प्रजातंत्र में विपक्ष का एक रोल होता है. देश की जनता अगर किसी दल को यह दायित्व देती है तो इसका मतलब यह है कि अगले पांच सालों तक वह पार्टी सरकार के कामकाज और नीतियों पर नज़र रखे. सरकार अगर कोई ग़लती करती है तो उसे जनता के सामने लाए और संसद में सत्तारू़ढ पार्टी से जवाब तलब करे. अगर विपक्षी दल ही कमज़ोर हो जाए तो सरकार को बे-लगाम होने में व़क्त नहीं लगता है. देश में एक के बाद एक घोटालों का खुलासा हो रहा है. यह घोटाले केंद्र सरकार की नाक के नीचे हो रहे हैं. सरकार को जनता को जवाब तो देना ही होगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या विपक्ष अपनी जवाबदेही को सही ढंग से निभा रहा है. अगर नहीं तो इन घोटालों के लिए सरकार के साथ-साथ विपक्ष को भी ज़िम्मेदार माना जाएगा. ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के खिला़फ कोई कारगर आंदोलन खड़ा कर सकती है. पहले आईपीएल घोटाला हुआ. जिसमें मंत्री, नेता-अभिनेता, अंडरवर्ल्ड के लोगों का गठजोड़ सामने आया. फिर कॉमनवेल्थ गेम्स में घोटाला हुआ. इसमें अधिकारियों, नेताओं और बिल्डर्स के साथ-साथ जनता के पैसों को लूटने का खेल सामने आया. फिर 2जी का खुलासा हुआ. इससे पता चला कि देश में दलाल, नेता, उद्योगपति और अधिकारी नियम-क़ानून में उलटफेर कर देश को करो़डों का चूना लगाते हैं. फिर आदर्श घोटाला आया. पता चला कि देश के लिए जान देने की कीमत क्या है. कारगिल में? मरने वाले जवानों के लिए बना घर सेना के अधिकारी और नेता मिल कर ह़डप गए. ऐसे हालातों में भी भारतीय जनता पार्टी एक कमज़ोर और दिशाहीन पार्टी की तरह व्यवहार करती रही.
भारतीय जनता पार्टी देश का मुख्य विपक्षी दल है, पर कमज़ोर है, दिशाहीन है और जनता से कट चुकी है. न ही ऐसा कोई नेता है, जो भ्रष्टाचार और घोटालों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बना कर देशव्यापी आंदोलन चला सके. देश चलाने वाले घोटाला कर रहे हैं यह आरोप तो सही है, लेकिन विपक्ष भी अपना काम नहीं कर रहा है. देश की जनता भ्रष्टाचार और महंगाई से जूझ रही है, वहीं भारतीय जनता पार्टी के युवा कार्यकर्ता श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के लिए आंदोलन की तैयारी में हैं. अ़फसोस की बात यह है कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे अनुभवी नेता के मौजूदगी में यह सब हो रहा है.
भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि यह पार्टी सरकार के कामकाज पर खुद नज़र रखने में नाकामयाब रही है. भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता ने एक भी ऐसा खुलासा नहीं किया, जिससे सरकार को घेरा जा सके. जो भी मामले सामने आए हैं, वह मीडिया रिपोर्ट और सूचना के अधिकार से मिली जानकारी से उजागर हुए हैं, इसमें विपक्ष का कोई रोल नहीं है. मान लीजिए, अगर मीडिया और आरटीआई एक्टिविस्ट सजग नहीं होते और देश की जनता विपक्ष पर भरोसा करके बैठी रहती तो न नए घोटाले सामने आते और न ही इतना हंगामा मचता. अ़फसोस तो इस बात का है कि इन मामलों के उजागर होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी कोई सटीक रणनीति नहीं बना पाई, जिससे सरकार को घेरा जा सके. विपक्ष संसद में हंगामा करने के अलावा कुछ नहीं कर सका. सवाल यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए क्या संसद को निष्क्रिय करना ज़रूरी है. संसद को न चलने देने से क्या हासिल हुआ? सरकार ने जेपीसी की मांग को नहीं माना, उल्टा टेलीकॉम के नए मंत्री कपिल सिब्बल ने संसद से बाहर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में एक जांच की घोषणा कर दी. विपक्ष चिल्लाता रह गया, सरकार अपने मनमुताबिक़ काम करने में सफल हो गई.
देश की हालत यह है कि भ्रष्टाचार और महंगाई की मार के बीच जनता पिस रही है. प्याज के दाम आसमान छू रहे हैं. ग़रीब तो दूर अब अमीरों पर भी महंगाई की मार का असर देखने को मिल रहा है. कीमतें आसमान छू रही हैं. सरकार ने कीमतों को रोकने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किए और न ही विपक्ष कोई असरदार विकल्प देने में समर्थ है. जनता से जुड़े सवालों को उठाने के बजाए भारतीय जनता पार्टी की युवा विंग कश्मीर चलो आंदोलन करने जा रही है.
देश की हालत यह है कि भ्रष्टाचार और महंगाई की मार के बीच जनता पिस रही है. प्याज के दाम आसमान छू रहे हैं. ग़रीब तो दूर अब अमीरों पर भी महंगाई की मार का असर देखने को मिल रहा है. कीमतें आसमान छू रहीं हैं. सरकार ने कीमतों को रोकने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किए और न ही विपक्ष कोई असरदार विकल्प देने में समर्थ है. जनता से जुड़े सवालों को उठाने के बजाए भारतीय जनता पार्टी की युवा विंग कश्मीर चलो आंदोलन करने जा रही है. देश के लोग महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित है तो भारतीय जनता पार्टी के युवा कार्यकर्ता श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने में लगे हैं. भारतीय जनता युवा मोर्चा की यह यात्रा कोलकाता से कश्मीर तक जाएगी. यह यात्रा 12 जनवरी को शुरू होकर 26 जनवरी को श्रीनगर पहुंचेगी. यह देश के लिए अ़फसोस की बात है कि मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी युवा शक्ति को ऐसे काम में लगा दिया है. हैरानी की बात यह है कि जब कश्मीर में पत्थरबाज़ी हो रही थी, तब भारतीय जनता पार्टी के युवा कार्यकर्ता कहां थे. अब जब वहां शांति बहाल हो गई है, तब ऐसी यात्रा करने का क्या मतलब है. युवा मोर्चे के इस कार्यक्रम से तो यही लगता है कि पार्टी के पास विजन की कमी है. यह व़क्त महंगाई के खिला़फ आंदोलन करने और भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ने का है. घोटालेबाज़ों को बेनक़ाब करने का है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अपने युवाओं को एक ऐसे आंदोलन में झोंक दिया है, जिसका आम आदमी से कोई रिश्ता-नाता नहीं है. सोचने वाली बात यह है कि किसी भी आंदोलन की सफलता युवाओं की भूमिका पर निर्भर करती है. भारतीय जनता पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं को पार्टी से यह आदेश मिला है कि वे कश्मीर चलो आंदोलन में अपनी सारी ताक़त लगा दें. ज़िला और राज्य इकाइयों को इस आंदोलन को सफल बनाने की पूरी ज़िम्मेदारी दी गई है. मतलब यह है कि 26 जनवरी तक भारतीय जनता पार्टी की युवाशक्ति महंगाई, भ्रष्टाचार, जमाखोरी के खिला़फ किसी भी आंदोलन में हिस्सा नहीं ले सकेगी. इससे तो यही लगता है कि भारतीय जनता पार्टी और इसके युवा कार्यकर्ता भावनात्मक मुद्दे को उठाकर लोगों का ध्यान बांटने, सरकार, घोटालेबाज़ों और जमाखोरों की मदद करने में जुटी है. एक कमज़ोर और दिशाहीन विपक्ष की यही निशानी है.
किसी भी प्रजातंत्र में विपक्ष का कमज़ोर होना खतरे की घंटी है. विपक्ष की कमज़ोरी और दिशाहीनता की वजह से ही सरकारें बे-लगाम हो जाती हैं. अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी चेतावनी दे दी है कि देश का प्रजातंत्र खतरे में है. लेकिन जिन लोगों पर प्रजातंत्र को बचाने की ज़िम्मेदारी है, वे ही हंगामा कर रहे हैं. भ्रष्टाचार के खिला़फ जनता को लामबंद करके देशव्यापी आंदोलन बनाने के बजाए राजनीति कर रहे हैं. सरकार और विपक्ष एक दूसरे को नीचा दिखाने में जुटे हैं. भारत की राजनीति ऐसे दौर में है, जहां सरकार से ज़्यादा विपक्ष की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है. देश कीमुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी हाल में सामने आए घोटालों को लेकर सरकार पर निशाना साध रही है. आदर्श सोसायटी घोटाला और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भारतीय जनता पार्टी संयुक्त संसदीय समिति की मांग कर रही है. भारतीय जनता पार्टी और विपक्ष के दूसरे दलों ने संसद का शीतकालीन सत्र नहीं चलने दिया. जिसकी वजह से करोड़ो का नुक़सान तो हुआ ही साथ ही कोई नतीजा भी नहीं निकल सका. सरकार और विपक्ष मीडिया के ज़रिए ही एक-दूसरे पर संवाद करती नज़र आई. अब, जब शीतकालीन सत्र खत्म हो गया है तब कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने अधिवेशन और महारैली करके अपनी-अपनी बातों को जनता और कार्यकर्ताओं तक पहुंचाया. कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को जहां यदुरप्पा के मामले में घेरने की कोशिश की, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने सीधे प्रधानमंत्री पर हमला बोल दिया. नई दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक रैली में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि प्रधानमंत्री उनके कार्यकाल में हुए घोटाले की जवाबदेही से बच नहीं सकते. अरुण जेटली ने कहा कि प्रधानमंत्री जेपीसी गठन की इजाज़त दें और फिर उसके सामने हाज़िर होकर सभी आरोपों का जवाब दें और यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो नैतिकता के आधार पर अपना पद छोड़ दें.
लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस की ताजपोशी के लिए सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि उनके मना करने के बावजूद प्रधानमंत्री ने थॉमस को सीवीसी बना दिया. आरोप लगाना एक बात है और सरकार के फैसलों का सही विश्लेषण करना और बात होती है. सरकार जब नेता प्रतिपक्ष की बात को दरकिनार करने का साहस दिखाती है तो इसका मतलब यही है कि विपक्ष कमज़ोर है और सरकार को लगता है कि इनकी सहमति और असहमति का कोई असर नहीं पड़ने वाला है. अगर उन्हें यह डर रहता कि विपक्ष की बात नहीं मानी गई तो जनता उनके खिला़फ हो जाएगी तो प्रधानमंत्री ऐसे फैसले करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. समस्या यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने अब तक विपक्ष की ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों को ठीक से समझ ही नहीं पाई है.
भारतीय जनता पार्टी संयुक्त संसदीय समिति जांच की मांग पर अडिग है. भाजपा को जब भी और जहां भी मौका मिल रहा है, वह संयुक्त संसदीय समिति की मांग दोहराती रही है. साथ ही भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री से इस्ती़फे की मांग की है. भारतीय जनता पार्टी की इस रणनीति का समर्थन जनता नहीं कर रही है. देश की जनता भ्रष्टाचार से मुक्ति चाह रही है, प्रधानमंत्री से नहीं. फिर क्या वजह है कि वह भ्रष्टाचार से लड़ने के बजाए कांग्रेस से लड़ रही है. यह भारतीय जनता पार्टी की ग़लती है कि एक वैचारिक लड़ाई की जगह उसने इस लड़ाई को व्यक्तिगत बना दिया है. भाजपा ऐसी ग़लती पहले भी कर चुकी है. पिछले चुनाव में आडवाणी ने मनमोहन सिंह को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री बताया. लोगों ने आडवाणी की बातें नहीं मानीं. लोकसभा के चुनाव परिणाम सामने हैं. अब आडवाणी जी जैसे अनुभवी नेता को अगर कमज़ोर और नम्र नेता का अंतर पता नहीं है, तो कोई क्या कर सकता है. यूपीए के शासनकाल में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान हुआ भ्रष्टाचार, मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाला या फिर आईपीएल घोटाला देश के सामने आया है. यह एक ऐतिहासिक मौका है, जब भारतीय जनता पार्टी देश की तस्वीर बदल सकती है. लेकिन विपक्ष बेबस और दिशाहीन नज़र आ रहा है. विपक्ष के पास भ्रष्टाचार से लड़ने का न कोई विजन है और न ही ताक़त. यही वजह है कि लोगों की नाराज़गी के बावजूद विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों का असर नहीं हो रहा है. विपक्ष की दिशाहीनता की वजह से यह खतरा और भी गहरा गया है.
विपक्ष की साख ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है. सरकार की आलोचना करने से पहले यह देखना भी ज़रूरी है कि कहीं वही ग़लती विपक्षी पार्टी खुद तो नहीं कर रही है. लोगों को जब यह पता चलता है कि जिस बात के लिए विपक्ष सरकार की अलोचना कर रही है, अगर वही ग़लती वह खुद कर रही है तो जनता का भरोसा विपक्ष पर से उठ जाता है. विपक्ष लोगों की नज़रों में गिर जाता है. अब सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने यदुरप्पा के खिला़फ एक्शन क्यों नहीं लिया. आदर्श घोटाले के सामने आते ही कांग्रेस पार्टी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को हटा दिया. यह ऐसी सोची-समझी रणनीति थी, जिसका जवाब भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी की भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई के सारे दावे फीके दिखते हैं. हैरानी की बात यह है कि भ्रष्टाचार में लिप्त होने के साथ-साथ यदुरप्पा ने पार्टी के अनुशासन को तोड़ा. दिल्ली बुलाए जाने पर वह नहीं आए और जब आए तो अपने समर्थकों की परेड करा दी. क्या वजह है कि भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता यदुरप्पा से इस्तीफा मांगने की हिम्मत नहीं जुटा सका.
भारतीय जनता पार्टी में लीडरशिप क्राइसिस है. पार्टी में जो नेता फैसले लेते हैं या फिर जिनकी बातों को मानकर फैसला लिया जाता है, उनमें से ज़्यादातर लोग राज्यसभा से आते हैं. उन्हें चुनाव नहीं लड़ना पड़ता है. पार्टी संगठन में अपनी पैठ की वजह से वे संगठन की ऊंची कुर्सियों पर विराजमान हैं. पार्टी में ज़मीन से जुड़े हुए लोगों की कमी है. जो जनता से जुड़े हैं, उन्हें एक-एक करके साइडलाइन कर दिया गया है. इसलिए पार्टी के डिसिजन मेकर्स तक जनता की बात नहीं पहुंचती. ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी याद आते हैं. वाजपेयी छह साल तक प्रधानमंत्री रहे, लेकिन भारतीय राजनीति में उनकी पहचान एक विपक्ष के नेता की है. विपक्ष में रहते हुए उन्होंने न स़िर्फ अपनी लोकप्रियता बढ़ाई, लोगों के दिल भी जीते. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी के विरोधी भी उन्हें राइट मैन इन द रौंग पार्टी कहते थे. अटल बिहारी वाजपेयी अगर सक्रिय होते तो वह कभी भी मनमोहन सिहं को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री नहीं बताते. हां, यह बात ज़रूर है कि उनकी नीतियों एवं घोटालों के लिए सरकार को छोड़ते भी नहीं. भारतीय जनता पार्टी की रणनीति कुछ और होती. वाजपेयी राजनीति में व्यक्तिगत हमला नहीं करते थे. दूसरा अंतर यह होता कि आज भ्रष्टाचार के खिला़फ विपक्ष अलग-थलग है. वाजपेयी सबसे पहले विपक्ष के सभी दलों को एकजुट करते और उसके बाद सरकार पर नीतिगत हमला करते. वाजपेयी के रहते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदुरप्पा अपनी कुर्सी पर विराजमान नहीं रहते. अगर ऐसा होता तो वह पार्टी की रैलियों में नहीं जाते और अपना विरोध सार्वजनिक करने से नहीं चूकते. अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसे नेता थे, जब वह विपक्ष में थे तो सरकार भी उनके आरोपों को गंभीरता से लेती थी. उसकी वजह यह थी कि वह सरकार की नीतियों का सही आकलन करते थे, वह आकलन ऐसा होता था, जिसे जनता भी सच मानती थी. जब अटल जी बोलते थे तो देश की जनता को लगता था कि वह उनकी ज़ुबान बोल रहे हैं. अटल जी की इसी खासियत की वजह से सत्तारू़ढ दल के नेता भी उनकी इज़्ज़त करते थे. वह जनता की नब्ज़ को पहचानते थे. अटल जी स़िर्फ विरोध करने के लिए सरकार या मंत्री का विरोध नहीं करते थे. ऐसे कई मौके हैं, जब लोकसभा में उन्होंने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की तारी़फ भी की. अटल बिहारी वाजपेयी ने जब भी ऐसा किया उनकी लोकप्रियता तो ब़ढी ही, साथ ही उनकी अपनी साख जनता में मज़बूत होती चली गई. यही वजह है कि वह हमेशा देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने रहे. देश की जनता को लगता था कि विपक्ष का नेता ऐसा है, जो जनता की बातों और भावनाओं को सरकार तक पहुंचाता था. प्रजातंत्र में विपक्ष का सही रोल यही है. आज भारतीय जनता पार्टी जनता से कट चुकी है.
विपक्ष की जो विश्वसनीयता होनी चाहिए, वह भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है. भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील में भाजपा की भूमिका क्या थी. जब सारे विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे थे तो भारतीय जनता पार्टी ने अपना रु़ख नरम क्यों किया. विकीलीक्स के खुलासे में पता चला कि इस दौरान अमेरिकी अधिकारी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से बात कर रहे थे. भारतीय जनता पार्टी ने अगर न्यूक्लियर डील में सरकार का साथ नहीं दिया होता तो आज वह भ्रष्टाचार, घोटालों और महंगाई के खिला़फ सफल आंदोलन कर सकती थी. भारतीय जनता पार्टी ने न्यूक्लियर डील में दूसरे विपक्षी दलों का साथ नहीं दिया तो अब दूसरे दल भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं दे रहे हैं. उन्हें भारतीय जनता पार्टी पर भरोसा नहीं है. दूसरी बड़ी समस्या यह है कि आज भारतीय जनता पार्टी के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जो विपक्ष के सभी दलों को एकजुट कर सके. भारतीय जनता पार्टी को इस काम के लिए जनता दल यूनाइटेड के नेता शरद यादव पर आश्रित होना पड़ता है. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के सामने पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह का उदाहरण मौजूद है. बोफोर्स के मामले को उठाकर उन्होंने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया. अलग-अलग राजनीतिक दलों को एकजुट किया. देशव्यापी आंदोलन चलाया और राजीव गांधी को चुनाव में परास्त किया. आज देश में ठीक वैसा ही माहौल है, जैसा वी पी सिंह के समय था. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है, वो विजन नहीं है, जिससे भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर सत्तारू़ढ दल को परास्त कर सके.
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