विनोद उपाध्याय
मध्य प्रदेश में फसल बर्बाद होने और कर्ज से परेशान किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है। प्रदेश में एक महीने में अब तक दस किसानों ने आत्महत्या की है। एक ओर मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार खेती को जहां लाभ का धंधा बनाने का राग अलापती नहीं थक रही है वहीं सरकार द्वारा किसान कल्याण व कृषि संवर्धन के लिए चलाई जा रही योजनाओं में राजनीतिक भेदभाव और भ्रष्टाचार से किसानों को सरकार की प्रोत्साहनकारी और रियायती योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है।
प्रदेश में किसानों की हालत इस कदर बदहाल है कि कई सहकारी संस्थाओं ने किसानों को घटिया खाद-बीज के साथ ही कीटनाशकों की आपूर्ति कर किसानों को बेवजह कर्जदार बना दिया है तो वहीं खराब खाद-बीज और दवाइयों के कारण फसल भी चौपट हो गई, पर इंतहा तो तब हो गई जब प्रदेश के पीडि़त किसानों को सरकार भी न्याय दिलाने में असफल रही। हालांकि केंद्र सरकार ने कुछ ऋणग्रस्त किसानों के कर्ज माफ कर दिए और इसके लिए राज्य सरकार को प्रतिपूर्ति भी की, किन्तु मध्यप्रदेश में सहकारी संस्थाओं में घोटालों के कारण करीब 115 करोड़ रुपए के कृषि ऋण माफ नहीं हो पाए।
प्रदेश किसान का हाल क्या है, यह उसके अंदाज को देखकर ही लगाया जा सकता है, खेती के दिनों में किसानों को अपनी मांगों को मंगवाने के लिए राजधानी की सड़कों पर हाथ में डंडा लेकर उतरना पड़ा। प्रदेश में किसान गुस्से से भरा हुआ है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता रखने वाले भारतीय किसान संघ ने किसानों की समस्या को लेकर भोपाल में प्रदर्शन किया तो उसका गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। किसानों ने भोपाल की रफ्तार ही थाम दी। किसानों का आंदोलन सरकार को यह एहसास करा रहा है कि वह गांव, किसान तथा गरीब को खुशहाल करने का नारा देने में पीछे नहीं रहती और यही किसान अपनी समस्याओं से इतना आजिज आ चुका है।
प्रदेश अब दूसरा विदर्भ बनने की कगार पर है। यह तब हो रहा है, जबकि किसान का बेटा प्रदेश में राज कर रह है। पिछले 10 सालों में 15000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आत्महत्याओं के साथ एक बार फिर यह बहस उपजी है कि क्या कारण है कि धरती की छाती को चीरकर अन्न उगाने वाले किसान, हम सबके पालनहार को अब फांसी के फंदे या अपने ही खेतों में छिड़कने वाला कीटनाशक ज्यादा भाने लगा है। दरअसल अभी तक किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का जिक्र आता रहा है, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत परे है। मध्यप्रदेश में विगत 10 वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में लगातार इजाफा हुआ है। प्रदेश में विगत 10 वर्षों में 14155 से भी ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
प्रदेश में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के किसानों से 50,000 रुपया कर्ज माफी का वादा किया था, लेकिन प्रदेश सरकार ने उसे भुला दिया। अब किसानों पर कर्ज का बोझ है। दूसरी ओर भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण (2008-09) की रिपोर्ट कहती है कि देश के कई राज्यों में समर्थन मूल्य लागत से बहुत कम है, मध्यप्रदेश में भी कमोबेश यही हाल है। हालांकि सरकार यह बता रही है कि हमने विगत दो सालों में समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विश्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समर्थन वाजिब है या नहीं। समर्थन मूल्य अपने आप में इतना समर्थ नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित दाम दिला सके। ऐसे में खेती घाटे का सौदा बनती जाती है, किसान कर्ज लेते हैं और न चुका पाने की स्थिति में फांसी के फंदे को गले लगा रहे हैं। हालांकि सरकार यह बता रही है कि हमने विगत दो सालों में समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विश्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समर्थन मूल्य वाजिब है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समर्थन मूल्य लागत से कम आ रहा है? वह लागत से कम आ भी रहा है, लेकिन फिर भी सरकार ने इस वर्ष बोनस 100 रुपए से घटाकर 50 रुपए कर दिए। किसान की बेबसी की जरा इससे तुलना कीजिए कि वर्ष 1970-71 में जब गेहूं का समर्थन मूल्य 80 पैसे प्रति किलोग्राम था तब डीजल का दाम 76 पैसे प्रति लीटर था, लेकिन आज जबकि मशीनी खेती हो रही है और डीजल का दाम 36 रुपए प्रति लीटर है, तब गेहूं का समर्थन मूल्य 11 रुपए प्रति किलोग्राम हुआ है। यानी तब किसान को एक लीटर डीजल के लिए केवल एक किलो गेहूं लगता था अब उसे उसी एक लीटर डीजल के लिए साढ़े तीन किलो गेहूं चुकाना होता है।
किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का न मिलना, कर्ज का दबाव, लागत का बढऩा और सरकार की ओर से न्यूनतम समर्थन मूल्य का न मिलना आदि यक्ष प्रश्न बनकर उभरे है। सरकार एक ओर तो एग्रीबिजनेस मीट कर रही है, लेकिन दूसरी ओर किसानी गर्त में जा रही है। किसान कर्ज के फंदे कराह रहा है। समय रहते खेती और किसान दोनों पर ध्यान देने की महती आवश्यकता है, नहीं तो अपने वाले समय में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं और बढ़ेंगी और हम विदर्भ की तरह वहां भी मुंह ताकते रहेंगे।
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र होने के साथ ही प्रदेश में बिजली खेती-किसानों के लिए प्रमुख समस्या बन गई है। प्रदेश में विद्युत संकट बरकरार है। सरकार ने अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के समय ही अतिरिक्त बिजली खरीदी थी, उसके बाद फिर वही स्थिति बन गई है। प्रदेश में किसान को बिजली का कनेक्शन लेना राज्य सरकार ने असंभव बना दिया है। उद्योगों की तरह ही किसानों को खंबे का पैसा, ट्रांसफार्मर और लाइन का पैसा चुकाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे बिजली का कनेक्शन मिलेगा। बिजली तो तब भी नहीं मिलेगी, लेकिन बिल लगातार मिलेगा। बिल नहीं भरा तो बिजली काट दी जाएगी, केस बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा यानी किसान के बेटे के राज में किसान को जेल भी हो सकती है। घोषित और अघोषित कुर्की भी चिंता का कारण है। ऐसा नहीं कि सरकार के पास राशि की कमी थी, बल्कि सरकार के पास इच्छाशक्ति की कमी थी। गांवों में बिजली पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने दो अलग-अलग योजनाओं में राज्य सरकार को पैसा दिया था। पहली योजना है राजीव गांधी गांव-गांव बिजलीकरण योजना, जबकि दूसरी योजना है सघन बिजली विकास एवं पुनर्निर्माण योजना। राजीव गांधी योजना के लिए राज्य सरकार को वर्ष 2007-08 में 158।21 करोड़, वर्ष 2008-09 में 165।11 करोड़ रुपए मिले। इसी प्रकार सघन बिजली विकास एवं पुनर्निर्माण योजना में भी वर्ष 2007-08 व 2008-09 में क्रमश: 283।11 व 374।13 करोड़ रुपए राज्य सरकार के खाते में आए। कुल मिलाकर दो वर्षों में 980।56 करोड़ रुपए राज्य सरकार को बिजली पहुंचाने के लिए उपलब्ध हुए, लेकिन इसके बाद भी राज्य सरकार ने किसानों को कोई राहत नहीं दी और न ही भारत सरकार की इस राशि का उपयोग कर बिजली पहुंचाई। इतनी राशि का उपयोग कर किसानों को बिजली उपलब्ध कराई जा सकती थी, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। प्रदेश के हजारों किसानों के विद्युत प्रकरण न्यायालय में दर्ज किए गए।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की मानें तो प्रदेश में प्रतिदिन 4 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह मामला केवल इसी साल सामने आया है, बल्कि वर्ष 2001 से यह विकराल स्थिति बनी है। विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों पड़ोसी राज्यों में कमोबेश एक सी स्थिति है। यह स्थिति इसलिए भी तुलना का विषय हो सकती है, क्योंकि दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक सी हैं। खेती करने की पद्धतियां, फसलों के प्रकार भी लगभग एक से ही हैं। मध्यप्रदेश ने वर्ष 2003-04 में भी सूखे की मार झेली थी और तब किसानों की आत्महत्या का ग्राफ बढ़ा था। विगत दो-तीन वर्षों में भी सूखे का प्रकोप बढ़ा है तो हम पाते हैं कि वर्ष 2005 के बाद प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं में बढ़ोतरी हुई है। हम यह सोचकर खुश होते रहे हैं कि हमारे राज्य में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक की तरह भयावह स्थिति नहीं है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन राज्यों की स्थितियां हमसे काफी भिन्न हैं और यदि आज भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रदेश की स्थिति और भी खतरनाक हो जाएगी।
वर्ष 2010 के प्रारम्भ से लेकर अब तक करीब एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जान गंवा चुके हैं। और अन्नदाताओं की आत्महत्यों का यह दौर अनवरत जारी है। मध्य प्रदेश में किसान आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन सरकार इस तथ्य को छिपाना चाहती है, फिर भी सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज है। इसके साथ ही बिजली संकट, सिंचाई के लिए पानी, खाद, बीज, कीटनाशकों की उपलब्धाता में कमी और मौसमी प्रकोप भी जिम्मेदार है, जिससे कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और किसान आत्महत्या को मजबूर है। खेती पर निर्भर किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य भी न मिलना शामिल है, जिससे वह कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है।
किसानों की आत्महत्याओं के तात्कालिक प्रकरणों का विश्लेषण हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि सभी किसानों पर कर्ज का दबाव था। फसल का उचित दाम नहीं मिलना, घटता उत्पादन, बिजली नहीं मिलना, परंतु बिल का बढ़ते जाना, समय पर खाद, बीज नहीं मिलना और उत्पादन कम होना और सरकारों द्वारा भी नकदी फसलों को प्रोत्साहन दिए जाने पर किसान परेशान हैं। मप्र के किसानों की आर्थिक स्थिति के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ रहे हैं। प्रदेश के हर किसान पर औसतन 14 हजार 218 रुपए का कर्ज है। वहीं प्रदेश में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या भी चौंकाने वाली है। यह संख्या 32,11,000 है। मप्र के कर्जदार किसानों में 23 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है। साथ ही 4 हेक्टेयर भूमि वाले कृषकों पर 23,456 रुपए कर्ज चढ़ा हुआ है। कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि प्रदेश के 50 प्रतिशत से अधिक किसानों पर संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है। किसानों के कर्ज का यह प्रतिशत सरकारी आंकड़ों के अनुसार है, जबकि किसान नाते/रिश्तेदारों, व्यावसायिक साहूकारों, व्यापारियों और नौकरीपेशा से भी कर्ज लेते हैं। जिसके चलते प्रदेश में 80 से 90 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं।
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