मंगलवार, 21 जून 2011

गुटबाजी या टकराव के शिकार बने पंवार




विनोद उपाध्याय

चंबल रेंज में अपनी पदस्थापना के दौरान डकैत उन्मूलन की दिशा में किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए टाइगर की उपाधि से विभूषित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र कुमार पंवार का निलंबन विवादों में फंसता जा रहा है। पंवार आईपीएस अधिकारियों की गुटबाजी या पीएचक्यू और गृह मंत्रालय के टकराव का शिकार बने हैं यह शोध का विषय बन गया है। उल्लेखनीय है कि भारतीय पुलिस सेवा के वर्ष 1977 बैच के अधिकारी वीके पंवार को 31 जनवरी 2004 में डकैतों के साथ हुई एक संदिग्ध मुठभेड़ के दौरान श्योपुर के सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की मौत का दोषी मानते हुए राज्य सरकार ने 17 फरवरी 2011 को निलंबित कर दिया है। कायदे-कानूनों को दरकिनार कर पंवार को निलंबित किए जाने का मामला अब सरकार के गले की फांस बन गया है।
वैसे देखा जाए तो अपनी दबंग कार्यशैली के कारण पंवार अपनों (आईपीएस अधिकारियों) की गुटबाजी के शिकार होते रहे हैं। पिछले कुछ सालो से तो प्रदेश पुलिस में आईपीएस अफसरों की गुटबाजी अब सतह पर है। इसके चलते इनमें एक-दूसरे की तरक्की की राह में बाधा पैदा करने की होड़ भी पैदा हो गई है। शायद इसी होड़ का नतीजा है कि पंवार को हर समय निशाना बनाया जाता रहा है। वीके पंवार जब जेल महानिदेशक थे तो यह खबर प्रकाशित करवाई गई की भोपाल की सेंट्रल जेल में अपनी कथित भांजी वसंधुरा बलात्कार व हत्या कांड के मुख्य आरोपी अशोक वीर विक्रम सिंह उर्फ भैया राजा के साथ जेल महानिदेशक एवं उनके मातहतों ने जम कर ठुमके लगाए। भैया राजा की छवि आतयायी व डॉन की रही है। उन्हें इस तरह जेल में वीआईपी ट्रीटमेंट मिलने से जेल की हकीकत उजागर हुई। बताया जाता है कि उक्त कार्यक्रम में जेल अधीक्षक के अलावा जेल महानिदेशक के हमशक्ल व जेल के उप अधीक्षक पीके सिंह भी शामिल थे। श्री सिंह के छायाचित्र को जेल महानिदेशक के रूप में प्रचारित किया गया। बताया जाता है कि पंवार इस कार्यक्रम में शामिल ही नहीं हुए,बल्कि उस वक्त वह मंत्रालय में आयोजित एक बैठक में थे। लेकिन उनके हमशक्ल जेल उपअधीक्षक पीके सिंह की आड़ में उनका नाम इस कृत्य से जोड़े जाने की साजिश आईपीएस अफसरों की गुटबाजी को उजागर करती है। इससे पहले पुलिस विभाग की अग्निशमन शाखा में हौज पाइपों की खरीदी में हुई कथित अनियमितताओं को लेकर भी उनका नाम उछाला गया था। बताया जाता है कि यह खरीदी निर्धारित प्रक्रिया के तहत की गई थी। इसमें विभाग के वरिष्ठ अधिकारी की लिखित स्वीकृति भी शामिल थी।
आधारहीन आरोपों के कारण पंवार का पूरा कैरियर ही दांव पर लग गया है। उनके बैचमेट महानिदेशक हैं, लेकिन उनकी एक साल से पदोन्नति रुकी है। बेहतर कार्यशैली के बावजूद बार-बार तबादलो की गाज झेल रहे पंवार को अब सात साल पुराने मुठभेड़ के एक मामले में आनन-फानन में निलंबित कर दिया गया। शिवपुरी जिले के चर्चित सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की कथित मुठभेड़ में हुई मौत के मामले में एडीजी पंवार को पांच साल बाद क्यों निशाना बनाया गया इसे लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।
श्योपुर जिले के गोरस कलमी रोड इलाके में 31 जनवरी 2004 को दस हजार रुपए के ईनामी डकैत महावीरा जाट गिरोह से हुई कथित मुठभेड़ में संदेहजनक स्थिति में एएसआई दिवारीलाल रावत की मौत हो गई थी। तत्कालीन आईजी वी.के. पंवार ने डकैत महावीरा जाट को दबोचने के लिए ग्राम रक्षा समिति के थानेदार हरीश शर्मा के नेतृत्व में दस्यु विरोधी दल का गठन किया गया था। दल में एएसआई दिवारीलाल रावत, आरक्षक राजकुमार, राजाराम, हरिराम तथा चालक बहादुर सिंह चौहान को शामिल किया गया था। कथित मुठभेड़ के बाद दल के सदस्य दिवारीलाल को घायलावस्था में श्योपुर के करुणा मेमोरियल अस्पताल लेकर आए थे, उस समय उसकी मौत हो चुकी थी। इस घटना की सूचना पर आईजी ने तत्कालीन रेंज डीआईजी जीआर मीणा को घटनास्थल पर भेजकर जांच के निर्देश दिए थे। घटना के तीन दिन बाद आईजी का मुख्यालय तबादला कर दिया गया था। इस घटना की राज्य सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश जारी कर बीएम गुप्ता सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग गठित किया था। आयोग द्वारा 31 जनवरी 2006 को राज्य शासन को अपनी रिपोर्ट सौंप दी गई।
पांच साल तक आयोग की रिपोर्ट राज्य शासन के पास लंबित रही। आयोग की रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए इस साल विधि-विधायी मंत्री नरोत्तम मिश्रा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय मंत्रियों की उप समिति गठित की गई थी। समिति की अनुशंसा के आधार पर श्री पंवार को 17 फरवरी को निलंबित किया गया था। निलंबन के 45 दिन बाद राज्य शासन द्वारा आरोप पत्र जारी नहीं करने के कारण 6 अप्रैल को श्री पंवार ने एडीजी सामुदायिक पुलिसिंग के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया हैै। निलंबन आदेश मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की स्वीकृति के बगैरजारी किया गया था, जो नियमानुसार गलत है। सीएम ने 1 मार्च को इस आदेश पर कार्योत्तर स्वीकृति दी है, इसके बाद आदेश पर कैबिनेट में मंजूरी दी गई। हालांकि यह मामला अखबारों की सुर्खियों में आने के बाद शासन ने वी.के. पंवार समेत अन्य अधिकारी तथा कर्मचारियों (सेवानिवृत्त एसडीओपी टीएस नागराज को छोड़कर) को आरोप-पत्र जारी कर दिया है, लेकिन निलंबन की गाज सिर्फ पंवार पर गिरी है। दिवारीलाल रावत की मौत के मामले में न्यायिक जांच आयोग ने दस्यु विरोधी दल के खिलाफ कार्रवाई न करने के कारण को तत्कालीन आईजी वी.के. पंवार की लापरवाही बताया था, जबकि उपसमिति ने अपनी अनुशंसा में इसे साजिश निरुपित किया, जिसे आधार बनाकर निलंबन आदेश जारी किया गया। उधर पंवार के निलंबन के बाद 45 दिन की समयावधि में सरकार आरोप पत्र नहीं दे सकी। जबकि कैट ने इस निलंबन आदेश को गलत बताया है। अखिल भारतीय सेवा अधिनियम के अनुसार इस समयावधि में आरोप-पत्र नहीं किए जाने से निलंबन आदेश स्वत: ही निरस्त माना जाता है। इसी नियम के तहत पंवार ने मुख्यालय में कार्यभार ग्रहण कर लिया।
उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा की अध्यक्षता में गठित उप समिति की अनुशंसा पर श्री पंवार के निलंबन के आदेश किए गए थे। श्री पंवार ने इस आदेश के खिलाफ कैट में याचिका दायर की थी। कैट ने सुनवाई के दौरान माना कि निलंबन आदेश मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की स्वीकृति के बगैर जारी किया गया है, जो विधि सम्मत नहीं है। मुख्यमंत्री ने 1 मार्च को इस आदेश पर कार्योत्तर स्वीकृति दी है, इसके बाद इस आदेश पर केबिनेट में मंजूरी दी गई। सूत्रों के मुताबिक दिवारीलाल रावत की मौत के मामले में न्यायिक जांच आयोग ने अपनी अनुशंसा में इसे साजिश निरुपित किया था। जिसे आधार बनाकर निलंबन आदेश जारी किया गया। सूत्रों के मुताबिक आरोप पत्र के लिए पर्याप्त साक्ष्य न होने तथा इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा निलंबन की अनुशंसा नहीं किए जाने के कारण 45 दिन की समयावधि में आरोप पत्र जारी नहीं किया गया। सूत्रों के मुताबिक सरकार अभी भी आरोप पत्र जारी कर सकती है। लेकिन यह फिर सरकार के लिए किरकिरी साबित हो सकता है। केंद्रीय गृह मंत्रालय और कैट निलंबन के कारणों से सहमत नहीं है, इस स्थिति में आरोप पत्र जारी करना सरकार के लिए मुसीबत बन सकता है। सूत्रों का कहना हैै कि किसी भी प्रकरण में न्यायिक जांच आरोप की रिपोर्ट के स्वरूप को बदला नहीं जा सकता है। इसी कारण चार साल से आयोग के प्रतिवेदन पर शासन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं की गई थी, लेकिन राज्य शासन द्वारा आनन-फानन में सिर्फ वी.के. पंवार के खिलाफ निर्णय से आईपीएस अफसर भी अचंभित हैं।
उप समिति की अनुशंसा पर सरकार ने एडीजी वी.के. पंवार को निशाना बनाते हुए उन्हें निलंबित तो कर दिया, लेकिन आयोग की रिपोर्ट में लापरवाही, उदासीनता, कदाचरण जैसे मामलों में अन्य के खिलाफ निलंबन की कार्रवाई नहीं की गई। कुछ अधिकारियों की कार्यशैली पर तो आयोग की रिपोर्ट में भी गंभीर टिप्पणी की है, बावजूद तमाम अधिकारी-कर्मचारियों के खिलाफ उपसमिति द्वारा कार्रवाई की अनुशंसा नहीं की गई। हालांकि मामले के तूल पकडऩे के बाद शासन ने इस मामले में शामिल अधिकारी-कर्मचारियों को भी आरोप-पत्र जारी कर दिया है। कहीं आईएएस अफसरों को खुश करने के लिए पंवार को निलंबित नहीं किया गया है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में कई आईएएस पर गाज गिर चुकी है।
एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी कहते हैं कि लगता है कि प्रदेश पुलिस कर्तव्यनिष्ठा का ककहरा भूल चुकी है। आदेश और अनुशंसाओं का समुचित पालन तो दूर आपराधिक नजर आने वाली अनदेखी भी आम हो चली है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि गृह मंत्रालय पुलिस मुख्यालय को उसका दायरा बताने की तैयारी कर रहा है। प्रदेश सरकार अब पुलिस मुख्यालय को उसकी हद और दायरा बताने जा रही है। वे कहते हैं कि सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की संदेहास्पद मौत के मामले में राज्य सरकार ने वीके पवार को निलंबित किया था। रावत की मौत एक दस्यु मुठभेड़ में होना बताई गई थी। उस दौरान पवार ग्वालियर-चंबल जोन में आईजी थे। दस्यु विरोधी पुलिस बल सीधे उनके नियंत्रण में काम करता था। जांच रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया था, लेकिन छह अप्रैल को उन्होंने बिना किसी सरकारी आदेश के पुलिस मुख्यालय में एकतरफा कार्यभार ग्रहण कर लिया। इस मामले में अब तक खामोश रही राज्य सरकार अब कार्रवाई करने जा रही है। गृह मंत्रालय का तर्क है कि पवार को गृह विभाग में ज्वाइनिंग देनी थी, पीएचक्यू ने उन्हें ज्वाइन करवाकर गलती की है। यह कहना गलत है कि 45 दिन में आरोप-पत्र नहीं दिया गया, तो निलंबन स्वत: समाप्त हो जाता है। नियमानुसार 90 दिन में भीतर निलंबित अधिकारी को आरोप-पत्र दिया जा सकता है, जबकि सरकार ने इस अवधि के पहले ही उन्हें आरोप-पत्र दे दिया था। इस बारे में अब कानून की किताबें खंगाली जा रही हैं।
यह पहला मामला नहीं है, जब पीएचक्यू और गृह मंत्रालय के बीच अधिकारों को लेकर विवाद गहराया हो। इसके पूर्व भी पीएचक्यू ने कुछ आईपीएस अफसरों की पदस्थापना अपने स्तर पर कर दी, जबकि गृह विभाग ने उन्हें कहीं और पदस्थ किया था। तब गृह विभाग के तत्कालीन एसीएस विनोद चौधरी ने पीएचक्यू को उसके दायरे बताते हुए स्पष्ट आदेश दिया था कि पीएचक्यू अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य न करे। गृह विभाग अब फिर से पीएचक्यू को कुछ ऐसा ही पाठ पढ़ाने की तैयारी में है।
पुलिस मुख्यालय ने श्री पवार द्वारा एक तरफा आमद दिए जाने की रिपोर्ट राज्य सरकार को भेज दी है। लेकिन नए नियम के कारण राज्य सरकार मुश्किल में पड़ गई है। जानकारी के अनुसार वर्ष 2009 में केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय सेवा नियमों में व्यापक परिवर्तन किया गया है। इसके तहत अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के निलंबन के बाद राज्य सरकार को पैंतालीस दिनों के भीतर आरोप पत्र देना जरूरी है। पैंतालीस दिन के बाद राज्य सरकार आरोप पत्र तो जारी कर सकती है, लेकिन निलंबन अवधि को केंद्र सरकार की अनुमति के बिना नहीं बढ़ा सकती। केंद्र सरकार ने वीके पवार के मामले में राज्य सरकार को अभी तक कोई अनुमति नहीं दी है। ऐसे में यदि राज्य सरकार पवार को निलंबित रखती है, तो उन्हें न्यायालय में इसका लाभ मिल सकता है। वैसे भी वीके पवार के निलंबन के मामले में राज्य सरकार ने काफी जल्द बाजी दिखाई थी। मुख्यमंत्री से अनुमोदन की प्रत्याशा में उन्हें निलंबित कर दिया गया था। निलंबन के एक सप्ताह बाद मुख्यमंत्री से फाइल में अनुमोदन लिया गया, इसी कारण केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने में देरी हुई। संभवत:इसी कारण केंद्र ने राज्य सरकार के प्रस्ताव को तबज्जो नहीं दी।

क्या कहती है रिपोर्ट
>> चंबल रेंज के तत्कालीन आईजी वीके पंवार ने डकैत महावीरा जाट के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दस्यु विरोधी दल का गठन कर उसमें रावत को सोची-समझी नीति के तहत शामिल किया। रावत की मृत्यु डकैतों से मुठभेड़ में नहीं हुई थी।
>> श्री पंवार द्वारा मुहिम में असावधानी के लिए 15 दिन पहले श्री रावत को निलंबित करना और फिर बिना किसी जांच-पड़ताल के बहाल कर डाकू विरोधी दल में शामिल करना अविवेक पूर्ण था।
>> तत्कालीन डीआई जी गाजीराम मीणा द्वारा पुलिस महानिदेशक को वर्ष 2004 में 6 एवं 7 फरवरी को दो रिपोर्ट भेजने और इसमें तथ्य अलग-अलग होने का औचित्य क्या है?
तत्कालीन एसपी सीएस मालवीय ने इस मामले की जानकारी आईजी से मिलने के बावजूद तुरंत थाना प्रभारी को इससे अवगत नहीं कराया। वे डीआईजी को भी कथित मुठभेड़ की जानकारी तत्काल न देने के लिए जिम्मेदार हैं। मालवीय घटनास्थल पर मुठभेड़ के निशान न मिलने के बावजूद दल गठित कर उससे फायरिंग कराने सहित कर्तव्य पालन में कोताही बरतने के दोषी हैं।
उस समय के एसडीओपी टीएस नागराज ने डीआईजी द्वारा जांच सौंपने पर भी स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच रिपोर्ट नहीं दी। तत्कालीन थाना प्रभारी डीएस परिहार ने झूठी रिपोर्ट करने पर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। एसपी के आदेश पर कथित मुठभेड़ दिखाई और फायरिंग कराई। वे कर्तव्य पालन में उदासीनता बरतने और शून्य पर कायमी कर एक हफ्ते तक रिपोर्ट राजस्थान के किशनगंज थाने न भेजने के दोषी हैं।
ग्राम रक्षा समिति के अधिकारी का क्षेत्राधिकार संबंधित जिले तक सीमित होता है, लेकिन सबइंस्पेक्टर हरीश शर्मा को दस्यु विरोधी दल में शामिल कर अन्य जिलों में भेजना विशेष उद्देश्य की पूर्ति का परिचायक है। दल के सदस्यों द्वारा मुठभेड़ का घटनास्थल बदलने, सत्यता छिपाने और साक्ष्य परिवर्तित करने के प्रयासों के बावजूद उन पर किसी तरह की वैधानिक एवं अनुशासनात्मक कार्रवाई न करना श्री पंवार की लापरवाही को इंगित करता है।
हरीश शर्मा गलत घटनास्थल बताने और सत्य घटना छिपाने के लिए जिम्मेदार हैं। दल के अन्य सदस्यों ने भी श्री शर्मा की बात का समर्थन कर आपसी साजिश कर गंभीर कदाचरण किया है, कर्तव्यों के पालन में उदासीनता बरती है। शर्मा ने राजस्थान की सीमा में प्रवेश कर डकैत महावीरा जाट को पकडऩे के लिए मुठभेड़ की सूचना राजस्थान पुलिस को नहीं दी।
प्रशंसा भी
आयोग ने गाजीराम मीणा को इस बात के लिए सराहा है कि वे घटनास्थल पर तत्परता से पहुंचे। उन्होंने ही डॉक्टरों के पैनल से शव परीक्षण कराकर यह तथ्य उजागर कराया कि श्री रावत की संदिग्ध मौत 9एमएम पिस्टल की गोली लगने से हुई है।

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