भारत के विकास की असली कहानी वहां से शुरू होती है, जब देश के राजनीतिक नेतृत्व में कांग्रेस का एकाधिकार ख़त्म होने लगा. इसके बाद ही सियासी गलियारों में पिछड़ी जातियों के लोगों की आवाज़ सुनी जाने लगी. समाज के मंडलीकरण को किसी सूरत में अच्छा नहीं माना जा सकता, लेकिन हिंदूवादी जाति व्यवस्था में कमज़ोर-पिछड़े वर्ग के लोगों को उनकी सही हैसियत दिलाने का यही एकमात्र तरीक़ा भी था, क्योंकि कांग्रेस ऐसा करने में नाकामयाब रही थी.
कांग्रेस के इतिहास का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि वह ग़रीबी के ख़िला़फ कोई कारगर क़दम नहीं उठा सकी. स्वतंत्रता के बाद के 63 सालों में से 50 साल तक वह सत्ता में रही है, लेकिन ग़रीबी के मोर्चे पर अपने ख़राब रिकॉर्ड को लेकर उसे कोई मलाल नहीं है. आज़ादी के बाद पहले 42 सालों में दो साल के जनता शासन को छोड़ दें तो देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कांग्रेस के हाथों में थी. फिर भी वह न तो आर्थिक विकास की गति को तेज कर पाई, न रोज़गार के अवसर पैदा करने में कामयाब हुई, न ही ग़रीबी को ख़त्म कर पाई, न भूमि सुधार के क्षेत्र में कुछ सार्थक पहल कर सकी, न ही आम लोगों में शिक्षा या स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करने की दिशा में कोई कारगर काम करने में सफल रही. इन असफलताओं को समाजवादी समाज की स्थापना का नाम दिया गया. इस बीच ताईवान और दक्षिण कोरिया तो क्या, मलेशिया और श्रीलंका जैसे भारत के पड़ोसी भी उससे आगे निकल गए. 1947 में भारत एशिया महाद्वीप का सबसे धनी और औद्योगीकृत राष्ट्र था (दूसरे विश्व युद्ध से पहले जापान काफी विकसित था, लेकिन युद्ध के बाद उसकी अर्थव्यवस्था कमज़ोर पड़ चुकी थी), लेकिन इसके बाद वह लगातार पिछड़ता चला गया. हमने सोवियत संघ को अपना आदर्श मान लिया और उसी की तर्ज पर बड़े-बड़े कारखाने बनाने लगे. विशालकाय मशीनों के निर्माण की बड़ी क़ीमत भारतीयों की कई पीढ़ियों को चुकानी पड़ी है.
आर्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ा बदलाव 1991 में आया, जब उदारीकरण की शुरुआत हुई. इसमें तीन बातें मददगार साबित हुईं. कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं था, प्रधानमंत्री नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ा नहीं था और वित्त मंत्री के पद पर ऐसा शख्स था, जो न तो पैदाइशी कांग्रेसी था और न ही राजनीतिज्ञ. इसका मतलब यह है कि मौजूदा दौर में भारत के लिए सबसे अच्छी संभावनाएं तब होंगी, जब कांग्रेस सत्ता में तो हो लेकिन उसके पास अपना बहुमत न हो और प्रधानमंत्री ऐसा हो, जो गांधी-नेहरू परिवार का न हो और जन्मजात कांग्रेसी भी न हो.
महात्मा गांधी को यह उम्मीद थी कि वह 125 सालों तक जिएंगे. काश कि ऐसा हो पाता. गांधी जी तो 1948 में ही काल कवलित हो गए, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसकी सेवा में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी तीस साल बिता दिए, आज अपनी उम्र के 125वें पड़ाव पर ज़रूर पहुंच चुकी है. भारत के साथ जो भी अच्छी या बुरी चीजें जुड़ी हैं, उनके लिए आज कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. विंस्टन चर्चिल ने एक बार घमंड में चूर होकर कहा था कि इतिहास उनके साथ अन्याय नहीं कर सकता, क्योंकि वह ख़ुद इतिहास लिखने की कूव्वत रखते हैं. आधुनिक भारत के इतिहास का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस के साथ जुड़ा है, लेकिन यह इतिहास इस तरीक़े से लिखा गया है कि देश की किसी भी छोटी-बड़ी उपलब्धि का सेहरा किसी दूसरे के सिर नहीं बंधता. इस इतिहास को पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे देश की स्वतंत्रता सिर्फ कांग्रेस पार्टी की ही देन है और इसमें किसी दूसरे समूह का कोई योगदान नहीं था. नया संविधान बनाकर देश को लोकतंत्र के रास्ते पर आगे ले जाने का काम भी इसी ने किया. इसके बाद इसने राष्ट्रीय राजनीति को एक धर्म निरपेक्ष स्वरूप दिया और अपने दुश्मनों के मुक़ाबले भारत को मज़बूती दी. बाद के वर्षों में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करके भारत को एक मजबूत आर्थिक ताक़त के रूप में खड़ा करना भी कांग्रेस की ही उपलब्धि है. लेकिन यह सत्य का विकृत स्वरूप है. कांग्रेस पार्टी ने निस्संदेह इस देश की बेहतरी के लिए कई काम किए हैं, लेकिन उसमें और लोगों का, समूहों का योगदान भी रहा है.
स्वतंत्रता से पहले कई ऐसे आदर्शवादी देशभक्त थे, जिन्होंने कांग्रेस की मध्यमार्गी अहिसंक रणनीति को स्वीकार नहीं किया और हथियार उठा लिए. वे अपने उद्देश्यों में भले नाकामयाब रहे हों, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके दुस्साहसी कारनामों का असर हुआ. संविधानवादियों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. आख़िरकार, देश के संविधान के अधिकांश हिस्से पर सबसे ज़्यादा प्रभाव गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 का ही है. इस क़ानून के निर्माण में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी, क्योंकि एक तो पार्टी पहले गोलमेज सम्मेलन में शामिल नहीं हुई थी और फिर जब यह क़ानून इंग्लैंड की संसद में पारित हुआ तो इसने उसे खारिज कर दिया था. हालांकि इसी क़ानून के अंतर्गत संविधान सभा के चुनाव हुए थे, जिसने कांग्रेस को यह मौक़ा दिया कि 1946 के बाद संविधान के बाकी हिस्सों के निर्माण में वह अपनी भूमिका निभा सके. भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप को निश्चित रूप से कांग्रेस की सबसे बड़े देनों में गिना जा सकता है. यदि जवाहर लाल नेहरू स्वाभाविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं होते तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में लोकतंत्र का वजूद क़ायम नहीं रह पाता. न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और न ही वामपंथियों ने इसके लिए कोई प्रयास किए थे, लेकिन नेहरू की मृत्यु और खास तौर पर 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद पार्टी ने लोकतांत्रिक परंपरा को तिलांजलि दे दी. इसकी देखादेखी दूसरी पार्टियों ने भी आंतरिक लोकतंत्र से ख़ुद को दूर कर लिया. आज की तारीख़ में किसी भी राजनीतिक दल का नेता चुना नहीं जाता, बल्कि उसका मनोनयन होता है. ऐसी राजनीतिक व्यवस्था, जिसमें नेता लोकतांत्रिक ढंग से चुने नहीं जाते, में लोकतंत्र भला ज़्यादा दिनों तक कैसे टिका रह सकता है.
... bahut sahee kahaa aapane antim panktiyon men ... desh ke vartmaan haalaat kuchh jyaadaa hi chintneey ho gaye hain ... chaaron taraf bhrashtaachaar kaa bol-baalaa ho gayaa hai jo behad dukhad va afsosjanak hai !!!
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