शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

शिव राज के आठ मंत्रियों की साख गिरी

भोपाल। चुनाव जीतना है तो जनता का दिल पहले जीतना होगा, यह बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बखूबी जानते हैं। यही वजह है कि उन्होंने हर वर्ग को लुभाने के लिए सौगातों की झड़ी लगा दी है और उनसे निरंतर सीधे संवाद कर रहे हैं लेकिन उनके 8 मंत्री ऐसे हैं जो क्षेत्रीय जनता से जुड़ाव रखने में असफल रहे हैं इससे उनके विधानसभा क्षेत्र में उनकी साख गिरी है। इसका खुलासा भाजपा द्वारा हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण में हुआ। इनकी गिरी साख सर्वेक्षण के अनुसार, जिन मंत्रियों की साख उनके संसदीय क्षेत्र में गिरी है, उनमें नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर, चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा, वित्तमंत्री राघवजी भाई, लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह, आवास एवं पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया, कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया, वन मंत्री सरताज सिंह और खेल एवं युवक कल्याण मंत्री तुकोजीराव पवार शामिल हैं। सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि यदि उन्हें पार्टी टिकट देती है तो आगामी विधानसभा चुनाव में वे चुनाव हार सकते हैं। उनके चुनाव जीतने की उम्मीद कम ही है। जानकारों का कहना है कि भाजपा बाबूलाल गौर को इस बार चुनाव में उतारना नहीं चाहती। वहीं तुकोजीराव पवार को भी आगामी चुनाव लड़ाने पर पसोपेश में है, क्योंकि वे गंभीर रूप से बीमार हैं। उनका लिवर ट्रांसप्लांट सिंगापुर में होना है। राघवजी एवं अनूप मिश्रा सारी स्थितियों को भापते हुए पहले ही कह चुके हैं कि वे आगामी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। उधर, जयंत मलैया स्वयं चुनाव लडऩे के मूड में नहीं हैं और पार्टी में भी अपनी अनिच्छा प्रकट कर चुके हैं, क्योंकि वे पुत्र सिद्धार्थ को चुनाव लड़वाना चाहते हैं। नागेंद्र सिंह एवं कुसमरिया को अपने-अपने क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर का सामना अभी से करना पड़ रहा है। सरताज सिंह अपनी वृद्धावस्था के चलते अपने चुनाव क्षेत्र में ज्यादा सक्रिय न होने के कारण वहां की जनता से जीवंत संपर्क में नहीं हैं। भाजपा के साथ ही सरकार ने भी पूरे प्रदेश में सर्वेक्षण के माध्यम से अपने मंत्रियों और विधायकों की उनके चुनाव क्षेत्र में पकड़ पता लगाई थी। हालांकि अभी तो मंत्रियों के बारे में खुलासा किया गया है, विधायकों के बारे में बाद में होगा। एक वरिष्ठ मंत्री ने कहा कि पार्टी को भावनात्मक या दिल के बजाय दिमाग से काम लेते हुए सिर्फ जिताऊ उम्मीदवारों को ही टिकट देना चाहिए। भाजपा का आदिवासी क्षेत्रों में धीरे-धीरे खिसक रहा जनाधार 20 फीसदी वोट के लिए नीति है नेतृत्व नहीं प्रदेश में सरकार बनाने में आदिवासी वोट का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रदेश में कुल मतों का 5वां हिस्सा यानी 20 प्रतिशत से अधिक आदिवासी वोट बैंक है। प्रदेश में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने की तैयारी कर रही भाजपा ने इसके लिए नीति तो बना ली है,लेकिन नेतृत्व के अभाव में एक बड़ा वोट बैंक उसके हाथ से छिटकता नजर आ रहा है। भूरिया के मुकाबले आदिवासी मुखौटा नहीं पिछले दो विधानसभा चुनावों में आदिवासी वोट बैंक की उपयोगिता को समझते हुए कांग्रेस ने इस बार पार्टी की कमान आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को सौंपी है। हालांकि अभी तक आदिवासियों के बीच भूरिया अपनी पैठ नहीं जमा पाए हैं। फिर भी आदिवासियों का मूड भाजपा के तरफ ही रखने के लिए पार्टी के पास भूरिया के मुकाबले के लिए कोई आदिवासी चेहरा नहीं है। मंत्री क्षेत्र तक सिमटे प्रदेश की भाजपा सरकार में विजय शाह, रंजना बघेल, जगन्नाथ सिंह, जय सिंह मरावी, देवी सिंह सैयाम जैसे नेताओं को मंत्री बनने का मौका मिला, लेकिन अपने क्षेत्र तक सिमटे नजर आए। वहीं भाजपा के टिकट पर सांसद बने ज्योति ध्रुवे और माखन सिंह सोलंकी भी आदिवासियों का मुखौटा नहीं बन सके। यही नहीं, अपने ही आदिवासी वर्ग में अलग-थलग पड़े नजर आए। मुख्यमंत्री के करिश्माई व्यक्तित्व और संगठन की क्षेत्र में पकड़ के चलते ही आदिवासी नेताओं को मंत्री और सांसद बनने का अवसर मिला। साय के बाद कोई बड़ा नेता नहीं अविभाजित मप्र में भाजपा नंदकुमार साय जैसे आदिवासी नेतृत्व को सामने लाई, लेकिन विभाजित मप्र के अस्तित्व में आने के बाद भाजपा सरकार में आई तो प्रदेश में कोई बड़ा आदिवासी नेता सामने न ला पाई। हालांकि पार्टी ने आदिवासी नेताओं को सत्ता और संगठन में बराबर महत्व दिया है, लेकिन साय के बाद प्रदेश का अध्यक्ष बनने का मौका किसी आदिवासी को नहीं मिला। पूर्व केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने पिछले दो चुनाव में अध्यक्ष के लिए अपनी दावेदारी पेश की, लेकिन सहमति नहीं बन सकी। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए प्रेमनारायण ठाकुर का उपयोग पार्टी ने कमलनाथ के क्षेत्र में किया, लेकिन उन्हें मंत्री बनाने का दांव नहीं खेला। दिलीप सिंह भूरिया और उनकी पुत्री निर्मला भूरिया हार के बाद अलग-थलग पड़े हैं। खास बात आदिवासियों बहुल 47 विधानसभा क्षेत्रों में से 30 पर आदिवासियों का वोट प्रतिशत करीब 50 से 90 है तो अन्य 17 सीटों पर 31 से 45 प्रतिशत आदिवासी हैं। 2008 विधानसभा चुनाव में 2003 की तुलना में सीटें और मत कम हुए, जिसमें आदिवासियों के भाजपा से छिटकने ने अहम भूमिका निभाई। 2009 लोकसभा चुनाव में भी आदिवासियों ने भाजपा से काफी हद तक दूरी बनाई, जिसके चलते कांग्रेस की सीटों में इजाफा हुआ।

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