राहुल गांधी की काट की तैयारी बीजेपी के मुख्य एजण्डे में। राहुल गांधी की ब्रिगेड युवा के तौर पर उभरी। पर बीजेपी उस ब्रिगेड को सार्वजनिक मान्यता नहीं देगी। अलबत्ता बीजेपी की चौथी पीढ़ी के सूरमा गडकरी के कंधे से कंधा मिला मैदान में उतरेंगे। तो बीजेपी के एजण्डे में वंशवाद अहम होगा। राहुल की सियासत को बीजेपी परिवार की योजनाबद्ध रणनीति बता रही। पर इससे भी इनकार नहीं कि वोटों की ओर राहुल के बढ़ते कदम बीजेपी की पेशानी पर बल डाल चुके। सो बीजेपी ने इन्दौर से बदलाव की बयार चला दी। तंबू में बैठक हो या ग्रामीण माहौल में रचने-बसने की सोच। बीजेपी ने सब तयशुदा रणनीति से किया। जनसंघ जमाने में पहला अधिवेशन 1953 में कानपुर में हुआ था। तब श्यामाप्रसाद मुखर्जी समेत सबने तंबुओं में ही डेरा जमाया था। सो अबके भी तंबू सादगी के लिए नहीं अलबत्ता माहौल बनाने और वर्करों में भावनात्मक निष्ठा घर कराने के लिए लगाये गये। यह बात खुद आडवाणी कबूल रहे हैं।
इन्दौरी महाचौपाल में मंचन तो नागपुरी स्क्रिप्ट पर ही हुआ पर आखिरी दिन बीजेपी को तब मुकाम मिल गया जब आडवाणी सही मायने में पितृ पुरुष हो गए। चौथी पीढ़ी को निमंत्रण देकर पीढ़ीगत बदलाव पर अपनी मोहर लगा दी। सो अब गडकरी की टीम बनेगी तो तीसरी ही नहीं, चौथी पीढ़ी भी हिस्सा बनेगी। कई युवा चेहरे संगठन की भट्टी में तपाए जाएंगे, सो अबके बीजेपी सचमुच नए सफर को निकल पड़ी।
इन्दौर से बीजेपी गडकरी की रहनुमाई में नई राजनीतिक यात्रा शुरू कर रही। तो जनहित के मुद्दे पर भी अब कहने नहीं, करके दिखाने की तैयारी। सो गार्जियन की भूमिका में आए आडवाणी ने अनुज्छेद 370 हटाने और जम्मू-कश्मीर के विलय का बिगुल फूंका। चेतावनी दी, अगर कश्मीर में 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल हुई। तो ऐसा आन्दोलन होगा, जिसे आजाद भारत ने कभी देखा नहीं होगा। भले इस खाते बीजेपी को बलिदान ही क्यों न देना पड़े। सो बुजुर्ग की ऐसी धार, तो युवा कैसे पीछे रहेंगे। सो महंगाई पर 21 अप्रैल को संसद पर हल्ला बोल होगा। तो बीजेपी का दावा यही, मनमोहन सरकार की ईंट से ईंट बज जाएगी। सो कुल मिलाकर इन्दौर में बीजेपी अपने मकसद में सफल रही। यों अभी भी कुछ बैताल हैं। सो सवाल, बीजेपी योजनाएं तो हर बैठक में बनाती। तेवर भी खूब दिखाती। पर क्या अबके सचमुच अमल होगा? आडवाणी ने दीनदयाल उपाध्याय और राममनोहर लोहिया के बीच हुए संवाद का जिक्र कर कबूल लिया। सिद्धान्तों को बदलती परिस्थितियों में बदलना ही होगा।
आडवाणी ने नितिन गडकरी को तीसरी पीढ़ी का नेतृत्व बताया। पर सवाल, दूसरी पीढ़ी कहां गई। आडवाणी सन्यास तो नहीं लेंगे। पर खुद को बूढ़ा बता छुट्टी मांग ली। उन ने खुलासा किया- "पिछले साल के आखिर में सहयोगियों से सलाह-मशविरा कर मैंने तय किया था 2010 की शुरुआत में संसदीय और संगठनात्मक इकाइयों में पीढ़ीगत बदलाव की सहज प्रक्रिया को पूरा करवाऊंगा।" पर दूसरी पंक्ति के नेता आपस में यादवी जंग लड़ रहे थे। सो जैसे परिवार में बेटा नाकारा हो तो मजबूरन दादा अपनी जायदाद पोते को सौंप देता है। वही बीजेपी में हुआ। जब दूसरी पीढ़ी के धुरंधर आपस में भिड़ रहे थे सो आडवाणी ने तीसरी पीढ़ी के गडकरी पर सहमति जताई। अब भले दूसरी पीढ़ी के झण्डाबरदार संसद में कमान सम्भाल रहे पर संगठन का मुखिया तो तीसरी पीढ़ी का।
यानी तंबू से तंबू तक बीजेपी की एक यात्रा खत्म हुई। यों कहें तो अटल-आडवाणी युग का इसी तंबू बैठक से अन्त हो गया। आडवाणी हों या संघ परिवार या फिर समूची बीजेपी। सबको समझ आ गया, अगर विचारधारा की लकीर खींच अडिग रहे। चुनाव दर चुनाव वही लकीर पीटते रहे। तो 182 से 137 और 137 से 116 की तरह लकीर का फकीर बनने में देर नहीं लगेगी। सो अब हिन्दुत्व हो या रोजमर्रा के अन्य मुद्दे। बीजेपी ने रणनीतिक शिफ्ट का खाका बना लिया है।
यों संगठन कौशल में माहिर आडवाणी ने ऐसी कवायद जून 2005 में भी की। जब 2004 का क्वफील गुडं बीजेपी को ले डूबा। तो याद है, आडवाणी ने पांच जून 2005 को कराची में जिन्ना का जिन्न बोतल से निकाला था। आडवाणी देशव्यापी बहस शुरू कराना चाहते थे। पर खाकी नेकरधारियों को आडवाणी का खाका पल्ले नहीं पड़ा। अगर आडवाणी की रणनीति तब सफल हो जाती। तो कश्मीर हो या चीन, दोनों विवाद पण्डित नेहरू को दोषी साबित करते। पर तब संघियों ने आडवाणी हटाओ, बीजेपी बचाओ मुहिम छेड़ दी। और तो और, बीजेपी में आडवाणी के दुलारे दूसरी पंक्ति के नेता भी संघ के साथ खड़े हो गए। पर कहते हैं ना, वक्त हर जख्म भर देता है। अब आडवाणी का जख्म भरा या नहीं, यह तो आडवाणी ही जानें। पर तब आडवाणी के खिलाफ मुहिम शुरू कर संघ ने बीजेपी को जो जख्म दिया, 2009 के चुनाव में वह कैंसर बन गया। आखिर अब समूचे वैचारिक परिवार को अक्ल आई। तो अब लकीर बड़ी करने की कवायद हुई। संघ के चहेते गडकरी ने राम मन्दिर पर नई पेशकश की। सद्भावना बढ़ाने की पहल हुई। संघ को भी लगने लगा, मौजूदा वोट बैंक कम से कम दस फीसदी न बढ़ा। तो राजनीतिक मुखौटा उतर जाएगा। सो जैसे मोहन राव भागवत संघ प्रमुख की कमान सम्भालते ही नागपुर में दीक्षाभूमि गए तो गडकरी भी इन्दौर मीटिंग से पहले बाबा अंबेडकर की जन्मस्थली महू गए। बातें एनजीओ स्टाइल की। दलित उत्थान को राजनीतिक निष्ठा से जोड़ा। दलितों के लिए ईमानदारी से काम करने का खम ठोका। गडकरी बोले- "मैं कहता नहीं, करता हूं। मैंने भी दलित के घर जाकर खाना खाया। पर कोई ढिंढोरा नहीं पीटा।"
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