गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

अजिता पर इतनी मेहरबानी क्यों...?

अफसर भ्रष्ट हैं तो क्यों बचा रही है शिवराज सरकार?
भोपाल। इनदिनों देश में मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए अभियान चल रहा है ताकि लोकायुक्त बड़े भ्रष्टाचारी अफसरों को सलाखों के पीछे पहुंचा सके। वहीं मध्य प्रदेश में पारदर्शिता का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लोकायुक्त को कई आईएएस अफसरों के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने की इजाजत नहीं दे रहे हैं। इससे करोड़ों रूपए घोटाले के दागी अधिकारी अपने रसूख के कारण जमकर मलाई खा रहे हैं और छोटी-छोटी गलतियां करने वाले अधिकारी-कर्मचारी व्यवस्था की शूली चढ़ रहे हैं। ऐसे रसूखदार अधिकारियों की तो लंबी सूची है,लेकिन इनदिनों चर्चा में हैं अजिता वाजपेयी पांडे। हालांकि केंद्र सरकार से अनुमति मिलने के बाद लोकायुक्त ने अजिता के खिलाफ 8 जनवरी को लोकायुक्त कोर्ट में पूरक चालान पेश कर दिया गया है। विशेष न्यायाधीश लोकायुक्त वीपी शुक्ल की अदालत ने सुनवाई आगे बढ़ा दी है। 18 साल बाद मामला फिर सुर्खियों में अजिता पांडे वाजपेयी को अपर मुख्य सचिव (तकनीकी शिक्षा एवं कौशल)विभाग से हटा कर उन्हें अब योजना आयोग का सदस्य बनाया गया है। लेकिन उनका रसूख हमेशा ही कायम रहा है। उनके रसूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन पर तथा पांच और अधिकारियों पर कांग्रेस के शासनकाल में 1998 और 2003 में बिजली के मीटर को ऊंची दर पर खरीदी कर विद्युत मंडल को लगभग साढ़े छह करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाने का आरोप था। अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने बिना निविदा के मीटर की खरीदी का प्रस्ताव तैयार किया, इससे मंडल को नुकसान हुआ। शिकायत लोकायुक्त के पास पहुंची। 2004 में प्रारंभिक जांच में लोकायुक्त ने अनियमितता पाई और प्रकरण दर्ज करने के बाद न्यायालय में चालान पेश किया। 16 जून, 2007 को इस मामले में एक और आरोप पत्र पूर्व राज्य बिजली बोर्ड के अध्यक्ष एसके दासगुप्ता, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अजिता वाजपेयी पांडे और चार अन्य लोगों के खिलाफ लोकायुक्त पुलिस द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उसके बाद दिसंबर 2011 में मामले की सुनवाई के बाद न्यायाधीश प्रद्युम्न सिंह ने फैसले में पांच पूर्व अधिकारियों को दोषी बताया गया है। फैसले में कहा गया कि मंडल के नियमानुसार एक करोड़ से ज्यादा की खरीदी निविदा से होनी चाहिए, इसके बाद अधिकारियों को खरीदी के विशेष अधिकार दिए गए थे, लेकिन अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। न्यायाधीश ने पूर्व अध्यक्ष दासगुप्ता और अन्य एनपी श्रीवास्तव, प्रकाशचंद्र मंडलोई, बसंत कुमार मेहता व मोहन चंद को तीन-तीन वर्ष की सजा सुनाई है। साथ ही पांचों पर एक लाख एक हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया। लेकिन केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ होने के कारण केंद्र सरकार से अनुमति नहीं मिलने के कारण अजिता वाजपेयी पांडे का कहीं नाम नहीं आया। अजिता वाजपेयी पांडे पर भ्रष्टाचार का आरोप भले की कांग्रेस सरकार में लगे लेकिन उन्हें बचाने के लिए भाजपा सरकार ने भी उनकी खुब मदद की है। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लेकिन विडंबना यह देखिए की केंद्र से मंजूरी मिलने के बावजूद राज्य सरकार ने निर्णय पर पुनर्विचार की मांग करने के लिए लिखा है। 6 करोड़ का चूना लगाया था विद्युत मंडल को आईएएस अफसर श्रीमती पांडे पर ऊर्जा विभाग में रहते हुए मीटर खरीदी घोटाले का आरोप लगा था। उस समय वे विभाग में बतौर सदस्य वित्त के रूप में कार्यरत थीं। मामला वर्ष 1998 और 2003 का है, इस दौरान 70 हजार मीटर बिना टेंडर किए खरीदे गए थे। उस दौरान एक मीटर की कीमत 714 रुपए बताई गई थी, जबकि मीटर की वास्तविक कीमत 302 रुपए थी। इस मामले की शिकायत 2003 में लोकायुक्त में की गई थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए तत्कालीन चेयरमैन एसके दास गुप्ता पर मामला दर्ज किया गया था, लेकिन केंद्र सरकार की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण मामला लंबित था। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लोकायुक्त पुलिस श्रीमती पांडे सहित छह लोगों पर प्रकरण दर्ज करेगी। चार आरोपियों को हो चुकी है सजा- मामला मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल में वित्त सदस्य रहने के दौरान बहुचर्चित इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले में गड़बड़ी के आरोप से संबंधित है। अभियोजन के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले के जरिए सरकार को लगभग 6 करोड़ रुपये का चूना लगाया गया था। इस मामले में 2011 में चार आरोपियों को लोकायुक्त कोर्ट से सजा हो चुकी है। आपत्ति के कारण नहीं लिया संज्ञान सीनियर आईएएस अजिता बाजपेयी पाण्डेय के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति देर से मिलने के कारण 8 जनवरी को पूरक चालान पेश किया गया। हालांकि कोर्ट ने आपत्ति के मद्देनजर पूरक चालान पर संज्ञान नहीं लिया था। आपत्ति में कहा गया था कि लोकायुक्त ने नोटिस दिए बगैर एकपक्षीय तरीके से कार्रवाई को अंजाम दिया है। विधिवत अभियोजन मंजूरी ली इधर दूसरी ओर लोकायुक्त का कहना है कि इस मामले में कार्मिक विभाग नई दिल्ली से विधिवत अभियोजन स्वीकृति हासिल करने के बाद ही पूरक चालान पेश करने की प्रक्रिया पूरी की गई है। आरोपी अजिता वाजपेयी पांडे इन दिनों अपर मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं। दागी-दागी भाई-भाई प्रशासन तंत्र में बैठे आला दागीअफसर कैसे एक-दूसरे को नवाजते हैं। इसका खुलासा राज्य विधानसभा में दी गई एक जानकारी से हुआ। कांग्रेस विधायक आरिफ अकील के लिखित प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि जांच एजेंसी ईओडब्ल्यु व लोकायुक्त ने जिन अफसरों के खिलाफ चालान की अनुमति मांगी थी उन्हें चालान पेश होने से पहले ही पदोन्नत कर दिया गया। इनमें अपर मुख्य सचिव अजीता वाजपेयी पांडे भी शामिल हैं। श्रीमती पांडे पर मप्र राज्य विद्युत मंडल पर पदस्थापना के दौरान इलेक्ट्रानिक मीटर खरीदी में गोलमाल किए जाने का आरोप है। श्रीमती पांडे को पिछले साल सरकार ने पदोन्नत कर अपर मुख्यसचिव बना दिया। मुख्यमंत्री ने बताया कि लोकायुक्त की ओर से चालान पेश करने संबंधी अनुमति मांगे जाने का प्रस्ताव 28 जुलाई 2011 को राज्य शासन को मिला था। इसे 15 दिसंबर 2011 को केंद्र सरकार को भेजा गया। राज्य सरकार अजिता वाजपेयी पांडे को बचाने के लिए किसी भी कसर नहीं छोड़ नहीं है। आम तौर पर, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जैसे ही लोकायुक्त उन के खिलाफ आरोपपत्र प्रस्तुत करता है उन्हें निलंबित कर दिया जाता है, लेकिन पांडे अपवाद बन कर सामने आई हैं। 56 के खिलाफ चल रही जांच लोकायुक्त दफ्तर से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश के 34 आईएएस, 15 आईएफएस और 6 आईपीएस अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में जांच चल रही है। यहीं नहीं भ्रष्टाचार में मामलों में घिरे करीब 35 अफसर अब तक सेवानिवृत्त हो चुके हैं जिनके खिलाफ प्रकरण दर्ज हुए थे । सरकार कह रही है कि अब इन अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। बताया जाता है कि आरोपों की जांच पड़ताल के बाद लोकायुक्त ने इनके खिलाफ कार्रवाई के लिए सरकार को पत्र भी लिखा है लेकिन कार्रवाई तो दूर राज्य सरकार इनके खिलाफ लिखे गए पत्रों को पढऩे का वक्त तक नहीं निकाल पाई है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार की चुप्पी देख विपक्ष ने उसकी नीयत पर सवाल उठाए हैं। 10 फीसदी में ही प्रकरण दर्ज हो पाते लोकायुक्त संगठन में पहुंचने वाली शिकायतों में से जांच के बाद 10 फीसदी मामलों में ही आपराधिक प्रकरण दर्ज हो पाते हैं। फिर यह मामला नौकरशाहों का हो तब तो प्रकरण दर्ज होना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। लोकायुक्त संगठन के शिकायतों में तीन तरह की कार्यवाही होती है। जांच के लिए प्रकरण दर्ज किए जाते हैं, शिकायत विशेष स्थापना पुलिस को प्राथमिक जांच के लिए सौंपी जाती है या छापा मारने के बाद एफआईआर दर्ज की जाती है। जांच प्रकरणों में से जिन मामलों को केस दर्ज करने योग्य समझते हैं,उनमें एफआईआर दर्ज की जाती है। आईएएस के सुरेश भी घेरे में भ्रष्टाचार के मामले में वर्ष 1982 बैच के आईएएस के सुरेश के खिलाफ भी केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय द्वारा सीबीआई को अभियोजन की अनुमतिदिए जाने के संकेत हैं। इससे सुरेश की मुश्किलें बढ गई हैं। मध्यप्रदेश कॉडर के अधिकारी श्री सुरेश वर्तमान में यहां सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव हैं। उन पर भ्रष्टाचार का मामला उनके चैन्नई पोर्ट टस्ट के अध्यक्ष व सेतु समुद्रम परियोजना का मुख्य कार्यपालन अधिकारी रहते हुए दर्ज किया गया था। मामला वर्ष 2004 से 2009 के बीच का है। उक्त परियोजना में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने सुरेश के आवास व कार्यालय में छापा डाला था। सीबीआई ने छापे के दौरान जो दस्तावेज बरामद किए उनमें बडे पैमाने पर आर्थिक गड़बड़ी सामने आई थी। इस पर सुरेश को प्रथम दृष्टया दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण क्रमांक 18 ए /2011 दर्ज किया गया था। जांच के बाद सीबीआई ने केंद्र सरकार से इस मामले में करीब छह माह पूर्व अभियोजन की अनुमति चाही थी। बताया जाता है,कि हाल ही में केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने सीबीआई को अभियोजन की स्वीकृति दे दी है। इस मामले में राज्य शासन पहले ही अपनी ओर से अनुमति दे चुकी है। उनके खिलाफ चालान पेश होने पर उनका निलंबन तय माना जा रहा है। सुरेश को छग सरकार ने भी बचाया उक्त मामला उजागर होने के बाद मध्यप्रदेश वापस लौटे सुरेश को मप्र सरकार ने ही नहीं नवाजा बल्कि छत्तीसगढ सरकार भी उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में अभयदान दे चुकी है। यह मामला वर्ष 1997 का है तब सुरेश अविभाजित मप्र के बिलासपुर जिले में पदस्थ थे और अपनी पदस्थापना के दौरान उन पर साक्षरता अभियान की पुस्तकें छपवाने में गोयनका प्रिंटर्स इंदौर को नियमों के विरुद्ध करीब ढाई लाख रुपए का भुगतान कर उपकृत किए जाने का आरोप लगा था। यह मामला आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो में दर्ज किया गया। ब्यूरो ने वर्ष 2010 में इस प्रकरण में खात्मा लगा दिया। बाद में राज्य सरकार ने साक्ष्य नहीं मिलने का तर्क देकर सुरेश के साथ ही आईएएस अधिकारी आईएन एस दाणी, एमके राउत समेत चार अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण वापस ले लिया था। इस पर वहां विपक्ष के नेता रवीन्द्र चौबे ने सवाल उठाया था,कि जब आरोपी अधिकारी ही अपने मामलों की जांच करेंगे तो साक्ष्य कैसे मिलेंगे। ब्यूरोक्रेट की करतूतें परेशानी का सबब प्रदेश में ब्यूरोक्रेट की करतूतें न सिर्फ सरकार के लिए परेशानी का सबब बनीं, बल्कि इस सर्वोच्च सेवा की मान-सम्मान मर्यादा और गौरव की धज्जियां भी उड़ा दीं। यहां तक कि मप्र कैडर के कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की पूरे देश में हो थू-थू को देखते हुए पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने तीन मार्च 2010 को प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव अवनि वैश्य को पत्र लिखकर मप्र कैडर की करतूतों पर दु:ख जताया। वे इतने आहत थे कि उन्होंने प्रदेश के नौकरशाहों को फिर से न सिर्फ उनकी ड्यूटी याद दिलाई, बल्कि सेवा में आने के समय ली जाने वाली कसमें-वादे भी याद दिलाए।

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