न्यायमूर्ति बाधवा की रिपोर्ट के आंकड़ों ने खोली सरकारी दावों की पोल
गरीबों के नाम पर दिन-रात राजनीति की रोटी सेंकने वाले नेताओं की तो छोडि़ए देश और प्रदेशों की सरकारों को भी नहीं मालूम की देश में कितने गरीब हैं। सरकारें केवल अमीर बढ़ाओ के नारे पर चल रही है और गरीबों की गिनती की जा रही है । सरकारें अपने-अपने मापदंड बनाकर केवल गरीबों की परीभाषा तय करने में ही अपना कार्यकाल गुजार देती हैं और बेचारे गरीब इन परिभाषाओं की परिधि में कैद होकर रह जाते हैं।
देश के ज्यादातर गरीब उस हिस्से में रहते हैं जो भारत हैं। उनके भाग्य का फैसला उस हिस्से से होता है जो इंडिया है। अंग्रेजी में फाइलें लिख कर और कंप्यूटर पर गुणा भाग कर के गरीबों की गिनती की जाती है। अब सरकार राष्ट्रीय खाद्य अधिकार कानून बनाना चाहती है और उसकी तैयारी हो चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायमूर्ति डीपी बाधवा ने पूरा भारत घूम कर जो आंकड़े तैयार किए हैं वे बौखला देने वाले हैं।
बाधवा ने हर उस व्यक्ति को गरीब माना है जिसकी आमदनी सौ रुपए प्रतिदिन से कम हो। उनकी सिफारिश है और इसे कानून में शामिल किया जाना था कि हर महीने ऐसे परिवारों को पैतीस किलो अनाज सरकार दें। इस सिफारिश से पहले गरीब कहलाने की दूसरी परिभाषाएं चलती थी और वे प्रतिदिन उपयोग होने वाली कैलोरी और परिवार के पास कच्चा या पक्का मकान होने पर निर्भर थी। आज भी हैं। श्री बाधवा की रिपोर्ट के अनुसार भारत के पचास करोड़ लोग गरीबों में गिने जाएंगे और सन 2010-11 में गरीबी से जूझने के लिए भारत सरकार ने जो एक लाख 18 हजार 535 करोड़ रुपए का बजट रखा है उसमें 82 हजार एक सौ करोड़ रुपए और जोडऩे पड़ेंगे।
हमें चंद्रमा पर जाना है, साहब लोगों के लिए बड़े हैलीकॉप्टर खरीदने हैं,सुरक्षा के नाम पर अरबों रूपए खर्च किए जा रहे हैं ताकि कोई उनकी तरफ आंख उठाकर देख न ले इसलिए गरीबों के अनाज में कटौती कर के उन्हें दिए जाने वाले मासिक अनाज को घटा कर पच्चीस किलो कर दिया गया है। एशियाई मानवाधिकार संगठन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर इसका विरोध जरूर किया है लेकिन सरकार ऐसे विरोधों को सुनती कब है।
प्रधानमंत्री जानते हैं कि इस कानून को ले कर सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका चल रही है और उसने अगर बाधवा कमेटी की सिफारिशों को मान्यता दे दी तो इसे कानून में शामिल करना भी अनिवार्य हो जाएगा। इसीलिए सरकार चाहती है कि सर्वोच्च न्यायालय में अगली तारीख पड़े उसके पहले ही गरीबी वाला कानून पास कर दिया जाए। नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर उषा पटनायक ने तो उसे खाद्य असुरक्षा कानून पहले ही करार दे दिया है। सारे झमेले के केंद्र में एक ही सवाल है कि आखिर भारत में गरीब कितने हैं? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप पूछ किससे रहे हैं?
विश्व बैंक की परिभाषा माने तो एक डॉलर प्रतिदिन से कम कमाने वाले सारे लोग गरीब है। एक डॉलर यानी पैतालीस रुपए। इस हिसाब से भारत में तीस करोड़ लोग गरीब है। वैसे पैतालीस रुपए प्रतिदिन में आजकल होता क्या है? भरपेट दाल चावल भी नहीं खाया जा सकता। अगर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर द्वारा दिसंबर 2009 में दी गई रिपोर्ट को पैमाना माने तो गरीबों की गिनती सैतीस करोड़ हो जाती है।
राज्य सरकारों ने अपने साधनों और संसाधनों से जो हिसाब लगाया है उसके हिसाब से भारत में 42 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में 80 करोड़ लोग यानी पूरी आबादी का लगभग 70 प्रतिशत दो डॉलर यानी 90 रुपए प्रतिदिन से कम कमाता है। न्यायमूर्ति बाधवा तो सौ रुपए की बात कर रहे थे मगर विश्व बैंक की गिनती के हिसाब से 80 करोड़ लोग भारत में गरीबी की रेखा की दहलीज पर बैठे है। सुरेश तेदुंलकर ने तो यह भी हिसाब लगाया था कि स्वास्थ्य, कपड़ें, शिक्षा और भोजन पर कितना खर्चा हो सकता है। गरीब हमारे देश में मनुष्य नहीं, गिनती रह गए हैं।
उधर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लगातार सामने आने वाले घपलों का जैसे जैसे पता चलता जा रहा है उससे जाहिर है कि भारत में न केंद्र, न राज्य सरकारों की दिलचस्पी गरीबी घटाने या उन्हें न्याय देने में हैं। सर्वोच्च न्यायालय की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राजस्थान और झारखंड में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त है। बिहार में तीन चार महीने मेंं एक बार राशन मिलता है। गुजरात में राशन की दुकान पाने के लिए अफसरों को घूस देनी पड़ती है और जाहिर है कि यह घूस गरीबों के पेट से वसूली जाती है। उड़ीसा ें अनाज के एजेंटो को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त हैं। कर्नाटक में अफसर, डीलर और नेता मिले हुए हैं। उत्तराखंड में राशन तय भाव से ज्यादा दाम पर मिलता है।
जिस दिल्ली में देश की सरकार बैठती है वहां तो आलम बहुत ही खराब है। न्यायमूर्ति बाधवा के अनुसार गरीबों को कभी राशन का अनाज मिलता ही नहीं है। राशन कार्ड बनवाने में भी उन्हें पैसा खर्च करना पड़ता है। फर्जी राशन कार्डों पर अनाज बिक जाता है। न्यायमूर्ति बाधवा ने दिल्ली राज्य नागरिक आपूर्ति निगम में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण है। यह रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस द्वारा सौंप दी गई है और न्यायालय ने उनसे ही पूछा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ठीक करने का क्या तरीका हो सकता है? गोंजाल्विस साहब क्या जवाब देने वाले हैं यह तो वही बता सकते हैं लेकिन न्यायमूर्ति बाधवा की रिपोर्ट के आंकड़ों ने सरकारी दावों की पोल खोलकर रख दी है।
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