नहीं रूकेगा बाघों का शिकार
आज कौन मानेगा कि सौ साल पहले अपने देश में लाख की तादात में बाघ जीते थे और अपने होने का दम भरते दहाड रहे होते थे। 6 साल पहले बाघों की ये तादात घटकर 3600 हो गई और 2008 में ये संख्या चैंकाने की हद पर पहुंचते हुए 1411 जा पहुंची। 2005 के सरकारी आंकणों के मुताबिक राजस्थान के सरिस्का टाईगर रिजर्व में मौजूद सभी 26 बाघ विलुप्त हो गये। 6 साल पहले टाईगर स्टेट के नाम से जाने जाने वाले मध्य प्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में मौजूद 44 बाघ आज की तारीख में इतिहास हो गये हैं। बाघों को बचाने के लिये बनी नेश्नल टाईगर कन्वेंशन अथोरिटी की एक रिपोर्ट बताती है कि 2007 में 41 और 2008 में 53 बाघ देश भर में मौत की नीद सो गये और 2009 के पहली छमाही में ही 45 बाघ मर गये और साल के जाते जाते ये संख्या 86 पहुंच गई। पयावरणविद दावा कर रहे हैं कि आज देशभर में मुश्किल से 1000 बाघ रह गये हैं। इन 1000 बाघों को बचाया ना गया तो 2015 ज्यादा दूर नहीं लगता। आज सेव टाईगर्स के नारे देशभर में पोस्टरों, बैनरों, अखबारों, रेडियो और टीवी विज्ञापनों में तैर रहे हैं। लोग बाघों के जीवन के लिये चिन्तित नजर आ रहे हैं। 1972 में कार्बेट नेश्नल पार्क से प्रोजेक्ट टाईगर नाम से शुरू की गयी सरकारी योजना आज जबरदस्त रूप से प्रासांगिक हो गई है।
दरअसल बाघों की ये दातात कैसे आश्चर्यजनक तरीके से कमती चली गई। कैसे इन कुछ सौ सालों में देशभर के हजारों बाघ गायब होने की जद पर आ पहुंचे। कैसे हम इतने बेपरवाह शिकारी हो गये कि हमने अपने राश्ट्रीय पशु को मरने के लिये छोड दिया। इन सवालों की परतें अपनी जडों तक बड़ी गहरी हैं। बाघों की तस्करी के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत से तिब्बत के जरिये चीन तक उनकी खालों के व्यापार की खबरें पिछले कई सालों से छनती हुई मीडिया में पहुंचती रही हैं। और अब जबकि बाघों की विलुप्ति की खबरों के सच होने के दिन नजदीक आते लग रहे हैं हमें उनकी चिन्ता सता रही है। देशभर में 38 से ज्यादा टागर रिजर्व उनके संरक्षण के नाम पर बने तो सही पर मौजूदा हाल साफ कर देता है कि वो कितने सफल रहे। या कहना बेहतर होगा कि कितने नाकामयाब रहे। खैर हालात जब इतने बिगडे हैं तो कम से कम हमें जागने की सूझी है। हम जो कर सकते हैं वो यही है कि उनके बचाव के लिये काम कर रहे जागरूकता अभ्यिानों से किसी न किसी तरह जुडें। अपनी ओर से जागरूकता लाने का प्रयास करें। हो सके तो कोई पहल करें। अगले कुछ सौ सालों तक बाघ जीते हुए दहाड सके तो पर्यावरण संरक्षण के लिए ये हमारी बडी मदद होगी।
बाघों की लगातार घटती संख्या ने हर आमोखास को चिन्ता में डाल दिया है। कितने आश्चर्य की बात है कि हर साल हजारों करोड रूपए खर्च करने के बाद भी बाघों के अस्तित्व पर दिनों दिन संकट बढ़ता जा रहा। हालांकि 1973 में बाघों को बचाने के लिए कांग्रेस की तात्कालिन केन्द्र सरकार ने टाईगर प्रोजेक्ट शुरू किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है।
बाघ संरक्षण की दिशा में केन्द्र और राज्य सरकार कितनी संजीदा है उसकी एक बानगी है मध्य प्रदेश के पन्ना जंगल। पन्ना में 2002 में 22 बाघ हुआ करते थे, इसी लिहाज से इस अभ्यरण को सबसे अच्छा माना गया था। 2006 मे वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया (डब्लूआईआई) ने कहा था कि पन्ना में महज आठ ही बाघ बचे हैं। इसके उपरान्त यहां पदस्थ वन संरक्षक एच.एस.पावला का बयान आया कि पन्ना में बाघों की संख्या उस समय 16 से 32 के बीच है। जनवरी 2009 में डब्लूआईआई ने एक बार फिर कहा कि पन्ना में महज एक ही बाघ बचा है। इस तरह अब किस बयान को सच माना जाए यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है। अपनी खाल बचाने के लिए वनाधिकारी मनमाने वक्तव्य देकर सरकार को गुमराह करने से नहीं चूकते और सरकार है कि अपने इन बिगडैल, आरामपसन्द, भ्रष्ट नौकरशाहों पर एतबार जताती रहतीं हैं।
2007 में हुई गणना के आंकडों के अनुसार बाघ संरक्षित क्षेत्रों में सबसे अधिक 245 बाघ सुन्दरवन में थे, इसके अलावा बान्दीपुर में 82, कॉर्बेंट मेे 137, कान्हा में 127, मानस 65, मेलघाट 73, पलामू 32, रणथंबौर 35, सिमलीपाल में 99 तो पेरियार में 36 बाघ मौजूद थे। सरिक्सा 22, बक्सा 31, इन्द्रावती 29, नागार्जुन सागर में 67 नामधापा 61, दुधवा 76, कलाकड 27, वाल्मीकि 53, पेंच (महाराष्ट्र) 40, पेंच (मध्य प्रदेश) 14, ताडोबा 8, बांधवगढ 56, डम्पा 4, बदरा 35, पाकुल 26, एवं सतपुडा में महज 35 बाघ ही मौजूद थे, इसके अलावा 2007 में सर्वेक्षण वाले अतिरिक्त क्षेत्रों में कुनो श्योपुर में 4, अदबिलाबाद में 19, राजाजी नेशनल पार्क 14, सुहेलवा 6, करीमनगर खम्मन 12, अचानकमार 19, सोनाबेडा उदान्ती 26, ईस्टर्न गोदावरी 11, जबलपुर दमोह 17, डाण्डोली खानपुर में 33 बाघ ििचन्हत किए गए थे।
दूसरे आंकडों पर गौर फरमाया जाए तो 1972 में भारत में 1827 तो मध्य प्रदेश में 457, 1979 में देश में 3017, व एमपी में 529, 1984 में ये आंकडे 3959 / 786 तो 1989 में 3854 / 985 हो गए थे। फिर हुआ बाघों का कम होने का सिलसिला जो अब तक जारी है। 1993 में 3750 / 912, 1997 में 3455 / 927, 2002 में 3642 / 710 तो 2007 में देश में 1411 तो मध्य प्रदेश में महज 300 बाघ ही बचे थे।
दुख का विषय यह है कि देश में 28 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यरण होने के बाद भी छत्तीसगढ के इन्द्रावती टाईगर रिजर्व नक्सलियों के कब्जे में बताया जाता है। इसके साथ ही साथ टाईगर स्टेट के नाम से मशहूर देश का हृदय प्रदेश माना जाने वाला मध्य प्रदेश अब धीरे धीरे बाघों को अपने दामन में कम ही स्थान दे पा रहा है, यहां बाघों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से कमी दर्ज की गई है।
सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बडी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हड्डियां एक लाख से डेढ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास पहले नहीं हुए हैं। गुजरात के गीर के जंगलों में सिंह को बचाने के प्रयास जूनागढ के नवाब ने बीसवीं सदी में आरम्भ किए थे। एक प्रसिद्ध फिरंगी शिकारी जिम कार्बेंट को बाघों से बहुत लगाव था। आजादी के बाद जब बाघों का शिकार नहीं रूका तो उन्होंने भारत ही छोड दिया। भारत से जाते जाते उन्होंने एक ही बात कही थी कि बाघ के पास वोट नहीं है अत: बाघ आजाद भारत में उपेक्षित हैं।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढ़ा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।
बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रक्रिया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडने के बजाए कराह ही रहे हैं।
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