गुरुवार, 14 मार्च 2013

विंध्य की उपेक्षा भारी न पड़ जाए भाजपा को

भोपाल। प्रदेश में भाजपा की सरकार बनवाने में विंध्य क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन इस क्षेत्र के नेताओं को जितना तव्वजों कांग्रेस ने दिया है उतना भाजपा ने नहीं। यही कारण है कि विंध्य में भाजपा के पास ऐसा कोई बड़ा नाम नहीं है जिसको आगे करके पार्टी कांग्रेस के कदावर नेताओं की घेराबंदी कर सके। बावजुद इसके इस क्षेत्र की 30 विधानसभा सीटों में से 25 पर भाजपा का कब्जा है। चेहरा बदला है, समीकरण नहीं प्रदेश में भाजपा लगातार तीसरी बार सरकार बनाने की ओर अग्रसर है, लेकिन विधानसभा चुनाव को लेकर चुनावी रणनीति में एक बार फिर क्षेत्रीय राजनीति में भेदभाव का शिकार हो गई है। प्रदेश अध्यक्ष को लेकर भाजपा क्षेत्रीय संतुलन नहीं बना पाई और फिर उसने पुरानी रणनीति के तहत ही कदम बढ़ाते हुए चेहरा बदला है, समीकरण नहीं। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के बहाने सूबे में क्षेत्रीय संतुलन बना सकती थी, लेकिन वह इसे दरकिनार कर गई। दूसरी रूप में कहा जाए तो भाजपा में हमेशा ही की तरह मालवा और ग्वालियर क्षेत्र से बाहर अपने दायरे को बढ़ा नहीं सकी और विंध्य में अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए कोई करिश्मा नहीं कर सकी, जबकि पार्टी की विंध्य में तो स्थिति ठीक है। यही नहीं प्रदेश संगठन की कमान नहीं मिलने के कारण विंध्य के लोगों को संगठन के अन्य पदों में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। हालांकि, यह बात अलग है कि भाजपा की वर्तमान में विंध्य में 30 में से 25 सीटों पर कब्जा है, बावजूद इसके भाजपा ने विंध्य की उपेक्षा बरकरार रखी है। हालांकि, इसके पहले के चुनाव में जरूर यहां भाजपा की स्थिति पतली थी। विंध्य में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए संगठन स्तर पर भाजपा की कोई रणनीति भी नहीं दिख रही है, ऐसे में फिर उम्मीद है कि आगामी विधानसभा चुनाव में विंध्य में भाजपा को तगड़ा झटका लगे। आंकड़ों पर गौर करें तो भाजपा में अब तक मालवा और ग्वालियर संभाग का ही दबदबा रहा है। जो अनवरत जारी है। भाजपा में अभी तक सबसे ज्यादा प्रदेश अध्यक्ष की कमान 14 प्रदेश अध्यक्षों में से 8 बार मालवा को कमान मिली है, जबकि तीन बार ग्वालियर को मौका मिला है। जनसंघ के समय था विंध्य का प्रभाव प्रदेश में भाजपा से पहले जनसंघ के समय विंध्य का काफी प्रभाव था। भाजपा के आने के बाद जहां विंध्य क्षेत्र की उपेक्षा बढ़ती गई, वहीं जनसंघ के समय विंध्य के साथ ही सभी क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व का अवसर मिला था। जनसंघ के दौरान मप्र में करीब 10 प्रदेश अध्यक्ष बने, जिसमें से दो बार विंध्य को मौका मिला था, जबकि इसमें से एक बार महाकौशल, एक बार भोपाल, तीन बार मालवा, एक बार ग्वालियर और दो बार छग को मौका मिला था, लेकिन जनसंघ के विघटन और भाजपा के अस्तित्व में आते ही सबकुछ उल्टा हो गया।

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