सोमवार, 22 नवंबर 2010
इनका दर्द न जाने कोए...
आश्चर्य,रहस्य,उपहास और उपेक्षा को समेटे हुए मानव का तीसरा रुप यानी किन्नर आज अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत है। भारत में इनकी संख्या करीब आठ लाख मानी जाती है। जिंदगी और इसकी व्यवस्था की अलग सोच रखने वाली यह धारा भारतीय समाज में एक मजबूत सांस्कृतिक प्रवाह लिए हुए है। मानवीय मूल्यों के इस ऐतिहासिक धरोहर को आज भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं और इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है। लोगों को दुआएं देकर अपना पेट भरने वाले देश के लाखों किन्नरों के दुख-दर्द को बांटने की बात तो दूर इन्हें समझने तक की कोशिश नहीं करते हैं हम।
अपनी कमी को ही वरदान मान कर किन्नर समाज आज देश की मुख्यधारा से जुड़ गया है और संवैधानिक पदों पर आसिन है। किन्नरों की दुनिया से लोग आगे निकल रहे हैं और कुछ राज्यों में तो उन्होंने सक्रिय राजनीति में कामयाबी भी पाई है। शबनम मौसी मध्य प्रदेश में विधायक चुनी गईं थी। बावजुद इसके अब भी इस समाज को उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। हमारी खुशियों में अपनी अदाओं और दुआओं से अपना पेट भरने में जुटे किन्नरों से शायद ही कोई अपरिचित हों लेकिन इंसानों के इस वर्ग के दुख-दर्दों से बहुत कम लोग ही वाकिफ होंगे। इनसे हास-परिहास करने या शुभ घड़ी में इनकी दुआओं से बेहतरी की कामना करने वाला हमारा समाज बस इनके दुख-दर्द में शरीक होने को तैयार नहीं है। जाहिर है, इन्हें अपने गम अपनी ही जमात में बांटने होते हैं।
किन्नर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में एक कौतूहल का विषय हैं। इनके नाजो-नखरे देख अक्सर लोग हंस पडते हैं, तो कई बेचारे घबरा जाते हैं कि कहीं सरे बाजार ये उनकी मिट्टी पलीद ना कर दें। मगर किन्नर बनते कैसे हैं? इनका जन्म कैसे होता है? अगर आप इनकी जिदगी की असलियत जान ले तो शायद न किसी को हंसी आए और न ही उनसे घबराहट हो। यह अगर बुधवार के दिन किसी जातक (स्त्री-पुरुष, बच्चे) को आशीर्वाद दे दें तो उसकी किस्मत खुल जाती है। ज्योतिष के अनुसार संचित,प्रारब्ध और वर्तमान मनुष्य के जीवन का कालचक्र है। संचित कर्मों का नाश प्रायश्चित और औषधि आदि से होता है। आगामी कर्मों का निवारण तपस्या से होता है किन्तु प्रारब्ध कर्मों का फल वर्तमान में भोगने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है। इसी से प्रारब्ध के फल भोगने के लिए जीव को गर्भ में प्रवेश करना पडता है तथा कर्मों के अनुसार स्त्री-पुरुष या नपुंसक योनि में जन्म लेना पडता है।
प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ जातक तत्व के अनुसार किन्नरों के बारे में कहा गया है-
मन्दाच्छौ खेरन्ध्रे वा शुभ दृष्टिराहित्ये षण्ढ:।
षण्ठान्त्ये जलर्क्षे मन्दे शुभदृग्द्यीने षण्ढ:।।
चंद्राकौ वा मन्दज्ञौ वा भौमाकौ।
युग्मौजर्क्षगावन्योन्यंपश्चयत: षण्ढ:।।
ओजर्क्षांगे समर्क्षग भौमेक्षित षण्ढ:।
पुम्भागे सितन्द्वड्गानि षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ खेषण्ढ:।
अंशेकेतौमन्द ज्ञदृष्टे षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ शुभ दृग्धीनौ रंन्घ्रगो षण्ढ:।
चंद्रज्ञो युग्मौजर्क्षगौ भौमेक्षितौ षण्ढ:।।
अर्थात् पुरुष और स्त्री की संतानोत्पादन शक्ति के अभाव को नपुंसकता अथवा नामर्दी कहते हैं। चंद्रमा, मंगल, सूर्य और लग्न से गर्भाधान का विचार किया जाता है। वीर्य की अधिकता से पुरुष (पुत्र) होता है। रक्त की अधिकता से स्त्री (कन्या) होती है। शुक्र शोणित (रक्त और रज) का साम्य (बराबर) होने से नपुंसक का जन्म होता है।
ग्रहों की कुदृष्टि
1. शनि व शुक्र अष्टम या दशम भाव में शुभ दृष्टि से रहित हों तो किन्नर (नपुंसक) का जन्म होता है।
2. छठे, बारहवें भाव में जलराशिगत शनि को शुभ ग्रह न देखते हों तो हिजडा होता है।
3. चंद्रमा व सूर्य शनि, बुध मंगल कोई एक ग्रह युग्म विषम व सम राशि में बैठकर एक दूसरे को देखते हैं तो नपुंसक जन्म होता है।
4. विषम राशि के लग्न को समराशिगत मंगल देखता हो तो वह न पुरुष होता है और न ही कन्या का जन्म।
5. शुक्र, चंद्रमा व लग्न ये तीनों पुरुष राशि नवांश में हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
6. शनि व शुक्र दशम स्थान में होने पर किन्नर होता है।
7. शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में शनि होने पर नपुंसक जन्म लेता है।
8. कारकांश कुंडली में केतु पर शनि व बुध की दृष्टि होने पर किन्नर होता है।
9. शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो अथवा वे ग्रह अष्टम स्थान में हों तथा शुभ दृष्टि से रहित हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
कमजोर बुध होता बलवान
अगर कोई भी बालक, युवक, स्त्री-पुरुष की कुंडली में बुध ग्रह नीच हो और उसे बलवान करना हो तो बुधवार के दिन किन्नर से आशीर्वाद प्राप्त करने से लाभ मिलता है। बुध ग्रह कमजोर होने पर किन्नरों को हरे रंग की चूडियां व वस्त्र दान करने से भी लाभ होता है। कुछ ग्रंथों में ऐसा भी माना जाता है कि किन्नरों से बुधवार के दिन आशीर्वाद लेना जरूरी है। जिससे अनेक प्रकार के लाभ होते हैं।
तमिलनाडु में एक गांव है कूवगम जिसे किन्नरों का घर कहा जाता है। इसी कूवगम में महाभारत काल के योद्घा अरावान का मंदिर है। हिन्दू मान्यता के अनुसार पांडवों को युद्घ जीतने के लिए अरावान की बलि देनी पडी थी। अरावान ने आखिरी इच्छा जताई कि वो शादी करना चाहता है ताकि मृत्यु की अंतिम रात को वह पत्नी सुख का अनुभव कर सके। कथा के अनुसार अरावान की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने स्वयं स्त्री का रूप लिया और अगले दिन ही अरावान पति बन गए। इसी मान्यता के तहत कूवगम में हजारों किन्नर हर साल दुल्हन बनकर अपनी शादी रचाते हैं और इस शादी के लिए कूवगम के इस मंदिर के पास जमकर नाच गाना होता है जिसे देखने के लिए लोग जुटते हैं। फिर मंदिर के भीतर पूरी औपचारिकता के साथ अरावान के साथ किन्नरों की शादी होती है। शादी किन्नरों के लिए बड़ी चीज होती है इसलिए मंदिर से बाहर आकर अपनी इस दुल्हन की तस्वीर को वह कैमरों में भी कैद करवाते हैं। किन्नर सभी समाज को लोगों को आदर देते हैं। किसी के बच्चा हुआ या शादी-विवाह सभी को आशीर्वाद एवं बधाई देने जाते हैं। अनेक त्योहारों पर भी यह बाजार से चंदा एकत्रित करते हैं। देश के किसी न किसी कोने में हर साल इनका सम्मेलन होता है जो इनके लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है ।
अपनी अलग दुनिया में जीने को मजबूर ये लोग न तो हिंदू देवी-देवताओं को पूजते हैं और न ही अल्लाह की बंदगी करते हैं। इनकी आराध्य होती हैं - बुचरा माता, जिनका मंदिर गुजरात के महसाणो जिले में है। दिल्ली-अहमदाबाद रेल लाइन पर महसाणो जंक्शन से सड़क मार्ग द्वारा 40 किलोमीटर और अहमदाबाद से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मंदिर के दूर से चमकने वाले गुंबद मोह लेते हैं। एक प्रसिद्ध किंवदंती के मुताबिक बुचरा माता की तीन अन्य बहनें - नीलिका, मनसा और हंसा थीं। सबसे बड़ी बुचरा हिचड़ा बन गईं तो शेष बहनों को भी उन्होंने अपने जैसा ही बना दिया। इनकी संतानें नहीं थीं तो इन्होंने लड़कों को गोद ले लिया। लेकिन इसी बुचरा माता के मंदिर में आज निस्संतान दंपति संतान मांगने आते हैं। जिनकी मुराद पूरी हो जाती है वे मंदिर में मिट्टी का मुंड चढ़ाते हैं । मंदिर के परिसर ऐसे मुंडों से भरे पड़े हैं।
देश में किन्नरों के 450 से अधिक धाम हैं। जहां उनके गुरु बसते हैं। बुचरा और उनकी तीन बहनों के आधार पर ही किन्नरों की चार शाखाएं हैं। बुचरा की शाखा में पैदाइशी, नीलिका शाखा में जबरन बनाए तो मनसा शाखा में इच्छा से बने किन्नर होते हैं। चौथी और अंतिम शाखा हंसा में उन्हें जगह दी जाती है जो किसी शारीरिक खराबी के कारण किन्नर बनते हैं। एक अन्य विभाजन के तहत नीलिका शाखा के किन्नर गाने और ढफली बजाने का काम करते हैं तो मनसा शाखा का काम किन्नर बनाने वाले व्यक्ति के लिए सामान इक_ा करना है। जब बुचरा किसी को किन्नर बना रहे होते हैं तब हंसा के जिम्मे सफाई का काम आता है। साथ ही कब्र खोदने और उसमें शव डालने का काम भी सिर्फ हंसा शाखा के किन्नर ही करते हैं, हालांकि शवों पर पहली मिट्टी डालने का काम बुचरा शाखा के लोग करते हैं। किन्नर के मरने के बाद उसे खूब गालियां दी जाती हैं, कब्र पर थूका जाता है। पूरे देश में किन्नरों को सात घरों में बांटा गया है। हर घर का एक मुखिया होता है जिसे नायक कहते हैं। नायक के नीचे गुरु होते हैं फिर चेले। इनकी जमात में गुरु का दर्जा मां-बाप से कम नहीं होता। हर किन्नर को अपने गुरु को अपनी कमाई का एक हिस्सा देना होता है। उम्रदराज उस्ताद का काम हिसाब-किताब रखना होता है। इन्होंने अपने कामकाज के तौर-तरीके कुछ इतने दिलचस्प ढंग से बांट रखे हैं कि देखते ही बनता है। मसलन, खुशियां मनाते हुए नाचते-गाते समय किन्नर सिर्फ अपनी उंगलियों का प्रयोग करते हैं। अंगूठे का इस्तेमाल अंग-प्रदर्शन में होता है। इनमें एक समर्थ पुरुष को पति मानने का भी रिवाज है। इसे गिरिया कहते हैं। कई मामलों में रईस पुुरुषों को गिरिया के रूप में खरीदने का भी चलन मिलता है। किन्नर अपने को गिरिया का कोती कहते हैं। पुरुष वेशभूषा में रहने वाले किन्नर को कड़े ताल और स्त्री वेश के रहने वाले किन्नर को सात्रे कहा जाता है। कामुकता से कोई किन्नर को देखता है तो दूसरे किन्नर उस किन्नर को चामना कहकर सतर्क करते हैं। किसी को भगाना हो तो ये पतवाई दास बोलते हैं। किसी जजमान का अपमान करना हो तो वह एक-दूसरे को जजमान के खिलाफ उत्तेजित करने के लिए बीली कूट शब्द का इस्तेमाल करते हैं लेकिन अगर बात मोहब्बत से निपटानी हो तो ये आपस में चिस्सेरेवाल शब्द का प्रयोग करते हैं। अपने इलाके में गाकर कमाने वाले किन्नरों को पनके कहा जाता है लेकिन जो घुसपैठ करते हैं उन्हें खैर गल्ले कहते हैं। बड़े लड़कों को इनकी भाषा में टुलना और लड़कियों को टुलनी कहा जाता है। जबकि नवजात शिशुओं को टेपका और टेपकी बोलते हैं । सौ रुपए के नोट को बड़मा, पचास के नोट को आधा बड़मा, दस रुपए के नोट को एक पान की और बीस रुपए के नोट को दो पान की कहा जाता है।
प्रकृति के अन्याय से पीडि़त किन्नर आपस में भाई-बहन और दोस्ताना संबंध तो बना लेते हैं लेकिन पति-पत्नी के रूप में उनका रिश्ता नहीं बन सकता है इसलिए वे गुरु को ही अपना पति मानते हैं। भोपाल के मंगलवारा क्षेत्र की किन्नर नंदिनी तिवारी ने बताया कि लोग समझते हैं कि किन्नर भी समलैंगिकों की तरह जोड़े के रूप में आपसी संबंध बनाते हैं लेकिन हमारे बीच ऐसा कोई संबंध नहीं होता है। हालांकि, किन्नर समाज में भी पुरुष और स्त्री किन्नर का वर्गीकरण होता है। नंदिनी बताती है कि हम अपने गुरु को ही पति मानते हैं। कई किन्नर इसीलिए मांग में सिंदूर भी भरते हैं और माथे पर बिंदी लगाते हैं। सुहाग के प्रतीक के रूप में पैरों में बिछिया और पायल भी पहनी जाती हैं। यानी पूरा सुहागन वाला रूप धारण किया जाता है।
किन्नर नंदिनी कहती है कि जिस तरह गोपियां भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं उसी तरह किन्नर गुरु को यह दर्जा देते हैं। उत्सव विशेष पर पति गुरु की पूजा भी होती है और नाच-गाकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। इतना ही नहीं गुरु के निधन पर किन्नर किसी विधवा स्त्री की तरह कुछ दिन तक श्वेत साड़ी पहनकर शोक भी जताते हैं। नए गुरु की नियुक्ति पर उसे पति परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है।
मूल रूप से वाराणसी की रहने वाली किन्नर नंदिनी ने बताया कि होश संभालने के बाद जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि प्रकृति ने उसे क्या रूप दिया है तो वह बहुत दुखी हुई। जब सात-आठ साल की थी तब माता-पिता को मजबूर होकर उसे किन्नर समुदाय को सौंपना पड़ा। पिछले करीब तीन दशकों से वह भोपाल के किन्नर समुदाय की सदस्य है। बचपन की स्मृतियों में जाते हुए नंदिनी की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसका कहना है कि माता-पिता और भाई-बहनों की बहुत याद आती है। उनसे मिलने को मन व्याकुल रहता है लेकिन एक बार घर छूटा तो फिर छूट ही गया। दीपावली और होली जैसे त्यौहारों पर घर के सदस्यों से फोन पर जरूर बात हो जाती है।
सजल आंखों से नंदिनी कहती है कि कुछ महीने पहले पिता का निधन हो गया और यह खबर मिलने पर मन वहां जाने के लिए बहुत तड़पा लेकिन जाना संभव नहीं था। अगर वह जाती तो उसके परिवार का रिश्तेदारों के सामने मजाक बनता। लरजती आवाज में वह कहती है पिता अपने जीते जी साल में एक बार भोपाल आते थे और उसे साड़ी भेंट कर दुखी मन से वापस लौट जाते थे लेकिन अब यह सिलसिला भी खत्म हो गया।
उत्तर पदेश,बिहार और प.बंगाल में किन्नरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी और बेचारगी का दंश झेलते ये किन्नर, समाज में विभिन्न संगठनों द्वारा नाच गाने के प्रदर्शन के लिए संचालित होते हैं। पारंपरिक गीतों के साथ किसी भी खुशी के अवसर को अपने आशीर्वाद से ये पूर्ण करते हैं। बिहार के बक्सर में एक नाच पार्टी में नाचने वाली सुरैया किन्नर कहती है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में नाच का अच्छा खासा प्रचलन है और मैं छह महिने के अंदर इतना कमा लेती हूं कि उससे साल भर आराम से बैठकर खाया जा सकता है। वह बताती है कि नाच पोग्राम के दौरान कई बार ऐसी स्थिति भी बन जाती है की हमें बंदुक की गोलियों के बौछार के बीच नाचना पड़ता है। उतर प्रदेश के बलिया के किन्नर सलमा कहती है कि उनकी जिंदगी आज पूरी तरह से समाज और उनके गुरुजी को समर्पित है। जैसी आज्ञा होती है वे उसका तहे दिल से पालन करते हैं। अपने परिवार,माता-पिता,भाई-बहन किसी की उन्हें याद नहीं है। उनका कहना है कि जब वे काफी छोटे थे तभी उनको इस शारीरिक स्थिति की वजह से काफी तकलीफ उठानी पड़ती थी, अत: भगवान बुद्ध की तरह गृह त्याग दिया और गुरु जी की शरण में आ गए। वे अहसानमंद हैं अपने गुरु के जो स्वयं भी किन्नर ही होते हैं जिनके शरण में जा कर उन्हें समाज में जीने का एक रास्ता मिलता है। एक अन्य किन्नर माधुरी का दर्द भी अमूमन यही है। उन्हें भी अपने परिवार के बारे में चर्चा करना अच्छा नहीं लगता है। परिवार की याद तो उन्हें है लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को वे याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर डबडबायी आंखों और भर्राए गले से माधुरी किन्नर बताती हैं कि मेरे और भी भाई-बहन हैं जो सामान्य इंसानों की तरह हैं परन्तु मेरा उनसे मिलना-मिलाना नहीं होता। मैं भी उन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहती, मैं अपनी इसी दुनिया में मस्त हूं। जब ईश्वर ने ही हमारे साथ इंसाफ नहीं किया तो फिर दूसरों से कैसी शिकायत।
अपनी नाच-गानों की परिपाटी और अपने गुरु द्वारा दिए गए परिवार में ही वे मगन हैं। उन्होंने बताया कि महिलाओं के रिश्तों के प्रत्येक बंधन उनके परिवार की श्रृंखलाबद्ध शक्ति है। मसलन एक गुरु के सारे चेलों को प्रत्येक छह लोगो में विभाजित कर दिया जाता है जिसमें सभी जेठानी-देवरानी (गोतनी) के रिश्तों में बंधे होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है और पीढिय़ां बदलती जाती है, इनका पद उपर बढ़ता जाता है। बढ़ती उम्र के साथ ये गुरु के पद पर पहुंच जाएंगी तो इनके चेलों दर चेलों के साथ इनका रिश्ता सास-बहू का बन जाएगा। तीसरी पीढ़ी के संबंध स्थापित होते ही ये दादी भी बन जाएंगी। किन्नर होते हुए भी इनका रुप स्त्री का ही होता है। महिलाओं के लिबास,उनकी भाव-भंगिमा और नाज-नखरे इनका आभूषण होते हैं।
पूरे संगठन के प्यार व्यवहार तथा अपनापन को देखकर ऐसा लगा मानों इनसे संबंधित जितनी भी भ्रांतियां लोगो के मन में है उसका कोई औचित्य नहीं है। इनकी शारीरिक बनावट जैसी भी हो उनके सीने में धड़कने वाला दिल एक आम इंसान का ही है। हृदय को छू जाने वाली इनकी कहानी और किसी के दुख में इस्तेमाल किए जाने वाले इनके कोमल शब्द,खुशी (खासतौर से बेटे के जन्म पर) में बड़ी रकम के लिए इनकी नाराजगी तथा रुठने-मनाने का दौर फिर परिस्थितियों के अनुकूल इनका मान जाना एक अलग ही अनुभूति देता है।
इंदौर में रहने वाली चंचल मासूम आंखों में घुली उदासी के साथ जब पूछती है अगर साथ वाले बच्चों को ऐतराज न हो तो मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं। 17 साल की किन्नर चंचल का यह सवाल बिना जवाब के ही अधर में टंगा रहता है। वो मानती हैं कि उसकी ङ्क्षजदगी आधी अधूरी है लेकिन फिर भी इस ङ्क्षजदगी से कोई शिकायत नहीं है। चंचल का कहना है कि ऊपर वाले ने उसे जैसा बनाया उसे मंजूर है। लेकिन सखह साल के इस शरीर में छिपा किशोर मन कभी कभी स्कूल जाने के लिए मचल उठता है। पांचवी तक पढी चंचल और पढना चाहती है ् लेकिन उसे डर है कि कहीं स्कूल के दूसरे बच्चे उसके साथ पढने से इंकार न कर दें।फिर भी हौंसला थका नहीं है। कहती है अगर मौका हाथ लगा तो जरूर पढूंगी। चंचल ने कहा कि उसके पिता की मृत्यु करीब दो साल पहले हुई। पिता हभमाल थे। मां लोगों के घरों में बर्तन मांजती है।चंचल जब छोटी थी तब वह भी मां के साथ काम करने जाती थी। उसका एक बर्डा भाई और छोटी बहन है और दोनों सामान्य हैं। बेहद गरीबी के बीच किसी तरह ङ्क्षजदगीगाड़ी चल रही है। इंदौर की निवासी ज्योति किन्नर ने चंचल को अपना लिया है। चंचल ने भी ज्योति किन्नर को अपना गुरू बना लिया है। ज्योति ने उसे किन्नर ं के तौर तरीके मसलन ताली बजाना और नृत्य इत्यादि सिखाना शुरू कर दिया है। अब चंचल ताली बजा-बजाकर दुआएं देना ् लानत भेजना और नृत्य करना सीख चुकी है।
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