रविवार, 7 फ़रवरी 2016

योग की आड़ में करोड़ों के वारे-न्यारे

एनजीओ का मायाजाल
केन्द्र सरकार के महत्वकांक्षी योगा प्रोजेक्ट में एनजीओ को बांटी रेवडिय़ां
भोपाल। देश में कई जनोपयोगी योजनाएं एनजीओ के मायाजाल में फंस कर दम तोड़ रही हैं। एनजीओ के मकडज़ाल को तोडऩे के लिए कई प्रयास हुए लेकिन वह सफल नहीं हो सके। दरअसल, एनजीओ क्षेत्र में इन दिनों रसूखदारों का बोलबाला है। राजनेताओं से लेकर अफसरशाह और उनके करीबी एनजीओ चला रहे हैं। इसमें मंत्री-अफसरों के परिवार से लेकर पूर्व मुख्य सचिव व पूर्व आईएएस अफसर तक शामिल हैं। ऐसे में नेता-अफसर के प्रभाव का इस्तेमाल तो खूब होता है, लेकिन कागजों पर उनका नाम आने से बच जाता है। यही कारण है कि इन रसूखदारों के एनजीओ को लाखों-करोड़ों रूपए का अनुदान मिलता है। इसी कड़ी में एनजीओं की आड़ में केंद्र्र सरकार के महत्वाकांक्षी योगा प्रोजेक्ट में करोड़ों रूपए के भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है। प्रारंभिक जांच में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट योगा में अधिकारियों ने एनजीओ के साथ मिलकर करोड़ो का Þभ्रष्ट आसनÞ लगाया है। ये आसन लगाते हुए पकड़े न जाए इसलिए मानीटरिंग कमेटी को मानीटरिंग करने से साफ इंकार कर दिया। यही नहीं जिस एनजीओ में अधिकारी सलाहकार थे उन्हें नियमों का पालन न करते हुए मोटी रकम आबंटित कर दी। निरीक्षण के नाम पर भी पैसे की बंदरबाट हुई। मामला मानव संसाधन विकास मंत्रालय और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के अधीन पंडित सुंदरलाल शर्मा केन्द्रीय व्यवसायिक शिक्षा संस्थान का है। इस प्रोजेक्ट के लिए संस्थान को प्रति वित्तीय वर्ष 60 लाख रूपए दिए गए। दरअसल, स्कूलों में योगा को स्थायी तौर पर लागू करने के लिए स्कीम ऑन क्वालिटी इन्प्रुवमेंट इन स्कूल राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने 12 मई 2010 में निर्धारित गाइडलाइन सहित शुरू किया था। स्कीम के अंतर्गत सभी सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को योगा का प्रशिक्षण देना था, यह प्रशिक्षण एनजीओ के माध्यम से दिया जाना निर्धारित किया गया इसके लिए एक वित्तीय वर्ष में 60 लाख रूपए स्वीकृत किए गए। इस स्कीम को जुलाई 2012 में पंडित सुंदरलाल शर्मा केन्द्रीय शिक्षा संस्थान भोपाल से नई दिल्ली स्थानांतरित किया गया था। यहां यह योगा प्रोजेक्ट अक्टूबर 2012 में प्रक्रिया में आया चूंकि वित्तीय वर्ष में यह प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए समय की कमी थी। इसलिए नए प्रस्तावों को आमंत्रित करना और अनुदान देने की प्रक्रिया को पूरा करना संभव नहीं था। इसलिए योगा प्रोजेक्ट के लिए नियुक्त किये गये कंसलटेंट द्वारा उन सभी पूर्व प्रस्तावों को फारवर्ड कर दिया गया जो पूर्व में ही एनसीईआरटी दिल्ली द्वारा दिये गये विज्ञापन के बाद आये थे और जिन्हें क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान द्वारा विधिवत परीक्षण किया गया था लेकिन केन्द्रीय व्यवसायिक शिक्षा संस्थान में पूर्व के परीक्षण किये गये प्रस्तावों को स्वीकार करने से इंकार करते हुये संस्थान की वेबसाइट पर नजर न आने वाला विज्ञापन अपलोड किया और प्रस्ताव आने पर एनजीओ के निरीक्षण और परीक्षण के लिए निजी लोगों को नियुक्त किया इस प्रक्रिया में न केवल समय की बरबादी हुई बल्कि सरकारी पैसे का दुुरूपयोग भी हुआ। चूंकि निजी लोगों को मनमाना पैसा दिया गया साथ ही इस दौरान सरकारी लोगों को भी पुन: टीए-डीए दिया गया। इस लेट-लतीफी के कारण मार्च 2012 में तीसरे सप्ताह तक सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को एनजीओ के माध्यम से प्रशिक्षण देने का कार्य पूरा हो सका। यही वजह है कि इस प्रोजेक्ट के तहत अनुदान की दूसरी किश्त जारी नहीं हो सकी। 2012-13, 2014-15 के प्रोजेक्ट में आर्थिक अनियमितता को लेकर लेखा परीक्षा की रिपोर्ट में भी गहरी आपत्ति दर्ज कर कार्यवाही की बात कही गई लेकिन संस्थान के संयुक्त निदेशक ने मामलें को रफा-दफा कर दिया। जिन्हें किया रिजेक्ट, उन्हें दे दिया अनुदान योगा प्रोजेक्ट के क्रियानवयन के लिए आवेदन करने वाले एनजीओं के निरीक्षण के दौरान निरीक्षण समिति ने जिन एनजीओं को रिजेक्ट किया उन्हें ही संस्थान के संयुक्त निदेशक आर बी शिवगुंडे ने लाखों रूपये अनुदान दे दिया। यह एनजीओं उत्तरप्रदेश, सुल्तानपुर, सउना का श्री वासुदेवानंद लोक कल्याण समिति, एजुकेशन एण्ड ट्रेनिंग शामिल है। निजी व्यक्तियों द्वार एनजीओ के निरीक्षण किये जा रहे थे। उस समय एक एनजीओ ने निरीक्षणकर्ता को 80 हजार का चेक दिया। चेक नंबर 861096 है। यह चेक 26 फरवरी 2013 की तारीख में दिया गया। यह चेक निरीक्षणकर्ता को एनजीओ प्रतिनिधि ने किस एवज में दिया। भोपाल के एनजीओ को 2012-13 और 13-14 में योगा प्रोजेक्ट के तहत अनुदान दिया गया। इस एनजीओ में संस्थान के संयुक्त निदेशक आर बी शिवगुंडे सलाहकार समिति सदस्य हैं। जो कि केन्द्रीय कर्मचारी सर्विस नियमों के विपरीत है। प्रोजेक्ट के तहत बैग खरीदी, वर्किंग लंच जैसा व्यय जो सीआईएसी मिटिंग में संयुक्त निदेशक ने किया व एनसीईआरटी नियमानुसार नहीं था। योगा विभाग द्वारा संस्थान को पत्र लिखकर यह सुझाव दिया गया की एनजीओस को अनुदान की प्रथम किश्त के बाद संस्थान के स्टॉफ द्वारा ही इसकी जाँच कि जाये उनके द्वारा वास्तव में सरकारी शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है या नहीं लेकिन योगा विभाग के इस सुझाव को संयुक्त निदेशक आर बी शिवगुंडे ने रिजेक्ट कर दिया। योजना के अंतर्गत एनजीओस को सरकारी स्कूल के शिक्षकों को प्रशिक्षण देना था लेकिन केन्द्रीय व्यवसायिक संस्थान ने नियमों का उल्लंघन करते हुये निजी स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की अनुमति एनजीओस को दी। यह अनुमति संयुक्त निदेशक के निर्देश पर प्रोजेक्ट संयोजक प्रो. प्रकाश राव ने दी थी जिस पर लेखा परीक्षा ने आपत्ति ली है। योगा विभाग की आपत्ति के बावजूद संयुक्त निदेशक ने सभी अनुदान प्राप्त एनजीओ को 2012-13 में संस्थान बुलवाया और अनुदान की दूसरी किश्त का डीडी स्वयं अपने हाथों से एनजीओस के प्रतिनिधियों को दिये। सबसे गंभीर अनियमितता यह है कि एनजीओ के निरीक्षण दस्तावेज जाँच सहित अन्य प्रक्रिया के लिए संयुक्त निदेशक ने नियमों को उल्लंघन करते हुये प्राइवेट लोगों को हायर किया जिससे पूरी प्रक्रिया ही संदिग्ध हो गई। एनजीओ को शुरूआती दौर में ईमेल के माध्यम से वित्तीय अनुदान स्वीकृति का पत्र भेजा गया जो कि अधिकारी पत्र न होकर इस बात की पुष्टि थी कि आपका काम हो गया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा योगा प्रोजेक्ट के लिए बनाई गयी गाइडलाइन के अनुसार एनजीओ के प्रस्ताव राज्य सरकार के शिक्षा विभाग सहित संबंधित विभागों, क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान से अग्रेषित होकर आना चाहिये था साथ ही एनसीईआरटी मुख्यालय भी भेजा जाना चाहिये। लेकिन सभी एनजीओ को केन्द्रीय व्यवसायिक शिक्षा संस्थान ने 2012-13, 13-14 में अनुदान दिया इनके प्रस्ताव किसी भी विभाग क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान से अग्रेषित नहीं किये गये जिससे प्रोजेक्ट में मनमानी उजागर होती है। वित्तीय वर्ष के समाप्ति पर 2013 में प्रोजेक्ट के संयोजक प्रकाश राव ने मानीटरिंग प्रक्रिया के लिए संयुक्त निदेशक को फाइल भेजी इस फाइल पर संस्थान के संयुक्त निदेशक शिवगुंडे ने लिखा की मानीटरिंग की कोई इस वित्तीय वर्ष में कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने यह भी लिखा कि चूंकि वित्तीय वर्ष समाप्ति की ओर है इसलिए मानीटरिंग कर डिस्टर्ब नहीं किया जाये। सीधा सा अर्थ है प्रोजेक्ट की मानीटरिंग से उन्होंने संबंधितों को रोक दिया। ऑडिट के दौरान अनुदान प्राप्त एनजीओ ने 2012-13 का उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दिया इस दौरान ऑडिट ने पाया कि उन वस्तुओं के व्यय की प्रतिपूर्ति मांगी गई जो नियमानुसार नहीं है लेकिन संयुक्त निदेशक ने सभी को मान्य कर भुगतान किया। योगा कंसलटेंट की नियुक्ति इसी प्रोजेक्ट के संचालन के लिए 31 मार्च 2014 तक की अवधि के लिए हुई थी लेकिन उन्हें विवशकर सित बर 2013 में ही इस्तीफा दिलवाया गया क्योंकि सित बर 2013 में ही कंसलटेंट पद के लिए विज्ञापन प्रक्रिया शुरू कर दी गयी थी। ऐसे की संयुक्त निदेशक ने की मनमानी एनसीईआरटी द्वारा बनायी गयी गाइडलाइन का उल्लंघन करते हुये बिना अनुमति के संयुक्त निदेशक ने योगा प्रोजेक्टमें क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों के विशेषज्ञों की सहभागिता समाप्त कर दी। संयुक्त निदेशक ने वेबसाइट के माध्यम से आमंत्रित प्रस्तावों की अंतिम तारीख बढ़ाई। जिसका बाद में प्रस्ताव अपर्याप्त आने के कारण तारीख बढ़ाया जाना बताया गया जबकि तारीख बढ़ाये जाने से पहले ही प्रस्ताव आ चुके थे। दिशानिर्देशों के विरूद्ध वेबसाइट के माध्यम से एनजीओ के निरीक्षण के लिए बायोडाटा मंगाये जबकि क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान के स्टॉफ और केन्द्रीय व्यवसायिक शिक्षा संस्थान का स्टॉफ को निरीक्षण कार्य के लिए जि ोदारी दी जानी थी ऐेसा नहीं किया गया। योगा प्रोजेक्ट के क्रियान्वयन के लिए जिन एनजीओ के आवेदन प्राप्त हुये उनमें से अधिकांश संयुक्त निदेशक के नजदीकी या पहचान के थे। क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान और व्यवसायिक शिक्षा संस्थान के स्टॉफ में से लगभग 8 से 10 को निरीक्षण के लिए सहमत थे लेकिन उनको नजरअंदाज करते हुये संयुक्त निदेशक ने निजी व्यक्तियों से निरीक्षण करवाया जिसकी वजह इन निजी निरीक्षणकर्ताओं को पूर्ण प्रक्रिया का प्रशिक्षण देने में अत्यधिक सरकारी पैसा खर्च हुआ। साथ ही निजी निरीक्षणकर्ताओं की विश्वसनीयता को भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। नियमानुसार किसी भी निजी व्यक्ति को हायर करने से पहले उसकी प्रक्रिया होना जरूरी है साथ ही संबंधित मु यालय से अनुमति लेना भी। निरीक्षणकर्ताओं पर 3 लाख से अधिक व्यय हुआ इस व्यय को स्वीकृत करना संयुक्त निदेशक के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। बावजूद इसके दोनों वित्तीय वर्ष में बिना एनसीईआरटी की अनुमति के यह पैसा स्वीकृत किया गया। यदि केन्द्रीय व्यवसायिक शिक्षा संस्थान के ही स्टॉफ को एनजीओ के निरीक्षण के लिए भेजा जाता तो 2 लाख रूपये मानदेय की बचत होती। साथ ही संयुक्त निदेशक को एनसीईआरटी की अनुमति के बिना निजी व्यक्तियों को मानदेय, टीए, डीए देने की पात्रता ही नहीं है। ऑडिट ने उठाये सवाल वित्तीय वर्ष 13-14, 14-15 के दौरान योगा प्रोजेक्ट को ऑडिट करने पहुंची टीम ने अपनी रिपोर्ट में कई सवाल किये हैं। ऑडिट रिपोर्ट में लिखा गया कि 13 प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निर्धारित प्रशिक्षार्थियों की सं या से मात्र 52 प्रतिशत प्रशिक्षार्थी शामिल हुये जिससे प्रेाजेक्ट के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होती है साथ ही अनियमित ढंग से कार्यक्रमों पर व्यय किया जाना पाया गया। वर्ष 2014-15 में 51.99 लाख राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दिये गये। संस्थान द्वारा इस वित्तीय वर्ष में 11 एनजीओ को 51 लाख 98 हजार 770 अनुदान राशि दी गयी लेकिन अनुदान की शर्तों के अनुसार उसी वित्तीय वर्ष में उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दिये गये। इसी तरह अनुदान राशि और भुगतान लेखों में 19.54 लाख का अंतर पाया गया। एनजीओ के खेल में दिग्गज प्रदेश के एनजीओ क्षेत्र में इन दिनों रसूखदारों का बोलबाला है। उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय की पत्नी आशा इंदौर में आशा नाम से एनजीओ संचालित करती हैं। जल संसाधन मंत्री जयंत मलैया की पत्नी सुधा ओजस्विनी नामक संस्था चलाती हंै। खनिज निगम के अध्यक्ष रामेश्वर शर्मा खुद कर्मश्री संस्था चलाते हैं। इसी तरह, भाजपा के राज्यसभा सांसद अनिल माधव दवे नर्मदा समग्र नामक एनजीओ के कर्ता-धर्ता हैं। तीन दर्जन से ज्यादा बड़े लोगों के एनजीओ हैं। इनके अलावा भी कई मंत्रियों, नेताओं और अफसरों के करीबी 25 से ज्यादा एनजीओ के जरिए अनुदान के खेल में लगे हैं। परेशानी यह कि पारदर्शिता और आरटीआई के तमाम निर्देश भी इन एनजीओ के अनुदान के खेल को भेद नहीं पा रहे हैं। सरकार ने खुद बनाया एनजीओ एनजीओ का महत्व समझते हुए खुद सरकार ने जनअभियान परिषद नामक एनजीओ बना दिया। इसके अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद हंै। इस एनजीओ को पूरी फंडिंग सरकार से मिलती है। इसके तहत 1250 से ज्यादा एनजीओ पंजीकृत कराए जा चुके हैं। परिषद ने नौ हजार प्रस्फुन और 18 हजार स्पंदन समिति बनाकर अपना प्रभाव गांव-गांव तक फैलाने की कोशिश की है। परिषद के तहत भाजपा की विचारधार से जुड़े छोटे एनजीओ व संगठन पंजीकृत हुए हैं। परिषद ने प्रदेश के एनजीओ का सर्वे भी किया है। इसमें 87 हजार 762 एनजीओ में से केवल 40 हजार एनजीओ ही भौतिक सत्यापन में सही पाए गए। बाकी दिए गए पते पर नहीं मिले, जिससे उन्हें फर्जी करार दे दिया गया। प्रदेश में करीब एक लाख 20 हजार एनजीओ पंजीयत है। दिलचस्प यह कि हर साल औसत साढ़े छह हजार एनजीओ का पंजीयन हो रहा है। जनअभियान परिषद ने 2010 में अपने अधीन एनजीओ बनवाए, तो 2010 में साढ़े आठ हजार से ज्यादा एनजीओ खुले। हालांकि बीते दस साल में 9 हजार से ज्यादा एनजीओ रद्द भी किए गए। इसकी वजह ऑडिट न देना और भ्रष्टाचार रहा। नौकरी के नाम पर करोड़ों की ठगी भोपाल में रोजगार के नाम पर करोड़ों की ठगी करने का मामला सामने आया है। मामले की शिकायत मिलने पर क्राइम ब्रांच ने जांच शुरू कर दी है। आरोपियों का नेटवर्क प्रदेश के 36 जिलों में फैला है। क्राइम ब्रांच पहुंचे कुछ लोगों ने एएसपी शैलेंद्र सिंह चौहान को ठगी की वारदात के बारे में बताया, तो उनके भी होश उड़ गए। दरअसल, रोजगार दिलाने के नाम पर ठग गिरोह ने प्रदेश के 36 जिलों में लोगों के साथ करोड़ों की ठगी की। गिरोह ने जय किसान नाम से एनजीओ बनाया, जिसका हेड ऑफिस दिल्ली में है। दिल्ली हेड ऑफिस में संदीप शर्मा नाम का आरोपी बैठता है, जबकि भोपाल के ऑफिस में डॉक्टर पंकज शुक्ला नाम का आरोपी है। जय किसान डॉट ओरआरजी नामक कंपनी ने ग्रामीण क्षेत्रों में कियोस्क सेंटर खोलकर देने के नाम पर किसानों से लाखों रुपए ऐठ लिए। सालभर बाद भी जब कियोस्क नहीं खुले तो किसानों को फर्जीवाड़े का संदेह हुआ। तब किसानों ने कंपनी के अधिकारियों से पूछताछ की तो उन्होंने किसानों को बातों में उलझाना शुरू कर दिया। जब किसानों ने सख्ती का रुख अपनाया तो कंपनी अधिकारियों ने हाथ खड़े कर दिए। अब किसान अपना पैसा वापस पाने और कंपनी के खिलाफ धोखाधड़ी का प्रकरण दर्ज कराने के लिए पुलिस अधिकारियों के चक्कर काट रहे हैं। विज्ञापन में किए बड़े दावे कंपनी ने किसानों को अपने साथ जोडऩे के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले स्थानीय समाचार पत्रों में अपने विज्ञापन जारी कर महीने में लाखों रुपए कमाने का दावा किया था। इससे बहकावे में आए किसान कंपनी के साथ न सिर्फ जुड़े बल्कि अपने परिचितों और रिश्तेदारों को भी इसमें शामिल कर लिया। कंपनी ने कुछ ग्रामीणों को इस कदर अपने चंगुल में फांसा था कि लोग दूसरे लोगों को प्रभावित करने के लिए मोबाइल से कंपनी के अधिकारियों से बात कराते थे। कियोस्क खुलने के बजाय किसानों को बार-बार तारीखें मिल रही थीं। इस पर किसानों ने डॉ. शुक्ला और संजीव शर्मा से पैसे वापस मांगे। तब संजीव शर्मा ने उन्हें अपशब्द बके और चुप रहने की धमकी देते हुए फोन बंद कर लिया। जबकि, डॉ. शुक्ला ने जय किसान डॉट ओआरजी का ऑफिस बंद करके वहां प्रेक्टिस शुरू कर दी है। जब भी किसान पैसे मांगने पहुंचते हैं तो वह संजीव शर्मा के ऊपर मामला टाल देता है। एएसपी शैलेन्द्र सिंह चौहान ने बताया कि लोगों ने दोनों ही आरोपियों की लिखित में शिकायत की। लोगों का आरोप है कि आरोपियों ने रोजगार दिलाने के नाम पर किसी से 50 हजार तो किसी से एक लाख रुपए लिए। एनजीओ का मायाजाल दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने भारत में सक्रिय एनजीओ यानी गैर सरकारी संस्थाओं के बारे में जो जानकारी जुटाई, वह चौंकाने वाली है। इस सूचना के मुताबिक इस वक्त भारत में करीब 20 लाख एनजीओ सक्रिय हैं। जिसमें लगभग आधे उत्तर प्रदेश और केरल में ही हैं। रिपोर्टो के अनुसार जांच से सामने आ रही जानकारियां बहुत चौंकानेवाली हैं। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने अपनी एक जांच रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि हर 600 व्यक्तियों पर एक एनजीओ! जबकि हर 1700 लोगों के लिए सिर्फ एक डॉक्टर और 943 लोगों के लिए सिर्फ एक पुलिसकर्मी की उपलब्धता है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं को केंद्र और राज्य सरकारों से औसतन एक हजार करोड़ रुपये का वार्षिक अनुदान मिलता है। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि विदेशों से मिलनेवाले अनुदान की रकम दस हजार करोड़ सालाना है। आरोप है, कि बहुत से एनजीओ उन्हें मिले अनुदान और अपने खर्चों का ब्योरा आय कर विभाग को नहीं सौंपते। एनजीओ के प्रति आकर्षण का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मौजूदा समय में हमारे देश में सक्रिय सूचीबद्घ एनजीओ की संख्या एक रिपोर्ट के मुताबिक 33लाख के आसपास है। यानी हर 365 भारतीयों पर एक एनजीओ। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा एनजीओ हैं, करीब 4.8 लाख। इसके बाद दूसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है। यहां 4.6 लाख एनजीओ हैं। उत्तर प्रदेश में 4.3 लाख, केरल में 3.3 लाख, कर्नाटक में 1.9 लाख, गुजरात 1.7, पश्चिम बंगाल में 1.7 लाख, तमिलनाडु में 1.4 लाख, उड़ीसा में 1.3 लाख तथा राजस्थान में एक लाख एनजीओ सक्रिय हैं। इसी तरह अन्य राज्यों में भी बड़ी तादाद में गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं। दुनिया भर में सबसे ज्यादा सक्रिय एनजीओ हमारे ही देश में हैं। 2010-11 में 22,000 एनजीओज को लगभग सवा खरब रुपए का विदेशी अनुदान मिला था। उस धन का करीब एक तिहाई हिस्सा अमेरिका से आया। इतना धन आखिर कहां खर्च होता है? इस रकम का बड़ा हिस्सा मानदेय, यात्रा, छपाई और स्टेशनरी पर खर्च कर दिया गया। यह कथा ज्यादातर बड़े या छोटे एनजीओज में देखी जा सकती है। हकीकत यही है कि एनजीओ नौकरशाही ढांचे में चलने वाले ऐसे संगठन बन गए हैं, जहां धन का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार आम है। वे खर्च का ब्योरा देने की वैधानिक आवश्यकताएं भी पूरी नहीं करते। सीबीआई की जांच से ऐसी गड़बडिय़ों की कई परतें खुली हैं। अब जरूरत इन पर लगाम लगाने या एनजीओज को जवाबदेह बनाने के लिए जरूरी उपाय करने की है। खुद राजनेताओं या उनसे जुड़े लोगों और रिटायर्ड नौकरशाहों में अपना एनजीओ खोलने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। उनके प्रभाव के कारण एनजीओज पर नकेल नहीं कसी जाती। क्या सुप्रीम कोर्ट अब उचित दिशा-निर्देश तैयार कर उन पर अमल सुनिश्चित कराएगा? भारत में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का जैसा जाल फैला हुआ है, उसके मद्देनजर भारत को आज सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं से मुक्त देश होना चाहिए था। आखिर ये एनजीओ बड़े मकसदों को लेकर स्थापित होते हैं और उनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं होती। फिर भी उनसे आम आदमी की जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं हुआ, तो इसका मतलब यह हुआ कि ये संगठन अपने घोषित उद्देश्यों के मुताबिक काम नहीं कर रहे हैं। धन की बात करें तो किसी भी एनजीओ को सरकारी, गैर-सरकारी, देसी-विदेशी किसी भी स्रोत से चंदा लेने में कोई गुरेज नहीं है। दान, सहयोग और विभिन्न फंडिंग एजेंसियों के जरिये एनजीओ क्षेत्र में अरबों रुपया आता है। अनुमान है कि हमारे देश में हर साल सारे एनजीओ मिल कर 40 हजार से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये तक जुटा ही लेते हैं। सबसे ज्यादा पैसा सरकार देती है। ग्यारहवीं योजना में सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। दूसरा स्थान विदेशी दानदाताओं का है। सिर्फ सन् 2005 से 2008 के दौरान ही विदेशी दानदाताओं से यहां के गैर सरकारी संगठनों को 28876 करोड़ रुपये (करीब 6 अरब डॉलर) मिले। इसके अलावा कॉरपोरेट सेक्टर से भी सामाजिक दायित्व के तहत काफी धन गैर सरकारी संगठनों को प्राप्त होता है। लेकिन सरकार इनके धन का ऑडिट नहीं कराती। दर असल इसके पीछे एक छुपा हुआ तथ्य यह है कि देश के अधिसंख्य एनजीओ या तो ब्यूरोक्रेट्स के संबंधी या मित्रों द्वारा संचालित हैं या नेताओं के परिजनों के नाम से बने हैं। समय समय पर इनमें घपलों और अनियमितताओं की बात उठती रही है लेकिन इसे ठीक करने के गंभीर प्रयत्न निहित स्वार्थों के चलते कभी नहीं किए गए।

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