बुधवार, 25 मई 2011

क्या पुलिस में एसोसिएशन की जरूरत है ?

वैसे तो पुलिस विभाग से जुडी कई ऐसी समस्याएं हैं जो अंदर-अंदर इस विभाग की कार्यप्रणाली और इसके प्रदर्शन को गहरेखाने प्रभावित करती हैं पर एक समस्या ऐसी भी है जिसे आम आदमी जल्दी नहीं जानता पर जिसे लेकर पुलिस के कर्मचारी काफी हद तक अंदरूनी चर्चाएं करते रहते हैं। यह समस्या है पुलिस एसोशिएशन की। जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारे देश में हर व्यक्ति को समूह बनाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है जो संविधान के अनुच्छेद 19 (ग) में प्रदत्त है लेकिन इसके साथ कतिपय सीमायें भी निर्धारित कर दी गयी हैं जो देश की एकता तथा अखंडता, लोक व्यवस्था तथा सदाचार जैसे कारणों के आधार पर नियत की जाती हैं। यह तो हुई एक आम आदमी के विषय में नियम पर सैन्य बलों के लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों में लगे पुलिस बलों के लिए संविधान के ही अनुच्छेद 33 के अनुसार एसोशिएशन बनाने के विषय में कई सारी सीमायें निर्धारित कर दी गयी हैं तथा यह बताया गया है कि इस सम्बन्ध में उचित कानून बना कर समूह को नियंत्रित करने का अधिकार देश की संसद को है। ऐसा इन दोनों बलों की विशिष्ठ स्थिति और कार्यों की आवश्यकता के अनुसार किया गया।
पुलिस बलों के लिए बाद में भारतीय संसद द्वारा पुलिस फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट 1966 बनाया गया। इस अधिनियम के अनुसार पुलिस बल वह बल है जो किसी भी प्रकार से लोक व्यवस्था के कार्यों से जुड़ा रहता है। इसकी धारा तीन के अनुसार पुलिस बल का कोई भी सदस्य बगैर केंद्र सरकार (या राज्य सरकार) की अनुमति के किसी ट्रेड यूनियन, लेबर यूनियन आदि का सदस्य नहीं बन सकता है। अब कई राज्यों में राज्य सरकारों ने इस प्रकार की अनुमति दे दी है पर कई ऐसे भी राज्य हैं जहां अभी इस प्रकार के समूहों को मान्यता नहीं मिली है। इसी प्रकार एक बहुत ही पुराना कानून है पुलिस(इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन) एक्ट 1922। इसकी धारा तीन में जान-बूझ कर पुलिस बल में असंतोष फैलाने, अनुशासनहीनता फैलाने आदि को दंडनीय अपराध निर्धारित किया गया है। लेकिन साथ ही में अधिनियम की धारा चार के अनुसार पुलिस बल के कल्याणार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए उठाये गए कदम, जो किसी ऐसे एसोशिएशन द्वारा किये गए हों, जिन्हें केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा मान्यता मिल गयी हो, किसी प्रकार से अपराध नहीं माने जाते।
बहुत सारे प्रदेशों में प्रदेश सरकारों ने इस प्रकार के पुलिस एसोसिएशन को बकायदा मान्यता देकर कानूनी जामा पहना दिया है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कई राज्यों में ये पुलिस एसोसिएशन लंबे समय से काम कर रहे हैं। इनके विपरीत संसार के सबसे बड़े पुलिस बल के रूप में मशहूर उत्तरप्रदेश पुलिस में पुलिस एसोसिएशन अब तक नहीं रहा है। अब जाकर यहाँ भी देश के दूसरे राज्यों में पुलिस यूनियनों की तर्ज पर कल्याण संस्थान नाक एक अराजपति पुलिस एसोसिएशन गठित हुआ है। इसने अपना उद्देश्य यूपी के पुलिसकर्मियों की समस्याएं उठाने का रखा है। इसके लिये इन्होंने एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और उच्च न्यायालय इलाहाबाद के आदेशों के बाद रजिस्ट्रार फर्म एंड सोसायटी के यहां बाकायदा रजिस्ट्रेशन हुआ। चूंकि उत्तरप्रदेश में 1973 में पीएसी का एक बड़ा भारी विद्रोह हो चुका था, इसलिये यहां आम तौर पर ऐसी धारणा विद्यमान रही थी कि फिर से वह स्थितियां पैदा करने वाली किसी गतिविधि को जानबूझकर इजाजत नहीं दी जा सकती। वर्तमान में गाजीपुर की जमनिया कोतवाली में तैनात बृजेन्द्र सिंह यादव नामक एक जांबाज पुलिस के सिपाही इस समिति के संरक्षक के रूप में कार्यरत हैं और यह माना जाता है कि उन्हीं के अनवरत संघर्षों का नतीजा है यह पुलिस एसोसिएशन पुलिसकर्मियों व उनके बच्चों के कल्याण के काम करता है।
यह पूरा संदर्भ अपने-आप में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा सामने रखता है। हम सभी जानते हैं एकता में बल होता है। जब एक व्यक्ति अकेला होता है तो अपने आप को असहाय महसूस करता है पर जब उसके साथ लोग जुट जाते हैं तो उसमें एक प्रकार की नैतिक और मानसिक ताकत आ जाती है। बिल्कुल इन्हीं उद्देश्यों को लेकर कार्ल माक्र्स ने दुनियाभर के मजदूर इकट्ठा हो जाओ का नारा दिया था। समय बदल गया है कि आज के समय निम्न वर्गों के साथ वह भेदभाव नहीं है जो माक्र्स के जमाने में रहा होगा। समाज में असमानता में भारी कमी आई है।
लेकिन यह कहना भी गलत ही होगा कि पूरी तरह समाज में समरूपता आ चुकी है। पुलिस विभाग भी इससे अछूता नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जिनका यह मानना है कि इस विभाग में ऊपर और नीचे तबके के अधिकारियों में आज भी बड़ी खाई है जो स्वतंत्रता के इतने दिनों बाद जस की तस बनी हुई है। ऐसे लोगों का स्वाभाविक तौर पर रुझान अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए एसोसिएशन होने की तरफ रहता है। इसके विपरीत दूसरा मत यह भी है कि यदि इस प्रकार के एसोसिएशन बने तो उनका भारी खामियाजा पुलिस विभाग को उठाना पड़ेगा। इसमें अनुशासनहीनता से लेकर विद्रोही तेवर और भारी विद्रोह की संभावना तक सम्मिलित हैं। अब इन दोनों में से कौन सा विचार सही है और कौन सा गलत, इसे कह पाना उतना आसान भी नहीं है। दोनों पक्षों के लोगों के पास अपनी बात कहने के पर्याप्त तर्क हैं। मैं इस संबंध में इतना ही कहूंगा कि पुलिस विभाग के निचले स्तरों पर समस्यायें वास्तविक तौर पर हैं और पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए नितांत आवश्यक है कि इन सभी समस्याओं पर हम गंभीरता से सोचें। लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि पुलिस विभाग अन्य तमाम विभागों में पूर्णतया अलग है और इसमें किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। ऐसे में विजेंद्र यादव द्वारा स्थापित कल्याण समिति हो या अन्य कोई भी प्रयास, उसे इन मापदंडों पर पूरी तरह खरा उतरना होगा तभी उनकी उपस्थिति स्वागत योग्य होगी। हाँ यह अवश्य है कि यदि वे संस्थाएं शुद्ध अन्त:करण से पुलिस बल की समस्याओं के निराकरण की दिशा में काम करेंगी, जिससे पुलिस समर्पण की भावना विकसित हो तो किसी को भी उनकी उपस्थिति से गुरेज नहीं होगा।

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