मुंबई में कल-कारखाने तेजी से बंद हो रहे हैं. मुंबई औद्योगिक शहर होने की बजाय वित्तीय शहर में तब्दील होता जा रहा है. अचानक ही अब फैक्ट्री मालिकों को महाराष्ट्र की बजाय गुजरात और मध्य प्रदेश रास आने लगा है. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां उनको कई तरह की कर रियायतें हैं और मजदूर सस्ते में उपलब्ध हो रहे हैं. लेकिन इसका एक और महत्वपूर्ण कारण है. पीछे जो जमीन बचती है वहां फैक्ट्री मालिक रियल एस्टेट डेवलप कर रहे हैं. किसी जमाने में ठाणे शहर की पहचान रही रेमण्ड कंपनी अब पूरी तरह से बंद हो चुकी है और इसके एक हिस्से पर सुलोचना देवी सिंहानिया पब्लिक स्कूल संचालित होता है. अभी भी रेमण्ड के पास ठाणे के सबसे महत्वपूर्ण लोकेशन 130 एकड़ जमीन है. हो सकता है आनेवाले समय में इस जमीन पर जेके नगर बस जाए. जेके की इस कंपनी के बंद हो जाने से वैसे तो सात हजार के करीब लोग बेरोजगार हुए हैं लेकिन इसका असर सिर्फ सात हजार परिवारों तक ही नहीं रहेगा. लेकिन अकेला जेके ग्रुप ने ही ऐसा नहीं किया है. मुंबई में मिलें कब की बंद हो गयी थीं. ऐसी 65 मिलों की जमीनों को पूंजीपतियों ने दबाव डालकर हासिल कर लिया और अब इन सभी जमीनों पर ऊंचे भवन आकार ले रहे हैं. हो सकता है राज ठाकरे को यह लगता हो कि वे उत्तर भारतीयों का विरोध कर रहे हैं लेकिन वास्तविक रूप से वे किसे फायदा पहुंचा रहे हैं? निश्चित रूप से फायदे में रियल एस्टेट के कारोबारी हैं. उत्तरभारतीय तो घाटे में गये ही मराठी भी किसी फायदे में नहीं है.
मुंबई में परप्रांतीय लोगों के आकर बस जाने का मुद्दा शिद्दत से विराजमान है और अगले एक दो दशक तक इसके कमजोर होने की कोई गुंजाईश नहीं है. हो सकता है शिवसेना की अगली पीढ़ी इसे मुद्दा न बनाये लेकिन फिलहाल राज ठाकरे की राजनीतिक मजबूरी है कि वे उत्तरभारतीयों को यहां से बाहर निकालने की पसंदीदा मांग करते रहें. इसकी प्रतिक्रिया में ही सही न चाहते हुए शिवसेना को भी उत्तर भारतीयों का ऊपरी तौर पर समर्थन करने से बचना होगा. तो क्या मुंबई बाल ठाकरे और राज ठाकरे की है?
असल में अगर आप थोड़ा स्थिर होकर सोचेंगे तो पायेंगे कि बाल ठाकरे और राज ठाकरे जान अनजाने पूंजीपतियों के एजंट के बतौर इस्तेमाल होते हैं. मसलन, किसी दौर में उत्तर भारतीय मय तबेले के वर्तमान मुंबई के दिल भायखला और दादर में बसते थे. विरोध बढ़ा तो उत्तर भारतीय समाज का यह वर्ग वहां से थोड़ा आगे खिसका और गोरेगांव, अंधेरी, थाणे की ओर खिसक गया. अब क्योंकि इन इलाकों में भी जमीन कम कम पड़ने लगी है इसलिए उत्तर भारतीयों के तबेले वसई, विरार और दहाणू की ओर चल पड़े हैं. तात्कालिक तौर पर नाक के नीचे उत्तर भारतीय दिखने बंद हो गये तो विरोध भी धीरे धीरे मद्धिम पड़ता चला गया. नब्बे के दशक में शिवसेना को सत्ता मिल गयी, जिसके बाद मजबूरन उसे उदार हो जाना पड़ा और उत्तर भारतीयों का घोषित विरोध छोड़ना पड़ा. लेकिन उत्तर भारतीय पीछे जो जमीन छोड़ आये थे उसका क्या हुआ? वे जमीनें आज खरबों की संपत्ति का स्वरूप धारण कर चुकी हैं. तो इस विरोध का फायदा किसे मिला? बाल ठाकरे को? नहीं. मराठियों को? नहीं. शिवसेना की इस राजनीति का सीधा फायदा पूंजीपतियों और बिल्डरों को हुआ. हो सकता है शिवसेना ने जानबूझकर ऐसा न किया हो, लेकिन आखिरकार फायदे में पूंजीपति ही रहे.
अब राज ठाकरे कहते हैं कि सरकारी नौकरियों और फैक्ट्रियों में महाराष्ट्रवालों को ही नौकरी मिलनी चाहिए. सरकारी नौकरी में तो बात जमती है लेकिन जो लोग यहां उद्योग धंधा चला रहे हैं वे इस बात को क्यों नहीं मान रहे हैं? निश्चित रूप से यूपी और बिहार के बदहाल परिवारों से निकला पूत इन फैक्ट्रियों के लिए सस्ता मजदूर साबित होता है.
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