इसमें कोई शक नहीं कि शहरी जीवन की आपाधापी में जनसंपर्क माध्यमों के सहारे यौन संबंधों को जीवन के लिए बेहद बेहद जरूरी बना दिया गया है। कोई शक नहीं, यह एक किश्म का भूख है। यह ज्यादा होने जाए तो हबस बन जाता है। भारतीय परंपरा और जीवन शौली में यौन-संबंधों को पूरी तरह से गुप्त रखा गया है। लेकिन आधुनिक युग में यह विषय सहज हो चला है। लेकिन इसकी सहजता अभी भी गांवों से दूर थी। संस्कारों के परदे में छिपी थी। लेकिन शादी से पहले यौन संबंधों के मामले में ग्रामीण युवा शहरी युवाओं से कहीं ज्यादा आगे हैं। केंद्रीय स्वास्थ मंत्री गुलाब नबी आजाद ने एक सर्वे जारी किया है। सर्वे में कहा गया है कि देश में 15 प्रतिशत पुरुष और 4 प्रतिशत महिलाएं शादी से पहले यौन संबंध बनाते हैं, जबकि शहरों में यह प्रतिशत महज 10 और 2 प्रतिशत है। सर्वे में यह पाया गया है कि शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के नौजवान असुरक्षित यौन संबंध बनाते हैं। अध्ययन पांच राज्य-आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु में किया गया है।
केंद्र सरकार का यह सर्वे इस परदे में छेद करने का राह प्रशस्त करता दिख रहा है। इससे सेक्स शिक्षा की हिमाकत करने वालों को ताकत मिलेगी। अब वे फिर बोलेंगे कि सेक्स शिक्षा अनिवार्य करों। संपूर्ण सेक्स शिक्षा में सुरक्षा पर ही जोर है और सुरक्षा का प्रहरी कंडोम है। पर कामियों को यौन संबंधों के आनंद में साधारण कंडोम आड़े आ रहा था। लिहाजा, कंपनियां डॉट्स और प्लेवर लेकर बाजार में आ गईं।
कैसे पूछा लिया सवाल?
फिलहाल इस रिपोर्ट को पढ़ कर मन में एक संदेह उत्पन्न होता है। सबसे पहली बात यह कि जिन राज्यों यह सर्वे कराया गया, वहां की अधिकांश जनता इन दिनों बदहाली में है। दूसरी, पांचों राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पराये लोगों से ऐसे विषयों पर बात नहीं करती हैं, तो फिर सर्वे में गुप्त संबंधों से जुड़े सवाल ग्रामीण महिलाएं विशेषकर किशोरियों से कैसे और किसने पूछ लिया? सर्वे से संबंधित प्रकाशित खबरों में इस बात पर जोर दिया गया है कि यौन संबंधों के मामले में कांडोम का इस्तेमाल न के बराबर होता है। सर्वे रिपोर्ट जारी करने के मौके पर नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा कि लोगों यौन संबंधों में मामले में सुरक्षा की जानकारी रखते तो है, लेकिन इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। कुछ मिलाकर कर कहें तो देश में सुरक्षित यौन संबंध नहीं बनाये जाते हैं।
कंडोम की कीमत पता हैं!
यौन संबंध तो बनायें, पर कंडोम का उपयोग करें। गत दो दशकों में देश में कंडोम कंपनियों ने मजबूती से पांव पसारा है। पर गांव इनके दायरे से फिसलता रहा। गांवों में सुरक्षित सेक्स की इच्छा रखने वाले को साधारण कंडोम से आंनद नहीं मिल सकता। शायद साधारण कंडोम दो रूपये में मिलता है। ग्रामीण इतना खर्च कर सकते हैं। 20 रूपये से ज्यादा कीमत में डॉट्स और फ्लेवर का उपयोग उनके लिए बहुत महंगा है।
गुजर गया डिलक्स निरोध का जमाना
एक जमाना हुआ जब छोटे परदे पर प्यार हुआ इकरार हुआ गाने के साथ डिलक्स निरोध का प्रचार जनसंख्या नियंत्रण के लिए किया जाता था। बाद में यौन रोगों का भय दिखाने के लिए इसका उपयोग आवश्यक बताया जाने लगा। एक दशक पूर्व तक कंपनियों ने डॉट वाले कंडोम के सहारे ज्यादा यौन आनंद के लिए लोगों को आकर्षित किया। अब फलो के प्लेवर वाले कंडोम से यौन आनंद को दोगुना करने का दावा किया जा रहा है। कभी इसके साथ परफ्यूम की खूशबू भी जोड़ कर लुभाया जाता है।
दायरे से निकली नारी को आईपील का सहारा
इन कंपनियों का ग्राहक वर्ग नर रहा। बाजार के दायरे से नारी अलग-थलग पड़ गई थी। असुरक्षित संबंधों से बार-बार गर्भवति होने के भय का बाजार में फायदा उठाया। कंपनियां बाजार बाजार में गर्भनिरोधक गोलिया लेकर आ गईं। इन कंपनियों ने मीडिया माध्यमों के सहारे बच्चे-बच्चे तक को बता दिया कि असुरक्षा के भय से यौन आंनद का मजा किरकिरा मत करो। आईपील की गोली खाओं ओर टेंशन मुक्त हो जोआ। वह भी लापरवाही के 24 घंटे के अंदर। शहरी क्षेत्र में पर्स में कंडोम रखने के बोझ से पिपाशुओं को मुक्ति मिल गई। एक खबर आई कि अब हाईप्रोफाइल लड़कियों पर्स आईपील की गोली रखती है। अभी तक ऐसी कंपनियां प्रचार माध्यमों के बूते अपने बाजार का दायरा बढ़ा रही थी। अब इस काम में सरकार को भी जोड़ लिया है। किसी न किसी बहाने भोले भाले लोगों की चुनी हुई होशियार सरकार को कंपनियां अपने हीत में कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर कर ही लेती है। इससे समाज का संस्कार कितनी तेजी से गल रहा है, इसकी सुध किसी को नहीं।
देशी नहीं है असुरक्षित संबंधों की अवधारणा
असुरक्षित यौन संबंध की अवधारणा देशी नहीं है। यह विदेशी कंपनियों का भ्रम जाल है। इसके विरोध में हर तरह के प्रचार लाभ कंडोम निर्माता कंपिनयों को ही मिला है। हर साल असुरक्षित यौन संबंधों से मरने वालों की संख्या मुश्किल से हजारों में होती है, जबकि इलाज के अभाव में दूसरी गंभीर बीमारियों से मरने वालों की संख्या लाखों में होती है। स्वास्थ्य मंत्रालय का सर्वे ऐसे बीमारियों की तलाश में होता तो सार्थक कार्य कहा जाता। ऐसी अनदेखी कर जब सरकार देश में विशेषकर गांवों में यौन-संबंधों पर सर्वे करा रही है, तो निश्चय ही उसके नियत में कहीं न कहीं खोट होने का संदेह आभास होता है।
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