रविवार, 7 फ़रवरी 2016

काले कारोबार में लगा सफेदपोशों का पैसा

27,000 करोड़ की संपत्ति छुपाई नौकरशाहों ने
207 नौकरशाहों के पैसों से आबाद हैं रीयल स्टेट, कंस्ट्रक्शन, शिक्षा, चिकित्सा और औद्योगिक संस्थान
भोपाल। मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक में जिस तेजी से रीयल स्टेट, कंस्ट्रक्शन, शिक्षा, चिकित्सा और कंपनियों का विस्तार हुआ है उसकी मूल वजह नेताओं और नौकरशाहों की काली कमाई है। इसका खुलासा प्रदेश में अब तक मारे गए छापों के दौरान मिले दस्तावेजों से हुआ है। अगर आयकर विभाग के सूत्रों की माने तो पिछले एक दशक में प्रदेश के नौकरशाहों ने ही करीब 27,000 करोड़ रूपए की काली कमाई को निवेश किया है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक में आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाजिमों के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों में अब तक करीब 920 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है, जबकि कई हजार करोड़ की संपति आज भी जांच एजेंसियों के राडार से बाहर है । प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढोल पीटने वाली सरकार की नाक के नीचे नौकरशाह किस तरह सरकारी योजनाओं का पलिता लगा रहे हैं ये छापे इसका खुलासा कर रहे हैं। आयकर विभाग, लोकायुक्त, ईओडब्लू आदि को मिली शिकायतों के अनुसार प्रदेश में पिछले एक दशक में जितने संस्थान तेजी से खुले या बढ़े हैं, उनमें नौकरशाहों की अवैध कमाई लगी हुई है।
आयकर सर्वे की जद में आए सांवरिया ग्रुप के ठिकानों से मिले दस्तावेजों और डायरी से खुलासा हुआ है कि किस तरह प्रदेश की नौकरशाहों ने औद्योगिक घरानों में अपना पैसा लगा रखा है। समूह की एक सहायक कंपनी सिंगापुर में भी है। समूह इस कंपनी से वही सामान महंगे दाम पर खरीदना बता रहा है जो यहां सस्ते में उपलब्ध है। आयकर विभाग के सूत्रों के अनुसार यह खर्चे बढ़ाकर दिखाने का तरीका है। आशंका जताई जा रही है कि कंपनी अफसरों के कालेधन को इसी कंपनी के माध्यम से सफेद करती थी। हालांकि आयकर विभाग के अधिकारी अभी इस संदर्भ में कुछ भी कहने से कतरा रहे हैं। आयकर विभाग के सूत्रों का कहना है कि पिछले एक साल में विभाग ने प्रदेश में जितनी जगह छापामार कार्रवाई की है, उनमें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी में नौकरशाहों की कमाई लगने के सुराग मिले हैं, लेकिन पुख्ता सबुत नहीं मिलने के कारण आयकर विभाग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। मंत्रालयीन सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में ऐसी कोई योजना नहीं है जिसका दोहन अफसरों द्वारा नहीं किया जा रहा है। मप्र के 400 से अधिक अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ लोकायुक्त में मामला दर्ज है, वहीं 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की सूची पीएमओ को भेजने की बजाय प्रदेश सरकार चहेते अफसरों को क्लिनचिट देने में जुट गई है। यही नहीं करीब 207 नौकरशाहों के पैसों से प्रदेश के रीयल स्टेट, कंस्ट्रक्शन, शिक्षा, चिकित्सा और औद्योगिक संस्थान आबाद हो रहे हैं।
योजनाओं का किया बंटाढार
प्रदेश में आम आदमी की सहुलियत को देखते है प्रदेश सरकार ने आधा सैकड़ा से अधिक नई योजनाएं संचालित कर रखी हैं, वहीं केन्द्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या को 72 हैं जिनमें से 90 फीसदी तो अफसरों की कमाई का जरिया बनी हुई हैं। इसी कारण अफसरों के पास अकूत दौलत आ रही है। दरअसल, अफसरों की कमाई के दो जरिए हैं- एक तबादला और दूसरा कमीशनखोरी। यहां यह तथ्य नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि दोनों तरह के काम विभागीय मंत्री की सहमति या नेताओं के दखल के बिना नहीं हो सकते। हालही के आयकर छापों से साबित हो गया है कि अरबों रूपयों की केन्द्रीय मदद का लाभ जनता को पहुंचने की बजाय भ्रष्ट अफसरों की तिजोरियों में जा रहा है। तमाम अफसरों व कारोबारियों के ठिकानों पर आयकर, लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू ने कार्रवाई कर अकूत संपत्ति का पता लगाया है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक की टिप्पणियों पर गौर करें तो पाते हैं कि भ्रष्टाचार की असली जड़ नेता, अफसर और किस्म-किस्म के माफियाओं का गठजोड़ है। यहां के नौकरशाह कई स्तरों पर भ्रष्टाचार में डूबे हैं। जो ईमानदार माने जाते हैं, उनके बाल-बच्चे विदेश में पढ़ते हैं। किन घरानों की बदौलत? जो केंद्र सरकार की नीतियां बनाते हैं, वे रिटायर्ड होने से पहले ही मुक्ति पाकर बड़े घराने ज्वाइन करते हैं।
जनता की उंगलियों पर नाम, सरकार को पता नहीं
प्रदेश में कितने और कौन-कौन भ्रष्ट अफसर हैं, जनता नाम गिना देगी, पर प्रदेश सरकार को इसकी जानकारी नहीं है। तभी तो प्रदेश सरकार ने अभी तक केंद्र सरकार को भ्रष्ट अफसरों की सूची नहीं भेजी है। भ्रष्टाचार करके भी लम्बे अर्से तक लाभ के पदों पर काबिज रहने वाले नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पीएमओ ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के माध्यम से सभी राज्यों से भ्रष्ट अफसरों की सूची मांगी थी। कई राज्यों ने तो सूची भेज दी है लेकिन मप्र सरकार आनाकानी कर रही है। जब डीओपीटी का इस संदर्भ में पहला पत्र आया था तब राज्य सरकार ने कहा था कि यहां कोई भी ऐसा भ्रष्ट अफसर नहीं है जिसके खिलाफ कार्रवाई करने की अनुशंसा की जाए। उसके बाद दो और पत्र आए लेकिन राज्य सरकार ने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। आलम यह है कि सब भ्रष्ट न सिर्फ ताकतवर पदों पर हैं, बल्कि खुली लूट में शरीक भी हैं। कहां है, देश का कानून? कहां है सीवीसी? कहां है विजिलेंस? कहां है फेमा, फेरा या भ्रष्टाचार रोकने के लिए बने कानून? सरकार कहती है, भ्रष्टाचार रोकने के लिए कानून हैं। पर ये सारे भ्रष्टों के सामने असहाय, लाचार, अनावश्यक और फिजूल हैं। क्या भ्रष्टाचार के लिए कोई भारतीय नौकरशाह सख्ती से दंडित हुआ है? भूल जाइए नीरा यादव को, जिन्होंने अपार संपत्ति जमा की। कुछेक दिन के लिए जेल भी गयीं। अंदर भी रोब-दाब और सम्मान से रहीं। विशेष दर्जा में। फिर बाहर आकर बेशुमार दौलत की मालकिन हैं। यही हाल अरविंद जोशी और टीनू जोशी है। अरविंद जोशी को इलाज के नाम पर जमानत मिल गई है और कुछ दिनों बाद टीनू भी बाहर आ जाएंगी। क्या फर्क पड़ता है, ऐसे अफसरों को?
सूबे में हर व्यक्ति 14 हजार का कर्जदार
मप्र भले ही 100,000 करोड़ के कर्ज में डूबा है, सूबे में हर व्यक्ति 14 हजार का कर्जदार है, 44.30 फीसदी आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, 30.9 फीसदी आबादी भुखमरी की कगार पर है, लेकिन यहां के अफसर मालामाल है। प्रदेश के अफसरों में से अधिकांश के पास बेपनाह चल और अचल संपत्ति है। हालांकि हर साल जब प्रदेश के आईएएस अफसर अपनी संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो अपनी अधिकांश नामी और बेनामी संपत्ति को छुपा जाते हैं। ये सारे नौकरशाह पिछले कई साल से करीब 27,000 करोड़ की संपत्ति का विवरण छुपा जाते हैं। इन नौकरशाहों ने अपनी अवैध कमाई का बड़ा हिस्सा खेती, रियल स्टेट, बड़ी-बड़ी कंपनियों और ठेकों में निवेश कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भष्ट अफसरों ने प्रदेश की राजधानी भोपाल, इंदौर, होशंगाबाद, ग्वालियर, जबलपुर में खेती की जमीन तो सतना, कटनी, दमोह,छतरपुर और मुरैना में बिल्डर व खनन माफिया के पास करोड़ों रुपए का निवेश किया है। वहीं प्रदेश के बाहर मुंबई, दिल्ली, गुडग़ांव, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा,पंजाब, शिमला, असम, आगरा के साथ ही विदेशों में ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सिंगापुर, दुबई, मलेशिया, बैंकॉक, कनाडा, लंदन में भी संपत्ति जुटाई है।
11 माह में 265 करोड़ की अवैध कमाई का खुलासा
प्रदेश में एक तरफ अधिकारी अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने में कतरा रहे हैं, वहीं इस साल नवंबर तक प्रदेश के भ्रष्ट अफसरों की 326 करोड़ की अवैध कमाई लोकायुक्त के छापे में सामने आई है। लोकायुक्त के छापे में अफसरों के घर, बैंक और तिजोरियों ने करोडों की संपत्ति उगली हैं। छापों में करोड़ों के सोने-चांदी के जेवरात, लाखों रुपए की नकदी और अकूत मात्रा में अचल संपत्ति मिली है। यही नहीं अदने से सरकारी कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों के घर-परिवार में ऐसे ऐशोआराम-भोगविलासिता के सामान मिले हैं जो शायद अरबपति घरानों के यहां मिलते हैं। केन्द्र और राज्य सेवा के ज्यादातर अफसरों को यह पता नहीं है कि उनकी संपत्ति की मौजूदा बाजार कीमत क्या है? ऊपर से सरकार ने अब उनसे निर्माण लागत की भी जानकारी मांगी है। इससे वे कशमकश में हैं कि क्या करें। इन अफसरों ने पिछले साल जो रिटर्न भरी है, उसमें कुछ ने वर्तमान मूल्य का कॉलम खाली छोड़ दिया तो कुछ ने पता नहीं, लिखा। काफी अफसर ऐसे भी हैं जिन्होंने वर्तमान मूल्य में खरीद मूल्य ही लिखा है। सूत्रों के अनुसार केन्द्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग भी संपत्ति का वर्तमान मूल्य पता करने का मैकेनिज्म खोजने में लगा है। प्रॉपर्टी रिटर्न के लिए केन्द्रीय कार्मिक विभाग ने निर्धारित प्रपत्र में मामूली संशोधन भी किया है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी अधिकारी के लिए संपत्ति का वास्तविक मूल्य बताना संभव नहीं हो तो वे अनुमानित कीमत तो लिख ही सकते हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि ऑल इंडिया सर्विसेज (कंडक्ट) रूल्स 1968 के नियम 16(2) के तहत प्रत्येक अधिकारी के लिए वार्षिक विवरणी में अचल संपत्ति के बारे में पूरी जानकारी देना अनिवार्य है। भले संपत्ति स्वयं के नाम या परिवार के सदस्य के नाम हो। यह भी बताना होगा कि वह संपत्ति पैतृक, खरीदी, लीज, या रहन रखी हुई है। यह विवरण हर साल देना होगा, संपत्ति की स्थिति में चाहे बदलाव हुआ हो या नहीं। देश के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एमएल मेहता का मानना है कि अधिकारियों से उनकी संपत्ति का वर्तमान पूछना ही गलत है। वर्तमान मूल्य लिखने से ईमानदार अफसर भी बेईमान नजर आएगा, जबकि सर्वविदित है कि संपत्ति का मूल्य आसपास होने वाले विकास के आधार पर बढ़ता रहता है। नौकरशाहों के लिए वेतन के अलावा खेती और मकान किराए इत्यादि इनकी अतिरिक्त कमाई का जरिया है। नौकरशाहों की सम्पत्ति का ब्यौरा देखकर तो यही पता चलता है। सम्पत्ति का ब्यौरा देखकर स्पष्ट होता है कि प्रदेश के नौकरशाह कृषक भी हैं। कई तो करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं। मलाईदार पद पर काबिज रहे अफसर करोड़पति बन चुके हैं, लेकिन इन्होंने सम्पत्ति का खुलासा क रने में बेहद सावधानी बरती है। सभी आईएएस अफसर निवेश के मामले में काफी समझदार हैं और इन्होंने धन को मकान और प्लॉट में निवेश किया है। हालांकि कुछ अफसरों ने अपनी संपत्ति के वतर्मान मूल्य का उल्लेख करने से परहेज किया है।
भ्रष्टाचार की कमाई छिपाने में माहिर नौकरशाही
भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी और अधिकारी काली कमाई छिपाने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) भी इस कमाई को उजागर करने में खास कामयाब नहीं हो पाई। यही कारण है कि रंगे हाथ रिश्वत लेने व पद के दुरूपयोग के कई मामले दर्ज करने वाली एसीबी आय से अधिक सम्पत्ति के मामले तलाशने में कमजोर रही। एक वर्ष में ऐसे दो दर्जन मामले ही सामने आ सके हैं। इसके विपरीत जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में किस कदर छाया हुआ है। आय से अधिक सम्पत्ति का मामला दर्ज करने से पहले एसीबी सम्बंधित अधिकारी की सम्पत्ति की जानकारी जुटाती है। यह भी जुटाया जाता है कि सम्पत्ति कब और किसके नाम से खरीदी गई। इसके बाद उसके वेतन से तुलना की जाती है। एसीबी में वर्ष 2014 में दर्ज 460 मामलों में से इनकी संख्या 26 ही रही। इसके विपरीत रंगे हाथ रिश्वत लेने के मामलों की संख्या बहुत अधिक है। 12 माह में 40 सरकारी विभागों के 262 लोगों को रंगे हाथ पकड़ा गया। इनमें 56 राजपत्रित अधिकारी तो 206 अराजपत्रित अधिकारी शामिल हैं। इसी तरह पद के दुरूपयोग के 26 विभागों के 172 कर्मचारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए।
अगर कुछ अधिकारी अपनी संपत्ति सरकार से छिपाते हैं यानी सार्वजनिक नहीं करना चाहते तो इस के पीछे 2 वजहें समझ आती हैं। पहली यह कि उन का राज खुल जाएगा। दूसरी, अहम बात यह है कि उन्हें इस बाध्यता पर एतराज है कि इस से क्या होगा, सरकार हमारा क्या बिगाड़ लेगी, वह तो चलती ही हम से है। ये दोनों ही बातें सच हैं। आईएएस अधिकारी को राजा यों ही नहीं कहा जाता, उसे इतने अधिकार और सहूलियतें मिली होती हैं कि वह गलत तो दूर की बात है, सही रास्ते पर चले तो भी करोड़ों की जायदाद बना सकता है। एक आईएएस अधिकारी इतनी संस्थाओं का मुखिया होता है कि वह दस्तखत करने और न करने से भी खासा पैसा बना सकता है। नाम न छापने की शर्त पर मध्य प्रदेश कैडर के एक आईएएस अधिकारी का कहना है कि अब दिक्कत पैसों को छिपाने की पेश आने लगी है। इस के लिए काफी हेरफेर करना पड़ता है। बात सच इस लिहाज से है कि सफेद कमाई और जायदाद का तो हिसाब सरलता से रखा जा सकता है पर काली कमाई के मामले में कई अड़चनें आती हैं क्योंकि नाजायज जायदाद छिपा पाना पहले जैसा आसान अब नहीं है। इसी अधिकारी के मुताबिक, पैसा निकालने के लिए चैक और दूसरे कागजों पर जितने दस्तखत एक आईएएस अधिकारी करता है
उतने किसी मंत्री को भी नहीं करने पड़ते।
सरकारी योजनाओं की राशि निकाल कर विभागों या एजेंसियों को देना हो, लाइसैंस, परमिट जारी करना हो या फिर सरकारी पैसों का इस्तेमाल के लिए दूसरी अनुमतियां देनी हों तो ऐसे दस्तावेजों पर आईएएस अधिकारी के दस्तखत अनिवार्य होते हैं। आजकल एक आईएएस अधिकारी को औसतन 75 हजार रुपए तनख्वाह मिल रही है पर उस का खर्च गैर आईएएस अधिकारियों के मुकाबले काफी कम होता है। आवास, पेट्रोल, बिजली, फोन, स्टाफ वगैरह का खर्च उसे अलग से मिलता है। आज आईएएस अधिकारियों के पास करोड़ों की जायदाद है तो बात गोरखधंधे या हैरत की नहीं बल्कि गड़बड़ी की है। आईएएस अधिकारियों की जायदाद का ब्योरा समेट कर जनता के सामने पेश करने वाला केंद्र सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग भी अपने निरंकुश अफसरों के सामने असहाय नजर आता है। 2 साल पहले इस विभाग ने जायदाद का ब्योरा न देने वाले अफसरों को लताड़ लगाई थी पर वह बेअसर साबित हुई थी। ऐसे में जाहिर है अधिकारी पकड़े जाने के डर से अपनी संपत्ति का ब्योरा नहीं देते और जो देते हैं वे काफी कुछ छिपा जाते हैं जिस की कोई जांच नहीं होती। कार्यवाही तब होती है जब वे पकड़े जाते हैं। इस मामले में मध्य प्रदेश कैडर के आईएएस दंपती टीनू जोशी और अरविंद जोशी के नाम लिए जा सकते हैं जिन के यहां एक छापे में अरबों की बेनामी जायदाद पकड़ी गई थी। इस संपत्ति का विवरण कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को नहीं दिया गया था और दिया भी नहीं जा सकता था क्योंकि वह 300 करोड़ रुपए की थी। इसीलिए आयकर विभाग की नजरें तिरछी हुई थीं। इस जायदाद में जमीनें, नकदी, मकान और जेवरात के अलावा महंगी कारें, कीमती साडिय़ां और शराब तक शामिल थी। जोशी दंपती की औसत आय डेढ़ लाख रुपए महीना यानी 18 लाख रुपए सालाना थी जिस से 20 साल की नौकरी में बगैर कोई खर्च किए भी वे महज 3 करोड़ 60 लाख के लगभग जायदाद बना पाते। यह 300 करोड़ रुपए की कैसे हो गई, इस की व्याख्या करने की जरूरत नहीं। जोशी दंपती ने साल 2010 में अपनी जायदाद के ब्योरे में महज 50 लाख रुपए की संपत्ति दर्शाई थी।
सरकार को गुमराह कर रहे अधिकारी
सख्ती, थोड़ी सी ही सही, किए जाने का प्रभाव यह पड़ रहा है कि आईएएस अधिकारी संपत्ति के ब्योरे के मामले में सरकार को खुलेआम गुमराह करने लगे हैं। उदाहरण उत्तर प्रदेश कैडर के 1974 के बैच के अधिकारी अजित कुमार सेठ का लें तो उन्होंने अपने पास 4 मकानों का होना दर्शाया है पर किसी भी मकान की कीमत 7 लाख रुपए से ज्यादा नहीं बताई है। बात बड़ी दिलचस्प है कि इस अधिकारी द्वारा साल 1995 में नोएडा में एक फ्लैट 4,66,740 रुपए में खरीदा गया था तब से इस की कीमत इतनी ही बताई जा रही है। इस पर शोध होना जरूरी है कि 19 साल में इस फ्लैट की कीमत बढ़ी क्यों नहीं और सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग क्यों इस तरफ से आंखें मूंदे बैठा रहता है यानी दी गई संपत्ति विवरण का मूल्यांकन या सत्यापन नहीं किया जाता। जिस कौलम में जायदाद का वर्तमान मूल्य लिखा होता है उसे ज्यों का त्यों उतार दिया जाता है। ऐसा एक नहीं, सैकड़ों अधिकारी कर रहे हैं। जानकारी न देना तो गुनाह है ही पर गलत जानकारी दे कर सरकार को गुमराह करना उस से भी ज्यादा संगीन गुनाह है। सरकार की संपत्ति की परिभाषा में सोने के गहने और दूसरी जगह किया गया निवेश शामिल नहीं है इसलिए आईएएस अधिकारी इन में ज्यादा पैसा लगाते हैं। अजित कुमार सेठ जैसे लगभग 200 आईएएस अधिकारी ऐसी खामियों का फायदा उठा रहे हैं। उन के मकानों और जमीनों की कीमत सालों से स्थिर है। रिटायरमेंट के बाद वे यही जायदाद जब करोड़ों में बेचेंगे तब सरकार का कोई जोर इन पर नहीं चलेगा। आय से ज्यादा संपत्ति पकड़ी जाती है तो आईएएस अधिकारी तरह-तरह की सफाई देने और बहाने बनाने लगते हैं। मध्य प्रदेश के ही एक अधिकारी रमेश थेटे जब इस मामले में पकड़े गए तो उन्होंने अजीब दलील यह दी थी कि चूंकि वे दलित हैं इसलिए उन्हें परेशान किया जा रहा है। इस बात से किसी ने हमदर्दी नहीं रखी और जल्द ही खुलासा भी हो गया कि आमदनी का जाति से कोई संबंध नहीं होता। एक बैंक ने उन की पत्नी नंदा थेटे को लाखों का फायदा पहुंचाया था। बात खुली तो ये अधिकारी चुप हो गए और अब मामला भी आयागया होता जा रहा है।
मात्र 10 फीसदी ही पाक-साफ
पीएमओ के एक अधिकारी की माने तो मौजूदा तकरीबन 4,200 आईएएस अफसरों में से 10 फीसदी यानी 420 ही ऐसे निकलेंगे जो जायदाद के मामले में पाक साफ हों। फर्क इतना है कि कुछ संभल कर जायदाद बनाते हैं तो कुछ किसी की परवा नहीं करते। अधिकारियों ने बचने का नया तरीका यह निकाल लिया है कि जायदाद अब नजदीकी रिश्तेदारों के नाम से बनाई जाए। हालांकि यह भी जोखिम वाला काम है पर जानकारी देने से तो बेहतर है। इसलिए, जरूरी हो गया है कि सरकार उन के नजदीकी रिश्तेदारों की भी जायदाद का ब्योरा मांगे। इस से पता चल जाएगा कि कल तक जो फटेहाल थे, वे कैसे मालामाल हो गए। अभी तक मातापिता, संतानों और जीवनसाथी के नाम से खरीदी गई संपत्ति का ब्योरा देना पड़ता है पर इस से भी कतराहट है तो इस का दायरा बढ़ाए जाने की जरूरत महसूस होने लगी है।
देश के 15 फीसदी आईएएस बेघर!
साल 2010 से ही अपनी अचल संपत्ति का सरकार को ब्योरा दे रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा के तकरीबन 3600 अधिकारियों में 559 अफसरों का कहना है कि उनके पास किसी तरह की अचल संपत्ति नहीं है। केंद्र सरकार के समक्ष साल 2014 के लिए दायर किए गए अपने अचल संपत्ति के रिटर्न में 14.5 फीसदी अधिकारियों ने यह दावा किया है। इन आंकड़ों की जांच के बाद पाया कि उत्तर प्रदेश के 57 आईएएस अफसरों ने किसी तरह के अचल संपत्ति न रखने का दावा किया है। इसके बाद मध्य प्रदेश से 42 अधिकारी आते हैं, जिनका कहना है कि उनके पास न तो घर है और जमीन है। पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का इन आंकड़ों पर कहना है, 'यह मुमकिन है कि 14.5 फीसदी अधिकारियों के पास कोई संपत्ति न हो लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये आंकड़ें भरोसेमंद हैं। आईएएस अधिकारियों और उनके पति या पत्नियों के पास इतनी तादाद में किसी तरह की कोई जायदाद न हो, यह बड़ी बात लगती है।Ó वह बताते हैं कि अधिकारियों के पास करियर की शुरूआत में भले ही घर न हो लेकिन बीच के दौर में पहुंचने पर ज्यादातर के पास घर होता है।

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