सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

ग्रीन हंट पर नक्सलियों का रेड हंट भारी

चिदंबरम के आपरेशन ग्रीन हंट के सामने नक्सलियों का रेड हंट भारी पड़ गया है। चिदंबरम की सारी रणनीति को फेल नक्सलियों ने कर दिया है। हताशा में नक्सलियों से 72 घंटे के लिए हिंसा रोकने की अपील चिंदबरम ने की है। इससे यह पता चलता है कि चिंदबरम नक्सली फ्रंट पर विफल रहे है। जिस तरीके से नक्सलवाद को उन्होंने लिया, उससे निपटने के तौर तरीके अपनाए वे फेल होते नजर आ रहे है। नक्सलियों ने उनके ग्रीन हंट को ठेंगा दिखाते हुए बंगाल में पुलिस कैंप पर हमला कर दिया। बीस से ज्यादा पुलिस मारे गए। बिहार में जमुई में हमला किया। कई बेचारे गरीब जनजाति के लोग मारे गए। झारखंड में बीडीओ को अगवा किया। अपनी मांग मनवा ली। बेचारे शीबू सोरेन ही सरेंडर कर गए।

दो दिन पहले गृह मंत्री के तौर पर अपने प्रदर्शन के बारे में खुद चिदम्बरम ने कहा है कि उनका प्रदर्शन जीरो है। इसका मतलब कानून और व्यवस्था से नहीं है। उनका मतलब है कि वे कारपोरेट घरानों के हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। जिन हितों की रक्षा के लिए कारपोरेट घरानों ने चिंदबरम को गृह मंत्रालय दिलवाया था, वो हित सध नहीं रहे। ताबड़तोड़ हमले हो रहे है। खासकर नक्सली हमले। चिंदबरम परेशान है। कोई जवाब नहीं मिल रहा है। अपनी वित्तीय नीतियों से कारपोरेट घरानों को मालामाल करने वाले चिंदबरम यहां पर चारो खाने चित नजर आ रहे हैं।

अगर सरकार वाकई में नक्सली समस्या से निपटना चाहती है तो देश के गरीब चालीस करोड़ जनता के हितों को लेकर फैसला ले। नहीं तो नक्सली दिल्ली में भी आकर बैठ जाएंगे। उनके लिए देश के शहरों में भी मुफीद माहौल तैयार है। लोगों का जीना हराम है। आमदनी है नहीं खर्चा काफी है। दाल और आटा ही लोगों को नहीं मिलेगा तो वे क्या करेगा। भीख मांगेगा या हथियार उठाएगा। देश में कारपोरेट को अमीर करने की जो नीति मनमोहन सिंह ने बनायी है, उससे देश में स्थिति और भयानक होगी। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी गरीबों की सामाजिक सुरक्षा है। उन्हें खाने को रोटी मिलता है, पीने को साफ पानी। बीमार पड़ गए तो इलाज की सुविधा भी मिल जाती है। पर इस देश में गरीब को रोटी नहीं मिलती। दाल खरीदना जाता है तो कमाई से चार दाने दाल आता है। इलाज करवाने जाता है तो चार दवाई खरीदने के लिए जेब में पैसे नहीं है। फिर 72 घंटे के लिए हिंसा छोड़ने की अपील से कुछ नहीं होगा। सरकार ईमानदारी से गरीबों के हितों में काम करे, नक्सलियों का विस्तार खुद ही रुकेगा। लोग इनके विरोध में खड़े हो जाएंगे।


चिदंबरम जिस अंदाज में नक्सलियों को निपट रहे है, उससे नक्सली और मजबूत होंगे। नक्सलवाद एक समग्र आर्थिक और सामाजिक समस्या है जिसकी शुरूआत चालीस साल पहले भारत में हुआ। फिर एक गृह मंत्री कैसे यह समझ लेता है कि वो कुछ महीनों में आपरेशन ग्रीन हंट से सारे नक्सलियों को खत्म कर देगा। पिछले पांच सालों में ही नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को पचास प्रतिशत तक बढ़ा लिया। पूरा छतीसगढ़ और उड़ीसा को अपने कब्जे में ले लिया। इस दौरान देश में कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। पर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि आखिर इतने तेजी से नक्सलियों का प्रभाव कैसे बढ़ा। पिछले तीस सालों में नक्सलियों का प्रभाव सिर्फ बिहार तक था जो एकाएक पांच सालों में सारे जनजाति क्षेत्रों में फैल गया। क्या इसके पीछे मनमोहन सिंह की वो आर्थिक नीति जिम्मेवार नहीं है जो पिछले पांच सालों में गरीब को गरीब और अमीर को अमीर करते जा रही है।
देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ी है। उधर गरीब बढ़ रहे है और इधर महंगाई पर सवार अमीर बढ़ रहे हैं। अब इस भुखमरी की स्थिति में लोग क्या करें? या तो भीख मांगेंगे या नक्सलियों की शरण में जाएंगे। नक्सली हर गुरिल्ला को तीन हजार रुपये तक मासिक वेतन दे रहे है। साथ ही वसूली का हिस्सा भी दे रहे है। दूसरी तरफ सरकार अगर अपने पुलिस बल में या अन्य नौकरियों में किसी को रखती है तो घूस के तौर पर दो लाख से पांच लाख रुपये तक मांगा जा रहा है। झारखंड, उडीसा, बिहार या अन्य राज्य हर जगह भरती में जो भ्रष्टाचार है वो किसी से छिपा नहीं है। फिर आखिर गरीब जनता कहां जाएगी। नक्सलियों की जमीन को विस्तार देने में तो सरकार की खुद की आर्थिक नीतियां रही है।

आदिवासी संसाधनों की लूट अगर नहीं रूकी तो नक्सलवादी जमीन कमजोर नहीं होगा। उनका विस्तार होगा। आज झारखंड में भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा का बेमेल गठबंधन हो गया। आखिर क्या कारण है। दोनों के बीच जब सिद्वांत नहीं मिलता तो समझौता किस बात का। कारण साफ है, संसाधन की लूट में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। अब लूट के लिए जब इस कदर बेमेल सौमझौते होंगे तो नक्सली आधार तो बढ़ेगा ही। छतीसगढ़ हो या उड़ीसा, या झारखंड। जिस कदर इन राज्यो में आदिवासियों के जमीन, जंगल और पानी पर कब्जा करने की साजिश रची गई है वो शर्मनाक है। इस लूट मे केंद्र की सरकार और राज्य सरकारों के बीच मिलीभगत है। पर दिलचस्प बात है कि इस लूट को रोकने के बजाए सरकार आपरेशन ग्रीन हंट चला रही है। हर राज्य सरकार अब खाद्यानों की लूट में लगी है। इनके माफिया और कारपोरेट मिल जुलकर खादानों को लूट रहे है। किशन जी से अपील करने से कोई फायदा नहीं होगा। नक्सलियों से बातचीत करने का भी कोई फायदा नहीं है। वे बातचीत को भी अपने फायदे में इस्तेमाल करेंगे। पुलिस की कार्रवाई से नक्सली खत्म नहीं होंगे। इसे खत्म करने के लिए स्थानीय लोगों को ही उनके विरोध में करना होगा। पर विरोध में स्थानीय लोग क्यों खड़े हो। अगर केंद्र की नीतियों के कारण उनकी रोजी रोटी और घर ही छीन रहा हो तो वे नक्सलियों के साथ क्यों न जाए।

माओवादियों के खतरनाक संकेत से केंद्र नहीं सम्हला है। अब सरकारों को अपने कब्जे में ले रहे है। झारखंड की सरकार पूरी तरह से माओवादी चला रहे है। शीबू सोरेन के आसपास माओवादी बैठ गए है। उनके झारखंड मुक्ति मोर्चा के कई विधायक माओवादियों के सहयोग से जीतकर आए है। वे सरकार में बैठकर माओवादियों को समर्थन कर रहे है। पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा लिए गए फैसले इस सच्चाई को सामने लेकर आया है। जिस कदर बीडीओ को छुड़वाने को लेकर सरकार माओवादियों के सामने झुकी है उससे पता चलता है कि शीबू सोरेन नक्सलियों के सामने झुक चुकी है। बिहार से भी कोई अच्छी खबर नहीं है। नक्सलियों को खत्म करने और झारखंड में खदेडने का दंभ भरने वाली बिहार सरकार झूठ बोल रही है। सच्चाई है कि नक्सलियों और बिहार सरकार के बीच एक समझौता हुआ है। इस समझौते के तहत बिहार में कोई बड़ा हमला नहीं करने का वादा नक्सलियों ने नहीं किया है। बताया जाता है कि पटना को सुरक्षित रखने के लिए भी बिहार सरकार ने नक्सलियों से समझौता किया है। इसमें सरकार के कुछ अहम लोगों ने भूमिका अदा की है। इसमें कुछ विधायक और मंत्री भी शामिल है।

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