शनिवार, 3 सितंबर 2011

संघ में 'मिशन भागवत की छटपटाहट ...!




विनोद उपाध्याय
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पद संभालते ही क्रांतिकारी निर्णय लिये एक राष्टï्रीय स्तर पर पहली बार भाजपा में नागपुर के छोटे से कार्यकर्ता नितिन गडकरी को अध्यक्ष पद दिलवा कर। दूसरा अपने घर (भाजपा) से दूर चली गई उमा भारती की पार्टी में वापसी करवाई और अब तीसरा नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं। बेशक! भागवत को सफल होने देंगे। उज्जैन की चिंतन बैठक में यही चिंता हुई कि कैसे मिशन भागवत पूरा हो -
राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ की मुश्किल ये है कि न तो यह पूर्ण अराजनैतिक संगठन बन पाया और न ही समाज से सीधे जुड़ पाया। 1925 से लेकर आज तक कभी जनता पार्टी कभी जनसंघ और अब भाजपा का रिमोट कंट्रोल ही बना रहा। संघ के सुप्रीमो से लेकर नीचे तक के कार्यकर्ता सत्ता की मलाई से परहेज तो नहीं करते हैं, मगर स्वीकारने में जरूर शर्माते हैं।
बात चाहे मध्यप्रदेश की करें या देश की जहां भी भाजपा की सरकार रही है संघ ने उअपना एजेंडा मनवाने की ही कोशिश की, फिर चाहे इसमें सिद्घांतों की बलि ही क्यों न ले ली गई हो। इन दिनों संघ परिवार में बिलकुल ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। संघ के प्रमुख डॉ. मनमोहन राव भागवत अपने मिशन में जुटे हुए हैैं। तो उनके मातहत सुरेश सोनी, भैया जी जोशी, मदनदास देवी, राम माधव अपने-अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। यानी संघ में संगठन नहीं दिख रहा। इस बिखराव की चिंता में डूबे संघ परिवार ने पिछले दिनों इंदौर उज्जैन (मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी) को अपनी चिंतन बैठक के लिए चुना। बाबा महाकाल के दरबार में भस्म आरती के बहाने अपनों पर लगे बदनामी के दाग धोने की कोशिशें कीं।
चिंतन बैठक पूरी तरह चिंता बैठक बनी रही, भाजपा के आला नेताओं में से अधिकांश नदारद रहे। जो थे वे भी अनमने मन से बैठक में दिखे, कारण ये कि संघ में मोहन भागवत ने आते ही दिग्गजों को किनारे करने की मुहिम छेड़ी थी, जिसके चलते लालकृष्ण आडवाणी, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, सरीखे नेताओं के बीच नए नवेले और छोटे कद के कार्यकर्ता नितिन गडकरी को राष्टï्रीय अध्यक्ष जैसा बड़ा पद दिलवा दिया। यही नहीं इन तमाम बड़े नेताओं को नियंत्रित करने का काम अपने संगठन के सुरेश सोनी को सौंप दिया। सोनी ने दिल्ली में कम रूचि दिखाई और मध्यप्रदेश को टारगेट कर यही रम गए। भोपाल में प्रभात झा को अध्यक्ष बनवा कर भाजपा और संघ के बीच की दूरियां कम करने की जगह और बढ़ा दी।
यही कारण हैै कि गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरांचल में सबसे ज्यादा भाजपा की बदनामी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। यानी मिशन 2014 की दिशा में मोहन भागवत का अभियान दम तोड़ता दिख रहा है। भाजपा संघ में तालमेल नहीं है। पार्टी के नेता राष्टï्रीय अध्यक्ष व प्रदेश अध्यक्ष के पद पर संघ की ओर से थोपे गए निर्णय को हजम नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह है कि चिंतन बैठक में राष्टï्रीय मुद्दों पर काम चिंता जताई गई। अपने कुनबे की हालत पर ज्यादा दुख जताया गया। अन्ना हजारे के जन आंदोलन के आगे भी संघ बौना दिख रहा है, क्योंकि अभी तक चाहे जेपी आंदोलन हो या, राममंदिर का जन आंदोलन संघ के स्वयं सेवकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। भागवत के फार्मूले को संघ अपना नहीं पा रहा है। संगठन चाहे संघ का हो या भाजपा का बिखराव दोनों में तेजी से आ रहा है, मगर मजबूरी में एक दूसरे का साथ दे रहे हैं। यही वजह है कि भाजपा शासित राज्य गुजरात को छोड़कर कहीं भी अच्छी स्थिति में नहीं है। संध की इस बैठक में पूरे 5 दिन चिंतन-मनन हुआ, अगले लोकसभा चुनाव 2014 की भावी रणनीति के प्रस्ताव पर चर्चा हुई। मंदिर निर्माण में संघ की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। केन्द्र की यूपीए सरकार में भ्रष्टïाचार पर खुलकर चर्चा हुई, अन्ना हजारे के आंदोलन को समथर्थन देने पर भी बात चली, और अंत में आडवाणी के स्थान पर नरेन्द्र मोदी को पीएम प्रोजेक्ट करने पर मंथन हुआ।
पहले नितिन गडकरी को भाजपा का राष्टï्रीय अध्यक्ष बनवाकर और अब नरेन्द्र मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनवा कर मिशन भागवत पूरा हो जाएगा? या इस मिशन की सफलता के लिए जो छटपटाहट अभी हैै आगे भी ऐसी ही देखी जाएगी कह पाना मुश्किल है। फिलहाल चिंता बैठकों से संघ को बाहर निकलना जरूरी है, तब वह तय कर पाएगा कि इसे सत्ता की मलाई खाना है या देश की भलाई में जुटना है।
कभी संघ की मुख्यधारा में रह कर बड़े-बड़े फैसलों में अहम भूमिका निभाने वाले गोविन्दाचार्य कहते हैं कि देश में जन आंदोलनों के उभरते नये दौर में आरएसएस कहां है? रामदेव का सत्याग्रह हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की गई मुहिम, राजनीतिक या सामाजिक तौर पर आरएसएस की क्या भूमिका है? गोविन्दाचार्य की बातों में दम तो दिखता है।
देश में आज सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं, सांप्रदायिकता भी एक बड़ी समस्या के तौर पर परेशानी का सबब है। सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां भी देश के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे वक्त में संघ निश्चित रूप से अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रयासरत है। उज्जैन में संघ और उससे जुड़े संगठनों ने एक जगह आकर इस बारे में विचार विमर्श भी किया लेकिन क्या संघ की स्थिति ऐसी है कि वह इन चुनैतियों को अपने लिए अवसर में तब्दील कर पाएगा? संघ के लिए तो यह सिद्ध करना भी कठिन हो गया है कि वह समाज का संगठन है, न कि समाज में संगठन है।
सन् 1925 में शुरु हुआ संघ आज राष्ट्र-जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रभावी है। धर्म, अर्थ, राजनीति, कृषि, मजदूर आदि क्षेत्रों में संघ का व्यापक हस्तक्षेप जाहिर है। लेकिन यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या देश के सामने खड़ी चुनौतियों के लिए संघ की शक्ति निर्णायक है? अमरनाथ श्राईन बोर्ड मामले में आम जनता का आंदोलन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने संघ को सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्या कारण है कि पिछले कई वर्षों से अयोध्या-मंदिर जैसा आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। संघ उन कारणों की पड़ताल करना चाहता है कि उसके संगठन किसी भी मुद्दे पर जन-आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे। सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े संगठन विकसित करने के बावजूद ये संगठन आमजनता का संगठन क्यों नहीं बन पा रहे हैं। तमाम समविचारी संगठन जननेता क्यों नहीं पैदा कर पा रहे।
समविचारी संगठनों के आपसी हित न टकराएं यह भी जरूरी है। पिछले दिनों भारतीय किसान संघ और भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ और लघु उद्योग भारती तथा भाजपा सरकार से स्वदेशी जागरण मंच और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के हितों का टकराव बार-बार सामने आता रहा है। संघ के लिए उसके समविचारी संगठनों में चेहरा, चाल और चरित्र की चिंता भी स्वाभाविक है। संघ के वरिष्ठ अधिकारी और सरसंघचालक रहे बाला साहब देवरस कई बार अपने बौद्धिकों में यह बताते थे कि फिसलकर गिरने की संभावना कहीं भी हो सकती है, लेकिन बाथरूम में यह अधिक रहती है। राजनीति का क्षेत्र बाथरूम के समान ही फिसलनवाला हो गया है। वहां अधिक लोग फिसलकर गिरते हैं। इसलिए वहां कार्य करने वाले स्वयंसेवकों को स्वयं न फिसलने की अधिक दृढ़ता रखनी चाहिए। जहां सत्ता है, धन है, प्रभुता है वहां-वहां फिसलने की संभावना अधिक होती है। संघ को पता है कि समय के साथ फिसलन वाले क्षेत्र का लगातार विस्तार हो रहा है। सिर्फ भाजपा ही नहीं, कई और संगठनों में सत्ता, धन और प्रभुता बढ़ी है। इसलिए कार्यकर्ताओं में सावधानी पहले से ज्यादा जरूरी हो गई है। संघ और संघ से इतर संगठनों में स्वयंसेवक का स्वयंसेवकत्व स्थिर रखना भी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए जो तंत्र विकसित किया गया है उसके सतत अभ्यास के लिए संघ का जोर है। यह समन्वय बैठक इस अभ्यास प्रक्रिया को पुख्ता करता है।
यह आम धारणा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई संगठनों का पितृ या मातृ संगठन है। इन संगठनों के विस्तार के साथ-साथ इनके गुणात्मक विकास की जिम्मेदारी भी अंतत: आरएसएस की ही है। हितों के आपसी टकराव की स्थिति में संगठनों के साथ बीच-बचाव का काम भी संघ का ही है। संघ यह सब काम बखूबी करता भी रहा है। संघ लाखों स्वयंसेवकों, हजारों कार्यकर्ताओं, सैंकड़ों प्रचारकों और दर्जनों संगठनों के बीच व्यक्तित्व निर्माण से लेकर उनके बीच समन्वय का काम वर्षों से करता रहा है। उज्जैन में हुई पांच दिवसीय बैठक संघ की समन्वय बैठक अर्थात् समविचारी संगठनों की बैठक थी। यह संघ की प्रतिनिधि-सभा बैठक और कार्यकारी-मंडल बैठक से सर्वथा भिन्न थी। कयासबाज इस बैठक से कई कयास निकालेंगे। लेकिन संघ को निकट से जानने वाले जानते हैं कि संघ ऐसी बड़ी बैठकों में व्यक्ति के बारे में नहीं विषयों के बारे में चर्चा करता है। इतना तो पक्का है कि संघ ने इस समन्वय बैठक में न तो किसी पदाधिकारी के दायित्वों में किसी भी फेरबदल के बारे में चर्चा की होगी और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोई रणनीति बनाई होगी। इसीलिए मीडिया के कयासों पर संघ ने न तो कोई टिप्पणी की और न ही खबरों का खंडन किया।
इस समन्वय बैठक के औपचारिक समापन के बाद आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश जोशी और प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पत्रकारों से चर्चा में साफ-साफ कहा कि एक ही उद्देष्य से प्रेरित राष्ट्र एवं समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता 3-4 वर्षों के अंतराल से परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान और विचार-विमर्ष के उद्देष्य से एकत्रित होते हैं। उज्जैन में यह समन्वय बैठक वर्तमान सामाजिक परिस्थिति पर भी चिंतन हुआ है। संघ ने परंपरानुसार मुद्दों और संगठनात्मक विषयों पर चर्चा की। देश की राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर भ्रष्टाचार, कालाधन, सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक प्रमुख मुद्दों के रूप में चिन्हित हुआ। इन स्थितियों में संगठनों ने अपनी ताकत और व्यापकता के साथ अपनी कमियों के बारे में भी अन्त:निरीक्षण किया, यह आत्मनिरीक्षण अधिक महत्वपूर्ण है। अपनी कमियों और दोषों की पहचान एक कठिन काम है। निश्चित ही इस समन्वय बैठक में इस कठिन कार्य को भी अंजाम दिया गया होगा।
मुद्दा चाहे कोई भी हो, कालेधन की वापसी, भ्रष्टाचार की समाप्ति या सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा नियंत्रण अधिनियम का विरोध, सभी संगठन मिलकर चलें और समाज को साथ लेकर चलें यह आवष्यक है। मुद्दों पर चिंता सिर्फ संघ या समविचारी संगठन ही न करें, चिंता सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। आंदोलन और अभियान महज खानापुरी मात्र कार्यक्रम बनकर न रह जाये। संघ की मूल चिंता यही है कि आंदोलन चाहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का हो या भारतीय किसान संघ का या फिर विश्व हिन्दू परिषद् का उसे सिर्फ संगठन का नहीं समाज का आंदोलन बनना चाहिए। संगठन चाहे जितना बड़ा हो जाये अगर वह जनांदोलन खड़ा नहीं कर पाता तो उसका प्रभाव निर्णायक नहीं होगा।

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