गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार यानी नेताओं-नौकरशाहों का गठजोड़


खुली अर्थव्यवस्था और उदारवादी नीतियों को कानूनी आधार देते वक्त इनकी वकालत करने वालों का दावा था कि इन नीतियों में उदारता व शिथिलता बरती जाती है तो प्रशासन पारदर्शी बनेगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। कायदे-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए प्रशासनिक अमले में मनमाने ढंग से काम करने की प्रवृत्ति पनपी। नौकरशाहों ने या तो राजनीति से प्रेरित होकर कार्यो को अंजाम दिया या फिर निरंकुश भ्रष्टाचार के लिए फाइलों को गति दी। नौकरशाही प्रशासनिक नीतियों के क्रियान्वयन तक ही सीमित न रहकर संसद और विधायिका के नीति निर्धारण में न केवल संपूर्ण हस्तक्षेप करती है, बल्कि उन्हें ऐसा मोड़ देती है कि उनकी न तो कोई जवाबदेही सुनिश्चित हो और न ही कार्य की समय-सीमा का निर्धारण हो? लिहाजा, देश में जब-जब घोटालों, महा-घोटालों का पर्दाफाश हुआ है, उसमें राजनेता तो कठघरे में खड़े हुए हैं, लेकिन नेता की परछाई में कुटिल बुद्धि के चालाक नौकरशाह साफ-साफ बच निकलते हैं। लिहाजा, पीजे थॉमस जैसे नौकरशाह पामोलिन तेल निर्यात घोटाले में नामजद होने के बावजूद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त जैसे गौरवशाली पद पर सिंहासनारूढ़ हो जाते हैं। उन पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी शामिल होने का आरोप है। सीबीआइ ने जिस आवास ऋण घोटाले से पर्दा उठाया है, जिसमें बरते गए भ्रष्टाचार में बैंकों और भारतीय जीवन बीमा आवास निगम ऋण योजना के आला अफसर लिप्त हैं, की बाबत योजना आयोग ने बड़ी सहज सरलता से कह दिया कि यह रिश्वत से जुड़ा मामूली मामला है। इससे बैंकिंग व्यवस्था के बंटाधार हो जाने का कोई खतरा नहीं है, जबकि गौरतलब यह है कि अमेरिका में मंदी की शुरुआत आवास ऋण बैंकों द्वारा कर्ज वसूली नहीं कर पाने के कारण ही हुई थी। वैसे भी भ्रष्टाचार बड़ा हो या छोटा, यदि हम उसे प्रोत्सोहित करेंगे तो भ्रष्टाचार की पैठ गहरी होगी और उसके विस्तार में व्यापकता आएगी। वर्तमान में हमारे देश में घोटालों के परत दर परत खुलते जाने का सिलसिला जारी है। यहां तक कि सुरक्षा और विदेश सेवा तंत्र से जुड़ी माधुरी गुप्ता और रविंदर सिंह जैसे अफसर देश की गोपनीयता भंग कर राष्ट्रघाती कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। मुबंई विस्फोटों में इस्तेमाल किया गया आरडीएक्स घूस का ही दुष्परिणाम था। आंतकवादियों और माओवादियों के पास से भी सेना व पुलिस के जो हथियार बरामद किए गए हैं, उससे जाहिर होता है कि भ्रष्टाचार सरकारी अधिकारियों की रक्त धमनियों में सिर से पैर तक दौड़ रहा है। भ्रष्टाचार के ऐसे भयावह परिप्रेक्ष्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही ही कहा है कि भ्रष्टाचारी ऐसे दु:स्वप्न बन चुके हैं कि वे राष्ट्र निर्माताओं के सपनों पर ही कुठाराघात नहीं करते, बल्कि देश को भी तोड़ देने वाला खतरा साबित हो सकते हैं। बीते तीन-चार महीनों के भीतर ही राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और आवास ऋण से जुड़े घोटाले सामने आए हैं। इनमें राजनेता, नौकरशाह और कुछ मामलों में सैन्य अधिकारियों की साठगांठ व लिप्तता भी साफ हो चुकी है।
उत्तर प्रदेश का खाद्यान्न घोटाला हो या फिर नोएडा में भूमि आवंटन घोटाला या फिर देश का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला। साठगांठ के इस खेल में कहीं नीरा राडिया हैं तो कहीं नीरा यादव। भ्रष्टाचार और घोटालों के हर खेल में नौकरशाह, नेता और बड़े औद्योगिक घरानों या कारोबारियों की मिलीभगत का खुलासा होता है। नोएडा भूमि आवंटन घोटाले में गाजियाबाद स्थित सीबीआइ की विशेष अदालत ने प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव और फ्लैक्स उद्योग समूह के मालिक अशोक चतुर्वेदी को मामले में दोषी ठहराकर 50-50 हजार रुपये जुर्माना और चार साल की सजा सुना दी। अदालत के इस फैसले ने नौकरशाहों और कारोबारियों के बीच की साठगांठ को कुछ कमजोर तो जरूर किया है, लेकिन पौने दो लाख करोड़ रुपये के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद साठगांठ के इस खेल में कई और नए किरदारों के चेहरे से परदा उठ गया है। नीरा राडिया के साथ मिलकर हाई प्रोफाइल दलाली के खेल में साठगांठ का जो नया गठजोड़ सामने आया है, उसमें मीडिया के कुछ लोग भी शामिल हैं। साठगांठ का यह नया गठजोड़ वाकई देश के लिए बेहद खतरनाक है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सत्ता की सबसे बड़ी दलाली के खेल की भनक प्रधानमंत्री कार्यालय को काफी पहले ही लग चुकी थी, लेकिन उसके बाद भी देश में इतना बड़ा घोटाला हो गया। नवंबर 2007 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने दूरसंचार मंत्रालय से साल 2001 के स्पेक्ट्रम आवंटन मूल्य पर नए सिरे से विचार करने की सलाह भी दी थी, लेकिन दलाली के इस खेल में प्रधानमंत्री कार्यालय की सलाह को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया और इस घोटाले का खुलासा होने के कई दिनों बाद तक खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संचार मंत्री रहे ए राजा का बचाव करते रहे। आयकर विभाग ने 300 दिनों तक नीरा राडिया के नौ टेलीफोन टैप किए और इनमें से कुछ लीक हुए टैप से जो भी बात सामने आई हैं, उनसे सत्ता की दलाली के साठगांठ के खेल में नए खिलाडि़यों का भी खुलासा होता है। कारपोरेट घरानों की दलाली के इस खेल में नौकरशाह और राजनेता तो पहले से ही शामिल थे, लेकिन अब मीडिया की बड़ी हस्तियां भी खुलकर इस साठगांठ में शरीक हो गई हैं। सवाल देश की न्यायपालिका में शामिल कुछ लोगों को लेकर भी उठ रहे हैं, लेकिन इन सबके बावजूद देश की जनता की सबसे ज्यादा उम्मीद अब भी न्यायपालिका पर ही टिकी है। देश की जनता के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि अगर साठगांठ का यह खेल ऐसे ही चलता रहा तो क्या हमारा देश विकास के रास्ते पर जाने के बजाय पिछड़े देशों की कतार में आकर नहीं खड़ा हो जाएगा? क्या देश की यूपीए सरकार और दूसरे दल वाकई भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर हैं? या इसे सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों को घेरने का एक जरिया बना दिया गया है। आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि दलाली के खेल की इस खतरनाक साठगांठ को कैसे पूरी तरह खोल दिया जाए? 10 जनवरी 2008 को दिल्ली के संचार भवन में जिस तरह से 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए प्रेस रिलीज जारी कर दी गई और यह कह दिया गया है कि एक घंटे के भीतर 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस जारी कर दिए जाएंगे और उसके बाद लाइसेंस लेने वाले ऐसे ऑपरेटर जो साठगांठ के खेल में शामिल नहीं थे, के सामने मुसीबतों को पहाड़ टूट पड़ा था। कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्हें इस बारे में पहले से ही जानकारी थी और उन्होंने सारी कागजी प्रक्रियाओं को पूरा करके ये लाइसेंस हासिल कर लिए। घोटाले की बानगी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस कंपनी को 1658 करोड़ रुपये में इसका लाइसेंस मिला, उसने इसका 27 फीसदी हिस्सा तुरंत एक जापानी कंपनी को 12,924 करोड़ रुपये में बेच दिया। बात सिर्फ संचार मंत्रालय भर की ही नहीं हैं, देश में तमाम मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों में कामकाज का तरीका अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है, जिसमें नौकरशाहों की तानाशाही चलती है। देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत में हमने तमाम नियम प्रक्रियाओं को सरल बनाने की बात कही थी, लेकिन आज भी देश के सरकारी कामकाज में कागजी कार्यवाही इतनी जटिल है कि कोई भी अदना-सा सरकारी बाबू आपके कामकाज में अडं़गा डाल सकता है। अंग्रेजों ने ऊंचे ओहदे पर बैठे नौकरशाहों को जरूरत से ज्यादा अधिकार दिए हुए थे, क्योंकि इन पदों पर या तो वे खुद बैठे हुए थे या फिर उनकी चापलूसी करने वाला कोई दूसरा शख्स। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनका बनाया नौकरशाही का ढांचा अब भी देश पर राज कर रहा है। राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत से सरकारी प्रक्रियाओं की जटिलताओं का फायदा खुद की जेब भरने के लिए उठाया जाता है। अपने फायदे के लिए इनके बीच तालमेल भी बेहतर बन जाता है और प्रशासनिक गलियारों में ऐसे नौकरशाह खुद को राजपूत यानी जिसका राज, उसका पूत बताते हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो दलाली के खेल में सरकार के साथ मिलकर अपने काम को अंजाम देते हैं। भारतीय ऑडिट एंड एकाउंट सर्विसेज की पूर्व अधिकारी रुनू घोष को आय से अधिक संपत्ति के मामले में अदालत दोषी ठहरा चुकी है। इस अधिकारी के तत्कालीन दूरसंचार मंत्री सुखराम से नजदीकी किसी से छिपी नहीं थी। हालांकि नौकरशाहों की फौज में चंद बेहतर लोग भी हैं, जो ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन अक्सर ऐसे लोगों को ईमानदारी का इनाम नहीं, बल्कि उसकी सजा भुगतनी पड़ती है। किरण बेदी जैसी महिला अधिकारी को वरिष्ठता के बाद भी दिल्ली पुलिस का कमिश्नर नहीं बनाया जाता, क्योंकि कुछ लोगों को यह डर सताता है कि कहीं इस वजह से हमारी अपनी साठगांठ न खुल जाए। देश में ऐसे तमाम काबिल और ईमानदार आइएएस और आइपीएस अफसर हैं, जिन्हें अहम जिम्मेदारियां देने के बजाय हाशिए पर डाल दिया जाता है, क्योंकि ऐसे अफसर बड़े राजनेताओं की अनुचित मांगों के आगे घुटने टेकने से इनकार कर देते हैं। मौजूदा समय में उन्हीं अफसरों की पूछ है, जो राजनेताओं के साथ कदमताल करते नजर आएं। दरअसल, राजनेताओं, नौकरशाह, कारोबारियों की इस साठगांठ को तोड़ने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत दफ्तरों में सरकारी कामकाज की प्रक्ति्रयाओं को सरल और पारदर्शी बनाने की है। खासतौर से आर्थिक मामलों से जुड़े हर मामले में पारदर्शिता का सबसे ज्यादा ध्यान रखे जाने की जरूरत है। देश के विकास से जुड़ी योजनाओं में कोई धनराशि कब और कैसे खर्च की जा रही है, इससे जुड़ी पूरी जानकारी जनता को पता होनी चाहिए, तब सत्ता के गलियारों का बड़े से बड़ा दलाल भी किसी खास कारपोरेट की मदद के लिए नियमों को ताक पर रखकर सरकार से कोई फैसला नहीं करवा सकेगा। इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि भ्रष्टाचार के खेल में शामिल लोगों को बड़े पदों पर नियुक्त करने की बजाय उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने के बाद आम जनता अब यह जानना चाहती है कि सरकार भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने से क्यों पीछे हट रही हैं? जनता यह भी जानना चाहती है कि हर बार की तरह इन घोटालों की भी बरसों तक जांच चलती रहेगी या फिर दोषियों को जल्द से जल्द कड़ी सजा दी जाएगी? यूपीए सरकार भले ही इस पूरे मामले को लेकर झुकने को तैयार नहीं दिख रही है, लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी छवि की वजह से यूपीए-2 को देश की जनता ने एक मौका दिया था और अब यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह भ्रष्टाचार की इस सबसे बड़ी साठगांठ को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाए। अदालत जब तक नीरा यादव जैसे तमाम नौकरशाहों को सलाखों के पीछे नहीं डालेगी, तब तक देश के खतरनाक बन चुके इस गठजोड़ को नहीं तोड़ा जा सकता। आज जरूरत इस बात की है कि देश के लिए खतरा बन चुकी इस साठगांठ को खत्म करने के लिए जनता भी भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर आवाज बुलंद करे।

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