शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

बदनाम बस्ती के अनजान अफसाने

विनोद उपाध्याय
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तवायफें कभी तहजीब की पाठशाला हुआ करती थीं. कई कलाएं उनकी बदौलत ही समाज को मिलीं और इसलिए एक दौर में समाज ने भी उन्हें ऊंचा दर्जा दिया. फिर दौर बदला. तवायफें पहले बदनाम हुईं, फिर गुमनाम और आखिर में उनका नाम ही गाली हो गया. दिल्ली में तो जीबीरोड की तरफ जाने वाले हर शख्स को संदेह और संशय की नजर से देखा जाता है।
कोई दौर था जब जीबीरोड स्थित हुस्न की यह बस्ती घुंघरूओं की झनकार और गजरे की गंध से शाम होते ही छनकने, महकने लगती. यह बस्ती तब भी बदनाम ही थी, लेकिन तब लंपट रईस आज की तरह इस बस्ती का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोडऩे की बजाय लार टपकाते थे. गर्म गोश्त का व्यापार यहां तब भी होता था और देश के छोटे शहरों की तवायफें यहां आकर अपने हुस्न और हुनर का (हुनर इसलिए क्योंकि तब तवायफ के लिए अच्छी अदाकारा होना पहली शर्त था) सिक्का जमाने का सपना देखतीं. लखनऊ, कोलकाता और बनारस के कोठों का हर घुंघरू यहां आकर छनकने की तमन्ना रखता. सूरज ढलते ही पनवाडिय़ों की दुकानें आबाद हो जातीं. तांगों,
इक्कों और मोटर गाडिय़ों में सवार हो कर इत्र-फुलेल में डूबे शहर के रईस, अंग्रेज अफसर, ठेकेदार, छोटी-बड़ी रियासतों बिगड़ैल नवाबजादे यहां पहुंचने लगते. टोपी और तुर्रेदार पगडिय़ों की शान ही निराली होती.
कोठेवालियों पर बरसने वाले सिक्कों के वजन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तवायफों की बांदियों के पास भी सेर दो सेर सोना के होना आम बात थी.
हालांकि अंग्रेज फौजी भी शरीर गर्मी निकालने के लिए अक्सर यहां आते, लेकिन तब भी जीबीरोड की तवायफों का एक स्तर होता था. दूर असम और बंगाल से लाई गई तवायफें अक्सर गोरे फौजियों को सस्ते में अपनी सेवाएं देतीं. लेकिन उस दौर का सस्ता भी फौजियों की एक-एक हफ्ते की तनख्वाह के बराबर हो जाता था. लोहे की पटरियों पर लगातार दौड़ते रेल के इंजन, थककर जैसे कोयला पानी लेने के लिए नई, पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर रुकते, ठीक वैसे ही समाज को चलाने वाला तबका जब थक जाता तो जीबी रोड के कोठों पर थकान उतारने चला आता. लेकिन वक्त किसी का गुलाम नहीं है. समय का पहिया घूमता है तो हुस्न का उजाला हर ओर बखेरने वाले नूरानी चेहरों पर झुर्रियों का अंधेरा छा जाता है. ठीक यही हाल इन दिनों दिल्ली के इस लाल बत्ती इलाके का हो गया है. वेश्याओं की यह बस्ती दरअसल बुढ़ा गई है. समय के साथ खुद को बदलने में नाकामयाब रही यह बस्ती हुस्न ढली वेश्या की तरह है, जिसकी ओर अब रईस कतई नहीं देखते और उसके हिस्से में आते हैं सिर्फ पुराने और फटेहाल ग्राहक.
कभी रईसों के राजसी ठाठ देख चुकी यह बस्ती अब निम्न और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की थकान उतारने का जरिया रह गई है. गांव देहात से लाई गई धंधेवालियां जिन्हें एनजीओ की भाषा में सेक्स वर्कर कहा जाता है, इस भड़कीले शहर के युवाओं को रिझाने में नाकामयाब हैं. फूहड़ तरीके से लगाई गई गहरी लाल लिपस्टिक और ग्राहको को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए करारी आवाज में दी गई गालियां उनकी बोल्डनेस को नहीं बदतमीजी को ही दर्शाते हैं. कमाई के लिए आग्रह इतना ज्यादा कि कई बार तो सड़क चलते ग्राहकों का हाथ पकड़ कर भीतर खींचने से भी नहीं चूकतीं. जहां कभी इत्र फुलेल और गजरों की महक गूंजती थी आज सिर्फ सीलन और वीर्य की मिली जुली अजीब सी गंध तारी है. कोठो के कोने गुटखों की पीकों से रंगे पड़े हैं और ऐसे माहौल में एड्स की भयावहता का डर कई गुना होकर नजर आता है. नजाकत और तहजीब की मूर्ति रही तवायफें अब बदतमीजी की मिसाल बन गई हैं. महज 40-40 रुपये में अपने शरीर पर एकबार सवारी का मौका देने वाली ये तवायफें सिर्फ मजदूरों और गवईं अधेड़ों का खिलौना रह गई हैं. ऐसा नहीं है ककि अब रईसों ने हुस्न की कद्र करना बंद कर दिया है, बल्कि सच यह है तकनीक के पंख लगाकर यह कारोबार पहले के मुकाबले और ज्यादा तेजी से फैला है. वीक एंड्स में एनसीआर के होटलों और फार्महाउसों में पहुंचने वाले दम्पतियों की उम्र का अंतर और उनके हावभाव बता देते हैं कि ये कुछ भी हों पर पति-पत्नी नहीं हैं. संचार के इस युग में रंभा और उर्वशियां कोठे वालियों की बजाय कॉलगर्ल कके रूप में परिवर्तित हो गई हैं. महंगे मोबाइलों के की पैड पर थिरकती महंगी नेलपॉलिश से सजी अंगुलियां. जींस टॉप जैसे आधुनिक लिबास और महंगी सिगरटों के कश लगाते उनके करीने से सजाए गए खूबसूरत होठ एक रात के लिए बीसियों हजार तक खर्च करा डालते हैं. फिर अगर रंगीन रात की यह साथी बॉलिवुड की कोई अदाकारा हो तो एक रात की फीस लाखों में पहुंच जाती है. कोठेवालियों और कॉलगर्ल्स के बीच पैदा हुआ यह अंतर उनके बच्चों की परवरिश में भी साफ झलकता है. जहां कोठेवालियों के बच्चों को मिलता है वही गला-सड़ा माहौल जो लड़कों को भड़वा और लड़कियों को वेश्या बनने के लिए मजबूर करता है तो कॉलगर्ल्स के बच्चों को भनक भी नहीं लग पाती कि उनकी मां कैसे पेशे से पैसों का पहाड़ पैदा करती है. महंगे पब्लिक स्कूलों में तालीम पाने वाले इन बच्चों को हमेशा एक खुशगवार माहौल मिलता है. तकनीक और प्रस्तुतीकरण ने इन कॉलगर्ल्स को कोठेवालियों के मुकाबले खासे आगे ले जाकर खड़ा कर दिया है. क्लाइंट द्वारा मिलने वाले महंगे गिफ्ट और हांगकांग-सिंगापुर जैसी जगहों में शॉपिंग के लिए ले जाया जाना, इन आधुनिक मेनकाओं की हैसियत का अहसास कराने के लिए काफी है.
नजाकत और तहजीब की मूर्ति रही तवायफों में देश प्रेम भी कुट-कुटकर भरा था। सबा दीवान की हालिया डॉक्यूमेंट्री फिल्म द अदर सांग के एक दृश्य में कैमरा एक पुराने अलबम पर फोकस होता है और इस पर चलती हुई उंगली एक गोल और सुंदर से चेहरे पर ठहर जाती है. फिर एक सारंगीवादक की खरखरी-सी आवाज आती है, 'ये रसूलन बाई हैं.Ó फिल्मकार पूछती हैं, 'क्या ये हमेशा इतने सादे कपड़े पहनती थीं?Ó जवाब आता है, 'मुजरा नाच तो करना नहीं था.Ó
'हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिलीÓ
रसूलन बाई ने 1948 में मुजरा छोड़ दिया था. कथक आधारित यह भावपूर्ण नृत्य तवायफों की पहचान हुआ करता था. इसके बाद उन्होंने अपना कोठा भी छोड़ दिया और बनारस की एक गली में बने मकान में रहने लगीं. रसूलन बाई, जिनके दर्दभरे गीत शायद भारत में ठुमरी की सबसे मशहूर प्रस्तुतियां थे, अब अपने ही शहर में गाना छोड़ चुकी थीं.
उमराव जान, पाकीजा, देवदास...तवायफों के बारे में हमारी जानकारी और धारणा को काफी हद तक हिंदी फिल्मों ने ही ढाला है. इसलिए दीवान की इस फिल्म में श्वेत-श्याम तस्वीरों में नजर आती रसूलन बाई जैसी तवायफों को देख कर थोड़ा अजीब-सा लगता है. दरअसल आज तवायफ शब्द के साथ जो छवि चस्पां हो चुकी है, उसे देखकर कल्पना करना मुश्किल होता है कि कभी तवायफों को बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता था और शायरी, संगीत, नृत्य और गायन जैसी कलाओं में उन्हें महारत हासिल होती थी. तहजीब की तो उन्हें पाठशाला ही समझ जाता था और बड़े-बड़े नवाबों के साहबजादों को तहजीब सीखने के लिए बाकायदा उनके पास भेजा जाता था.अपनी कुशल राजनीतिक समझ के बल पर उत्तर प्रदेश की सरधना रियासत की शासक बननेवाली बेगम समरू एक तवायफ थीं. कला और पत्र व्यवहार के क्षेत्र में माहिर मोरन सरकार 1802 में महाराजा रंजीत सिंह की रानी बनीं. महाराजा ने उनके चित्रवाले सिक्के भी चलाए.
गौर करें कि यह उस जमाने की बात हो रही है जब आम महिलाओं का पढऩा-लिखना तो दूर घर से बाहर निकलना भी दुर्लभ होता था. उस दौर में तवायफों के पास सारे अधिकार होते थे. यहां तक कि वे चाहें तो शादी करके घर भी बसा सकती थीं और उनसे शादी करनेवाले को बहुत किस्मतवाला समझ जाता था. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लखनऊ की तवायफें राजकीय खजाने में सबसे ज्यादा कर जमा करनेवाले लोगों में से हुआ करती थीं. ये दस्तावेज लखनऊ नगर निगम के रिकॉर्ड रूम में आज भी रखे हुए हैं.
तवायफों का सबसे सुनहरा दौर शुरू हुआ 18वीं सदी के आखिर में जब मुगलिया सल्तनत बिखर रही थी. उस वक्त कई आजाद रियासतें बन चुकी थीं. इन रियासतों ने तवायफों को वित्तीय संरक्षण दिया. बदले में तवायफें उन रियासतों की कला और संस्कृति की संरक्षक बनीं. उनकी वजह से कथक, ठुमरी, गजल, दादरा जैसी कलाएं फली-फूलीं.
फिर ब्रिटिश हुकूमत शुरू हुई. अब चूंकि अंग्रेज अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उन्होंने भारत को जीता था तो वे इस संस्कृति को भारतीयों पर भी लादना चाहते थे. मगर उन्हें भी अहसास था कि यह काम आसान नहीं है. इसके लिए उन्होंने दो काम साथ-साथ किए. पहला यहां की शिक्षा पद्धति बदली और दूसरा भारतीय संस्कृति के कई प्रतीकों पर हमला किया जिनमें तवायफें भी एक थीं. पाश्चात्य सभ्यता से आकर्षित नवभारतीय मध्य वर्ग ने भी इस काम में उनका साथ दिया. यह प्रक्रिया भारत की आजादी के बाद भी जारी रही और इस प्रक्रिया में तवायफ की छवि बिल्कुल ही बदल दी गई.
'इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे 'बचानेÓ के लिए कई कोशिशें शुरू कींÓतवायफ शब्द दरअसल अरबी भाषा के शब्द तायफा का बहुवचन है, जिसका अर्थ होता है समूह. इतिहासकार कैथरीन बटलर ब्राउन के मुताबिक इस शब्द का पहले-पहल इस्तेमाल दरगाह कुली खान द्वारा 1739 में लिखे गए मरकबा-ए-दिल्ली में गायिकाओं और नर्तकियों के समुदायों के लिए देखने को मिलता है. मगर आम प्रचलन में यह शब्द 19वीं सदी में ही आया. ब्राउन कहते हैं कि तब तवायफों के दो वर्ग होते थे. पहले वर्ग में वे तवायफें थीं जो तहजीब की मिसाल और गाने में कमाल हुआ करती थीं और जिन्हें इस वजह से काफी क्षत हासिल होती थी. आमतौर पर ऐसी तवायफों का रिश्ता जिंदगी भर एक ही शख्स से होता था और वह होता था उनका संरक्षक. दूसरे वर्ग में वे तवायफें थीं, जिनमें गाने के मामले में उतनी प्रतिभा नहीं होती थी और इस कारण वे देह-व्यापार पर ज्यादा निर्भर होती थीं.
मगर 1857 के बाद यह स्थिति तब बदल गई, जब पूरे भारत में ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू हो गया. इस कानून के तहत सभी तवायफों को वेश्या का दर्जा देकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में रख दिया गया. कई अदालतों ने फैसले दिए कि नाचना और गाना तो बस नाम के लिए है और तवायफों की असली कमाई वेश्यावृत्ति से हो रही है. तवायफों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत के इस अभियान की एक अहम वजह यह भी बताई जाती है कि अंग्रेजों को पता चल गया था कि 1857 की क्रांति की योजना बनाने की जगह के रूप में कोठों की भी मुख्य भूमिका थी. अपनी पुस्तक द मेकिंग ऑफ कॉलोनियल लखनऊ में इतिहासकार वीना तलवार ओल्डनबेर्ग लिखती हैं, 'हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिली.Ó
ब्राउन बताते हैं, 'इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे 'बचानेÓ के लिए कई कोशिशें शुरू कीं.Ó राष्ट्रीय संगीत बनाने के लिए अभियान चला जिसका मकसद संगीत को मध्य वर्ग की महिलाओं के लिए अनुकूल बनाना था. ऐसे में इसे तवायफों और मुस्लिम संगीतकारों से अलग करने के प्रयास हुए.
तवायफों पर दोहरी मार पड़ रही थी. एक तरफ तो ब्रिटिश हुकूमत उन्हें परेशान कर रही थी और दूसरी तरफ उन्हें मिलनेवाला वह सामंती संरक्षण भी कम होता जा रहा था, जिससे कोठे और उनकी कलाएं फलती-फूलती थीं. ऐसे में तवायफों ने दूसरे विकल्पों की तरफ रुख किया. वह समय रेडियो का था जो उनके लिए एक राहत भरा विकल्प साबित हुआ. ऑल इंडिया रेडियो अपने शुरुआती दिनों में पूरी तरह से गानेवालियों पर निर्भर था. यही हाल रिकॉर्डिंग कंपनियों का भी था. ग्रामोफोन के दौर की जब शुरुआत हुई थी, तो गौहर जान जैसी तवायफों की धूम किसी सुपरस्टार से कम नहीं थी.
अब समाज में संगीत के नए संरक्षक थे जिन्होंने अपने दरवाजे तवायफों के लिए बंद कर दिए थे. ऐसे में तवायफों ने थियेटर, रेडियो और फिल्म जगत का रुख किया. किदवई कहते हैं, 'सिनेमा तवायफों के इतिहास का एक हिस्सा है, जिसमें तवायफी कला के ऐसे-ऐसे पहलू दिखाए गए हैं जो हम आगे कभी नहीं देख पाएंगे. इसने तवायफों को एक नई जिंदगी दी, स्क्रीन पर भी और उससे इतर भी.Ó सिद्धेश्वरी जैसी तवायफों ने तो अंग्रेजी में भी गाना सीखा.
वह समय बड़ा असाधारण था. इस दौरान ठुमरी कोठे से बाहर निकली. गायन की एक ऐसी अंतरंग और भावपूर्ण शैली जो हमेशा महिलाओं का क्षेत्र रही थी तवायफों के कोठों को छोड़ आगे बढ़ी. आधुनिकता की चकाचौंध के हमले से बचने के लिए उसे ऐसा करना पड़ा. अब वह कंसर्ट हॉल, रेडियो और सिनेमा में आ चुकी थी. इस नई और बदली हुई दुनिया में तवायफ को खुद ही गानेवाली या गायिका बनना पड़ा. इस रूपांतरण की सबसे मशहूर मिसाल हैं अख्तरी बाई फैजाबादी जो बाद में बेगम अख्तर के नाम से जानी गईं. छोटी उम्र में ही प्रसिद्ध होनेवाली अख्तरी बाई ने बाद में शादी कर ली थी और कई साल तक गाना भी छोड़ दिया था. जसा कि लेखिका रेग्यूला कुरैशी लिखती हैं, 'बाद में वे दुनिया के सामने पूरी तरह से बदले हुए रूप में आईं और एक देश की संगीत विरासत का राष्ट्रीय प्रतीक बन गईं.Ó
मगर इसके अपने नुकसान थे. नए भारत की आवाज बनने के लिए अख्तरी बाई को एक दोहरी जिंदगी जीनी पड़ी. इतिहासकार सलीम किदवई की मानें तो उनका आदर अपने अतीत के एक-एक टुकड़े से खुद को अलग कर लेने पर निर्भर था जबकि दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने की उनकी क्षमता की जड़ें काफी हद तक इसी अतीत से जुड़ी हुई थीं.तवायफों को मिले इस नवजीवन के कुछ हैरत भरे पहलू भी हैं. फिल्म अभिनेत्री नरगिस का ही मामला लें, जिनकी मां जद्दन बाई भी मशहूर तवायफ थीं. हालांकि अपनी बेटी को फिल्मों के लिए तैयार करते हुए जद्दन बाई ने उसे गाने के अलावा सब-कुछ सिखाया. यह भी एक विरोधाभास ही था कि जद्दन बाई जहां अपनी सुरीली आवाज के लिए जानी जाती थीं, वहीं उनकी बेटी नरगिस के स्टारडम में उनकी गायिकी की कोई भूमिका नहीं थी. यानी नए दौर के साथ तवायफ की भूमिका भी बदल रही थी. पहले नृत्य या मुजरा, फिर सिर्फ गायन और फिर केवल अभिनय. यहां पर हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि शायद ऐसा पार्श्वगायन की कला के उभरने से हुआ होगा.
तवायफों का दौर भले ही बीत गया था, मगर उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई थी. जैसा कि दीवान कहती हैं, 'मुजरे को हिंदी फिल्मों के जरिए फिर से जिंदा करने की कोशिश हुई है. मुंबई के बारों में लड़कियां तथाकथित भारतीय पोशाक घाघरा-चोली पहनती थीं. इसकी कुछ वजह यह है कि 'भारतीय नृत्यÓ के लिए लाइसेंस लेना आसान हो जाता है और यह भी कि यह दर्शकों को पसंद आती है. वहां पर जानेवाला आदमी यह कल्पना कर लेता है कि उसके सामने फिल्म स्टार रेखा नाच रही है.Ó हालांकि बार डांसरों और तवायफों का यह सतही दिखता रिश्ता वास्तव में कहीं गहरा है. संगीत और नृत्य के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन करनेवालीं अन्ना मोरकॉम बताती हैं कि मुंबई की बार डांसरों का 80 से 90 फीसदी हिस्सा डेरेदार, नट, बेडिय़ा और कंजर जैसी जातियों से आता है, जिनका परंपरागत पेशा ही इस तरह का रहा है. 2005 में मुंबई के डांस बारों में नृत्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब तक जारी है. इससे 75 हजार ऐसी लड़कियों की जीविका छिन गई.
20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय समाज में नृत्य को गलत नजर से देखा जाने लगा था. मध्य वर्ग ने नृत्य के खिलाफ चले अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई थी. कोठों पर हर तरफ से मार पड़ रही थी. ऐसे में तवायफों ने अपना सम्मान बनाए रखने के लिए मुजरा छोड़ा और गायन या अभिनय का विकल्प चुना. मगर विडंबना देखिए कि अब उसी मध्यवर्ग द्वारा नृत्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है. शामक डावर, प्रभुदेवा जैसे स्टार, बूगी-वूगी और डांस इंडिया डांस, नच बलिये जैसे टीवी शो की लोकप्रियता और रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं. तवायफें तो नहीं रहीं मगर सौभाग्य से उनकी कला उनके साथ ही खत्म नहीं हुई. शास्त्रीय संगीत और नृत्य को अब वही मध्य वर्ग संरक्षण दे रहा है जिसने कभी तवायफों का जीना मुश्किल कर दिया था.Ó







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