हिंदुस्तान के कानून में मौत की सजा का प्रावधान तो रखा गया है, लेकिन अदालत का मानना है कि वो भी सिर्फ रेयर इन रेयरस्ट केस में दी जाना चाहिए। इसके बाद भी मौत की सजा तब ही दी जा सकती है, जबकि अदालत के उस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाए, लेकिन हमारे संविधान ने इस पर अमल को रोकने के लिए एक और इंतजाम किया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी राष्ट्रपति सुनवाई कर सकते हैं और वो माफी की याचिका पर विचार कर सकते हैं, जिसका मतलब है कि राष्ट्रपति चाहें तो उस मौत की सजा को आजीवन कारावास यानी ताउम्र जेल में बदल सकते हैं और फिर आजीवन कारावास को कैदी के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए बाद में कम भी किया जा सकता है और उसे छोड़ा जा सकता है। इसका मतलब ये है कि हमारे यहां कानून के दो काम हैं पहला अपराध को रोकने के लिए सजा देना और दूसरा कैदी को सुधारने की कोशिश करना।
मौत से ज्यादा मुश्किल शायद मौत का इंतजार होता है और वो और भी ज्यादा भयावह, डरावना, तकलीफदेह हो जाता है, जब उस मौत का इंतजार जेल की उस काल-कोठरी में करना होता है, जहां की हर सांस लगती है कि वो आखिरी सांस होगी। मौत की सजा को लेकर बरसों से दुनियाभर के मुल्कों में बहस चलती रही है और ज्यादातर मुल्क इस बात के पक्ष में नहीं हैं अब कि मौत की सजा रखी जाए। जिन मुल्कों में मौत की सजा रखी गई है, वहां भी ज्यादातर कानून जानकारों का मानना है कि उसे बहुत ही ज्यादा क्रूर अपराधों के मामले में दिया जाना चाहिए। ज्यादातर कानून के जानकार मौत की सजा को मानवीय नहीं मानते हैं। फिर मौत की सजा कैसे दी जाए, उस पर भी हमेशा बहस होती रहती है।
हमारे राष्ट्रपति के पास इस वक्त करीब 28 मामले पड़े हैं, जिनमें मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने या माफी की याचिका की गई है। ये मामले बरसों से राष्ट्रपति के पास फैसले का इंतजार कर रहे हैं । राजीव गांधी हत्याकांड में शामिल नलिनी को भी मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल ने आजीवन कारावास में बदल दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल एक मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को कहा था कि वो मौत की सजा पाए लोगों की माफी याचिका पर जल्द फैसला करे, यदि उसमें जरूरत से ज्यादा वक्त लगता है तो ये संविधान के आजादी के अधिकार का उल्लंघन है और इसके साथ ही ये माना जाना चाहिए कि वो मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदले जाने के काबिल है।
इसके बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से इन पर फैसला करने की गुजारिश की थी, लेकिन अब राष्ट्रपति ने सरकार को साफ कर दिया है कि वो इन याचिकाओं का निपटारा जल्दी करने के पक्ष में नहीं हैं यानी इन 28 मामलों में जल्द कोई फैसला होने की संभावना खत्म हो गई है। इससे करीब 40 लोगों की मौत का इंतजार या उससे छुट्टी फिर टल गई है। पिछले दिनों राष्ट्रपति और गृहमंत्री चिदंबरम के बीच हुई बैठक में ये सिफारिश की गई थी कि इन मामलों को निपटाने के लिए वक्त के हिसाब से प्राथमिकता दी जाए यानी सबसे पुराने मामले को सबसे पहले सुना जाए और उस पर फैसला किया जाए। याचिका पर फैसले के लिए जब एक बार गृह मंत्रालय याचिका को फिर से देख ले और उस पर अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दे तो वो उस पर जल्द फैसला कर दें। हालांकि राष्ट्रपति को कब तक ऎसी याचिकाओं पर फैसला कर देना चाहिए, इसका जिक्र संविधान में नहीं किया गया है। 1997 से पहले राष्ट्रपति रहे डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने अपने वक्त तक की सभी माफी याचिकाओं का निपटारा कर दिया था, लेकिन उसके बाद केआर नारायणन ने एक भी याचिका पर कोई फैसला नहीं किया। उनके बाद आए एपीजे कलाम ने केवल दो फाइलों पर फैसला किया। यूपीए सरकार पर पिछले कार्यकाल के दौरान भी काफी दबाव पड़ता रहा। फिर जब संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू ने माफी की याचिका दी तो विपक्षी दलों ने सरकार पर राजनीति करने का आरोप लगाया और दबाव बनाया कि वो अफजल गुरू की मौत की सजा को आजीवन कारावास में नहीं बदले। सरकार को लगता है कि इससे उसकी छवि पर खतरा पड़ सकता है।
हिंदुस्तान का कानून सबके लिए बराबर है, उसमें दोषी को भी अपनी बात कहने और उस पर माफी की याचिका देने का हक है, लेकिन फैसला सरकार और राष्ट्रपति को करना है।
फैसले सरकार को करने हैं, लेकिन वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ध्यान में रखने इन मामलों पर जल्द से जल्द सुनवाई करना चाहिए और अपनी सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेज देना चाहिए, ताकि सबको लगे कि हिंदुस्तान में कानून की नजर में सब बराबर हैं।
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