मंगलवार, 30 नवंबर 2010

भोपाल गैस त्रासदी न्याय व्यवस्था और राजनीति की त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी केवल गैस त्रासदी नहीं बल्कि यह न्याय, कानून, राजनीति और लूट-खसोट की मिली-जुली त्रासदी भी है जो इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक है जिसे कभी मिटाया न जा सकेगा। भोपाल के गैस राहत अस्पतालों में काम कर रहे चिकित्सकों की माने तो अब भोपाल में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का कोई प्रभाव बाकी नहीं है, लेकिन जब भी मुआवजे की बात उठती हैै तो अचानक मरीज भी पैदा हो जाते हैं। गैस त्रासदी का रौद्र रूप भले ही 2-3 दिसंबर 1984 की रात को सामने आया था लेकिन इसकी शुरूआत उसी समय हो गई जब नियमों को ताक पर रखकर धरमपुरी की जमीन पर यूनियन कार्बाइड को यहां स्थापित किया गया था। मंत्रियों और अधिकारियों ने जहां अपने सगे-संबंधियों को इस फैक्ट्री में लॉलीपॉप की तरह नौकरियां दिलवाईं, वहीं जहरीली गैस लीक होने की खबरे लगातार मिलते रहने के बाद भी सीबीआई अथवा स्थानीय सीआईडी द्वारा कभी इन तथ्यों की जांच नहीं कराई। जिसका परिणाम यह हुआ की दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना घटी जिसमें 27000 से अधिक लोग (सरकारी अधिकृत आंकड़ा 3000) मारे गये थे और करीब 6 लाख लोग प्रभावित हुए थे, यानी गैस पीडि़त विभिन्न स्तर की विकलांग जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो गए।
गैस त्रासदी ने जो जख्म दिए हैं उन्हें तो कभी भी नहीं भरा जा सकेगा, लेकिन जिस प्रकार राजनीतिक दलों, न्यायिक व्यवस्था की खामियों और भ्रष्ट अधिकारियों की लूट-खसोट और चंदाखोर स्वयंसेवी संगठनों ने गैस पीडि़तों के उन घावों को खरोंच-खरोंचकर अब नासूर बना दिया है जिनसे यह त्रासदी इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक बन गई है जिसे शायद ही कभी मिटाया जा सके।
गैस पीडि़तों की चिकित्सा, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं विधिक तथा प्रशासनिक समस्याओं के निराकरण के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने 29 अगस्त 1985 को पहले भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया और उसके बाद 17 अक्टूबर 1995 को भोपाल गैस राहत एवं पुनर्वास संचालनालय स्थापित किया। इन विभागों के माध्यम से राज्य सरकार ने 2009 तक गैस पीडि़तों पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार 538.17 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, लेकिन समस्याएं जस की तस है।
गैस पीडि़तों की तमाम समस्याओं की तहकीकात करने के लिए जब इस प्रतिनिधि ने राज्य सरकार द्वारा चिकित्सा पुनर्वास के तहत चलाए जा रहे अस्पतालों और डे-केयर यूनिटों की पड़ताल की और डॉक्टरों से विचार-विमर्श किया तो जानकारी में आया कि आज की स्थिति में इन अस्पतालों में एक सैकड़ा मरीज भी मौजूद नहीं है जो मिक गैस के दुष्प्रभाव से पीडि़त हो। गैस राहत अस्पताल के डॉक्टर ने तो यहां तक बताया कि अगर मुआवजे की लालच में चलने वाली कथित आंदोलन की कार्रवाई बंद हो जाए तो भोपाल में एक भी गैस पीडि़त सामने नहीं आएगा। उन्होंने बताया कि जिस तरह अन्य अस्पतालों और शहरों में मरीज इलाज के लिए आते हैं वैसी ही मौसमी बीमारियों से पीडि़त मरीज इन दिनों गैस राहत अस्पतालों में आ रहे हैं।
गैस पीडि़तों के लिए वर्षों से आंदोलनरत एक गैस पीडि़त संगठन के पूर्व पदाधिकारी ने बताया कि राजनीतिक दल वोट बैंक और स्वयंसेवी संगठन अपना हित साधने के लिए गैस त्रासदी का मुद्दा जिंदा रखना चाहते हैं। उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि एक बार दिल्ली से कुछ देशी और विदेशी प्रतिनिधि भोपाल गैस पीडि़त कालोनियों का दौरा करने आए थे तो यहां के स्वयंसेवी संगठन ने राजधानी और इसके आसपास के शहरों से विकलांग लोगों को लाकर बस्ती में हर दूसरे-तीसरे घर में बिठा दिया। जब विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने यह नजारा देखा तो वे भी दंग रह गए कि भोपाल में गैस पीडि़तों की स्थिति कितनी बदतर और दयनीय है। इस घटना के बाद उक्त प्रतिनिधियों ने उस गैस संगठन को इनके हित में काम करने के लिए करोड़ों रुपए की राशि चंदे अथवा अनुदान के रूप में दी। उन्होंने दावा किया कि गैस पीडि़तों के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन राज्य सरकार के लिए भी नाक के बाल बने हुए है। जब कभी गैस पीडि़त सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं सरकार केन्द्र से मिले अनुदान में से लाखों रुपए की सौगात उनको किसी भी नाम पर बांट देती है और उन संगठनों के कर्ताधर्ता अधिकारियों से रिश्वत का हिस्सा पाकर चुप हो जाते हैं।
जन-साधारण के साथ सरकारों के विश्वासघात के हजारों उदाहरण देश-दुनिया में देखने को मिलते रहते हैं परन्तु भोपाल गैस कांड को लेकर जिस तरह का विश्वासघात देश की पिछली तथा वर्तमान केन्द्र सरकारों और मध्यप्रदेश की कांग्रेसी अथवा भाजपा की राज्य सरकारों ने गैस पीडि़तों के साथ किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। भोपाल गैस त्रासदी तो फिर भी विश्व की अन्यतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में शामिल है, जिससे हुए शारीरिक आर्थिक नुकसान का दूर बैठकर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। अमरीका अथवा पश्चिम के किसी भी देश में किसी छोटी-मोटी औद्योगिक दुर्घटना तक में लापरवाही बरतने एवं श्रमिकों, जनसाधारण के हताहत होने पर सज़ा एवं मुआवज़े के जो कठोर प्रावधान हैं उनके आधार पर भोपाल गैस पीडि़तों के मामले में जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा के साथ-साथ कंपनी को जो आर्थिक मुआवजा भुगतना पड़ता उससे यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन को अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ सकता था। परन्तु गैस कांड के तुरंत बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने गैस पीडि़तों के हितों के नाम पर समस्त कानूनी कार्यवाही का अधिकार अपने हाथ में लेकर गैस पीडि़तों के हाथ तो काट ही दिए बल्कि गैस पीडि़तों की लड़ाई को इतने कमजोर तरीके से लड़ा कि ना इस नरंसहार के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की जिम्मेदारी तय हो पाई और ना ही पश्चिमी कानूनों मुताबिक भोपाल गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा ही मिल पाया। यूं कहे कि यदि अमरीकी मुआवजा कानून के तहत मुआवजा दिया जाता तो भोपाल के प्रत्येक गैस पीडि़त के हिस्से में लगभग ढाई-ढाई करोड़ रुपया मिलता। लेकिन अगर ऐसा होता तो राजनीतिक दलों के नेताओं को करोड़पति बनने का मौका कैसे मिलता?
एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी षडय़ंत्र के तहत भोपाल में मचाए गए मौत के इस तांडव के विरुद्ध सचेत राजनैतिक आन्दोलन के अभाव में गैस पीडि़तों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जाना तो आज छब्बीस साल बाद भी संभव नहीं है। लेकिन इन 26 वर्षों में इसे लेकर जो राजनीतिक व न्यायिक प्रक्रिया का रोचक और लोमहर्षक खेल खेला गया, वह और भी अधिक त्रासद और पीड़ादायक है।
दरअसल देखा जाए तो इस दुर्घटना के राजनैतिक सिग्नीफिकेन्स को दरकिनार रखकर गैस पीडि़तों की पूरी जद्दोजहद मुआवज़े के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही है जिसे लेकर केन्द्र एवं राज्य सरकार के अलावा गैस पीडि़त संगठनों की भूमिका भी बेहद निराशाजनक रही है। मुआवज़े के नाम पर जो भी रकम सरकार के खाते में आई है उसके सही खर्च और गैस पीडि़तों के हित में प्रबंधन करने की जगह उसे फुटकर रूप से गैस पीडि़तों में बांटकर अप्रत्यक्ष रूप से बाज़ार के मुनाफाखोर व्यापारियों की जेब में पहुंचा दिया गया है। गैस पीडि़तों ने अपनी शारीरिक हालत की गंभीरता के प्रति अन्जान रहकर मुआवज़े के रूप में मिले उस पैसे को अपने इलाज पर खर्च करने की जगह टी.वी. फ्रिज, मोटरसाइकिल और दीगर लक्जऱी आयटम्स की खरीदारी पर खर्च कर दिया। कुछ गैस पीडि़तों ने मुआवज़े की रकम से अपने झोपड़ों को पक्के मकानों में तब्दील कर दिया। मगर उनको पहुँचे गंभीर शारीरिक नुकसान के मद्देनजऱ उसका बेहतर से बेहतर इलाज कराया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए था और इसके लिए मुआवज़े की राशि को इस तरह न बाँटकर गैस पीडि़तों के लिए सर्व सुविधा युक्त आधुनिक अस्पतालों का जाल बिछाने के लिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए था ताकि उन्हें वैज्ञानिक पद्धति से उपयुक्त एवं सस्ता इलाज मुहैया हो पाता और वे डॉक्टरों की लूटमार से भी बच जाते। भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल अलबत्ता स्थापित किया गया मगर इसमें भी गैस पीडि़तों को इलाज मिलने के बजाय रईसजादों का ही इलाज होता है और गैस पीडि़त अपने हक से वंचित है। मगर अफसोस सरकारों ने इस दिशा में अभी तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया। उधर भोपाल गैस पीडि़तों की आवाज बुलंद करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को कटघरे में खड़ा करते हुए 62 वर्षीय आसमां बी कहती हैं कि गैस पीडि़तों को ठगने में किसी ने भी कोई कमी नहीं की है। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह पहले अब्दुल्ल जब्बार, आलोक प्रताप सिंह, बालकृष्ण नामदेव, सतीनाथ षडंगी, इरफान, रशीदा बी, हमीदा बी, चंपा देवी शुक्ला, साधना कार्णिक आदि की सम्पत्ति की भी जांच कराएं। क्योंकि त्रासदी से पहले इन सभी की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी। किसी के पास तो साइकल तक भी नहीं थी, लेकिन आज सभी के सभी लाखों रुपए की लग्जरी गाडिय़ों में घूम रहे हैं आखिर इनके पास इतनी रकम कहां से आई।
इसी बीच राज्य सरकार के गैस राहत मंत्री श्री बाबूलाल गौर ने कारखाने को जनता के लिए खोल देने की घोषणा करके ज़हरीले मलवे के मामले को साधारण बना दिया। गौर ने कहा कि जब लोग यहां आएंगे तो उनकी वह धारणा दूर हो जाएगी कि कारखाने में अभी भी खतरनाक रसायनों का असर मौजूद है। गौर ने एक प्रयोगशाला की जांच का हवाला देकर कहा कि कारखाने में खतरनाक ज़हरीले तत्व नहीं पाए गए। राज्य सरकार यहां पर एक स्मारक बनवाना चाहती है जिसकी अनुमानत लागत करीब 117 करोड़ बताई जा रही है। फिलहाल यह मामला टल गया है।
गैस पीडि़तों के इलाज के नाम पर बने भोपाल मेमोरियल हास्पिटल एवं रिसर्च सेंटर की गैस पीडि़त विरोधी कार्यप्रणाली पर कटाक्ष करते हुए गैस पीडि़तों के हकों की लड़ाई लडऩे वाले आल इंडिया मुस्लिम त्यौहार कमेटी के चेयरमेन डॉ. औसाफ शाहमीरी खुर्रम कहते हैं कि अस्पताल का प्रबंधन और संचालन जस्टिस अहमदी जैसे गैर गैस पीडि़तों के हाथों में होने की वजह से गैस पीडि़तों के दुख-दर्द का उन्हें कोई अहसास नहीं है।
भोपाल गैस कांड के बाद केंद्र सरकार की पहल पर यूनियन कार्बाइड से पीडि़तों को मुआवजा और राहत दिलाने के लिए 470 मिलियन डॉलर यानी लगभग 750 करोड़ रुपये की धनराशि का समझौता हुआ था. कंपनी ने यह राशि केंद्र सरकार को दे दी, लेकिन लगभग दो वर्षों तक मुआवजा वितरण प्रक्रिया तय न होने के कारण यह धन भारतीय रिजर्व बैंक में जमा रहा, जिस पर ब्याज मिलता रहा. 1989 में मुआवजा वितरण किस्तों में तय किया गया और एक बड़ी धनराशि बैंक में जमा रह जाने से सरकार को ब्याज की कमाई होती रही. 750 करोड़ रुपये की मूल राशि ब्याज मिलाकर 3000 करोड़ रुपये हो गई. सरकार ने लगभग 5.74 लाख लोगों को 1.549 करोड़ रुपये का नकद मुआवजा वितरण 15 वर्षों में किया। इसके अलावा लगभग 512 करोड़ रुपया पीडि़तों के इलाज पर खर्च होना बताया गया। आज भी लगभग 1000 करोड़ रुपया मुआवजा मद में बैंक में जमा है और उस पर लगातार ब्याज भी मिल रहा है। खैर, यह तो एक मुद्दा हुआ कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारी लोगों के बचाव में राजनीतिक नेताओं, सरकारों व अधिकारियों की किस तरह की भूमिका रही। बातें बहुत साफ हैं। सभी लोग खुले ढंग से अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं और राजनीति के वास्तविक चरित्र का अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु इस प्रकरण में इस देश के न्यायपालिका की भूमिका भी अत्यंत संदिग्ध रही है। इस देश के न्यायिक इतिहास में संभवत: ऐसा पहली बार हुआ जब किसी निर्णय पर केंद्रीय विधि मंत्री, कई न्यायविदों, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित पूरे देश के समाचारपत्रों ने अत्यंत तीखी टिप्पणी करते हुए इसे 'शर्मनाकÓ, 'दफन हुआ इंसाफÓ, 'न्याय नहीं सिर्फ फैसलाÓ जैसे विशेषणों के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। सामान्यतया निर्णय होने के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती क्योंकि न्यायालय की 'अवमानना कानून, 1971Ó में दी गई परिभाषा के अनुसार यदि कोई प्रकाशन इस तरह का हो जो किसी न्यायालय की या न्यायिक प्रशासन की छवि को धूमिल करने वाला हो, तो उसे न्यायालय की अवमानना माना जाता है। (निर्णीत मामले की सही आलोचना को छोड़कर) पर भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय एक अपवाद जैसा है जिसको लेकर न्यायालय, सरकार अभियोजन सभी को एक स्वर से इस बात के लिए दोषी ठहराया गया है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के लिए इन तीनों की मिली-भगत थी यह एक अभूतपूर्व एवं लोकतंत्र पर कलंक के स्वरूप की प्रतिक्रिया थी और आरोपों के दायरे से देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री अहमदी को भी बाहर नहीं रखा जा सकता।
मामले की वैधानिकता पर विचार करें तो कुछ और अत्यंत गंभीर तथा शर्मनाक पहलू सामने आते हैं। वास्तविक तथ्य इस प्रकार है कि प्रारंभ में सत्र न्यायालय में धारा 304 अर्थात् गैर इरादतन हत्या जिसमें आजीवन कारावास या दस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, इसका प्रकरण दर्ज हुआ था जिसके विरुद्ध प्रबंधन उच्च न्यायालय गया किंतु उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय की कार्यवाही की पुष्टि की किंतु जब प्रबंधन सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो वहां इस मामले को 'लापरवाही से हुई मौतÓ का दर्जा देकर धारा बदल दी गई। परिवर्तित धारा 304(ए) के अंतर्गत किए गए अपराध में मात्र दो वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड की सजा दी जा सकती है।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त आदेश पारित कर धारा को परिवर्तित किया था और सी.बी.आई. या मध्य प्रदेश सरकार इस आदेश से संतुष्ट नहीं थी तो उनके द्वारा इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन या वृहत्तर खडपीठ के समक्ष याचिका उसी समय प्रस्तुत क्यों नहीं की गई? दूसरी बात यह कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 पार्ट 2 को 304(ए) को परिवर्तित कर ही दिया था तब तत्काल उस आदेश को चुनौती न देकर आज केंद्र और म.प्र. सरकारों के द्वारा मंत्री समूह या विधि विशेषज्ञों की समिति बनाने और उनकी राय लेने का क्या अर्थ रह जाता है? इस तरह की कार्यवाहियां केवल राजनैतिक स्टंट ही लगती हैं और पुन: जनसाधारण के समक्ष एक दिखावा मात्र है। इस तरह के मामलो में अक्सर यही होता है कि सरकारें राजनैतिक वक्तव्य देकर अपने 'दागÓ धोने या छुपाने का प्रयत्न करती हैं और नेता, कुछ भी बेसिर पैर के वक्तव्य देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करता है।

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