भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद जो फैसला आया है उसने ना कितनी उम्मीदों को मौत दे दी है। 25 साल तक न्याय की आस में अपनो को खो जाने का दर्द समटे लोगों की आंखों के आंसूओं का मोल लगा महज 25 हजार। ये भारतीय न्याय प्रणाली। ये नरसंहार के लिए मिलने बाले दंड का स्वरूप अचानक ही दुर्घटना में बदल गया।
यूनियन कार्बाईड के डॉव केमिकल के कारखाने से निकली जानलेवा गैस ने पांच लाख से अधिक लोगों को अपनी जद में लिया और बीस हजार से ज्यादा काल कलवित हो गए थे। लेकिन इस त्रासदी के छब्बीसवें साल में जब निचली अदालत ने अपना फैसला सुनाया तो फैसला गैस त्रासदी से बड़ी त्रासदी साबित हो रही रही है.
यह त्रासदी भारतीय न्याय व्यवस्था और प्रशासन के नाकामी की है जो यह साबित करती है कि भारत में पूंजी के बल पर कुछ भी किया जा सकता है. आम आदमी के वोट से बनी सरकारें तो आम आदमी के खिलाफ काम करती ही हैं लेकिन न्याय प्रणाली भी कई बार आम आदमी के हक और हित की बजाय प्रभावी लोगों के गिरफ्त में फंसकर रह जाती है.
इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है, इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढियां बिना किसी जुर्म की सजा शारीरिक और मानसिक तौर पर भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को 25 साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी, कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुत: एसा हुआ नहीं। देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर यह स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रतिप्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में पीडितों को न्याय दिलवाने में क्या भूमिका निभाई है।
विश्व के इस सबसे बडे औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना निश्चित तौर पर आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस घटना के घटने के महज तीन दिन बाद ही मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया हो। सीबीआई पर लोगों का विश्वास आज भी कायम है। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद से लोगों का भरोसा सीबीआई से उठना स्वाभाविक ही है। इस पूरे मामले ने भारत के ''तंत्र'' को ही बेनकाब कर दिया है। क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिक और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष तबके की ''लौंडी'' बनकर रह गए हैं।
सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए और वहां से उन्होंने आरोप पत्र को अपने मुताबिक कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी, कि उसने इस मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा, या रखा भी तो पूरे मन से नहीं रख पाई। कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडितों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।
आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद उसे गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो उसे विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे 01 फरवरी 1992 को भगोडा घोषित कर दिया गया था, तब उसके प्रत्यापर्ण के लिए भारत सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! 2004 में अमेरिका ने उसके प्रत्यापर्ण की अपील ठुकरा दी गई तो भारत सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई।
अगर यह हादसा अमेरिका में घटा होता तो डाव केमिकल और यूनियन कार्बाईड का नामोनिशान मिटने के साथ ही साथ अनेक बीमा कंपनियों के दिवाले निकल चुके होते। यही हादसा अगर दिल्ली में हुआ होता तो इसकी सूरत कुछ और होती। सवाल यह उठता है कि जब दिल्ली में उपहार सिनेमा में हुए हादसे के पीडितों को 15 से बीस लाख रूपए का मुआवजा मिल सकता है तो भोपाल गैस कांड के पीडितों को महज 25 - 25 हजार रूपए में क्यों टरका दिया गया।
भोपाल जैसे हृदय विदारक हादसे को अंजाम देने के बाद भी यह कंपनी भारत का मोह नहीं छोड पा रही है। भारत सरकार है कि इस कंपनी को देश में दूसरे हादसे के लिए उपजाउ माहौल भी मुहैया करवा रही है। इस कंपनी ने वियतनाम युद्ध में एक जहरीली गैस बनाकर कहर बरपाया था। अब इस कंपनी के निशाने पर तमिलनाडू, महाराष्ट्र और गुजरात सूबे हैं। इस कंपनी के प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर अहसानों से दबे ही हैं केंद्र और सूबों के मंत्री, तभी तो ये डाव केमिकल की तारीफ में कशीदे गढने से नहीं चूकते। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं ही भोपाल में कंपनी के बंद पडे संयंत्र में जहरीले कचरे को छूकर कंपनी को सीधे तौर पर मदद करने का कुत्सित प्रयास किया था। इस कंपनी का महाराष्ट्र में मुंबई गोवा राजमार्ग पर एक संयंत्र आरंभ हो चुका है, जिसमें कीटनाशक बनता है।
लेकिन विडम्बना देखिए महज 25 हजार के जुर्माने औऱ दो साल की कैद ये सज़ा है मौत के सौदागरों की। साल दर साल जाने कितनी लड़ाईयों के बाद पीडितों का ये सपना टूट गया है। 25 साल से जहरीली गैस से प्रभावित लोगों की नरक यात्रा आज भी उनकी पीढ़ी झेल रही है। ऐसे में इस फैसले ने त्रासदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे लोगों को जीते जी ही मार डाला है। मामले में मुख्य अभियुक्त वॉरेन एंडरसन आज भी फरार दुनिया के पापा ने उसे भारत को सौपने से इंकार कर दिया है। एक तरफ इस तथाकथित वैश्विक पापा की एक हुंकार पर बाकी के सारे देशों की पेट गीली होने की नौबत तक आ जाती है ऐसे मैं कभी यह अपराधी सज़ा पा सकेगा इस बात पर भी नचिकेता प्रश्न लगा हुआ है क्या हम कभी इतने शक्तिशाली हो पायेगें कि इस वैश्विक पापा के सामने सीना तान के वारेन नामक इस अपराधी को समर्पण के लिए कह सके ना जाने कब ये समय आयेगा आयेगा या नहीं भी कोई नहीं जानता है।
यूनियन कार्बाइड़ कार्पोरेशन लिमिटेड़ की स्थापना से लेकर,गैस रिसाव और उसके बाद इस मामले की सुनवाई से लेकर फैसले के दिन तक हर बार लोगों की भावनाओं और उनके विश्वास को छला गया है और इस फैसले ने तो अब हमारे वैश्विक पप्पा के लिए एक दरवाजा औऱ खोल दिया है जाहिर सी बात है जब हमारे देश न ही हमारे लोगों को छला तो फिर अमेरिका क्यों चाहेगा इस मामले को आगे बढ़ाने सरकार है पूरी तरह से जिम्मेदार 25 साल के इस लंबे समय का सबसे कारण सरकार औरयूनियन कार्बाइड कंपनी के बीच 1989 को हुए एक समझौता है इसके तहत कंपनी को दिसंबर 1984 की गैस त्रासदी से जुड़े सभी आपराधिक और नागरिक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया गया था।
अदालत ने आठ में से सात दोषियों को दो-दो साल की सजा सुनाई है और प्रत्येक पर 1,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया जबकि इस मामले में दोषी करार दी गई कंपनी यूनियन कार्बाइड इंडिया पर 5,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया गया। त्रासदी के बाद के शुरूआती वर्षो में सरकार ने कंपनी और उसकी अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पर आपराधिक मामले दर्ज करने की बजाए उसके साथ करार कर उसे हर तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त करदिया। भोपाल गैस ट्रेजडी विक्टिम्स एसोसिएशनÓ के अनुसार 14-15 फरवरी 1989 को हुए इस करार के तहत यूनियन कार्बाइड के भारत और विदेशी अधिकारियों को 47 करोड़ डॉलर की एवज में हर प्रकार के नागरिक और आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया। इस करार में कहा गया कि कंपनी के खिलाफ सभी आपराधिक मामले खत्म करने के साथ-साथ सरकार इस त्रासदी के कारण भविष्य में होने वाली किसी भी खामी मसलन से उसके अधिकारियों की हर प्रकार के नागरिक और कानूनी उत्तरदायित्व से हिफाजत भी करेगी।जिसे सर्वोच्च न्यायालय अक्टूबर1991 में आंशिक रूप से खारिज कर दिया था।
मामला सिर्फ भोपाल गैस त्रासदी का ही नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ऐसे सभी असाधारण मसलों से निपटने में भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता की बाबा-आदम के जमाने की धाराएं, प्रावधान नाकाफी हैं। फिर चाहे वो भोपाल गैस त्रासदी हो या फिर देश पर हमला करने वाले अफजल गुरु की या कसाब की फांसी हो। एक जमाने में संघ परिवार और उनके अनुषांगिक संगठनों ने ऐसे ही असाधारण मामलों पर संविधान में बदलाव की बात बड़े जोर-शोर से उठाई थी लेकिन, पता नहीं क्यों जब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार आई तो, कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुडऩे वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुडऩे में मुश्किल महसूस करते हैं।
behad dukhad hai par kya kare hamara system hi aisa bana hua hai...
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