शनिवार, 1 जनवरी 2011
कांग्रेस के लिए कठिन साल
एक और वर्ष जहां इतिहास के पन्नों में समाने को तैयार है वहीं नया वर्ष नई उम्मीदों के साथ दस्तक दे रहा है, लेकिन उम्मीदों का यह सूरज शायद कांग्रेस के लिए उतना चमकीला नहीं दिख रहा जितना पिछले साढ़े छह सालों में रहा है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी और पहली बाधा तो फिलहाल ठप पड़े संसद को चालू कराने और सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच राजनीनिक गतिरोध को तोड़ने की है। हालांकि 2 जी स्पेक्ट्रम पर जेपीसी की मांग पर अड़ा संयुक्त विपक्ष इस बात से नाराज है कि कांग्रेस को जीवनीशक्ति देने का काम खुद भाजपा कर रही है, जिसके वरिष्ठ नेता और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी इस मामले की सुनवाई में तेजी दिखा रहे हैं। यदि यह मामला नहीं सुलटता है तो बजट पारित कराना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। बजट सत्र में जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड समेत कुल 17 विधेयकों पर विचार-विमर्श होना है, जिन्हें लंबे समय तक नजरंदाज किया जाना संभव नहीं है। मई 2009 में जब कांग्रेस दोबारा जीतकर सत्ता में आई थी तो जनमानस के बीच यह भावना काम कर रही थी कि मनमोहन सिंह ने वैश्विक मंदी के बावजूद देश के आर्थिक विकास को बनाए रखा जिसका पुरस्कार जनता ने कांग्रेस को जिताकर दिया भी, लेकिन संप्रग-2 सरकार के कार्यकाल में एक के बाद एक हो रहे भ्रष्टाचार के खुलासों और लगातार बढ़ती महंगाई के कारण वही जनता आज खुद को ठगा महसूस कर रही है। जेपीसी गठित हो या न हो, लेकिन आने वाले चुनावों में जनता सरकार को माफी देने के मूड में नहीं दिख रही। इसका प्रमाण बिहार के चुनावों में देखा जा सकता है। नए साल में कांग्रेस के सामने एक बड़ा संकट नेतृत्व का भी होगा। फिलहाल कांग्रेस के पास व्यापक जनाधार वाला राष्ट्रीय स्तर का कोई भी कद्दावर नेता नहीं है। नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी, रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान जैसे दिग्गज नेताओं की तरह कांग्रेस के पास राज्य में भी कोई नेता फिलहाल नहीं है। यदि हम महाराष्ट्र को ही देखें तो वहां भी यह संकट अभी तक हल नहीं हो सका है। विलासराव देशमुख की छवि अच्छी नहीं है तो पृथ्वीराज चव्हाण साफ-सुथरे और प्रशासनिक क्षमता वाले नेता होने के बावजूद राज्यस्तर की राजनीति का कोई अनुभव नहीं रखते और न ही उनकी अभी कोई छवि बन पाई है। ले-देकर राहुल गांधी का फैक्टर ही कांग्रेस के पास अंतिम विकल्प दिख रहा है, लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में न तो उनका करिश्मा चला और न ही चुनाव जिताने का कोई दम-खम अथवा राजनीतिक कौशल। यह स्थिति तब है जब राहुल गांधी ने अपने कुल दौरों का 80 फीसदी समय उत्तर प्रदेश में दिया और उन्होंने पार्टी को गांव-कस्बों में मजबूत करने का प्रयास भी किया। दलित व बुंदेलखंड के मुद्दे के साथ-साथ मायावती पर केंद्र के पैसे के लगातार दुरुपयोग का मुद्दा भी उन्होंने जोर-शोर से उछाला। इन सबके बावजूद कांग्रेस का न तो सांगठनिक ढांचा मजबूत दिख रहा है और न ही कांग्रेसियों की एकजुटता, जो ऐसे अभियानों के लिए बहुत जरूरी है। यही कारण रहा कि पंचायत चुनावों में मायावती ने अपनी मजबूत पकड़ तो साबित की ही, साथ ही राहुल और कांगे्रस के बौनेपन को भी बता दिया। मई 2002 के बाद मायावती की कार्यशैली में भी बदलाव आया है। वह बेहतर कानून एवं व्यवस्था और महामाया जैसी योजनाओं से जनता का विश्वास जीतने में सफल रहीं। शायद उन्होंने बिहार, मध्य प्रदेश और गुजरात के चुनाव नतीजों में सफल रही ऐसी योजनाओं के महत्व को समझ लिया है, इसलिए आने वाले समय में वह ऐसी और भी योजनाओं को शुरू करें तो आश्चर्य नहीं। इस तरह वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की राहुल के नेतृत्व में बसपा को पटखनी देने की नीति पर फिर से विचार करना होगा। हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस के घटते जनाधार को मजबूत करना भी कांग्रेस की प्राथमिकता होगी। कुछ ऐसा ही हाल दूसरे राज्यों में भी है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का चुनाव अभियान जोरों पर है और कोई आश्चर्य नहीं कि वहां माकपा का पत्ता इस बार साफ हो जाए। ममता कांगे्रस के साथ कब तक रहेंगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। तमिलनाडु में करुणानिधि के लिए यह संकट की घड़ी है। टेलीकॉम घोटाला और ए. राजा की भूमिका पर सरकार भले ही निर्णय न ले पा रही हो, लेकिन जनता इस पर निर्णय अवश्य देगी और यह उनके हारने का कारण बन सकती है। तमिलनाडु की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहती है और वह जागरूक है, इसलिए वह करुणानिधि के साथ-साथ कांग्रेस को भी सबक सिखाना चाहेंगे। पुडुचेरी और केरल में भी कांग्रेस की स्थिति फिलहाल कमजोर ही है। इस तरह क्षेत्रीय राजनीतिक दल मजबूत स्थिति में दिख रहे हैं। राज्यों में कांग्रेस की निर्बल स्थिति उसके घटक और विरोधी दलों को इतराने का अवसर देगी। चुनौतियों की इस कड़ी में कांग्रेस का पहला बड़ा राजनीतिक इम्तिहान आंध प्रदेश में होना है, जहां तेलंगाना मुद्दा 1956-60 में चले भाषायी आंदोलन के दौर वाली स्थिति में है। यह मुद्दा अब नारा नहीं, बल्कि एक जन कार्यक्रम का रूप ले चुका है। अब प्रश्न तेलंगाना राष्ट्रसमिति के अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव तक सीमित नहीं रह गया है। इसलिए श्रीकृष्णा आयोग की रपट पर सरकार का फैसला आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के भाग्य का निर्धारण करे तो आश्चर्य नहीं। यदि सरकार इस मांग को मान लेती है तो दूसरे नए राज्यों की मांग भी जोर पकड़ेगी। पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का प्रभाव तमिलनाड़ और महाराष्ट्र की राजनीति पर भी पड़ेगा। आतंकवाद-अलगाववाद की तरह ही नक्सलवाद की समस्या भी मुंह बाये खड़ी है। इस समस्या के समाधान के लिए जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के हक लिए कानून बनाने के साथ ही हमें शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार पर भी ध्यान देना होगा। 2006 में पारित फॉरेस्ट राइट एक्ट 2008 में लागू हुआ, लेकिन अभी तक सभी राज्यों ने इसे स्वीकार नहीं किया है। यह कानून प्रभावी हो सकता है, क्योंकि इसके तहत जमीन जोतने और जमीन बेचने का हक आदिवासियों का होगा। इसके तहत ग्रामसभाओं को भी मजबूत किया जाना है, ताकि ठेके आदि ग्रामसभा को ही मिलें। एक अनुमान के तहत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये की जंगली वस्तुओं का व्यापार है, जिनमें इनकी भागीदारी नगण्य है। इसके अलावा गरीब आदिवासियों के साथ होने वाले हर तरह के शोषण और दमन को भी रोकना होगा।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें