रविवार, 7 फ़रवरी 2016

रसूखदारों के कब्जे से मुक्त होगी 50,00,00,00,00,000 की जमीन

मप्र में नए औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के लिए सरकार कर रही तैयारी
आइएएस मनोज श्रीवास्तव की रिपोर्ट पर राजस्व विभाग बना रहा रिपोर्ट
भोपाल। मध्य प्रदेश में उद्योगों के विस्तार के लिए प्रदेश सरकार नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने जा रही है, लेकिन जमीनों की कमी के कारण सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि उद्योग लगाने के सैकड़ों प्रस्ताव कतार में हैं और दिन पर दिन कतार बढ़ती जा रही है। इसको देखते हुए अब सरकार को 2009 में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट की याद आई है। इस समिति द्वारा बड़े भूमि घोटालों की 14 रिपोर्टें राज्य सरकार को सौंपीं गई थीं। इन रिपोर्टों से खुलासा हुआ कि प्रदेश के कई जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में सौंप दी गई है। अब इन्हीं जमीनों को रसूखदारों के कब्जे से मुक्त कराकर उन लोगों को दिया जाएगा जिनकी जमीनें नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने के लिए ली जाएगी। इसके लिए उद्योग और राजस्व विभाग मिलकर तैयारी कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि उद्योग मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया की पहल पर मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम (एकेवीएन) मंडीदीप, पीलूखेड़ी, बाबई, पिपरिया, पीथमपुर खेड़ा, मेघनगर, उज्जैन, देवास, रूशी-भवसिंहपूरा, मैक्सी, जगराखेडी बेटमा, जबलपुर क्षेत्र के भोरेगांव, मनेरी, लंबतारा और कटनी, ग्वालियार-सागर क्षेत्र के घिरोंगी, बनमोरे, चेनपुरा, सिद्धगवान और प्रतापपुर सहित कई शहरों के आसपास नए औद्योगिक क्षेत्र को विकसित किया जा रहा है। लेकिन इन क्षेत्रों में किसानों की खेती योग्य भूमि लेने में सरकार को कई तरह की दिक्कते आ रही हैं। इसलिए सरकार की मंशा है कि वह इन क्षेत्रों में अवैध रूप से कब्जाई गई जमीन को अपने कब्जे में लेकर उन किसानों को देगी जिसकी जमीन औद्योगिक क्षेत्र को विकसित करने के लिए ली जाएगी।
तीन साल बाद याद आई रिपोर्ट
प्रदेश में भूमि घोटालों की खबर लगने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2009 में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव के नेतृत्व में समिति बनाकर भूमि घोटालों को उजागर करने का जिम्मा दिया था। छह साल पहले गठित की मनोज श्रीवास्तव एकल समिति की रिपोर्टें मंत्रालय में धूल खा रही हैं। समिति ने बड़े भूमि घोटालों की 14 रिपोर्टें राज्य सरकार को सौंपीं। इन रिपोर्टों से खुलासा हुआ कि भोपाल, ग्वालियर, धार, होशंगाबाद, हरदा और अशोक नगर जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में सौंप दी गई। एक अनुमान के अनुसार, प्रदेश में रसूखदारों ने पचास खरब रुपए (50,00,00,00,00,000)की सरकारी जमीन पर अवैध रूप से हड़प ली है। कहीं-कही तो हजारों एकड़ जमीन एक ही व्यक्ति के कब्जे में है। सरकारी अधिकारियों की सांठ-गांठ से कबजाई गई ये जमीनें सरकार की मंशा को पूरा कर सकती हैं।
नदी और कब्रिस्तान पर कब्जा
मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्टस बताती हैं कि सरकारी जमीन की बंदरबांट का यह खेल प्रदेश के प्रमुख शहरों में बदस्तूर जारी है। आलम यह है कि रसूखदारों ने न केवल सरकारी जमीन, बल्कि नदी, कब्रिस्तान, श्मशान, वन विभाग की जमीन सहित कई सार्वजनिक जमीन हथियाई है। जमीन गोरखधंधे का सबसे दिलचस्प मामला धार में सामने आया। इस मामले के बारे में मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट में लिखा गया, 'यह अद्भुतÓ प्रकरण है। इसमें एक नगर की लगभग संपूर्ण भूमि एक ही परिवार के हाथों आ गई। यह वह प्रकरण है जिसमें एक परिवार एक नदी (माही), कब्रिस्तान, श्मशान, डाक बंगला, जेलखाना, शासकीय कन्याशाला, विजय-स्तंभ, टीआइ बंगला, कलेक्टर कोठी सहित कई सार्वजनिक जमीन पर पुराने पट्टों के आधार पर हक जमाता है और कलेक्टर पट्टों की प्रामाणिकता पर संदेह करने की बजाए दावेदार को जमीन का अधित्यजन (दान) करने का मौका देता है और कुछ जगह अधित्यजन कराकर खुश होता है। असल में, 1995 में कलेक्टर के एक गलत आदेश के जरिए 1,471 बीघा जमीन नगरपालिका और प्रदेश शासन से लेकर निजी पक्षकार के हक में कर दी गई। बाद में एक दूसरे कलेक्टर ने यह आदेश गलत पाया और जमीन को सरकार के कब्जे में लाने के लिए राजस्व मंडल (रेवेन्यू बोर्ड) से मामले पर दोबारा गौर करने की इजाजत मांगी। मंडल ने जमीन को सरकार के कब्जे में लाने का आदेश खुद ही दे दिया, जो कि हाइकोर्ट से खारिज हो गया। कोर्ट ने छानबीन की इजाजत दी। रिपोर्ट बताती है कि तमाम कानूनी प्रक्रिया के बाद 5 जून, 2007 को कलेक्टर के आदेश के जरिए कुछ जमीन लेकर बाकी निजी पक्षकार को दे दी गई। मजे की बात यह है कि नदी, पहाड़ और कब्रिस्तान जैसी जमीन छोडऩे के लिए भी कलेक्टर ने निजी पक्षकार को पुचकारा। रिपोर्ट में कलेक्टर के आदेश को गैरकानूनी बताया गया पर कार्रवाई की सिफारिश किसी के खिलाफ न हुई। यह मामला सरदारपुर के प्रतिष्ठित शंकरलाल गर्ग परिवार से जुड़ा है। गर्ग 1952 में यहां के विधायक रहे। मामले की पैरवी कर रहे उनके पुत्र 78 वर्षीय लक्ष्मी नारायण कहते हैं, पालिका का दावा निराधार है। आजादी से पहले पालिका के दावे के खिलाफ ग्वालियर स्टेट कोर्ट में भी हम जीते थे।
दो गांवों की जमीन बेचकर गायब
भोपाल से सटे दो गांवों चांचेड़ और गनियारी में एस.के. भगत के नाम पर तहसीलदार ने करीब 450 एकड़ जमीन कर दी। यह भी न सोचा कि सीलिंग आदेश के बाद किसी के पास इतनी जमीन कैसे हो सकती है। मामला आजादी के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की भारत में जमीन से जुड़ा है। भगत नाम के व्यक्ति ने दोनों गांवों में 1962 और 1963 में यह जमीन दिए जाने का दावा किया है। पर समिति के मुताबिक, कब्जे के कागजात 1994 में तैयार किए गए और उन्हें 1962/1963 की तारीखों में दिखाया गया। रिपोर्ट में मजेदार टिप्पणी है, राजस्व आज्ञापत्र पर कुछ मार्किंग्स जिस तरह के पेन से हैं, वे 1963 में चलन में भी नहीं आए थे। पूरे मामले में गैरकानूनी, धोखाधड़ी और शरारतपूर्ण कार्रवाई को देखते हुए इसमें म.प्र. भू राजस्व संहिता की धारा 115 के तहत कार्रवाई की जाए। पर भगत परिवार तो तकरीबन सारी जमीन बेच एक दशक पहले ही यहां से जा चुका है। भगत के पुराने मकान में रह रहे फूल सिंह बताते हैं, वे तो 10-12 साल पहले ही जमीन बेचकर जा चुके हैं।
राजधानी में शासकीय भूमि पर बेजा कब्जा है। शहर में पाश कालोनी क्षेत्र कहे जाने वाला ईदगाह हिल्स का इलाका हो या कोलार,चूना भट्टी या फिर समीपस्थ लगे गांवों की कृषि भूमि। भूमाफिया ने बेखौफ शासकीय भूमि पर कब्जा कर कालोनी बसा दी। यहां तक कि खनिज संपदा से भरपूर पहाडिय़ों को भी नहीं बख्शा गया। नियम विरुद्ध निर्माण कार्य करने वालों व शासकीय जमीन को किसी अन्य मकसद से लीज पर लेकर उस पर अन्य कार्य करने वालों की तो यहां भरमार है। शहर से लगे कजलीखेड़ा ग्राम पंचायत में करीब 43 एकड़ सरकारी भूमि पर पंचायत ने पट्टे बांट कर बस्ती बसा दी। बीते माह जिला प्रशासन ने यहां के शताधिक मकानों को जमींदोज कर लोगों को तो उजाड़ा लेकिन पट्टे बांटने वाले जिम्मेदार सरपंच या दीगर लोगो के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। यह मामला गत दिनों मुख्यमंत्री निवास में आयोजित महिला पंचायत में भी एक सेवानिवृत महिला अधिकारी उमा भार्गव ने उठाया। उन्होंने कहा,कि जब इस तरह की अवैध बस्तियां बस रहीं होती हैं तब शासन-प्रशासन क्या कर रहा होता है,लेकिन पंचायत में उनकी बात को अनसुना कर दिया गया। समीपस्थ सीहोर जिले की झालपीपली,लोहा पठार व इमलिया में पांच सौ एकड़ से अधिक शासकीय भूमि पर राजधानी के ही एक कथित रसूखदार कांग्रेसी नेता व इनके परिजनों का वर्षों से कब्जा है। राज्य विधानसभा में यह मामला बीसियों बार उठने के बाद राज्य शासन ने हर बार अतिक्रमण हटाने का आश्वासन तो दिया लेकिन समूची जमीन को वह अब तक अतिक्रमण मुक्त नहीं करा सकी। गत दिनों उक्त कांग्रेसी नेता के निधन के बाद से यह मामला और ठंडे बस्ते में चला गया है।
भेल की 200 एकड़ जमीन पर माफिया का कब्जा
मध्य प्रदेश सरकार ने 27 नवंबर, 1957 को भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (बीएचईएल) को भोपाल 6,000 एकड़ से अधिक जमीन दी। इसमें से 200 एकड़ जमीन पर माफियाओं का कब्जा है। श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, यह जमीन भेल को एक कंपनी के तौर पर दी गई। इसमें कोई औपचारिक ट्रांसफर डीड नहीं हुई। लिहाजा भेल प्रशासन या केंद्र सरकार को इस जमीन पर मालिकाना हक जताने का कोई अधिकार नहीं। अधिग्रहण के बाद से करीब 2,000 एकड़ जमीन भेल के पास फालतू पड़ी है। रिपोर्ट में 1998 के प्रदेश के राजस्व मंत्रालय के एक सर्कलर का हवाला दिया गया है। सर्कलर कहता है राज्य शासन ने फैसला किया है कि प्रदेश में लगे केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को दी गई जमीन में से जो जमीन उनके तय मकसद के लिए काम में नहीं ली जा रही, उसे फौरन वापस लिया जाए। इसी आधार पर भेल की खाली पड़ी 2,000 एकड़ जमीन वापस लेने की सिफारिश की गई। रिपोर्ट तो कहती है कि भेल अपनी ही जमीन की देखभाल नहीं कर पा रहा और अब तक 200 एकड़ जमीन पर भूमाफिया ने कब्जा जमा लिया है। इस 200 एकड़ का ज्यादातर हिस्सा अब रियल एस्टेट के लिहाज से खासा अहम हो गया है। भोपाल में बन रहे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सामने की भेल की जमीन पर भी अवैध कब्जा हो चुका है और वहां मकान बन रहे हैं। एम्स के यहां आने की वजह से जमीन की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। भेल के वरिष्ठ प्रबंधक (प्रचार और जनसंपर्क) विनोदानंद झा इस संस्था का पक्ष रखते हैं, भेल को जमीन दिए जाने के मामले में सारी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। हां, भेल की 150 एकड़ जमीन पर अवैध बस्तियां बनी हैं। इन्हें हटाने के लिए राज्य सरकार से लगातार चि_ी-पत्री हो रही है। एम्स के पास हो रहे नए अवैध निर्माण पर भेल प्रशासन नजर रखता है और इसे समय-समय पर तोड़ा जाता है।
ग्वालियर में 200 करोड़ की जमीन पर अवैध कब्जा
ग्वालियर शहर में पूर्व ग्वालियर राजघराने द्वारा स्थापित ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को फायदा पहुंचाने के लिए 47 हेक्टेयर जमीन दे दी गई,जबकि कायदे से यह जमीन राज्य शासन के पास होनी चाहिए। इस मामले में निजी पक्षकार को 2008 में राजस्व मंडल के एक ऐसे आदेश के चलते जमीन हासिल हो गई, जिसमें 1991 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अनदेखी कर दी गई थी। मौजूदा बाजार भाव पर इस जमीन की कीमत करीब 200 करोड़ रु. है। इस बारे में कंपनी के मालिक के.सी. जैन कहते हैं कि ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को शहरी क्षेत्र में 1516.96 एकड़ जमीन पूर्व ग्वालियर रियासत की ओर से 4 जून, 1942 को 25 साल के पट्टे पर दी गई थी। तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने इस कंपनी को बनाया और उसमें उनके सरदार माधवराव फालके और सरदार देवराज कृष्ण जाधव (डी.के. जाधव) के अलावा रियासत के प्रभावशाली लोग कंपनी में शेयर होल्डर थे। 25 साल के पट्टे की मियाद खत्म होने के बाद अप्रैल, 1979 में अपर जिलाध्यक्ष के आदेश के जरिए जमीन सरकार ने वापस ले ली। इसके बाद कंपनी की जमीन का बड़ा हिस्सा सरकारी विभागों ने कब्जे में ले लिया। 20 मार्च, 2008 को राजस्व बोर्ड ने चौंकाने वाला आदेश देते हुए जमीन पर कंपनी का अधिकार मान लिया। बोर्ड के आदेश पर गंभीर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट साफ कहती है, राजस्व बोर्ड ने 1981 के हाइकोर्ट के जिस आदेश को आधार बनाया है, उस आदेश को 1991 में ही सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका था। दूसरे, बोर्ड में सुनवाई के दौरान शासन के वकील खड़े होकर पूरी तरह शासन के खिलाफ और आवेदक के पक्ष में बोल रहे हैं। ग्वालियर डेयरी को फायदा पहुंचाने के लिए पूरा प्रशासनिक पक्ष लामबंद था। सरकार को जो जमीन मिली भी है, वह कुछ इस तरह जैसे कि कंपनी उसे दान में दे रही हो। हालांकि इसमें एक खतरा है। कंपनी कल को चुनौती दे सकती है कि जब सरकार इस जमीन को कंपनी की नहीं मानती तो दान किस आधार पर करा रही है। जंगल की 7,987 एकड़ जमीन पर आश्रम हरदा जिले के टिमरनी के पास जंगल की 7987.80 एकड़ जमीन राधास्वामी सत्संग सभा के पास है। यहां राजाबरारी एस्टेट की इस जमीन पर विवाद है, जो पूरी की पूरी संरक्षित वन क्षेत्र में आती है। इस मामले में राधास्वामी सत्संग सभा का दावा है कि मध्य प्रदेश भूराजस्व अधिनियम के तहत उसके पास लीज के सभी अधिकार और सुविधाएं हैं। सभा के मुताबिक सरकार के साथ उसका मूल करारनामा 1953 में और फिर 1956 में पूरक करारनामा हुआ। सभा यहां राधास्वामी ट्रेनिंग, एम्पलायमेंट और आदिवासी उत्थान संस्थान भी चलाती है। रिपोर्ट के मुताबिक,लीज का 1953 और 1956 में पंजीयन होना था। हुआ नहीं। लीज 1953 और 1956 में स्टांपित ही नहीं थी। सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसके तहत, जमीन के गैरवानिकी मकसद से प्रयोग की इजाजत नहीं थी। रिपोर्ट कहती है कि ऐसे में वन भूमि घोषित होने के बाद लीज मान्य नहीं होगी। लीज रद्द की जाए। लेकिन सभा के सचिव गुरमीत सिंह कहते हैं, सारे आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं। सभा के काम की तारीफ उच्च अधिकारी और कैबिनेट स्तर के मंत्री तक कर चुके हैं। मामला राजस्व बोर्ड में विचाराधीन है। वैसे भी राज्य सरकार का अधिकारी सरकार के शीर्ष स्तर के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता।
नजूल की जमीन की धड़ाधड़ रजिस्ट्रियां
होशंगाबाद जिले के इटारसी शहर में ऐसे 114 मामलों का खुलासा हुआ है जहां 1985 से अक्तूबर, 2010 के बीच नजूल की जमीन रजिस्ट्री कर बेची गई। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, इटारसी शहर में नजूल शीट नंबर 6 और 3 के प्लॉट नंबर 3/1 रकबा 1,41,935 वर्ग फुट जमीन एच.ए. राजा और ए.ए. सैफी के नाम दर्ज है। राजा की मौत वर्षों पहले हो चुकी है लेकिन नजूल रिकॉर्ड में उनके वारिसों के नाम दर्ज नहीं हैं। हातिम अली के बेटे जमीन पर नाम चढ़ाए बगैर फर्जी तरीके से जमीन की रजिस्ट्री कर शासन की कीमती जमीन बगैर हस्तांतरण के बेच रहे हैं, जबकि पट्टा निरस्त हो चुका है। इटारसी में इस अवैध जमीन को खरीदने वालों में भोपाल के कुछ राजनीतिक परिवार शामिल हैं। नजूल प्रकरण पर वे कहते हैं, पूरे प्रदेश में नजूल की जमीन को अवैध तरीके से बेचने के मामले सामने आ रहे हैं। इसके लिए पूरे प्रदेश में व्यापक गाइडलाइन तैयार करनी होगी। जालसाज और अफसरों पर कार्रवाई नहीं प्रदेश में चल रहे जमीन के गोरखधंधे की परतें सामने आने के बाद भी सरकार दोषी अफसरों और जालसाजों पर कार्रवाई नहीं कर रही है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रते हैं कि समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद से 1,5000 एकड़ जमीन वापस ली जा चुकी है। सीहोर में हाल ही 5,000 एकड़ वापस ली। हालांकि प्रतिवादी अब कोर्ट में चला गया है। वह कहते हैं कि भेल की 2,000 एकड़ खाली पड़ी जमीन भी वापस करने की मांग मैंने खुद प्रधानमंत्री के सामने रखी है। फिर से केंद्र के सामने इसे उठाऊंगा।
जंगल की 7,987 एकड़ जमीन पर आश्रम का कब्जा
हरदा जिले के टिमरनी के पास राधास्वामी सत्संग सभा का यहां राजाबरारी एस्टेट की 7987.80 एकड़ जमीन पर कब्जा है। यह पूरी जमीन संरक्षित वन क्षेत्र में आती है। इस मामले में राधास्वामी सत्संग सभा ने दावा किया है कि मध्य प्रदेश भूराजस्व अधिनियम के तहत उसके पास लीज के संपूर्ण अधिकार और सुविधाएं हैं। सभा के मुताबिक शासन और संस्था के बीच 1953 में मूल करारनामा और 1956 में सप्लीमेंट्री करारनामा हुआ। राधा स्वामी सत्संग सभा से जुड़े प्रदेश के एक वनाधिकारी की सेवानिवृति के बाद भी राज्य सरकार हरदा जिले की बरारी इस्टेट पर हाथ डालने से कतरा रही है,जबकि हरदा जिले की टिमरनी के जंगल के एक बड़े भू-भाग पर सभा का बेजा कब्जा बदस्तूर जारी है।
बताया जाता है कि अंगे्रजों के शासनकाल में इस सभा ने करीब आठ हजार एकड़ वनभूमि अपने नाम करा ली थी। कालांतर में भी जमीन के करारनामे को लेकर वर्ष 1953 व1956 में कार्यवाही हुई लेकिन नया वन अधिनियम लागू होने के बाद यह भूमि अतिक्रमण की श्रेणी में आ गई। उक्त जांच समिति ने पाया कि कि सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसमें गैरवानिकी प्रयोग निहित थे लेकिन सभा जमीन के अधिकांश हिस्से का वानिकी उपयोग करती रही। हैरत की बात तो यह कि राजा बरारी इस्टेट के लिए कार्यआयोजना आज भी प्रदेश का वन विभाग बनाता है। यहां के जंगल की देखरेख,रखरखाव यहां तक कि लकड़ी की कटाई जिसे विभाग की भाषा में विदोहन कहा जाता है वह भी विभाग ही करता है ,लेकिन इससे होने वाली आय पर सभा का अधिकार है। ऐसे कारनामे केवल मध्यप्रदेश में ही संभव है। समिति ने अपनी जांच रिपोर्ट में सभा को दी गई लीज को निरस्त कर इसका कब्जा लिए जाने की सिफारिश भी की थी, लेकिन राज्य शासन की ओर से अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई। दरअसल,हजारों एकड़ की उक्त जमीन पर काबिज सभा को प्रदेश के ही कुछ अधिकारियों का संरक्षण रहा है। प्रदेश के प्रधान वन संरक्षक रह चुके अनिल ओबेराय तो अपने सेवाकाल के दौरान भी खुले तौर पर इस सभा से जुड़े रहे और प्रत्येक शनिवार-रविवार को ग्वालियर वन वृत के दौरे के नाम पर सभा के मुख्यालय आगरा जा पहुंचते थे। यही नहीं उन्होंने तत्कालीन मुख्य सचिव को भी अपने प्रभाव में ले रखा था। इसके चलते उनके सेवा में रहते हुए राज्य सरकार राजा बरारी इस्टेट की जमीन को सभा से छीनने का प्रयास नहीं कर सकी। यह माना जा रहा था कि ओबेराय की सेवानिवृति के बाद इस दिशा में कोई कार्रवाई की जा सकती है,लेकिन ओबेराय की सेवानिवृति के बाद भी इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जाना सरकार की लचर कार्यशैली को उजागर करता है।
सरकारी जमीन पर रसूखदार बने पट्टेधारी
एक तरफ अवैध रूप से कब्जाई गई जमीनों का खुलासा करने वाली मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट मंत्रालय में धूल खा रही है वहीं दूसरी तरफ सरकारी जमीनों को कब्जाने का सिलसिला निरंतर जारी है। सरकारी जमीन की बंदरबांट में अधिकारी, नेताओं और जनप्रतिनिधियों ने गठजोड़कर गंजबासौदा में नया कारनामा खड़ा कर दिया है। नवीन कृषि उपज मंडी स्वायदा कंजना पठार से लगी हुई बेशकीमती करीब दस बीघा सरकारी जमीन में मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत रसूखदारों को पट्टे बांट दिए गए। सूची में ऐसे ऐसे लोगों के नाम पट्टे बांटे गए हैं जो न तो उस पंचायत के रहवासी हैं और ना ही आवासहीन। इसके बाद भी सारे नियमों को ताक में रखकर शासन द्वारा पट्टे की निर्धारित सीमा से हटकर 3 हजार स्क्वायर फिट तक पट्टा दे दिया गया जबकि नियमानुसार आवास के लिए शासन द्वारा 600 से 900 स्क्वायर फिट तक पट्टा दिया जाता है। जिन पात्रों को पट्टे दिए गए हैं उनको कागज में पट्टे का स्थान कुछ है जबकि मौका कहीं और का दिया जा रहा है। रसूखदारों के आंतक और कब्जा न मिलने से परेशान पात्र पट्टेधारियों ने सोमवार को तहसील पहुंचकर शासन से पट्टा दिए जाने की गुहार लगाकर इस गड़बड़ झाले की जांच कराए जाने की मांग की।
मालूम हो कि स्यावदा नवीन कृषि उपज मंडी परिसर से लगी हुई पटवारी हल्का नंबर 40 की आवासीय भूमि सर्वे नं 131/1 रकबा 2.09 दस बीघा भूमि राजस्व रिकार्ड में शासकीय आवसीय भूमि है। नई मंडी द्वारा आकार लेने के बाद मंडी के आसपास की भूमि की कीमत पचास लाख रूपए से ऊपर पहुंच गई है। ऐसे में इस दस बीघा सरकारी भूमि पर लंबे समय से भूमाफियाओं और रसूखदारों की नजर गड़ी हुई थीं। करीब एक वर्ष पूर्व इस जमीन पर ग्राम पंचायत रबरयाई स्यावदा द्वारा मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत पट्टे की कार्रवाई प्रारंभ की गई। पंचायत द्वारा बांटे गए पट्टे को लेकर मामला ग्वालियर हाईकोर्ट तक पहुंचा लेकिन बाद में कोर्ट के निर्णय के विपरीत पंचायत ने अपात्रों को पट्टे बांट दिए। इस मामले में तहसीलदार बी के मंदोरिया का कहना है कि ज्ञापन एसडीएम के नाम था, उनके कार्यालय में प्रेषित किया गया है। जो भी निर्देश मिलेंगे जांच कराई जाएगी।
ना गांव में और ना मतदाता सूची में, फिर भी बन गए पट्टेधारी
रबरयाई पंचायत की पूर्व सरपंच मोहरबाई अहिरवार ने अपना कार्यकाल समाप्त न होने के कुछ माह पूर्व ऐसे अपात्रों को पट्टे बांट दिए जो कि ना तो गांव में उनका कोई निवास है और ना ही वह पंचायत की सीमा में आने वाले गांवों में सालों से रहते हैं। इसके अलावा ना ही उनका नाम मतदाता सूची में दर्ज है। इसके बावजूद भी सरपंच ने पहले पट्टा दिया, इसके बाद उनका राशन कार्ड बनवाया और फिर मतदाता सूची में नाम जुड़वाया। यदि बारीकी से सारे मामले की जांच कराई जाए तो बड़ा पट्टा घोटाला उजागर हो सकता है। प्रशासन को सौंपी गई पट्टा सूची में ऐसे नाम अंकित हैं जो उस गांव या पंचायत क्षेत्र में निवास ही नहीं करते हैं। जिन पात्र लोगों के नाम पट्टे बांटे गए थे वह अब कब्जे के लिए हैरान परेशान हैं। अपात्रों को पट्टा दिए जाने में कहीं ना कहीं तहसील के राजस्व कॢमयों की भी मिलीभगत हो सकती है। इतना बड़ा गोलमाल बिना राजस्व•ॢमयों के संभव नहीं है। सरपंच ने तहसील के राजस्व•ॢमयों से गठजोड़ कर सारा खेल खेला। सूत्रों के अनुसार तहसील के कुछ कर्मचारियों ने दूसरे नामों से पट्टे लिए हैं। अवैध रूप से अपात्रों को पट्टे बांटे जाने में लाखों रूपए के वारे न्यारे किए गए हैं।

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