मंगलवार, 22 जून 2010

मंथन-समीक्षा में डूबा 'शिवÓ राज

मध्य प्रदेश में वर्ष 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तो प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी में था और लोगों को इस सरकार से एक बड़े विकास की उम्मीद थी। लेकिन सत्ता संघर्ष में जहां दो मुख्यमंत्री उमा भारती और बाबूलाल गौर कुछ नहीं कर सके वहीं तीसरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके सलाहकारों ने कुछ करने नहीं दिया। ऐसा भी नहीं कि शिवराज विफल रहे लेकिन उन्होंने जिस अनुपात में घोषणाएं की थी उसे उस सीमा तक पूरा नहीं करा सके। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो इसके लिए मुख्यमंत्री को ही दोष देना उचित नहीं होगा क्योंकि तब उनमें प्रशासनिक अनुभव की कमी थी।
शिवराज की मंशा साफ थी यह बात जनता जान चुकी थी और शुक्र हो लाड़ली लक्ष्मी योजना का जिसने मामा को विकास पुरूष के रूप में स्थापित कर दिया था। फिर क्या था विरासत में मिली सत्ता को अपने दम पर दूसरी बार हथिया कर शिवराज ने अपना लोहा मनवा दिया। लेकिन अपने अदम्य कोशिशों के बावजुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने दूसरे कार्यकाल के 14 माह बीत जाने के बाद भी मप्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर न ला सके। एक तरफ प्रदेश को विकसित राज्य बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की विकास दर उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्य से भी कम है। क्योंकि इस बार भी उनके इर्द-गिर्द वही सलाहकारों की मंडली कब्जा जमाए हुए है जो पहली पारी में थी।
शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनाव के पहले मध्यप्रदेश को समृद्ध व विकसित राज्य बनाने का संकल्प लिया था। दोबारा सरकार बनाते ही उस संकल्प को पूरा करने के लिए रोडमैप तैयार किया गया। इसके लिए सात कार्यदल बनाए गए थे। कार्यदल की रिपोर्टो पर अलग-अलग चर्चा की गई। इसके बाद मंत्रियों तथा अधिकारियों के साथ सामूहिक चर्चा के बाद विभागवार चर्चा की गई। मंथन में कुल 940 अनुशंसाएं आई थी, जिसमें 852 मान्य की गई 88 को अमान्य कर दिया गया। अनुशंसाओं को तीन श्रेणी में बांटा गया है। पहली वह अनुशंसाएं जो तत्काल लागू हो सकती हैं, इस संबंध में सभी अधिकारियों को 15 मार्च तक आदेश जारी करने को कहा गया है। दूसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हें लागू करने के लिए नियमों मे बदलाव करना पड़ेगा। इसमें तीन से छह माह का समय लग सकता है। तीसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हे पूरा करने के लिए अतिरिक्त राशि की आवश्यकता पड़ेगी। अतिरिक्त राशि कहां से आएगी, इसके लिए भी कार्य शुरू कर दिया गया । मंथन समृद्धि व विकास का रास्ता खोजने के लिए था, जो खोज लिया गया, मंजिल भी तय हो गई,मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने के लिए बस उड़ान भरने की जरूरत थी। लेकिन पायलटों सलाहकारों ने जहाज को दूसरी दिशा में उड़ाना शुरू कर दिया। और मात्र 14 माह की अल्प अवधि में 50 फीसदी घोषणाओं को पूरा करने का दावा भी कर डाला जो हकीकत से परे है। अगर इस औसत से देखें तो अगले 14 माह बाद सरकार के पास कोई काम ही नहीं रहेगा यानी शिवराज सरकार बेकाम हो जाएगी।
ये बड़ी विचित्र स्थिति है कि जब पूरे प्रदेश की जनता अपने मुख्यमंत्री को गरम तवे पर बैठकर ईमानदार मानने को तैयार है, इसके बावजूद उनके मुख्यमंत्री जमीनी हकीकत को जानने की बजाय अपने सलाहकारों की सलाह और आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। या यूं कहें कि वे अपने सलाहकारों की आंकड़ेबाजी पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं
क्योंकि सरकार का खजाना खाली है। 58 हजार करोड़ का कर्ज ऊपर से है। विकास एजेंसियों का बजट कम कर दिया गया है। प्रदेशभर की विकास योजनाएं ठप पड़ी हैं। लाडली बेहाल है। कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है। पिछले कुछ सालों में यहां पड़े आयकर छापों से यह विदित हो गया है कि भ्रष्टाचार चरम पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गई है। इंदौर और फिर भोपाल में एसएसपी सिस्टम लागू करने के बावजूद अपराधों का ग्राफ बढ़ा है। ग्वालियर में डकैतों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है। हत्याओं के मामले में इंदौर तो लूट के मामलों में भोपाल नंबर वन है। सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक संवेदनशीलता के मामलों में मध्यप्रदेश नंबर वन है। दलित उत्पीडऩ में भी प्रदेश सिरमौर है। भू-माफियाओं के हौसले बुलंद हैं। सरेआम सरकारी जमीन हड़पकर बेचने के ढेरों मामले सामने आए हैं।
नौकरशाही बेलगाम हो गई। सरकार की उदासीनता से भ्रष्ट अफसरान करोड़ों में खेल रहे हैं। आयकर छापों में करोड़ों रुपयों के साथ अकूत संपत्तियों का भी खुलासा हो रहा है। भ्रष्टों पर सरकार की मेहरबानी का आलम यह है कि राज्य के मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) ने भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई न होने पर नाराजगी जताई है। मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) के सूत्रों की मानें तो सरकार ने भ्रष्टाचार के 2333 प्रकरण पेंडिंग रख रखे हैं। पीडब्ल्यूडी, पीएचई और जल संसाधन विभाग के इन प्रकरणों को दबाने के पीछे यह कारण पता चला है कि आला अफसरान ने उनसे साठगाँठ कर ली है। गृह राज्यमंत्री नारायण सिंह कुशवाह तो यहां तक कह चुके हैं कि कानून व्यवस्था को मुख्यमंत्री भी नहीं सुधार सकते। गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता स्वीकार चुके हैं कि आम जनता का पुलिस पर से भरोसा उठ रहा है। राजस्व राज्यमंत्री करणसिंह वर्मा विदिशा में चोरी की बढ़ती घटनाओं पर कहते हैं कि चोरों को गोली मार दो। मंत्रियों के ऐसे बयानों के बाद भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। अफसरान खाली बैठे तनख्वाह ले रहे हैं। उधर मुख्यमंत्री, अध्यक्ष, नेताप्रतिपक्ष और मंत्रियों का वेतन बढ़ा दिया गया है।
विद्युत मंडल घोटालेबाज के हाथों में है, जहां आम जनता को जमकर लूटा जा रहा है। पूरे प्रदेश में वन संरक्षण पर खर्च की राशि जितनी बढ़ रही है, उसी अनुपात में जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के अफसरान सिर्फ और सिर्फ कमीशनखोरी में लगे हैं। केंद्रीय अनुदान में सरकार को कहां चूना लगाया जाए, यही मौका ढूंढते रहते हैं। कुपोषण के मामले में उड़ीसा के बाद मध्यप्रदेश का ही नाम आता है। महिला बाल विकास में को फर्जीवाड़े का रोग लग गया है। प्रदेश के चार लाख अतिकुपोषित बच्चों को पोषणाहार देने का कार्यक्रम थर्ड मील फेल हो गया है। उन्हें रोजाना दो रुपए का आहार देना तय है और वह भी नहीं मिल पा रहा है। आंगनबाडिय़ों की सवा लाख कार्यकर्ताओं को इसकी जिम्मेदारी थी, जो अब छीन कर एक कंपनी को दे दी गई है। पूरे प्रदेश में शिक्षा माफिया छाया हुआ है, जो दोनों हाथों से छात्रों और उनके अभिभावकों को लूट रहा है। निजी मेडिकल कॉलेजों में हर साल 10 हजार करोड़ का कारोबार हो रहा है। सरकार द्वारा करोड़ों रुपए फूंकने के बावजूद पॉलीटेक्निक कॉलेज बदहाल हैं। 50 में से 45 मेडिकल कॉलेज में तो प्राचार्य तक नहीं है। परिवहन विभाग में भ्रष्टों की पूछपरख बढ़ गई है। सड़क परिवहन निगम को सरकार ने बंद कर दिया, किंतु केंद्र ने इस पर रोक लगा दी। इसके बावजूद सरकार इसे चालू नहीं कर रही है। इससे हजारों कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो मंत्रालय के ए एसी कमरे में बैठकर मुख्यमंत्री अफसरों के साथ जो कार्ययोजना बनाई थी वह पूरी तरह फेल हो गई है। यानी कुल मिलाकर देखा जाय तो शिवराज इस बार भी शासन और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सके हैं। शिवराज की शासन और प्रशासन पर पकड़ तभी बन सकती है, जबकि वह सरकारी तंत्र पर सतत निगरानी की कोई व्यवस्था बनाएं। यह तभी संभव है, जबकि वह अपने सचिवालय के कामकाज की बारीकी से समीक्षा करें और ऐसा सिस्टम विकसित करें, जिससे कि वह संदेश जाए कि प्रदेश के एकमात्र चीफ मिनिस्टर वहीं है और दूसरा कोई सुपर सीएम नहीं है।
प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐतबार करती है तो उनकी जिम्मेदारी पुरे तंत्र को भष्टाचार मुक्त बनाने की हैं इसकी शुरुआत योजनाओं के मूल से होना चाहिए। अफसर, राजनेता, ठेकेदार और बिचोलियों का गठजोड़ नई योजनाओ-पालिसियों पर कड़ी नजर रखता है। यह चिंतनीय और शोचनीय है। शिवराज सिंह चौहान भली भांति जानते है कि कौन भ्रष्ट है और कौन दलाल हैं, फिर भी वे मौन क्यों हैं?

मंथन-समीक्षा में डूबा 'शिवÓ राज

मध्य प्रदेश में वर्ष 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तो प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी में था और लोगों को इस सरकार से एक बड़े विकास की उम्मीद थी। लेकिन सत्ता संघर्ष में जहां दो मुख्यमंत्री उमा भारती और बाबूलाल गौर कुछ नहीं कर सके वहीं तीसरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके सलाहकारों ने कुछ करने नहीं दिया। ऐसा भी नहीं कि शिवराज विफल रहे लेकिन उन्होंने जिस अनुपात में घोषणाएं की थी उसे उस सीमा तक पूरा नहीं करा सके। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो इसके लिए मुख्यमंत्री को ही दोष देना उचित नहीं होगा क्योंकि तब उनमें प्रशासनिक अनुभव की कमी थी।
शिवराज की मंशा साफ थी यह बात जनता जान चुकी थी और शुक्र हो लाड़ली लक्ष्मी योजना का जिसने मामा को विकास पुरूष के रूप में स्थापित कर दिया था। फिर क्या था विरासत में मिली सत्ता को अपने दम पर दूसरी बार हथिया कर शिवराज ने अपना लोहा मनवा दिया। लेकिन अपने अदम्य कोशिशों के बावजुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने दूसरे कार्यकाल के 14 माह बीत जाने के बाद भी मप्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर न ला सके। एक तरफ प्रदेश को विकसित राज्य बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की विकास दर उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्य से भी कम है। क्योंकि इस बार भी उनके इर्द-गिर्द वही सलाहकारों की मंडली कब्जा जमाए हुए है जो पहली पारी में थी।
शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनाव के पहले मध्यप्रदेश को समृद्ध व विकसित राज्य बनाने का संकल्प लिया था। दोबारा सरकार बनाते ही उस संकल्प को पूरा करने के लिए रोडमैप तैयार किया गया। इसके लिए सात कार्यदल बनाए गए थे। कार्यदल की रिपोर्टो पर अलग-अलग चर्चा की गई। इसके बाद मंत्रियों तथा अधिकारियों के साथ सामूहिक चर्चा के बाद विभागवार चर्चा की गई। मंथन में कुल 940 अनुशंसाएं आई थी, जिसमें 852 मान्य की गई 88 को अमान्य कर दिया गया। अनुशंसाओं को तीन श्रेणी में बांटा गया है। पहली वह अनुशंसाएं जो तत्काल लागू हो सकती हैं, इस संबंध में सभी अधिकारियों को 15 मार्च तक आदेश जारी करने को कहा गया है। दूसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हें लागू करने के लिए नियमों मे बदलाव करना पड़ेगा। इसमें तीन से छह माह का समय लग सकता है। तीसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हे पूरा करने के लिए अतिरिक्त राशि की आवश्यकता पड़ेगी। अतिरिक्त राशि कहां से आएगी, इसके लिए भी कार्य शुरू कर दिया गया । मंथन समृद्धि व विकास का रास्ता खोजने के लिए था, जो खोज लिया गया, मंजिल भी तय हो गई,मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने के लिए बस उड़ान भरने की जरूरत थी। लेकिन पायलटों सलाहकारों ने जहाज को दूसरी दिशा में उड़ाना शुरू कर दिया। और मात्र 14 माह की अल्प अवधि में 50 फीसदी घोषणाओं को पूरा करने का दावा भी कर डाला जो हकीकत से परे है। अगर इस औसत से देखें तो अगले 14 माह बाद सरकार के पास कोई काम ही नहीं रहेगा यानी शिवराज सरकार बेकाम हो जाएगी।
ये बड़ी विचित्र स्थिति है कि जब पूरे प्रदेश की जनता अपने मुख्यमंत्री को गरम तवे पर बैठकर ईमानदार मानने को तैयार है, इसके बावजूद उनके मुख्यमंत्री जमीनी हकीकत को जानने की बजाय अपने सलाहकारों की सलाह और आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। या यूं कहें कि वे अपने सलाहकारों की आंकड़ेबाजी पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं
क्योंकि सरकार का खजाना खाली है। 58 हजार करोड़ का कर्ज ऊपर से है। विकास एजेंसियों का बजट कम कर दिया गया है। प्रदेशभर की विकास योजनाएं ठप पड़ी हैं। लाडली बेहाल है। कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है। पिछले कुछ सालों में यहां पड़े आयकर छापों से यह विदित हो गया है कि भ्रष्टाचार चरम पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गई है। इंदौर और फिर भोपाल में एसएसपी सिस्टम लागू करने के बावजूद अपराधों का ग्राफ बढ़ा है। ग्वालियर में डकैतों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है। हत्याओं के मामले में इंदौर तो लूट के मामलों में भोपाल नंबर वन है। सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक संवेदनशीलता के मामलों में मध्यप्रदेश नंबर वन है। दलित उत्पीडऩ में भी प्रदेश सिरमौर है। भू-माफियाओं के हौसले बुलंद हैं। सरेआम सरकारी जमीन हड़पकर बेचने के ढेरों मामले सामने आए हैं।
नौकरशाही बेलगाम हो गई। सरकार की उदासीनता से भ्रष्ट अफसरान करोड़ों में खेल रहे हैं। आयकर छापों में करोड़ों रुपयों के साथ अकूत संपत्तियों का भी खुलासा हो रहा है। भ्रष्टों पर सरकार की मेहरबानी का आलम यह है कि राज्य के मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) ने भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई न होने पर नाराजगी जताई है। मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) के सूत्रों की मानें तो सरकार ने भ्रष्टाचार के 2333 प्रकरण पेंडिंग रख रखे हैं। पीडब्ल्यूडी, पीएचई और जल संसाधन विभाग के इन प्रकरणों को दबाने के पीछे यह कारण पता चला है कि आला अफसरान ने उनसे साठगाँठ कर ली है। गृह राज्यमंत्री नारायण सिंह कुशवाह तो यहां तक कह चुके हैं कि कानून व्यवस्था को मुख्यमंत्री भी नहीं सुधार सकते। गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता स्वीकार चुके हैं कि आम जनता का पुलिस पर से भरोसा उठ रहा है। राजस्व राज्यमंत्री करणसिंह वर्मा विदिशा में चोरी की बढ़ती घटनाओं पर कहते हैं कि चोरों को गोली मार दो। मंत्रियों के ऐसे बयानों के बाद भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। अफसरान खाली बैठे तनख्वाह ले रहे हैं। उधर मुख्यमंत्री, अध्यक्ष, नेताप्रतिपक्ष और मंत्रियों का वेतन बढ़ा दिया गया है।
विद्युत मंडल घोटालेबाज के हाथों में है, जहां आम जनता को जमकर लूटा जा रहा है। पूरे प्रदेश में वन संरक्षण पर खर्च की राशि जितनी बढ़ रही है, उसी अनुपात में जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के अफसरान सिर्फ और सिर्फ कमीशनखोरी में लगे हैं। केंद्रीय अनुदान में सरकार को कहां चूना लगाया जाए, यही मौका ढूंढते रहते हैं। कुपोषण के मामले में उड़ीसा के बाद मध्यप्रदेश का ही नाम आता है। महिला बाल विकास में को फर्जीवाड़े का रोग लग गया है। प्रदेश के चार लाख अतिकुपोषित बच्चों को पोषणाहार देने का कार्यक्रम थर्ड मील फेल हो गया है। उन्हें रोजाना दो रुपए का आहार देना तय है और वह भी नहीं मिल पा रहा है। आंगनबाडिय़ों की सवा लाख कार्यकर्ताओं को इसकी जिम्मेदारी थी, जो अब छीन कर एक कंपनी को दे दी गई है। पूरे प्रदेश में शिक्षा माफिया छाया हुआ है, जो दोनों हाथों से छात्रों और उनके अभिभावकों को लूट रहा है। निजी मेडिकल कॉलेजों में हर साल 10 हजार करोड़ का कारोबार हो रहा है। सरकार द्वारा करोड़ों रुपए फूंकने के बावजूद पॉलीटेक्निक कॉलेज बदहाल हैं। 50 में से 45 मेडिकल कॉलेज में तो प्राचार्य तक नहीं है। परिवहन विभाग में भ्रष्टों की पूछपरख बढ़ गई है। सड़क परिवहन निगम को सरकार ने बंद कर दिया, किंतु केंद्र ने इस पर रोक लगा दी। इसके बावजूद सरकार इसे चालू नहीं कर रही है। इससे हजारों कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो मंत्रालय के ए एसी कमरे में बैठकर मुख्यमंत्री अफसरों के साथ जो कार्ययोजना बनाई थी वह पूरी तरह फेल हो गई है। यानी कुल मिलाकर देखा जाय तो शिवराज इस बार भी शासन और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सके हैं। शिवराज की शासन और प्रशासन पर पकड़ तभी बन सकती है, जबकि वह सरकारी तंत्र पर सतत निगरानी की कोई व्यवस्था बनाएं। यह तभी संभव है, जबकि वह अपने सचिवालय के कामकाज की बारीकी से समीक्षा करें और ऐसा सिस्टम विकसित करें, जिससे कि वह संदेश जाए कि प्रदेश के एकमात्र चीफ मिनिस्टर वहीं है और दूसरा कोई सुपर सीएम नहीं है।
प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐतबार करती है तो उनकी जिम्मेदारी पुरे तंत्र को भष्टाचार मुक्त बनाने की हैं इसकी शुरुआत योजनाओं के मूल से होना चाहिए। अफसर, राजनेता, ठेकेदार और बिचोलियों का गठजोड़ नई योजनाओ-पालिसियों पर कड़ी नजर रखता है। यह चिंतनीय और शोचनीय है। शिवराज सिंह चौहान भली भांति जानते है कि कौन भ्रष्ट है और कौन दलाल हैं, फिर भी वे मौन क्यों हैं?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें