भारत की जेलों में जैसी दुर्दशा कैदियों की है वैसी दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देशों में नहीं है। भारतीय जेलें आज भी सन 1894 के ब्रिटिश जेल मेनुअल पर आधारित हैं जिसमें कैदी से गुलामों जैसा बर्ताव करने की सोच है। भारत में जेल सुधार के लिए किये गये अब तक के सारे प्रयास निरर्थक एवं नाकाफी साबित हुए हैं।
किसी बड़े नेता ने यदि जेल सुधार के बारे में सोचा तो वह पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गॉंधी थीं जिन्होंने आपातकाल के बाद स्वयं जेल भुगतने के कारण पुन: सत्ता में आने पर सन् 1980 में जेल सुधार के लिए मुल्ला कमेटी का गठन किया था । इस कमेटी की प्रमुख अनुशंसा यह थी कि जेल सुधार में सबसे बड़ी बाधा यह है, कि जेल आज भी राज्यों का अधिकार क्षेत्र है । और इसमें केन्द्र की दखलान्दाजी कोई भी राज्य बर्दाश्त नहीं करता, चाहे सत्ता किसी भी दल की हो । मुल्ला कमेटी की यह प्रमुख अनुशंसा दरकिनार कर दी गई कि जेल एवं जेल सुधार के मामले में केन्द्र को अधिकार मिले एवं केन्द्र व राज्य सरकार मिलकर सामंजस्य से जेल एवं कैदियों की स्थिति में सुधार कर सकें । केन्द्र एवं राज्य की इस सामूहिक लापरवाही का दण्ड देश की जेलों में बन्द रहे तमाम लोग भुगत रहे हैं जिन्हें यह भी नहीं पता कि जेल सुधार का जिम्मा किसका है ।
जेल जनसंख्या में वृद्धि सीधे-सीधे हमारी न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी है और जेल सुधार के सारे प्रयास कानून की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। आज भी देश के तमाम न्यायालयों में ढेरों केस लंबित हैं और इनका निबटारा कब होगा यह शायद भगवान भी नहीं जानता। और यही प्रकरण की लंबित कतार जेल आबादी से सीधे-सीधे जुड़ी हुई है। गिरते नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के बीच समाज में अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। लेकिन इन सबके बीच हमें यह भी ध्यान रखना है कि हर अपराधी एक इंसान है। जिसे नैसर्गिक न्याय एवं मानव अधिकार जेल की चार दीवारी के भीतर भी प्राप्त होना चाहिए ।
जेल जनसंख्या का एक बड़ा भाग विचाराधीन कैदी हैं, जो कई बार अपने फैसले के आने तक उनके द्वारा किए गए गुनाह से अधिक अवधि की जेल काट चुके होते हैं। विचाराधीन कैदियों का सर्वाधिक प्रतिशत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में है जहॉं अपराधों का आंकड़ा तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, वहीं मणिपुर और मेघालय जैसे उत्तर पूर्व के राज्यों की जेल भी सजा पाए हुए के स्थान पर विचाराधीन कैदियों से भरी है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग सत्तर से पचहत्तर हजार प्रकरण ही अपने अंजाम तक पहुंच पाते हैं। कई बार तो चक्काजाम और धरने-प्रदर्शन के केस भी पन्द्रह से बीस साल तक चलते रहते हैं।
यक्ष प्रश्न यह है कि कैसे जेल के अन्दर का वातावरण एवं जेल सरकार की मानसिकता बदली जाये? ऐसा क्या हो कि कानून एवं न्याय के सम्मान के साथ-साथ आरोपी का सही मायनों में पुनर्वास एवं सुधार हो सके? क्योंकि वर्तमान स्थिति में तो जेल जाकर सुधरना बेमानी है। हॉं इस बात की संभावना जरूर है कि जेल जाकर आप और बड़े अपराधी बन सकते हैं । जेल जाने वालों की ज्यादा तदाद आज भी ग्रामीण एवं किसानों की ही है। जिसमें तो कई इसलिए जेल की सलाखों से मुक्त नहीं हो पाते कि वह कोर्ट द्वारा निर्धारित अर्थदण्ड नहीं चुका सकते या कईयों को तो जमानतदार नहीं मिलते। इनमें भी ज्यादा दुर्दशा की शिकार महिला और मानसिक विक्षप्त कैदी हैं। वहीं महिला कैदियों के साथ उनके 5 वर्ष तक के बच्चे भी निरपराध होते हुए जेल की सजा भुगतते हैं ।
इस दिशा में सुधार हेतु राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 1996 में जेल सुधार के लिये एक बिल का प्रारूप भी प्रस्तुत किया था किन्तु तब से लेकर अब तक की सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया । जेल मानव अधिकार हनन का सबसे आसान स्थान है क्योंकि जेल की चारदीवारी के भीतर सहज कोई भी नहीं झांक सकता और न ही अन्दर का आदमी अपनी बात आसानी से बाहर पहुंचा सकता है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो आज भी देश की तमाम जेल अपनी क्षमता से लगभग 100 से 200 प्रतिशत अधिक कैदियों को अपने अन्दर समेटे हुए हैं । इनमें प्रमुख रूप से मिजोरम, झारखण्ड, दिल्ली, हरियाणा एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हैं। वहीं विश्व के बड़े कारागारों में से एक दिल्ली की तिहाड़ जेल में ही 85 से 90 प्रतिशत कैदी अपने फैसले के इन्तजार में जेल काट रहे हैं ।
सबसे पहले हमें ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी जिससे जेल एवं जेल सरकार की कार्यप्रणाली पारदर्शी हो। साथ ही ऐसी व्यवस्था बने कि सामाजिक एवं मानव अधिकार संगठन के लोग हर माह या दो माह में जेल की व्यवस्थाओं और सुधार कार्यक्रमों की सुध ले सकें। और यह सब शासन के राजनेताओं और आला अफसरों के बिना सम्भव नहीं है। इसके लिये एक यूनिफार्म जेल मेन्यूअल बनाकर नये सिरे से कार्य करने की आवश्यकता है जिससे परंपरागत और अंग्रेजियत से भरे जेल की व्यवस्थाओं में बदलाव आये। खुली जेल की अवधारणा पर मजबूती से कार्य हो व ऐसा कानून बने जिसमें हल्के और गम्भीर अपराधों की जेल और सजा की प्रक्रिया में बुनियादी फर्क स्पष्ट दिखे।
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