रकरण को ही कमजोर कर प्रस्तुत किया गया तो भारतीय कानून के अनुसार उसके लिए जितनी सजा का प्रावधान होगा वही तो फैसला दिया जाएगा। चूंकि देश की सबसे बडी अदालत ने पहली बार आरोप तय किए थे, तो उससे निचली अदालत उसे किस आधार पर बदल सकती है। भारतीय कानून में यह अधिकार उपरी अदालतों को है कि वे अपने नीचे की अदालतों के फैसलों की समीक्षा कर नई व्यवस्था दें।
जब फैसला आ चुका है, देश व्यापी बहस आरंभ हो चुकी है, तब फिर पूर्व न्यायाधिपति को भोपाल मेमोरियल का अध्यक्ष बनाए रखने का ओचित्य समझ से परे है। सरकार को चाहिए था कि तत्काल प्रभाव से उन्हें इस पद से हटा देेते। मामला आईने की तरह साफ है। सबको सब कुछ समझ में आ रहा है कि दोषी कौन है, पर ''हमें क्या करना है'' वाली सोच के चलते जनता गुमराह होती जा रही है।
प्रधानमंत्री को भी लगा कि मामला कुछ संगीन और संवेदनशील होता जा रहा है। देश भर में इसके खिलाफ माहौल बनता जा रहा है तो उन्होंने भी मंत्री समूह के गठन की औपचारिकता निभा दी। इस मंत्री समूह में केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को भी रखा गया है। कमल नाथ अस्सी से लगातार संसद सदस्य हैं, चौरासी में भी वे संसद सदस्य थे। राजीव और संजय गांधी के उपरांत प्रियदर्शनी स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे कमल नाथ का यह पहला टेन्योर था सांसद के रूप में। वे मध्य प्रदेश के छिंदवाडा संसदीय क्षेत्र से चुगे गए थे। इसके बाद वे नरसिंहराव सरकार में वन एवं पर्यवरण तथा वस्त्र मंत्री रहे हैं। इसके बाद वाणिज्य उद्योग और अब भूतल परिवहन मंत्री हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि बतौर सांसद मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने के बाद भी कमल नाथ ने आज तक भोपाल गैस कांड के लिए क्या किया है!
इसका उत्तर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही आएगा। जब तीस सालों में उन्होंने अपने निर्वाचन वाले सूबे में भोपाल गैस कांड जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कुछ नहीं कहा और किया तो अब मंत्री समूह में रहकर वे क्या कर लेंगे। कमलनाथ ने वाशिंगटन में 28 जून 2007 को यूनियन कार्बाईड को खरीदने वाली कंपनी डाओ केमिकल की वकालत करते हुए कहा था कि हादसे के वक्त डाओ केमिकल अस्तित्व में नहीं थी इसलिए भोपाल त्रासदी की जिम्मेदारी इसकी नहीं है। वरिष्ठ राजनेता और तीस साल की सांसदी कर चुके कमल नाथ को डाओ केमिकल का पक्ष लेने के बजाए भोपाल गैस कांड के मृतकों के परिजनों और पीडितों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए था, जो उन्होंने किसी भी दृष्टि से नहीं दिखाया।
भोपाल कांड के मृतकों की कीमत पर डाओ केमिकल को देश में फिर से आमद देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह भोपाल गैस कांड के मृतकों और पीडितों को एक गाली से कम नहीं है। आज आरोप प्रत्यारोप के कभी न थमने वाले दौर आरंभ हो चुके हैं। भोपाल गैस कांड के फैसले से सियासी तंदूर फिर गरम होकर लाल हो चुका है। सभी जनसेवक अब अपने अपने हिसाब से इसमें अपने विरोधियों के खिलाफ तंदूरी रोटी सेंकना आरंभ कर चुके हैं। एक दूसरे के कपडे उतारने वाले राजनेता यह भूल जाते हैं कि मृतकों के परिजनों और पीडितों को उनके वर्चस्व की लड़ाई से कोई लेना देना चहीं है, वे तो बस न्याय चाह रहे हैं।
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर का जमीर भी अचानक जागा है। उन्होंने भी इस तंदूर में अपनी दो चार रोटियां चिपका दी हैं। गौर का कहना है कि 1991 में जब वे गैस राहत मंत्री थे तब उन्होंने 9 जुलाई 1991 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को पत्र भी लिखा था। बकौल गौर भोपाल के गैस प्रभावित 36 वार्ड के पांच लाख 58 हजार 245 गैस प्रभावितों में से महज 42 हजार 208 पीडितों को ही मुआवजा देने की बात कही थी उस समय के मंत्री समूह ने। गौर के इस प्रस्ताव पर कि शेष बीस वार्ड के पांच लाख 16 हजार 37 पीडि़तों को मुआवजा देने पर उस समय गठित मंत्री समूह के अध्यक्ष कुंवर अर्जुन सिंह सहमत थे। बाबूलाल गौर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, पर वे इस बात को बताने से क्यों कतरा रहे हैं कि उन्होंने विधायक रहते इस मामले को कितनी मर्तबा विधानसभा के पटल पर उठाया। वे भोपाल शहर से ही विधायक चुने जाते आए हैं, वे प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे हैं, फिर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने विधानसभा क्षेत्र के भोपाल शहर के गैस पीडि़तों के लिए क्या प्रयास किए। बाबू लाल गौर को इन बातों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
कानून के जानकारों की मानें तो मध्य प्रदेश सरकार के हाथ बांध दिए गए हैं। अपने चुनाव क्षेत्र के दो वार्ड बाबूलाल गौर गैस पीडि़तों की सूची में इसके बावजूद नहीं जुड़वा पाए क्योंकि फैसला तो केंद्र सरकार को करना था। अब दूसरी बार भारत सरकार का मंत्रिमंडलीय समूह तब जाकर जीवित किया गया जब भोपाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐलान कर चुके थे कि वे इस लड़ाई को हारने वाले नहीं हैं और सरकार की ओर से उच्च न्यायालय में अपील करेंगे। भोपाल की जनता को शिवराज सिंह से ज्यादा उम्मीद हैं। पी चिदंबरम नए समूह के अध्यक्ष बनाए गए हैं मगर अब यह उनके ऊपर है कि वे वारेन एंडरसन से पहले निपटना चाहते हैं या माओवादी कातिलों से।
कमाल की बात तो यह है कि मध्य प्रदेश के एडवोकेट जनरल रह चुके और अब भारत सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल विवेक तन्खा शिवराज सिंह चौहान की बनाई कमेटी में शामिल है। भारत सरकार को उनकी मदद लेने का ध्यान भी नहीं रहा। वैसे भी भारत सरकार में 29 ग्रुप ऑफ मिनिस्टर पहले से हैं और अब 30 हो गए हैं। उम्मीद की जा रही थी कि शर्म से ही सही, भोपाल को न्याय दिलवाने में अब केंद्र सरकार कामयाब होगी और अमेरिका के साथ रिश्ते बिगडऩे का रोना नहीं रोएगी। लेकिन चार दिनों तक चली बैठक के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर ने गैस पीडि़तों के जख्मों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की है जो मिर्च से कम नहीं है। क्योंकि सरकार ने 21 साल पुराने वर्गीकरण यानी 1989 में डाक्टरों द्वारा आनन-फानन में मरीजों का जो वर्गीकरण किया था उसके आधार पर मुआवजा देने का ऐलान किया है। गैस पीडि़त संगठन के नेता अब्दुल जब्बार कहते हैं कि केन्द्र सरकार ने भोपाल के केवल उन लोगों को ही मुआवजा देने की बात कही है जिन्हें एक मुश्त 50 हजार या उससे अधिक की रकम मिली है। जबकि इस मामले में तत्कालीन स्वास्थ्य अधिकारी एसएन मिश्रा का कहना है कि उस समय जल्दीबाजी में पीडि़तों का वर्गीकरण किया गया था। सही तो यह होता कि एक बार फिर से पीडि़तों की पहचान और वर्गीकरण किया जाता।
भोपाल गैस कांड पर केंद्र सरकार अपनी खाल बचाने में जुटी है। छब्बीस साल तक कुंभकर्णी नींद सो रही केंद्र सरकार को अब भोपाल गैस पीडि़तों की सुध लेने की सूझी। इस बात पर सहमति बनी कि सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन यानी सुधार याचिका दाखिल की जाएगी और वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की जाएगी। यह फैसला भी देश की आवाम को बरगलाने की एक कोशिश है। एंडरसन पर सिर्फ लापरवाही के आरोप हैं और अमेरिका की अदालत ने इस मामले में इंटेंट साबित नहीं हो पाने की वजह से प्रत्यर्पण की अर्जी खारिज कर दी है। अब भारत सरकार को इसके लिए एक लंबी कानूनी लड़ाई लडऩी होगी। प्रत्यार्पण के लिए अपने अनुरोध पत्र को बदलना होगा। एंडरसन नब्बे की उम्र पार कर चुका है और अमेरिकी कानून में प्रत्यर्पण के लिए आरोपी की उम्र को भी ध्यान में रखा जाता है। कुल मिलाकर यह एक ऐसी कोशिश है जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना लगभग तय है।
तकरीबन 20 हजार लोगों की मौत के बाद अचानक सरकार के सक्रिय दिखने की वजह कुछ और है। अदालत के फैसले के बाद केंद्र सरकार चौतरफ दबाव में थी। कांग्रेस अपने दामन पर लगे दाग को धोने और आरोपों के दलदल से निकलने के लिए बेचैन है। अदालती फैसले के बाद एंडरसन के भारत से भागने को लेकर जिस तरह से मीडिया ने सरकार को घेरा और उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर आरोप लगे उससे कांग्रेस सकते में आ गई। पार्टी नेताओं ने बचाव में अलग-अलग तर्क देने शुरू किए जिसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी में पहले भ्रम की स्थिति बनी। पार्टी के महासचिव और दस जनपथ के करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह ने एंडरसन के भारत से भगाने को लेकर राजीव गांधी को घेरे में ले लिया। पार्टी के एक और नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अलग राग अलापते हुए अर्जुन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए। मामला बिगड़ता देख पार्टी डैमेज कंट्रोल में जुटी और नेताओं को भोपाल मसले पर मुंह बंद करने का फरमान जारी कर दिया गया। अब पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी यह तर्क दे रहे हैं कि अगर वॉरेन एंडरसन को नहीं भगाया जाता तो देश की जनता उसे मार डालती। मनीष के तर्क बेहद लचर और तथ्यहीन हैं। अगर भोपाल की जनता में गैस लीक कांड को लेकर गुस्सा था और इस बात की आशंका थी वो हिंसक हो सकती थी तो तो एंडरसन को वहां से निकाल कर देश के किसी भी हिस्से में रखा जा सकता था। देश में इतने खुफिया ठिकाने हैं जिसमें से कहीं भी एंडरसन को रखा जा सकता था लेकिन उसे तो शाही ठाठ-बाट के साथ भारत से विदा किया गया।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह क्या सारे राजनेता इस बात को जानते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत ही कमजोर होती है। अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर या संसद पर हमला हो या फिर देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई पर हुए अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले की बात। हर मामले में जैसे ही घटना घटती है, वैसे ही चौक चौराहों, पान की दुकानों पर बहस गरम हो जाती है, फिर समय के साथ ही ये चर्चाएं दम तोड देती हैं। भोपाल गैस कांड में भी कुछ यही हो रहा है। मामला अभी गर्म है सो कुछ न कुछ तो करना ही है। मंत्री समूह का गठन कर जनता को भटकाना ही उचित लगा सरकार को।
क्या भाजपा के अंदर इतना माद्दा है कि वह केंद्र सरकार से प्रश्न करे कि गैस कांड के वक्त मुख्यमंत्री रहे कुंवर अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में 1991 गठित मंत्री समूह की सिफारिशें क्या थीं, और क्या उन्हें लागू किया गया, अगर नहीं तो अब एक बार फिर से मंत्री समूह के गठन का ओचित्य क्या है! क्या इसका गठन मामले को शांत करने और जनता का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाने के लिए है। हालांकि इस मामले में प्रदेश सरकार के हाथ बंधे हुए हैं।
गैस कांड में कानूनी फैसले के नाम पर जो अभूतपूर्व अन्याय हुआ है उसके पीछे की कहानियां अब सामने आती जा रही है। सीबीआई ने पहले सही धाराओं में मामला बनाया था। यह धारा 304 थी जिसका मतलब होता है कि अभियुक्त को पता था कि उसकी लापरवाही से व्यक्ति या व्यक्तियों की मौत हो सकती है और फिर भी सावधानी नहीं बरती गई। इस धारा में कम से कम दस साल और अधिक से अधिक उम्र कैद का प्रावधान है। भारत सरकार ने भोपाल आए यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को कैसे राजकीय अतिथि की मुद्रा में गिरफ्तार किया और कैसे दिल्ली से राजीव गांधी या पी नरसिंह राव या दोनों का फोन तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पास आया और तीन घंटे के भीतर वारेन एंडरसन को रिहा कर के सरकारी जहाज में दिल्ली पहुंचा दिया गया और वहां से वह अमेरिका उड़ गया। यह मेहरबानी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति और उसके पहले सीग्रेड फिल्मों के हीरो रह चुके रोनाल्ड रीगन के एक फोन के बाद हुई थी।
फिर भारत सरकार ने एक विशेष अध्यादेश जारी कर के भोपाल की लड़ाई लडऩे के लिए सिर्फ खुद को अधिकार दे दिया। भारत सरकार ने अमेरिका की एक अदालत में तीन अरब तीस करोड़ डॉलर का मुआवजा मांगने के लिए अमेरिका की अदालत में मामला दायर किया मगर अदालत ने कहा कि जुर्म भोपाल में हुआ है और मामला भी वहीं चलना चाहिए। सीबीआई तो धारा 304 के तहत दिसंबर 1987 में ही वारेन एंडरसन और यूनियन कार्बाइड की अलग अलग शाखाओं के अधिकारियों के खिलाफ चार्ज शीट भी दाखिल कर चुकी है और फरवरी 1989 में भोपाल के चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने एंडरसन के खिलाफ जमानत के दौरान किए गए वायदे के बावजूद अदालत में पेश नहीं होने पर गैर जमानती वारंट जारी कर दिया और इसको तामिल भी करवा लिया गया। मगर उसी महीने भारत सरकार को पता नहीं एंडरसन के प्रति दया का ऐसा दौरा आया कि तीन अरब तीस करोड़ डॉलर के बजाय सिर्फ चार करोड़ सत्तर लाख के मुआवजे पर सौदा कर लिया गया। भोपाल के लोग बहुत खफा थे और कई याचिकाएं और समीक्षा याचिकाएं भारत के सर्वोच्च न्यायालय मे डाली गई जिन्हें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अहमदी ने खारिज ही नहीं कर दिया बल्कि 1996 में तो फैसला दे दिया कि मामला 304 का नहीं बल्कि 304 ए और बी का बनता है जिनमें अधिकतम सजा दो साल की हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि जब यूनियन कार्बाइड ने भोपाल हॉस्पीटल ट्रस्ट लंदन में बनाया तो अहमदी साहब उसके अध्यक्ष बनाए गए। फरवरी 2001 में तो यूनियन कार्बाइड ने घोषित ही कर दिया कि भारत की फैक्टरी के लिए उसकी कोई देनदारी शेष नहीं हैं। अगले साल हुई एक शोध ने साबित किया कि यूनियन कार्बाइड प्लांट के आसपास रहने वाली मांओ के दूध में पारा पाया गया हैं। अमेरिकी सरकार कहती रही कि उसे एंडरसन का कोई पता नहीं हैं जबकि एक ब्रिटिश अखबार के संवाददाता उसके घर पहुंच गए और गोल्फ खेलते हुए उसके फोटो भी खींच लाए। अमेरिका के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि है मगर अमेरिका ने एंडरसन को कभी भारत सरकार को नहीं सौंपा।
भारत सरकार अपने तरीके से काम कर रही थी। भोपाल में हादसा हुआ था लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की कोई्र भूमिका नहीं रहने दी गई थी। सीबीआई के एक जांच अधिकारी ने आरोप लगाया है कि विदेश मंत्रालय ने बाकायदा संदेश भेज कर कहा था कि एंडरसन के प्रत्यर्पण पर ज्यादा जोर नहीं डाला जाए। उस समय पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे और विदेश मंत्री दिनेश सिंह बहुत बीमार थे इसलिए विदेश मंत्रालय के फैसले भी प्रधानमंत्री कार्यालय से होते थे। उस समय विदेश मंत्रालय में उप मंत्री रहे और अब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद का दावा है कि उन्हें इस तरह के किसी संदेश के भेजे जाने की जानकारी नहीं है और तो और न्यायमूर्ति अहमदी कहते है कि उन्हें तो किसी समीक्षा याचिका की याद ही नहीं है।
अब भारत सरकार भोपाल के हजारों निष्पाप लोगों का कानूनी श्राध्द करने में लग गई हैं। भोपाल गैस त्रासदी पर न्याय पाने के लिए भारत सरकार में मंत्रियों का एक समूह पहले से मौजूद था और यूपीए की पहली सरकार के दौरान ही बना लिया गया था। अर्जुन सिंह इस समूह के अध्यक्ष थे। भोपाल के फैसले के अगले ही दिन जब इस समूह को जीवित किया तो पता चला कि भारत सरकार का ऐसा समूह भी था। अगर यह समूह था और इसमें भारत सरकार के जिम्मेदार मंत्री मौजूद थे तो यह समीति इतने सालों से कर क्या रही थी? यह आश्चर्य खास तोैर पर इसलिए भी है क्योंकि इस समिति के अध्यक्ष खुद अर्जुन सिंह थे जिन्हें भोपाल गैस कांड के बारे मेंं दूसरों से ज्यादा पता था। अब भी जब इस मामले ने जोर पकड़ा है तो अर्जुन सिंह ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि एंडरसन को भगाने में उनका हाथ नहीं था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उनके सूबे से हजारों लोगों का कातिल राजकीय सम्मान के साथ, राजकीय विमान पर, राजकीय अधिकारियों की मौजूदगी में भोपाल छोड़ता है और मुख्यमंत्री को इसका पता ही नहीं।
हालांकि श्री सिंह ने एक और सगूफा छोड़ दिया है कि मैं अपनी जीवनी लिख रहा हूं। उसमें मैं इस बात का खुलासा करूंगा कि एंडरसन को भगाने का दोषी कौन है। अब तो इस बात का इंतजार करना पड़ेगा कि अर्जुन सिंह अपनी जीवनी कब तक लिखते हैं या... वह अधूरी ही रहेगी। लेकिन इतना तो जरूर है कि भोपाल त्रासदी के शिकार पीडि़तों के आंसू सियासत के शिकार हो ही जाएंगे।

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