शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

राज्य सभा के औचित्य पर शिवराज का सवाल सही

भले ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य सभा के औचित्य के सवाल पर दिया गया अपना बयान वापस ले लिया है, फिर भी इस पर बहस तो छिड़ ही गई है. जिस तरह भारतीय राजनीति का अपराधीकरण, भ्रष्टाचारीकरण व आर्थिकीकरण हो रहा है, उसे देखकर शिवराज सिंह चौहान के बयान को अप्रासंगिक नहीं ठहराया जा सकता. हां, इतना ज़रूर कह सकते हैं कि उन्होंने ग़लत समय पर एक सही बहस छेड़ी है. ग़लत समय इसलिए, क्योंकि आए दिन उल्टे-सीधे बयान देकर नेताओं द्वारा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश की जा रही है, चाहे वह विवादास्पद ही क्यों न हो. और सही बहस इसलिए, क्योंकि उन्होंने जिन मुद्दों को उठाया है, उसे सभी जानते हैं. भले वह संविधानसम्मत न हों, लेकिन व्यवहारिक तो है ही.

चौहान ने किंगफिशर कंपनी के मालिक विजय माल्या का परोक्ष रूप से उल्लेख करते हुए कहा कि किंगफिशर से लोग राज्यसभा में आ रहे हैं. माल्या के अन्य क्षेत्रों के अलावा शराब और उड्डयन उद्योग में व्यापारिक हित हैं. वे दूसरी बार राज्यसभा सांसद बने हैं. भाजपा नेता ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा, जो लोग ख़र्च करते हैं, एक तरह का निवेश करते हैं और इसे बाद में वे निकाल लेते हैं. उन्होंने मध्य प्रदेश विधानसभा में चुनाव सुधारों पर क्षेत्रीय परिचर्चा में कहा, मेरा मानना है कि समय आ गया है जब राज्यसभा को समाप्त कर दिया जाए, जिसके लिए प्रत्याशी मोटी राशि ख़र्च करते हैं. इसके स्थान पर राज्यसभा सदस्यों के लिए लोकसभा में ही कोटा निर्धारित कर दिया जाना चाहिए.

शिवराज सिंह चौहान द्वारा छेड़ी गई बहस के बीच राज्यसभा के जन्मकाल की चर्चा भी ज़रूरी है. इससे पता चलेगा कि यह कितनी ज़रूरी और औचित्यपूर्ण है तथा आज हो क्या रहा है. काउंसिल ऑफ स्टेट्स, जिसे राज्यसभा भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम है जिसकी घोषणा सभापीठ द्वारा 23 अगस्त 1954 को की गई थी. भारत में द्वितीय सदन का प्रारंभ 1918 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन से हुआ. भारत सरकार अधिनियम, 1919 में तत्कालीन विधानमंडल के द्वितीय सदन के तौर पर काउंसिल ऑफ स्टेट्स का सृजन करने का उपबंध किया गया, जिसका विशेषाधिकार सीमित था और जो वस्तुत: 1921 में अस्तित्व में आया. गवर्नर-जनरल तत्कालीन काउंसिल ऑफ स्टेट्स का पदेन अध्यक्ष होता था. भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इसके गठन में शायद ही कोई परिवर्तन किए गए. संविधान सभा, जिसकी पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी, ने भी 1950 तक केंद्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य किया, फिर इसे अनंतिम संसद के रूप में परिवर्तित किया गया. इस दौरान, केंद्रीय विधानमंडल जिसे संविधान सभा (विधायी) और आगे चलकर अनंतिम संसद कहा गया, 1952 में पहले चुनाव कराए जाने तक, एक-सदनी रहा. भारत में द्वितीय सदन की उपयोगिता के संबंध में संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई. अंतत: एक द्विसदनी विधानमंडल बनाने का निर्णय इसलिए किया गया, क्योंकि परिसंघीय प्रणाली को अपार विविधताओं वाले इतने विशाल देश के लिए सर्वाधिक सहज स्वरूप की सरकार माना गया. अत: काउंसिल ऑफ स्टेट्स के रूप में ज्ञात एक ऐसे द्वितीय सदन का सृजन हुआ, जिसकी संरचना और निर्वाचन पद्धति प्रत्यक्षत: निर्वाचित लोकसभा से भिन्न थी. इसे एक ऐसा सदन समझा गया, जिसकी सदस्य संख्या लोकसभा (हाउस ऑफ पीपुल) से कम है. इसका आशय परिसंघीय सदन से था, जिसका निर्वाचन राज्यों और दो संघ राज्य क्षेत्रों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया गया. जिनमें राज्यों को समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया. राज्यसभा में सभा का नेता सामान्यत: प्रधानमंत्री होता है, यदि वह इसका सदस्य है, अथवा कोई ऐसा मंत्री होता है, जो इस सभा का सदस्य है और जिसे उनके द्वारा इस रूप में कार्य करने के लिए नाम-निर्दिष्ट किया गया हो. उसका प्राथमिक उत्तरदायित्व सभा में सौहार्दपूर्ण और सार्थक वाद-विवाद के लिए सभा के सभी वर्गों के बीच समन्वय बनाए रखना है. इस प्रयोजनार्थ, वह न केवल सरकार के बल्कि विपक्ष, मंत्रियों और पीठासीन अधिकारी के भी निकट संपर्क में रहता है. वह सभा-कक्ष (चैम्बर) में सभापीठ के दाईं ओर की पहली पंक्ति में पहली सीट पर बैठता है ताकि वह परामर्श हेतु पीठासीन अधिकारी को सहज उपलब्ध रहे.

राज्यसभा में वर्ष 1969 तक वास्तविक अर्थ में विपक्ष का कोई नेता नहीं होता था. उस समय तक सर्वाधिक सदस्यों वाली विपक्षी पार्टी के नेता को बिना किसी औपचारिक मान्यता, दर्जा या विशेषाधिकार दिए विपक्षी नेता मानने की प्रथा थी. बहरहाल, राज्यसभा के औचित्य पर उठाए गए सवाल पर हुई तीखी प्रतिक्रिया के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बैकफुट पर आकर स्पष्टीकरण देना पड़ा. चौहान ने निर्वाचन आयोग और विधि मंत्रालय द्वारा आयोजित चुनाव सुधारों के लिए क्षेत्रीय विचार-विमर्श कार्यक्रम में राज्यसभा को औचित्यहीन क़रार देते हुए कहा था कि सदस्यों के चुनाव के चलते विधायक ख़रीद फरोख्त की मंडी बन जाते हैं. चौहान के इस बयान से राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई थी. इतना ही नहीं चौहान के बयान पर उनकी पार्टी के ही नेता असहमति जताने लगे थे. बयान पर बढ़ते विवाद के चलते चौहान ने देर रात को स्पष्टीकरण देना पड़ा. इसमें कहा गया कि उनकी चिंता विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा की गरिमा को बनाए रखने को लेकर है. जहां तक राज्यसभा की बात है वह संवैधानिक संस्था है और उसका वह सम्मान करते हैं. उन्होंने आगे कहा कि उनके बयान का अन्यथा अर्थ लगाया गया है तो उसके लिए वह क्षमा प्रार्थी हैं. दरअसल, उन्होंने कहा था कि राज्यसभा का गठन ब्रिटिश काल में संस्कृति और अन्य विषयों से जुड़े जानकारों को संसद में प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया था. उन्होंने सवाल उठाया कि वर्तमान दौर में इसे बरक़रार रखने का क्या औचित्य है. राज्यसभा को समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि इसके सदस्य बनने के लिए बड़ी संख्या में राशि ख़र्च की जा रही है, जिससे संसद का यह ऊपरी सदन एक बाज़ार की तरह हो गया है. चौहान ने किंगफिशर कंपनी के मालिक विजय माल्या का परोक्ष रूप से उल्लेख करते हुए कहा कि किंगफिशर से लोग राज्यसभा में आ रहे हैं. माल्या के अन्य क्षेत्रों के अलावा शराब और उड्डयन उद्योग में व्यापारिक हित हैं. वे दूसरी बार राज्यसभा सांसद बने हैं.

भाजपा नेता ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा, जो लोग ख़र्च करते हैं, एक तरह का निवेश करते हैं और इसे बाद में वे निकाल लेते हैं. उन्होंने मध्य प्रदेश विधानसभा में चुनाव सुधारों पर क्षेत्रीय परिचर्चा में कहा, मेरा मानना है कि समय आ गया है जब राज्यसभा को समाप्त कर दिया जाए, जिसके लिए प्रत्याशी मोटी राशि ख़र्च करते हैं. इसके स्थान पर राज्यसभा सदस्यों के लिए लोकसभा में ही कोटा निर्धारित कर दिया जाना चाहिए. राज्यसभा चुनाव के दौरान जो हालात दिखते हैं, उससे नेताओं की इज़्ज़त खाक में मिल जाती है. मेरा सुझाव है कि यदि समाज के प्रतिष्ठित लोगों की सदन में उपस्थिति ज़रूरी है, तो लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय की तरह इनके लिए भी सीटें तय कर दी जाएं. अंग्रेजों द्वारा बनाए गए उच्च सदन का उद्देश्य पवित्र था. एक समय इसमें बुद्धिजीवी और सम्मानित लोग हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. जो कहीं से नहीं जीत पाते वे राज्यसभा में बैकडोर एंट्री ले लेते हैं. उन्होंने कहा कि चुनावों में काले धन पर अंकुश लगाने के लिए प्रत्याशियों के चुनाव पर ख़र्च की व्यवस्था स्टेट फंडिंग से होनी चाहिए. राष्ट्रपति प्रणाली के आधार पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चुनाव सीधे जनता के ज़रिए कराने की भी वकालत की. स्टेट फंडिंग के लिए केंद्र सरकार अपने बजट से 25 से 50 हज़ार करोड़ रुपये चुनाव आयोग को दे और वह इस राशि से उम्मीदवारों का चुनावी ख़र्च वहन करे. इसके बाद कोई एक पैसा भी ख़र्च करता है तो उसे अयोग्य घोषित करते हुए जीवन भर चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाए. उन्होंने कहा कि राजनैतिक दलों को चंदा चेक के ज़रिए देकर इसका ब्योरा वेबसाइट पर डाला जाए. ख़र्च का लेखा-जोखा सीएजी से कराया जाए. चौहान के उक्त विचार को व्यक्तिगत बताकर भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया.

शिवराज का बयान अप्रासंगिक नहीं है, इसका उदाहरण राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव 2010 को देखकर कहा जा सकता है. 12 राज्यों की 55 सीटों के लिए दो चरणों में चुनाव संपन्न कराए गए. इसमें 14 ऐसे सदस्य चुने गए जिनके ख़िला़फ आपराधिक मामले लंबित हैं. इनमें से छह सांसदों के ख़िला़फ हत्या, हत्या का प्रयास, लूट, धोखाधड़ी और जालसाज़ी, भ्रष्टाचार जैसे संगीन मामले दर्ज हैं. इसे देख कह सकते हैं कि देश में प्रशासनिक सुधार और चुनाव सुधार की दुहाई देने वाले राजनैतिक दलों ने संसद के उच्च सदन राज्यसभा में दागियों का दामन थामना शुरू कर दिया है, जो अभी तक लोकसभा के चुनाव में ही दिखता रहा है. यानी राजनीतिक पार्टियां अपराधियों को अधिक तरजीह देती आ रही है, जिसका परिणाम है कि बुद्धिजीवियों की जगह आज राज्यसभा में दागियों की संख्या बढ़ने लगी है. कांग्रेस व भाजपा जैसे बड़े दल भी अपराधियों को गले लगाने में पीछे नहीं हैं, बल्कि उन्हें संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा में लाने का काम कर रहे हैं. नेशनल इलेक्शन वॉच एवं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट बताती है कि राजनीति का अपराधीकरण तेजी से हो रहा है. इसके तहत कुछ सदस्यों की चर्चा भी की जा सकती है. इसमें राकांपा के महाराष्ट्र से निर्वाचित तारिक अनवर व ईश्वर लाल जैन के ख़िला़फ आपराधिक मामले लंबित हैं. इनके अलावा यूपी से बसपा के प्रो. एसपीएस बघेल, सपा के रशीद मसूद, बिहार से जदयू के उपेंद्र प्रसाद सिंह कुशवाह तथा राजद के रामकृपाल यादव, शिवसेना के महाराष्ट्र से संजय राउत, आंध्र प्रदेश से तेदपा की गुंडु सुधा रानी तथा कर्नाटक से निर्दलीय सांसद विजय माल्या दागियों में शामिल हैं. जिन पांच सांसदों पर संगीन अपराधों में मामले दर्ज हैं, उनमें शिवसेना के संजय राउत, तेदपा की गुंडु सुधा रानी, कांग्रेस के वी.हनुमंत राव, भाजपा के नंद किशोर साय तथा बसपा के प्रो.एसपीएस बघेल शामिल हैं. राज्यसभा में बढ़ते अपराधियों के ग्राफ पर यदि नज़र डाले तो इस समय 245 सदस्यों में से 41 सांसद आपराधिक प्रवृत्ति के मौजूद हैं. इन चुनाव से पहले यह संख्या 37 थी, जिसमें से कांग्रेस के संतोष बरगोडिया, जद-यू के डा.एजाज अली, राजद के सुभाष यादव तथा सपा के कमाल अख्तर और भगवती सिंह तथा एडीएमके के टीटीवी दीनाकरण का कार्यकाल समाप्त हो गया है, लेकिन इन्हीं संख्या में से संजय राउत, नंद किशोर साय, हनुमंत राव व तारिक अनवर ने फिर से निर्वाचित होकर वापसी की है. अब जहां छह दागियों की विदाई हुई है तो दस दागी उम्मीदवार नए सांसद के रूप में सदन में आए हैं. इस प्रकार राज्यसभा में कुल दागी सांसदों में कांग्रेस के दस, भाजपा आठ, बसपा के पांच, सपा के चार, सीपीएम के चार, शिवसेना के चार, जद-यू के तीन, सीपीआई के तीन, राजद का एक, तेदेपा का एक सदस्य है.

ख़ैर, राज्यसभा के मुद्दे पर शिवराज सिंह चौहान के बयान को विस्तृत नज़रिए से देखा जाना चाहिए. उस पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए. लगता है, वही देशहित में होगा. क्योंकि आज जो भी हो रहा है, उसके साइड इफेक्ट अच्छे नहीं होंगे.

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