रविवार, 7 फ़रवरी 2016

महेश्वर परियोजना बनी मप्र सरकार के गले की फांस

कंगाल सरकार परियोजना पूरी करने कहां से लाएगी 2200 करोड़
देश की सबसे सस्ती परियोजना लापरवाही से बन गई सफेद हाथी
भोपाल। करीब 1,25000 करोड़ के कर्ज में डूबी मप्र सरकार के पास सूखे से बर्बाद हुए किसानों को मुआवजा देने तक के लिए भी पैसे नहीं हैं कि उस पर महेश्वर जलविद्युत परियोजना को पूरा करने का भार आ गया है। दरअसल, नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन निजीकृत महेश्वर जलविद्युत परियोजना से निर्माणकर्ता एजेंसी एस कुमार्र्स को हटाने का निर्णय लिया गया है। अब प्रदेश और केंद्र सरकार इस परियोजना को नियंत्रित करेंगी। महत्वपूर्ण घटनाक्रम में प्रदेश सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के बाद यह निर्णय लिया गया है। उल्लेखनीय है कि एस कुमार्र्स को तीन माह का अल्टीमेटम देकर पुनर्वास व काम में प्रगति दिखाने को कहा गया था, लेकिन वह इस काम में खरी नहीं उतर सकी। पिछले 30 साल से सरकार इस योजना से बिजली उत्पादन होने का ख्वाब देख रही थी, लेकिन करीब 2760 करोड़ रूपए इस परियोजना के निर्माण पर खर्च करने के बाद भी यह परियोजना अधूरी पड़ी है। जानकारों का कहना है कि महेश्वर जल विद्युत परियोजना पर अब तक करीब 2760 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हंै। करीब 2200 करोड़ रूपए की जरूरत पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए और है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कंगाली के दौर से गुजर रही प्रदेश सरकार इतनी बड़ी रकम कहां से लाएगी? उल्लेखनीय है कि बिच्छू डॉट कॉम ने 9 अप्रैल 2015 के अंक में महेश्वर जल विद्युत परियोजना में हुई देरी और घपले-घोटाले का खुलासा .... 2800 करोड़ स्वाहा, न बिजली मिली, न पानी ... शीर्षक से किया था। उल्लेखनीय है कि खरगोन जिले में नर्मदा नदी पर 1985 में महेश्वर जल विद्युत बांध परियोजना शुरू हुई थी। महेश्वर जलविद्युत परियोजना, ओंकारेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना से लगभग 40 किमी दूर खरगोन जिले में मंडलेश्वर के निकट नर्मदा नदी पर स्थित है। इस परियोजना के अन्तर्गत 35 मीटर ऊंचाई एवं 10475 मीटर लम्बा कांक्रीट बांध बनाया जाना है। दांए किनारे पर स्थित तटबंध सहित इसके उत्प्लाव की लम्बाई क्रमश: 1554 मीटर एवं 492 मीटर है एवं दांए तट पर 400 मेगावॉट की विद्युत क्षमता (40 मेगावॉट विद्युत क्षमता की 10 यूनिटें) का जल विद्युत गृह बनाना प्रस्तावित है। परियोजना के लिए जनवरी, 1994 में भारत-सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृति तथा केन्द्रीय विद्युत परियोजना की तकनीकी आर्थिक स्वीकृति प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात इस परियोजना को पूर्ण किए जाने के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगम लिमिटेड नामक निजी कम्पनी को सौंप दिए गए। इसके लिए नवम्बर, 1994 में मध्य प्रदेश विद्युत मण्डल द्वारा एक विद्युत क्रय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। दिसम्बर, 1996 में परियोजना के पूर्व की प्राक्कलन राशि रुपए 465.63 करोड़ को संशोधित कर रुपए 1569 करोड़ आंकी गई है। वर्ष 2006 के मूल्य स्तर पर किए मूल्यांकन पर परियोजना की कुल लागत रू 2760 करोड़ आंकी गई थी, जो अब अब बढ़कर करीब 5,000 करोड़ पहुंच गई है। 400 मेगावाट की इस परियोजना की शुरूआत में ही सरकार ने एस कुमार्र्स को इस परियोजना के निर्माण की जो जिम्मेदारी दी थी, उसका खामियाजा सरकार को लगातार भुगतना पड़ रहा है। आलम यह है कि निर्माण के लिए 30 साल में अब तक 4 निर्माण एजेंसियां बदल गई। 2760 करोड़ रुपए खर्च हुए लेकिन अभी तक न तो बिजली का उत्पादन शुरू हो सका और न ही खेतों को पानी मिल रहा है। परियोजना की लागत बढऩे और इसमें हो रहे घपले-घोटाले की वजह से परियोजना को कर्ज भी नहीं मिल रहा है। इसलिए यह परियोजना अधर में लटकी हुई है। अब जब 465 करोड़ रुपए की यह योजना बढ़कर करीब 5,000 करोड़ की हो गई है, तब जाकर सरकार की नींद खुली है और उसने इस परियोजना से निर्माणकर्ता एजेंसी एस कुमार्र्स को हटाने का निर्णय लिया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रमुख आलोक अग्रवाल ने बताया कि परियोजना के गतिरोध दूर करने के लिए नवंबर 2014 में प्रदेश सरकार ने अतिरिक्त मुख्य सचिव (वित्त) की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। समिति ने 2 मई 2015 को प्रस्तुत रिपोर्ट में परियोजना को लेकर 3 विकल्प सुझाए। इसके तहत परियोजनाकर्ता एस कुमार्र्स को 600 करोड़ रुपए की पूंजी जुटाने या 1100 करोड़ रुपए के ऋण की व्यवस्था 3 महीने में करने को कहा गया। यदि यह संभव न हो तो एस कुमार्र्स को हटाकर केंद्र व राज्य सरकार पूंजी निवेश कर परियोजना की मालकियत व संपूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में लें। यदि यह भी संभव न हो तो परियोजना को रद्द कर दिया जाए। हाल ही में 8 सितम्बर 15 को परियोजना में पैसा लगा रही वित्तीय संस्थाओं और बैंकों की बैठक में स्पष्ट किया गया कि 2 अगस्त 2015 तक 3 महीने पूरे होने पर भी परियोजनाकर्ता एस.कुमार्र्स द्वारा पैसे की व्यवस्था न होने के कारण उसे परियोजनाकर्ता से हटाकर अब सरकार द्वारा परियोजना को अपने नियंत्रण में लेने की कारवाई प्रारंभ कर दी गई है। अब परियोजनकर्ता स्वयं केंद्र व राज्य सरकार होगी। सरकार का ही परियोजना पर पूरा नियंत्रण होगा। नर्मदा आन्दोलन ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए मांग की है कि परियोजना को आगे बढ़ाने के पहले बिजली की दरों व प्रभावितों के पुनर्वास के बारे में ठोस निर्णय लें। चार साल में ही कंपनी ने कर दिए थे हाथ खड़े यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि महेश्वर बांध परियोजना का काम सिर्फ चार साल ही चला। 1993 में मप्र सरकार द्वारा निजीकरण लागू किए जाने के बाद यह परियोजना एस कुमार्र्स के हाथों में पहुंची। 1996-97 में एमओयू साइन होने के बाद काम शुरू हुआ, लेकिन 2001 में निर्माण कंपनी एस. कुमार्स ने वित्तीय कमजोरी की वजह से कार्य रोक दिया था। परंतु 2001 से 2005 तक काम बंद रहा। 2005 में पॉवर फाईनेंस कार्पोरेशन की अगुवाई में कुछ और समूहों और राज्य शासन ने मिलकर इसका काम शुरू करवाया, जो 2011 तक चला। इस दौरान 10 में से तीन टर्बाइन स्थापित कर बिजली उत्पादन की तैयारियां शुरू कर दी गई थी। इन तीन टर्बाइन से ही 120 मेगावाट बिजली उत्पादन शुरू किया जा सकता है, लेकिन इसके बाद परियोजना फिर उलझ गई। इस परियोजना में राज्य शासन ने पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन को केवल 400 करोड़ की काउंटर गारंटी दी है, जबकि पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन, रूरल इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन, हुडको, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, देना बैंक, जीआईसी और एलआईसी का पैसा लगा है। पॉवर कॉर्पोरेशन ने इसका एक ग्रुप बना रखा है। एस कुमार्स के कारण सबसे सस्ती परियोजना हो गई महंगी महेश्वर जल विद्युत परियोजना जब शुरू हुई थी तो वह देश की सबसे सस्ती परियोजना थी। लेकिन निर्माण एजेंसी एस कुमार्स की लापरवाही से यह परियोजना देश की सबसे महंगी परियोजना हो गई है। राहत और पुनर्वास में हुई देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को सबसे अधिक एस. कुमार्र्स ने नुकसान पहुंचाया है। इसके पीछे मुख्य वजह है- इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्र्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्र्स को दी गई थी। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 465 करोड़ रुपए ही थी जो अब बढ़कर 4,000 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्र्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ करती रही। बावजूद इसके एस कुमार्र्स समूह पर राज्य सरकार फिदा रहा। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी गई और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली गई। उसने इंटर-कॉर्पोरेट डिपॉजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है। राज्य शासन ने एस. कुमार्स गु्रप को इंटर-कॉर्पोरेट डिपॉजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी थी। महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए। 13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाइडल पॉवर कॉर्पोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया। अनुमोदन के बाद एस. कुमार्र्स की एकमुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्तों में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एक मुश्त समझौते के उल्लंघन के बाद एस. कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया। आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है। इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस. कुमार्र्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्र्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए। पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए चाहिए 2200 करोड़ महेश्वर जल विद्युत परियोजना के अंतर्गत पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए करीब 2200 करोड़ रूपए की और जरूरत है। केंद्र सरकार और अन्य एजेंसियों से बांध को 154 मीटर तक भरने की अनुमति मिली है। इतनी ऊंचाई तक तीन टर्बाइन से बिजली बनाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए भी करीब 80 करोड़ की जरूरत होगी, ताकि जिन किसानों के खेत के कुछ हिस्से डूब में आ रहे हैं। उन्हें मुआवजा दिया जा सके। जानकारों का कहना है कि तीन टर्बाइन के साथ बिजली उत्पादन में छह माह और 10 टर्बाइन के साथ 400 मेगावाट बिजली उत्पादन में दो वर्ष का समय लगेगा। वह भी तब जब पुनर्वास, विस्थापन सहित अन्य समस्याएं तय समय में दूर कर ली जाए। हालांकि 30 साल में यहां सिर्फ 20 प्रतिशत विस्थापन ही हो पाया है। इस बांध निर्माण से 22 गांव प्रभावित हो रहे हैं। पहले चरण के परीक्षण उत्पादन में ही सुलगांव, पथरड़, मर्दाना, नगावां, अमलाथा, गोगावां और भट्टयाण प्रभावित होंगे। इन गांवों में से कई में अभी तक पुनर्वास ही नहीं हो सका है। कंपनी प्रबंधन की मानें तो पुनर्वास पर 200 करोड़ रुपए पहले ही खर्च किए जा चुके हैं, जबकि पुरानी दर से भी पुनर्वास खर्च को जोड़ा जाए तो 350 करोड़ रुपए से अधिक राशि की जरूरत और है। यही नहीं भू-अर्जन और पुनर्वास को लेकर लागू नए कानून के अनुसार यदि मुआवजा दिया गया तो सरकार को भारी रकम चुकाना होगी। सरकार को डेढ़ से दो हजार करोड़ रुपए विस्थापन पर खर्च करना होंगे। पहले ही वित्तीय संकट के दौर से गुजर रही प्रदेश सरकार के लिए इतनी बड़ी रकम खर्च करना आसान नहीं होगा। खरगोन कलेक्टर नीरज दुबे कहते हैं कि अभी हमें आदेश नहीं मिला है। बांध परियोजना की रिपोर्ट हम लगातार राज्य और केंद्र सरकार को भेजते रहे हैं। फिलहाल पुनर्वास का काफी काम शेष है। आदेश मिलते ही नए अधिकारियों की तैनाती कर कार्य शुरू किया जाएगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रमुखआलोक अग्रवाल ने बताया कि नया भूअर्जन कानून लागू होने से यह खर्च 1500 से 2000 करोड़ रुपए तक होगा जबकि समिति ने माना कि बांध से प्रभावित होने वाले 61 गांवों के 10 हजार परिवारों के पुनर्वास में 979 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। आंदोलन लगातार इसी मुद्दे को लेकर 20 सालों से सरकार को चेताता आ रहा है। उल्लेखनीय है कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने लगभग 20 वर्षों से महेश्वर परियोजना के विषय परियोजना की लाभदायकता और विस्थापितों के पुनर्वास के बारे में गंभीर प्रश्न खड़े किए है। परियोजना की महंगी बिजली, तमाम कैग रिपोर्ट्स के आधार पर परियोजनाकर्ता की वित्तीय अनियमितताएं व हजारों प्रभावितों के भू-अर्जन व पुनर्वास की व्यवस्था के न होने के मुद्दे को हजारों विस्थापितों ने नर्मदा बचाओ आन्दोलन के तहत सालों के सतत संघर्ष से उठाया है। बिजली की लागत होगी 13 रुपए बांध पूरा होने के बाद इससे बनने वाली महंगी बिजली कौन खरीदेगा इस पर विचार चल रहा है। प्रदेश सरकार ने निर्माण एजेंसियों को पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वे पांच रुपए 37 पैसे प्रति यूनिट से अधिक महंगी बिजली नहीं खरीदेंगे, जबकि परियोजना की वर्तमान लागत के अनुसार यहां बनने वाली एक यूनिट बिजली की कीमत 12 से 13 रुपए या उससे थोड़ी अधिक होगी। परियोजना को फाइनेंस करने वाली कंपनियां इस विकल्प पर भी विचार कर रही है कि अगले 15 वर्ष तक बिना किसी लाभ के सरकार को उनकी दरों के अनुसार ही बिजली सप्लाय की जाए। उच्च स्तरीय समिति के अनुसार परियोजना की वर्तमान लागत पर बिजली के दाम 12 से 13 रुपए प्रति यूनिट होंगे। इसे ब्याज दर कम करने, पूंजी पर लाभ न लेने आदि प्रयासों के बाद 5.32 रुपए प्रति यूनिट तक लाया जा सकता है, जिसे प्रदेश सरकार स्वीकार कर सकती है। वहीं प्रदेश सरकार ने यह भी कहा कि प्रदेश में बिजली मांग से ज्यादा उपलब्ध है और वह अन्य राज्यों को बिजली बेच रही है। सरकार को बिजली 3.50 रुपए प्रति यूनिट पड़ रही है। समिति ने माना कि यदि सरकार भी परियोजना लेती है तो प्रति यूनिट 2 रुपए के मान से करीब 200 करोड़ रुपए प्रति वर्ष का नुकसान होगा। बिजली दर 3.50 रुपए प्रति यूनिट से ज्यादा तय करना जनहित में नहीं होगा। एनजीटी ने कहा पहले पुनर्वास फिर बांध में पानी उधर, महेश्वर परियोजना के संबंध में राष्ट्रीय हरित न्यायाधीकरण नई दिल्ली (एनजीटी) ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए कहा है कि महेश्वर बांध में तब तक गेट बंद कर पानी नहीं भरा जा सकता, जब तक कि परियोजना के प्रभावितों का संपूर्ण पुनर्वास न हो जाए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल ने बताया है कि तत्कालीन परियोजनाकर्ता ने सन 2012 में गलत जानकारी देकर पर्यावरण मंत्रालय से महेश्वर बांध में 154 मीटर तक पानी भरने की अनुमति ले ली थी। इस पर महेश्वर बांध प्रभावित अंतर सिंह और संजय निगम ने एनजीटी में इस अनुमति को चुनौती दी थी। एनजीटी ने सभी पक्षों की सुनवाई के बाद 28 अक्टूबर, 2015 को स्पष्ट आदेश दिया है कि जब तक संपूर्ण पुनर्वास पूरा नहीं हो जाता, तब तक महेश्वर बांध में तय ऊंचाई तक पानी नहीं भरा जा सकता, जब तक पुनर्वास पूरा नहीं हो जाता। साथ ही पुनर्वास पूरा होने के बाद गेट बंद करने के लिए एनजीटी से अनुमति लेनी होगी। अग्रवाल के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकार को दिए गए आदेश में न्यायाधीश यूडी साल्वी एवं विशेषज्ञ सदस्य रंजन चटर्जी की खंडपीठ ने कहा है कि मुख्य मुद्दा संबंधित परियोजना से जुड़े पुनर्वास के पूरा होने का है, एक मई 2001 को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के अनुसार, पुनर्वास का काम बांध निर्माण की प्रगति के साथ-साथ चलेगा। खंडपीठ ने कहा कि वर्तमान में निर्माण का कार्य पूरा हो गया है, लेकिन पुनर्वास के काम में निर्माण के साथ आवश्यक गति नहीं रखी गई है। पुनर्वास का काम न होने का कारण परियोजनाकर्ता द्वारा जिम्मेदार एजेंसी को पैसा न देना है। हम पैसा उपलब्ध कराने के मुद्दे पर न जाते हुए निश्चित रूप से हम अपना आदेश पुन: दोहराना चाहते हैं कि पुनर्वास पूरा किए बगैर बांध के गेट बंद या गिराए नहीं जाएंगे, जिससे क्षेत्र डूब में आए। इस मामले को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करते हैं, पक्षों को छूट दी जाती है कि पुनर्वास का कार्य पूरा हो जाने के बाद वो बांध के गेट बंद करने की अर्जी कर सकते हैं। प्रभावित याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी करने वाले अधिवक्ता संजय पारीख ने बताया कि परियोजनाकर्ता लगातार भू-अर्जन और पुनर्वास के लिए आवश्यक राशि उपलब्ध कराने में असफल रहा है। पारीख ने एनजीटी को यह भी बताया कि 154 मीटर तक पानी भरने का आदेश यह झूठ कहकर लिया गया था कि इस ऊंचाई पर 120 मेगावाट बिजली बन सकती है, जबकि ट्रिब्यूनल में प्रस्तुत हाल के दस्तावेजों से स्पष्ट है कि टरबाइन बनाने वाली कंपनी बीएचईएल ने स्पष्ट किया है कि पूर्ण जलाशय स्तर 162.26 मीटर के पहले बिजली बनाना संभव नहीं है। नर्मदा आंदोलन ने एनजीटी के आदेश का स्वागत करते हुए मांग की है कि इस आदेश के बाद सरकार अब नए भू-अर्जन कानून के अनुसार, प्रभावितों का भू-अर्जन कर संपूर्ण पुनर्वास करे। बॉक्स........ सबसे सस्ती परियोजना यूं बन गई सफेद हाथी - 1992 में बांध परियोजना के निजीकरण का निर्णय लिया गया - एस. कुमार्र्स को इसके निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई, जबकि फाइनेंशियल एजेंसी पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन नई दिल्ली बनी। - 1996-1997 में निर्माण एजेंसी और प्रदेश सरकार के बीच एमओयू साइन हुआ। - वर्ष 2000 तक इसका कार्य पूरा किए जाने का लक्ष्य था। - विरोध और अन्य कारणों से 465 करोड़ की इस योजना की लागत साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए से भी अधिक हो गई। - परियोजना में पूरी तरह डूब प्रभावित गांव 13 हंै, जबकि नौ गांव आंशिक डूब प्रभावित हैं। - 44 गांवो की 873 हेक्टेयर कृषि भूमि इससे प्रभावित हुई है। - निर्माण कंपनी ने काम बंद किए जाने से पहले 12 गांवों के पुनर्वास का दावा किया, आठ गांव में पुनर्वास कार्य शेष था। - बांध पूरा होने की स्थिति में प्रदेश को 400 मेगावाट बिजली मिलती। - बांध के ढाई किमी लंबे पाट पर 27 गेट और 10 उत्पादन इकाइयां स्थापित की जाना थी। - 162.76 मीटर जलभराव का प्रस्ताव था। - फिलहाल वन व पर्यावरण मंत्रालय और ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 154 मीटर जल भराव की अनुमति ही दी थी। - सितंबर 2012 में केंद्र सरकार ने महेश्वर जल विद्युत परियोजना को विद्युत उत्पादन के लिए हरी झंडी भी दे दी थी, लेकिन काम शुरू नहीं हो सका।

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