गुरुवार, 18 मार्च 2010

अभ्यारण बने बाघों की कब्रगाह

भारत का हृदय स्थल मध्यप्रदेश अपने शानदार घने जंगलों और राष्ट्रीय पशु बाघ की दहाड़दार मौजूदगी के कारण पूरे विश्व में जाना जाता है। बाघ की शानदार आबादी के कारण मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट का दर्जा भी मिला हुआ है। लेकिन वन अधिकारियों, वन माफिया और तस्करों की मिली भगत से पन्ना अभ्यारण्य में ऐसा खूनी खेल खेला गया कि अब यह ताज छीने जाने की पूरी तैयारी हो चुकी है। विभाग की लापरवाहियों के चलते मध्यप्रदेश अब बाघ विहीन होता जा रहा है। उधर प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह ने इस मामले में जिस तरह तत्परता दिखाई है अगर पूर्ववर्ती सरकार के मंत्रियों ने दिखाई होती तो आज यह स्थिति नहीं बनती और मध्यप्रदेश को विश्व समुदाय के सामने नीचा नहीं देखना पड़ता।
प्रदेश के सबसे सुरक्षित और अधिक बाघों की संख्या वाले पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ न होने की खबर ने सनसनी तो फैलाई ही है उस पर वन मंत्री द्वारा बाघों के गायब होने की जॉच सीबीआई से कराने की अनुशंसा अपनी सरकार से करने को कह कर मामले की गंभीरता को उजागर किया है। क्योंकि कुछ दिनों पूर्व ही उन्होंने विभाग के उन अधिकारियों की फाइल तलब की है जिन पर वर्षो पूर्व से भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं और जांच के नाम पर फाइलें धूल खा रही थी। उल्लेखनीय है कि पन्ना अभ्यारण्य कुख्यात डकैत ठोकिया की शरण स्थली था। इस दौरान पन्ना में सबसे अधिक बाघों की हत्या हुई है, जिससे अंदेशा लगाया जा रहा है कि अधिकारियों की मिलीभगत से ठोकिया ने अंतर्राष्ट्रीय वन्यप्राणी तस्कर संसार चंद और शब्बीर के लिए बाघों को मारा होगा। पन्ना अभ्यारण्य वैसे भी हमेशा से संवेदनशील रहा है क्योंकि उत्तरप्रदेश से इसकी सीमा मिलती है और हमेशा वहां के शिकारी घुसपैठ करते रहते हैं। पिछले दिनों ही वन विभाग के अमले ने अभ्यारण्य में कुछ हथियारबंद लोगों को घूमते देखा, लेकिन काफी खोजबीन के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
उल्लेखनीय है कि विगत माह ही प्रदेश के सभी अभ्यारण्यों और जंगलों में वन्य प्राणियों की गिनती हुई है और रिर्पोट मंत्री तक पहुंच गई है। पहले से माना जा रहा था कि यह समिति विभाग के अफसरों को बचाने के उद्देश्य से गठित की गई है तभी राज्य सरकार ने केंद्र द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की और राज्य स्तरीय समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया। कहा जा रहा है कि समिति के एक सदस्य, राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण तथा टाईगर प्रोजेक्ट के सदस्य राजेश गोपाल समिति की इस मुहिम में शामिल नहीं हुए और इसीलिए होली के एक दिन पहले जो जांच रिपोर्ट सौंपी गई, उसमें उनके हस्ताक्षर नहीं हैं।
सूत्रों का कहना है कि उन्होंने अलग से अपनी रिपोर्ट सौंपी है जिसमें केंद्रीय समिति की तर्ज पर बाघों के गायब होने के लिए शिकारियों के साथ पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में पदस्थ रहे संचालकों तथा भोपाल में बैठकर तमाशबीन बने रहे विभाग के आला अफसरों को भी जवाबदार ठहराया गया है। वन मंत्री सरताज सिंह ने जांच रिपोर्ट दिखाते हुए कहा कि रिपोर्ट 160 पेज की है। जिसे अब तक न मैने पढ़ी और संभवत: न ही अधिकारियों ने पढ़ी होगी। उन्होंने रिपोर्ट के नीचे राजेश गोपाल के हस्ताक्षर न होने की बात भी स्वीकारी लेकिन उनके द्वारा कोई समानांतर रिपोर्ट सौंपने की जानकारी से इंकार किया।
वन मंत्री सरताज सिंह के कड़े रुख से बाघों ेकेगायब होने का मामला एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। उन्होंने यह मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया है और इससे संबंधित प्रस्ताव विभाग की ओर से राज्य सरकार के पास भेज भी दिया गया है। श्री सिंह का कहना है, उचेहरा में एक बाघ के शिकार तथा पकड़े गए आरोपी के भाग जाने का मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया गया था लेकिन यहां तो कम से कम 20 और ज्यादा से ज्यादा 34 बाघों के गायब होने का सवाल है जिनकी आज तक लाश नहीं मिली।
उन्होंने कहा कि रिपोर्ट विरोधाभाषी है और सीबीआई जांच होने पर सारी स्थिति अपने आप स्पष्ट हो जाएगी। वैसे भी जनता को इस मामले की सच्चाई जानने का अधिकार है। इसलिए उचेहरा प्रकरण के साथ इसे भी जोड़ दिया गया। श्री सिंह ने कहा कि यह प्रदेश के लिए कलंक की बात है कि एक टाइगर रिर्जव के सभी बाघ गायब हो गए। उन्होंने कहा कि इसमें निश्चित रूप से किसी अंतर्राष्ट्रीय तस्कर गिरोह का हाथ है जिसका सहयोग भले ही स्थानीय लोगों का मिला हो। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस दौरान बाघ गायब हुए, भले मौजूदा मुख्य सचिव अवनि वैश्य तब वन विभाग के प्रमुख सचिव थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें सीबीआई जांच में कोई आपत्ति होगी। फिलहाल वनमंत्री के कदम से वन महकमे के उन आला अफसरों में हड़कंप की स्थिति है जो इस मामले से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं।
बाघों की संख्या में गिरावट के लिए मुख्यरूप से अवैध शिकार करके उनके अंगों का व्यापार करने वाले व्यापारी ही जिम्मेदार हैं। सवाल है ये गिरोह किसकी मिलीभगत से पनपते हैं? ऐसा क्यों होता है कि बाघों के संरक्षण के लिए खड़े किये गये तंत्र ऐसे गिरोहों की गतिविधियों पर काबू पा सकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। सरकारी अमला भ्रष्ट, लापरवाह और लालची हो सकता है पर समाज को क्या हुआ है?
प्रतीत होता है कि बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए बने अभ्यारण्य ही आज उनकी कब्रगाह बन गये हैं। इस बात को उस समय और बल मिल गया जब प्रदेश में वन्य प्राणियों की गिनती का काम चल रहा था उस समय पन्ना टाइगर रिजर्र्व क्षेत्र में चन्दननगर रेंज के पास अमदरा नाला, सुकवाहा, पलकोहा आदि के जंगलों में खुदाई की गयी जहां सनसनी खेज रूप से मृत शेर, तेंदुआ, रीछ सहित कई जानवरों के अवशेष पाये गये। इनकी बड़ी पैमाने में हड्डियां भी निकली हैं। जिससे यह आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि इन जानवरों की ह्त्या कर उनके अवशेषों को छिपाने के लिए टाइगर रिजर्व क्षेत्र में ही गाड़ दिया गया है। हैरान करने वाला तथ्य तो यह है कि जिस क्षेत्र में बाघ गायब हुए उसी क्षेत्र में वन्य प्राणियों के अवशेष मिले हैं।
फील्ड डायरेक्टर निवास मूर्ति द्वारा यह बात स्वीकार करते हुए कहा गया है कि टाईगर रिजर्व क्षेत्र में मिली हड्डियों की जांच फॉरेंसिक लेबोरेटरी द्वारा की जायेगी एवं वन्य जीव विशेषज्ञों द्वारा यह जांच की जाएगी। इस रहस्योद्घाटन के बाद पन्ना टाईगर रिजर्व की पोल खुद वा खुद खुलती नजर आ रही है। यहाँ के अफसरों के भ्रष्ट रवैये के चलते धीरे-धीरे बाघों के शिकार होते गये और बाघ एक के बाद एक गायब होते चले गये।
लेकिन कहावत है कि चोर की दाढ़ी मे तिनका और शायद यही तिनका बाघ के गायब होने का रहस्य सुलझा सकता है। जानवरों के अवशेष कई सवालों को जन्म देते हैं कि क्या टाइगरों की हत्या कर इन्हें गाड़ा गया? क्या इन हत्याओं में टाइगर रिजर्व के अधिकारी कर्मचारी शामिल हैं? क्या पन्ना के टाइगर अधिकारियों के भ्रष्ट रवैये की भेंट चढ़ गए?
केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि इस समय देश में महज 1411 बाघ बचे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 290 मध्य प्रदेश में हैं। लेकिन बाघों के मामले में नंबर एक मध्य प्रदेश बाघों की मौत के मामले में भी नंबर एक है। इस साल अब तक 14 राज्यो में जो 59 बाघ मरे हैं उनमें से अकेले मध्यप्रदेश में 14 बाघ मारे गए हैं। मध्य प्रदेश के बाद असम (10) और कर्नाटक (9) का नंबर है। वहीं मध्य प्रदेश वन विभाग के एक बड़े अफसर यह कहने में शर्म भी नहीं करते हैं कि मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या देखते हुए मौत का यह आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है।
यह बेशर्मी है या अज्ञानता। कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मध्यप्रदेश की सरकार को ही बाघों की चिंता नहीं तो ये अफसर भला क्या करेंगे।
देश की आजादी के समय बाघों की संख्या 40 हजार थी। लेकिन अगले कुछ ही सालों में शिकार के शौकीन रईसों और पुरानी सियासतों के झंडाबरदारों ने जंगल के असली राजा का लगभग सफाया कर दिया है। 1972 की गणना में कुल 1827 बाघ बचे थे। 1973 में इंदिरा गांधी ने राजस्थान के टाईगर मैन कहे जाने वाले कैलाश सांखला की पहल पर बाघ परियोजना शुरू की थी।
लेकिन बढऩे की बजाय बाघ कम होते गये। सरकारी आंकड़े बाघों के मारे जाने की पुष्टि करते है। इसी साल 12 फरवरी को राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि सत्तर के दशक में शुरू किया गया महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट टाईगर अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया है और देश में बाघों की संख्या अब तक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी है। 2002 में की गयी गणना के अनुसार देश में 3642 बाघ थे वहीं वर्तमान में 1411 बाघ बचे हैं। जो कि साठ के दशक में की गयी गणना 1800 बाघों से भी कम है।
ताजा गणना के अनुसार राजस्थान में 32, उत्तर प्रदेश में 109, उत्तराखण्ड में 179, बिहार में 10, आंध्र प्रदेश में 75, छत्तीसगढ़ में 26, महाराष्ट्र में 103, उड़ीसा में 45, कर्नाटक में 290, केरल में 46, तमिलनाडु में 76, अरुणाचल में 14, मिजोरम 6 और पश्चिम बंगाल में 10 बाघ बचे हैं। साफ है कि अभ्यारण्य बाघों को बचाने के कारगर उपकरण साबित नहीं हुए हैं।
वाईल्ड लाईफ प्रोटेक्शन सोसायटी के सर्वेक्षण के अनुसार पिछले दस सालों में (1994 से जनवरी 2005) हमारे अभ्यारण्यों में 734 बाघ और 2474 तेंदुए शिकारियों के हत्थे चढ़ चुके हैं। रिकार्ड के आधार पर संसारचंद गिरोह पर तीस से पैंतीस हजार वन्यजीवों की हत्या कर उनके खालों और अंगों की तस्करी की गयी।
वाईल्ड लाईफ संस्थान का मानना है कि देश के आठ राष्ट्रीय पार्कों-इंद्रावती, श्रीसेलम, डंपा, पलामू, पन्ना, रणथंभौर, सरिस्का, बांधवगढ़ में बाघ सबसे ज्यादा संकट में हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की नयी रपट भी इस बात की पुष्टि करता है कि 2003 से 2005 के बीच 728 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र खत्म हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि देश के कुल भू-भाग का मात्र 20.6 प्रतिशत हिस्सा ही वन क्षेत्र है उसमें भी सघन वनों का हिस्सा मात्र 1.6 प्रतिशत है। ग्यारह अभ्यारण्यों में वन क्षेत्र घटा है।
जंगल और बाघों को बचाने के लिए अनाप-शनाप पैसा मिलता है। 2008-2009 के दौरान प्रोजेक्ट टाइगर के तहत मध्यप्रदेश के छह अभ्यारण्यों को 70 करोड़ के आसपास रकम मिली। सबसे ज्यादा 21 करोड़ पन्ना को मिले, जहां कोई बाघ बचा ही नहीं। 70 करोड़ रुपये में 300 बाघों की देखभाल बड़ी बात नहीं है लेकिन बाघों का पैसा बाघों पर खर्च तो हो। मध्यप्रदेश में बाघों को बचाने के लिए बनाई गई टाइगर फाउंडेशन सोसाइटी को भी इधर-उधर से मोटा बजट मिलता है लेकिन इस बजट का कितना लाभ बाघों को हो रहा है?
हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन इस प्रदेश का वन विभाग और सरकार इस खूबसूरत जानवर को लेकर गंभीर नहीं है और इसे खोने पर तुली है। अब तो मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार से पूछ लिया है कि वो बाघों को बचाने के प्रति कितनी गंभीर है और इस दिशा में उसने क्या कदम उठाया। प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी है। कहा जा सकता है कि अगर लापरवाही का यही हाल चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मध्यप्रदेश अपने टाइगर स्टेट का दर्जा खो बैठेगा।
भारत के इतिहास में अब तक सबसे कम बाघ दर्ज हुए हैं। यह संख्या 1972 में हुई बाघ गणना के आँकड़ों से भी कम है जब देश में इस राष्ट्रीय पशु की संख्या घटकर महज 1827 रह गई थी। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पहल पर देश में प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना शुरू हुई। देश में अब 28 प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए और 1997 में बाघों की संख्या बढ़कर साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई।
2001-02 में भी ये 3642 बनी रही लेकिन नई शताब्दी का पहला दशक इस धारीदार जानवर के लिए घातक सिद्ध हुआ और इस दशक के अंत तक ये सिमटकर मात्र 1411 रह गए। फरवरी 2008 में बाघों की यह गणना देशभर में भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने की थी। उल्लेखनीय है कि आजादी के ठीक बाद यानी 1947 में भारत में 40000 बाघ थे। बाघों की इस संख्या को लेकर भारत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था लेकिन बढ़ती आबादी, लगातार हो रहे शहरीकरण, कम हो रहे जंगल और बाघ के शरीर की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भारी बढ़ोत्तरी इस खूबसूरत जानवर की जान की दुश्मन बन गई।
2008 में हुई गणना से पहले मध्यप्रदेश वन विभाग प्रदेश में 700 से ज्यादा बाघ होने के दावे किया करता था लेकिन इस गणना के बाद उन सब दावों की हवा निकल गई और असली संख्या 264 से 336 सामने आई। भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार इस गणना में पता चला है कि सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में ही कम हुए हैं। कम होने या गायब होने वाले बाघों की संख्या 400 के आसपास है। आशंका जताई गई कि इनमें से ज्यादातर का शिकार कर लिया गया और उनके अंग दूसरे देशों को बेच दिए गए। 2010 इस जानवर के लिए और भी कड़ी परीक्षा वाला साबित होने वाला है क्योंकि शिकारियों की संख्या जहाँ लगातार बढ़ रही है वहीं बाघों की संख्या और उनका इलाका लगातार कम हो रहा है।
मध्यप्रदेश का राष्ट्रीय उद्यान पन्ना बाघों के खत्म होने का सबसे पहला प्रतीक बना। 2007 में वन विभाग ने यहाँ 24 बाघ होने का दावा किया था। ्रलेकिन रघु चंद्रावत जैसे स्वतंत्र बाघ विशेषज्ञ ने यहाँ सिर्फ एक बाघ की मौजूदगी बताई थी। तब बाघिन का यहाँ नामोनिशान तक नहीं मिला।
आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने 1973 में बाघों को बचाने के लिए टाईगर प्रोजेक्ट का श्रीगणेश किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है। जिस तरह सरकार के उपेक्षात्मक रवैए के चलते देश में गिद्ध की प्रजाति दुर्लभ हो गई है, ठीक उसी तरह आने वाले दिनों में बाघ अगर चिडियाघर में शोभा की सुपारी की तरह दिखाई देने लगें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल, भुखमरी, रोजगार के साधनों के अभाव और कम समय में रिस्क लेकर ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बड़ी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं।
सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हड्डियां एक लाख से डेढ़ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नाखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढ़ा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।
सरकार की पैसा फेंकने की योजनाओं के लागू होते ही उसे बटोरने के लिए गैर सरकारी संगठन अपनी अपनी कवायदों में जुट जाते हैं। वन्य प्राणी और बाघों के संरक्षण के मामले में भी अनेक एनजीओ ने अपनी लंगोट कस रखी है। जनसेवकों के पे रोल पर काम करने वाले इन एनजीओ द्वारा न केवल सरकारी धन को बटोरा जा रहा है, बल्कि जनसेवकों के इशारों पर ही सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजनाओं में अडंगे भी लगाए जा रहे हैं।
बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रकिृया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडऩे के बजाए कराह ही रहे हैं। जंगल की कटाई पर रोक और वन्य जीवों के शिकार के मामले में आज आवश्यक्ता सख्त और पारदर्शीं कानून बनाने की है। सरकार को सोचना होगा कि आखिर उसके द्वारा इतनी भारी भरकम राशि और संसाधन खर्च करने के बाद भी पांच हजार से कम तादाद वाले बाघों को बचाया क्यों नही जा पा रहा है। मतलब साफ है कि सरकारी महकमों में जयचन्दों की भरमार है। भारत में बाघ एक के बाद एक असमय ही काल कलवित हो रहे हैं और सरकार गहरी निन्द्रा में है।
बाघ बचाने लिए सरकार को चाहिए कि वह जंगल की कटाई पर रोक के लिए सख्त कानून बनाए, टाईगर रिजर्व के आस पास कड़ी सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराए, इसके लिए विशेष बजट प्रावधान हो, नए जंगल लगाने की योजना को मूर्तरूप दिया जाने के साथ ही साथ बाघ को मारने पर फांसी की सजा का प्रावधान किया जाना आवश्यक होगा। वरना आने वाले एक दशक में ही बाघ भी उसी तरह दुर्लभ हो जाएगा जिस तरह अब गिद्ध हो गया है। वनों के संवर्धन और संरक्षण का उत्तरदायित्व राज्यों में वन विभाग के अमलों का होना है। वनों के रखरखाव के लिए तैनात भारी भरकम शासकीय कर्मियों की फौज होते हुए भी जिस पैमाने पर वनों का विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। उल्टे, यह हो रहा है कि जंगलों की कटाई और वनोपजों की निरंतर हो रही चोरियों के कारण वनों के क्षेत्रफल घटते चले जा रहे हैं। रसूखदारों द्वारा वनसंपदाओं के अवैध व्यापार पर न तो कठोरता से नियंत्रण हो पा रहा है और न ही शासकीय स्तर पर क्षतिपूर्ति वनरोपण की दिशा में गंभीरता परिलक्षित हो रही है। परिणाम स्वरूप वनों का सत्यानाश होता जा रहा है।

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