देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।
'सीमा फार्मूलाÓ में फंसे नौकरशाह
देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।
'सीमा फार्मूलाÓ में फंसे नौकरशाह
देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।
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