सोमवार, 29 मार्च 2010

अब क्या करेंगी दीदी ?

उमा भारती यानी भारतीय राजनीति का वह चेहरा जो स्वयं अपनी बर्बादी की दास्तां समय-समय पर लिखती रहती हैं। उन्हें आज तक किसी से डर नहीं लगा लेकिन उनसे सभी डरते हैं। कारण है उनका जिददीपन। उमा भारती यानी दीदी ने अपनी ही बनायी पार्टी भारतीय जनशक्ति से इस्तीफा दे दिया है. 24 मार्च को पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संघप्रिय गौतम को लिखे पत्र में उमा भारती ने लिखा है कि वे स्वास्थ्य कारणों से पार्टी की जिम्मेदारियों को नहीं निभा पा रही हैं इसलिए वे पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे रही हैं.

अपने इस्तीफे में उमा भारती ने लिखा है कि अपने स्वास्थ्य की स्थितियों, पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों एवं आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण की जरूरतों के हिसाब से संतुलन बिठाने में बेहद तनाव और बोझ का अनुभव कर रही हूं और पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों के साथ न्याय भी नहीं कर पा रही हूं. इसलिए मैं अपने को भारतीय जनशक्ति के अध्यक्ष पद एवं उससे जुड़ी जिम्मेदारियों से मुक्त कर रही हूं ताकि संपूर्ण स्थितियों के बारे में ठीक से आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन कर सकूं एवं स्वास्थ्य लाभ कर सकूं.
उमाश्री भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया है। उन्होंने भाजश छोडी है, अथवा नहीं यह बात अभी साफ नहीं हो सकी है। गौरतलब होगा कि 2005 में भाजपा से बाहर धकिया दिए जाने के बाद अपने ही साथियों की हरकतों से क्षुब्ध होकर उमाश्री भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया था। उमाश्री ने उस वक्त भाजपा के शीर्ष नेता एल.के.आडवाणी को आडे हाथों लिया था। कोसने में माहिर उमाश्री ने भाजपा का चेहरा समझे जाने वाले अटल बिहारी बाजपेयी को भी नही ंबख्शा था। उमाश्री के इस कदम से भाजपा में खलबली मच गई थी। चूंकि उस वक्त तक उमाश्री भारती को जनाधार वाला नेता (मास लीडर) माना जाता था, अत: भाजपाईयों के मन में खौफ होना स्वाभाविक ही था।


उमाश्री को करीब से जानने वाले भाजपा नेताओं ने इस बात की परवाह कतई नहीं की। उमाश्री ने 2003 में मध्य प्रदेश विधान सभा के चुनावी महासमर का आगाज मध्य प्रदेश के छिन्दवाडा जिले में अवस्थित हनुमान जी के सिद्ध स्थल जाम सांवरी से किया था। जामसांवरी उमाश्री के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हुआ था, सो 2005 में भी उमाश्री ने हनुमान जी के दर्शन कर अपना काम आरम्भ किया। उमाश्री का कारवां आगे बढा और भाजपाईयों के मन का डर भी। शनै: शनै: उमाश्री ने अपनी ही कारगुजारियों से भाजश का उभरता ग्राफ और भाजपाईयों के डर को गर्त में ले जाना आरम्भ कर दिया।


कभी चुनाव मैदान में प्रत्याशी उतारने के बाद कदम वापस खीच लेना तो कभी कोई नया शिगूफा। इससे उमाश्री के साथ चलने वालों का विश्वास डिगना आरम्भ हो गया। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजश कार्यकर्ताओं ने उमाश्री को चुनाव मैदान में कूदने का दबाव बनाया। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि एसा इसलिए किया गया था ताकि भाजश कम से कम चुनाव तक तो मैदान में डटी रहे। कार्यकर्ताओं को भय था कि कहीं उमाश्री फिर भाजपा के किसी लालीपाप के सामने अपने प्रत्याशियों को वापस लेने की घोषणा न कर दे। 2008 का मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव उमाश्री भारती के लिए आत्मघाती कदम ही साबित हुआ। इस चुनाव में उमाश्री भारती अपनी कर्मभूमि टीकमगढ से ही औंधे मुंह गिर गईं। कभी भाजपा की सूत्रधार रहीं फायर ब्राण्ड नेत्री उमाश्री भारती ने इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में फिर एक बार भाजपा द्वारा उनके प्रति नरम रूख मात्र किए जाने से उन्होंने लोकसभा में अपने प्रत्याशियों को नहीं उतारा।


भारती का राजनैतिक इतिहास देखने पर साफ हो जाता है कि उनके कदम और ताल में कहीं से कहीं तक सामंजस्य नहीं मिल पाता है। वे कहतीं कुछ और हैं, और वास्तविकता में होता कुछ और नजऱ आता है। गुस्सा उमाश्री के नाक पर ही बैठा रहता है। बाद में भले ही वे अपने इस गुस्से के कारण बनी स्थितियों पर पछतावा करतीं और विलाप करतीं होंगी, किन्तु पुरानी कहावत अब पछताए का होत है, जब चिडिया चुग गई खेत से उन्हें अवश्य ही सबक लेना चाहिए।


मध्य प्रदेश में उनके ही दमखम पर राजा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली दस साला सरकार को हाशिए में समेट पाई थी भाजपा। उमाश्री भारती मुख्य मन्त्री बनीं फिर झण्डा प्रकरण के चलते 2004 के अन्त में उन्हें कुर्सी छोडनी पडी। इसके बाद एक बार फिर नाटकीय घटनाक्रम के उपरान्त वे पैदल यात्रा पर निकल पडीं। मीडिया में वे छाई रहीं किन्तु जनमानस में उनकी छवि इससे बहुत अच्छी बन पाई हो इस बात को सभी स्वीकार कर सकते हैं।


अबकी बार उमाश्री भारती ने अपने द्वारा ही बुनी गई पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया है। उन्होंने कार्यकारी अध्यक्ष संघप्रिय गौतम को त्यागपत्र सौंपते हुए कहा है कि वे स्वास्थ्य कारणों से अपना दायित्व निभाने में सक्षम नहीं हैं, सो वे अपने आप को समस्त दायित्वों से मुक्त कर रहीं हैं, इतना ही नहीं उन्होंने बाबूराम निषाद को पार्टी का नया अध्यक्ष बनाने की पेशकश भी कर डाली है। उमाश्री की इस पेशकश से पार्टी में विघटन की स्थिति बनने से इंकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे चाहतीं तो संघप्रिय गौतम पर ही भरोसा जताकर उन्हें अध्यक्ष बनाने की पेशकश कर देतीं।


उधर भाजपा ने अभी भी उमाश्री भारती के मामले में मौन साध रखा है। यद्यपि भाजपा प्रवक्ता तरूण विजय का कहना है कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है, फिर भी भाजपा अपने उस स्टेण्ड पर कायम है, जिसमें भाजपा के नए निजाम ने उमाश्री भारती और कल्याण सिंह जैसे लोगों की घर वापसी की संभावनाओं को खारिज नहीं किया था। कल तक थिंक टेंक समझे जाने वाले गोविन्दाचार्य से पूछ पूछ कर एक एक कदम चलने वाली उमाश्री के इस कदम के मामले में गोविन्दाचार्य का मौन भी आश्चर्यजनक ही माना जाएगा।

यह बात सही है कि उमा भारती का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और वे अपने घुटने की परेशानी से जूझ रही हैं. लेकिन इस्तीफे का कारण स्वास्थ्य कारण तो बिल्कुल नहीं है. भले ही उमा भारती इस्तीफे के लिए स्वास्थ्य कारणों और आत्मनिरीक्षण का हवाला दे रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि उनके भाजपा में जाने की कवायद पूरी हो चुकी है. इसीलिए जब भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी घोषित की जा रही थी तो उपाध्यक्ष के दो पदों को खाली रखा गया था. उन दिनों उमा भारती संघ के शीर्ष नेताओं और नितिन गडकरी से मेल मुलाकात कर रही थीं. उन्हें कह दिया गया था कि आपका भाजपा में आना तय है. इसीलिए कई मौकों पर उमा भारती भाजपा कार्यक्रमों में उपस्थित रहीं और संकेत दिया कि अब वे भाजपा के साथ हैं. उमा भारती के समर्थक लंबे समय से यह कोशिश कर रहे थे कि उमा भारती भाजपा में वापस आ जाएं क्योंकि उनके समर्थकों का मानना है कि उमा भारती मास लीडर हैं और उनकी एक राष्ट्रीय छवि है. अगर वे भाजपा में वापस लौटती हैं तो उनको भी फायदा होगा और भारतीय जनता पार्टी को भी लाभ पहुंचेगा.

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी उमा भारती के वापसी को हरी झण्डी दे चुके हैं और आडवाणी के खास एस गुरूमूर्ति ही भाजपा और उमा भारती के बीच वार्ताकार की भूमिका निभा रहे थे. अब इस बात की संभावना है कि अगले दो तीन दिनों में उमा भारती के भाजपा में वापसी की विधिवत घोषणा होगी और उन्हें पार्टी के उपाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दे दी जाएगी. उमा भारती की वापसी को लेकर नितिन गडकरी ने भी प्रयास किया है क्योंकि नितिन गडकरी को लग रहा है कि अगर नयी टीम में उन्हें अपनी स्थिति को कमजोर नहीं होने देना है तो उमा भारती ही बेहतर विकल्प हो सकती हैं. इस बात की प्रबल संभावना है कि 27 को संघ की कुरुक्षेत्र में होनेवाली प्रतिनिधि सभा के आस पास उमा भारती के भाजपा में शामिल होने और उन्हें नयी जिम्मेदारी देने की घोषणा कर दी जाए.

उमा भारती की वापसी भाजपा की इंदौर कार्यकारिणी के वक्त ही प्रस्तावित थी लेकिन ऐन वक्त पर फैसला वापस ले लिया गया. और भाजपा की नयी कार्यकारिणी घोषित करने के बाद वापसी की घोषणा करने का फैसला किया गया.

परिभाषाओं में कैद गरीब

न्यायमूर्ति बाधवा की रिपोर्ट के आंकड़ों ने खोली सरकारी दावों की पोल

गरीबों के नाम पर दिन-रात राजनीति की रोटी सेंकने वाले नेताओं की तो छोडि़ए देश और प्रदेशों की सरकारों को भी नहीं मालूम की देश में कितने गरीब हैं। सरकारें केवल अमीर बढ़ाओ के नारे पर चल रही है और गरीबों की गिनती की जा रही है । सरकारें अपने-अपने मापदंड बनाकर केवल गरीबों की परीभाषा तय करने में ही अपना कार्यकाल गुजार देती हैं और बेचारे गरीब इन परिभाषाओं की परिधि में कैद होकर रह जाते हैं।
देश के ज्यादातर गरीब उस हिस्से में रहते हैं जो भारत हैं। उनके भाग्य का फैसला उस हिस्से से होता है जो इंडिया है। अंग्रेजी में फाइलें लिख कर और कंप्यूटर पर गुणा भाग कर के गरीबों की गिनती की जाती है। अब सरकार राष्ट्रीय खाद्य अधिकार कानून बनाना चाहती है और उसकी तैयारी हो चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायमूर्ति डीपी बाधवा ने पूरा भारत घूम कर जो आंकड़े तैयार किए हैं वे बौखला देने वाले हैं।

बाधवा ने हर उस व्यक्ति को गरीब माना है जिसकी आमदनी सौ रुपए प्रतिदिन से कम हो। उनकी सिफारिश है और इसे कानून में शामिल किया जाना था कि हर महीने ऐसे परिवारों को पैतीस किलो अनाज सरकार दें। इस सिफारिश से पहले गरीब कहलाने की दूसरी परिभाषाएं चलती थी और वे प्रतिदिन उपयोग होने वाली कैलोरी और परिवार के पास कच्चा या पक्का मकान होने पर निर्भर थी। आज भी हैं। श्री बाधवा की रिपोर्ट के अनुसार भारत के पचास करोड़ लोग गरीबों में गिने जाएंगे और सन 2010-11 में गरीबी से जूझने के लिए भारत सरकार ने जो एक लाख 18 हजार 535 करोड़ रुपए का बजट रखा है उसमें 82 हजार एक सौ करोड़ रुपए और जोडऩे पड़ेंगे।

हमें चंद्रमा पर जाना है, साहब लोगों के लिए बड़े हैलीकॉप्टर खरीदने हैं,सुरक्षा के नाम पर अरबों रूपए खर्च किए जा रहे हैं ताकि कोई उनकी तरफ आंख उठाकर देख न ले इसलिए गरीबों के अनाज में कटौती कर के उन्हें दिए जाने वाले मासिक अनाज को घटा कर पच्चीस किलो कर दिया गया है। एशियाई मानवाधिकार संगठन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर इसका विरोध जरूर किया है लेकिन सरकार ऐसे विरोधों को सुनती कब है।

प्रधानमंत्री जानते हैं कि इस कानून को ले कर सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका चल रही है और उसने अगर बाधवा कमेटी की सिफारिशों को मान्यता दे दी तो इसे कानून में शामिल करना भी अनिवार्य हो जाएगा। इसीलिए सरकार चाहती है कि सर्वोच्च न्यायालय में अगली तारीख पड़े उसके पहले ही गरीबी वाला कानून पास कर दिया जाए। नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर उषा पटनायक ने तो उसे खाद्य असुरक्षा कानून पहले ही करार दे दिया है। सारे झमेले के केंद्र में एक ही सवाल है कि आखिर भारत में गरीब कितने हैं? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप पूछ किससे रहे हैं?
विश्व बैंक की परिभाषा माने तो एक डॉलर प्रतिदिन से कम कमाने वाले सारे लोग गरीब है। एक डॉलर यानी पैतालीस रुपए। इस हिसाब से भारत में तीस करोड़ लोग गरीब है। वैसे पैतालीस रुपए प्रतिदिन में आजकल होता क्या है? भरपेट दाल चावल भी नहीं खाया जा सकता। अगर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर द्वारा दिसंबर 2009 में दी गई रिपोर्ट को पैमाना माने तो गरीबों की गिनती सैतीस करोड़ हो जाती है।

राज्य सरकारों ने अपने साधनों और संसाधनों से जो हिसाब लगाया है उसके हिसाब से भारत में 42 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में 80 करोड़ लोग यानी पूरी आबादी का लगभग 70 प्रतिशत दो डॉलर यानी 90 रुपए प्रतिदिन से कम कमाता है। न्यायमूर्ति बाधवा तो सौ रुपए की बात कर रहे थे मगर विश्व बैंक की गिनती के हिसाब से 80 करोड़ लोग भारत में गरीबी की रेखा की दहलीज पर बैठे है। सुरेश तेदुंलकर ने तो यह भी हिसाब लगाया था कि स्वास्थ्य, कपड़ें, शिक्षा और भोजन पर कितना खर्चा हो सकता है। गरीब हमारे देश में मनुष्य नहीं, गिनती रह गए हैं।

उधर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लगातार सामने आने वाले घपलों का जैसे जैसे पता चलता जा रहा है उससे जाहिर है कि भारत में न केंद्र, न राज्य सरकारों की दिलचस्पी गरीबी घटाने या उन्हें न्याय देने में हैं। सर्वोच्च न्यायालय की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राजस्थान और झारखंड में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त है। बिहार में तीन चार महीने मेंं एक बार राशन मिलता है। गुजरात में राशन की दुकान पाने के लिए अफसरों को घूस देनी पड़ती है और जाहिर है कि यह घूस गरीबों के पेट से वसूली जाती है। उड़ीसा ें अनाज के एजेंटो को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त हैं। कर्नाटक में अफसर, डीलर और नेता मिले हुए हैं। उत्तराखंड में राशन तय भाव से ज्यादा दाम पर मिलता है।

जिस दिल्ली में देश की सरकार बैठती है वहां तो आलम बहुत ही खराब है। न्यायमूर्ति बाधवा के अनुसार गरीबों को कभी राशन का अनाज मिलता ही नहीं है। राशन कार्ड बनवाने में भी उन्हें पैसा खर्च करना पड़ता है। फर्जी राशन कार्डों पर अनाज बिक जाता है। न्यायमूर्ति बाधवा ने दिल्ली राज्य नागरिक आपूर्ति निगम में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण है। यह रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस द्वारा सौंप दी गई है और न्यायालय ने उनसे ही पूछा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ठीक करने का क्या तरीका हो सकता है? गोंजाल्विस साहब क्या जवाब देने वाले हैं यह तो वही बता सकते हैं लेकिन न्यायमूर्ति बाधवा की रिपोर्ट के आंकड़ों ने सरकारी दावों की पोल खोलकर रख दी है।

शनिवार, 20 मार्च 2010

पचौरी की उम्मीदों पर फिरा पानी

एक जमाने में युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे आनंद शर्मा ने युवा कांग्रेस के महासचिव रहे सुरेश पचौरी की उम्मीदों पर बाकायदा पानी फेर दिया है। पचौरी इस समय मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और दिल्ली आने के लिए छटपटा रहे है। पचौरी इस समय मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और दिल्ली आने के लिए छटपटा रहे है। आनंद शर्मा केंद्र सरकार में मंत्री हैं और उन्हें वाणिज्य जैसा महत्वपूर्ण विभाग दिया गया है। वे अगले महीने राज्यसभा से रिटायर हो रहे हैं और जिस हिमाचल प्रदेश से वे राज्यसभा में चुने गए हैं वहां अब कांग्रेस इस हालत मे नहीं हैं कि एक सदस्य भी राज्यसभा में ला सके।

मध्य प्रदेश में राज्यसभा की तीन सीटें जून में खाली होने वाली है। कोई भी केंद्रीय मंत्री किसी भी सदन का सदस्य हुए बगैर छह महीने तक अपने पद पर रह सकता है। आनंद शर्मा के लिए पार्टी के प्रबंधकों की राय है कि मध्य प्रदेश वाली एक राज्यसभा सीट आनंद शर्मा के लिए सुरक्षित रखी जाए। पचौरी की नजर इस सीट पर थी क्योंकि उन्होंने आजीवन राज्यसभा की ही राजनीति की हैं और लगातार 24 साल तक राज्यसभा के सदस्य रह कर गिनीज रिकॉर्ड बुक तक पहुंचे हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को याद है कि राजीव गांधी जब सत्ता में नहीं रहे थे तो पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर आनंद शर्मा ने एक बहुत शानदार पारी खेली थी। वे आनंद शर्मा को हर कीमत पर मंत्रिमंडल में रखना चाहती है। पचौरी ने अपने मित्रों से सुझाव दिलवाया कि जुलाई में तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान में राज्यसभा की सीटें खाली हो रही हैं और एक सीट अगस्त में हरियाणा में खाली होगी। पंजाब में जुलाई में जो राज्यसभा सीट खाली हो रही हैं उसे अंबिका सोनी को दिया जाना तय कर दिया गया है। सोनिया गांधी राजीव गांधी के पुराने दोस्त और साथ में पायलट रहे सतीश शर्मा का पुनर्वास करना चाहती हैं और उनके लिए उत्तराखंड की एक खाली होने वाली सीट सुरक्षित रखी गई है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सुरेश पचौरी जैसे अनुभवी मंत्री को अपने मंत्रिमंडल में लाने में कोई ऐतराज नहीं होगा क्योंकि संसदीय कार्यमंत्री के तौर पर पचौरी उनके साथ पहले भी काम कर चुके हैं और उनकी भूमिका को काफी अच्छा माना गया था। मगर मध्य प्रदेश में पचौरी के दुश्मन कम नहीं हैं और उन्होंने ही आनंद शर्मा का नाम प्रचारित किया है।
सुरेश पचौरी पार्टी संगठन में भी आने के लिए तैयार है मगर मध्य प्रदेश में पार्टी में पहले से दिग्विजय सिंह और सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे नेता मौजूद है और सत्यव्रत चतुर्वेदी तो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सभी संगठनों और प्रकोष्ठो के प्रभारी भी है। इसके अलावा सत्यव्रत चतुर्वेदी और जर्नादन द्विवेदी के तौर पर दो ब्राह्मण महासचिव मौजूद हैं और पचौरी को ला कर सोनिया गांधी पार्टी पर ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम होने का संकेत नहीं देना चाहती। इसलिए लगता है कि पचौरी को फिलहाल भोपाल में कुछ दिन भोपाल ताल की लहरे गिननी पड़ेगी।

बीसवीं सदी में देश प्रदेश की राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे कांग्रेस के चाणक्य कुंवर अर्जुन सिंह की स्थिति उनके ही चेलों ने बहुत जर्जर करके रख दी है। कल तक जिस राजनैतिक बियावन में अर्जुन सिंह ने गुरू द्रोणाचार्य की भूमिका में आकर अपने अर्जुन रूपी शिष्यों को तलवार चलाना सिखाया उन्ही अर्जुनों ने कुंवर साहेब के आसक्त होते ही तलवारें उनके सीने पर तान दी। कुंवर अर्जुन सिंह के लिए सबसे बडा झटका तब लगा जब इस बार उन्हें केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल में शामिल नहीं किया गया। अब कुंवर साहेब के सरकारी आवास के छिनने की भी बारी आने वाली है। इस साल मई में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने वाला है। कुंवर साहेब को दुबारा राज्य सभा में नहीं भेजा जाएगा इस तरह के साफ संकेत कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केन्द्र सोनिया गांधी के आवास दस जनपथ ने दिए हैं। सूत्रों का कहना है कि अर्जुन सिंह के शिष्य दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह के स्थानापन्न कराने की योजना बनाई जा रही है। यद्यपि दिग्गी राजा ने दस साल तक कोई चुनाव न लेने का कौल लिया है, पर अगर आलाकमान का दबाव होगा तो वे राजी हो सकते हैं। इसके अलावा सूबे की नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी का नाम भी राज्यसभा के लिए लिया जा रहा है। वैसे केन्द्र में बैठे प्रतिरक्षा मन्त्री ए.के.अंटोनी,, उद्योग मन्त्री आनन्द शर्मा, खेल मन्त्री एम.एस.गिल, वन एवं पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश और सबसे खराब परफार्मेंस वालीं अंबिका सोनी भी इस साल राज्यसभा से रिटायर हो रहीं हैं, अत: उनके पुनर्वास के लिए अर्जुन सिंह के स्थान पर इनमें से किसी एक को पुन: राज्यसभा में भेजा जा सकता है।

आध्यात्म की आड में देह व्यापार.....?

मामूली गार्ड से रसूखदार करोड़पति बाबा तक का सफऱ


आध्यात्म के ज्ञान के नाम पर सेक्स का कारोबार करने वाले सेक्स माफिया इच्छाधारी संत को पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने धर दबोचा था. यह बाबा फिलहाल पुलिस की गिरफ्त में है और इससे पूछताछ से लगातार कई अहम खुलासे हो रहे हैं.बाबा की कमाई का पहला जरिया देह व्यापार था. सेक्स रैकेट के धंधे में राजीव रंजन उफऱ् भीमानंद देखते ही देखते सबसे बड़ा दलाल बन गया. इस धंधे में भीमानंद हाई प्रोफ़ाइल मॉडल से लेकर मिडिल क्लास की लड़कियों को खुद ग्राहकों को मुहैया कराता था. काली कमाई का सारा हिसाब-किताब वह खुद रखता था.
बाबा की कमाई का दूसरा जरिया फ़ाइनेंस का काम था. भगवा पहन कर माया-मोह से दूर रहने की सीख देनेवाला भीमानंद फ़ाइनेंसर भी था. अपने भक्तों को पांच से सात फ़ीसदी की दर से ब्याज पर पैसे देता था. भीमानंद केवल गरीबों को सूद पर पैसे देता था. इसे वसूलने के लिए इसने टीम बना रखी थी.
दान भगवा चोला पहनने के बाद भीमानंद ने दान के माध्यम से खूब कमाई की. आस्था के नाम पर लोग दान और चंदे के रूप में बड़ी रकम दे जाते थे.मंदिर निर्माण और प्रवचनभगवा पहन कर काली करतूत करनेवाले भीमानंद ने कमाई के लिए मंदिर बनवाने की योजना बनायी थी. योजना के मुताबिक साईं के नाम पर ये मंदिर देश भर में बनने थे. भीमानंद चंदा के लिए जगह-जगह प्रवचन करता और भजन संध्या का आयोजन करता था.
पैसे कमाने का बाबा का एक और जरिया रियल एस्टेट था. इस कारोबार में भीमानंद नया था. कुछ महीने पहले ही उसने इस कारोबार में कदम रखा था. भीमानंद बिल्डरों से मिल कर रियल एस्टेट सेक्टर में पैसों का निवेश करता था. भजन के जरिये जो पैसे मिलते थे, उसे वह रियल एस्टेट में लगता था.

गत दिनों जब दिल्ली राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी बाबा भीमानंद के सबसे बड़े सेक्स रैकेट के खुलासे के बाद धर्म की आड़ में संत इच्छाधारी जैसे बाबाओं का चरित्र लोगों के सामने आया है. यह न केवल भक्तों की आस्था के साथ खिलवाड है, वरन खुद में एक बड़ा सवाल भी कि आखिर इस बीमारी की दवा क्या है? क्या भक्त बाबाओं पर विश्वास करना छोड़ दे? या फिर अंधभक्त बनकर उन्हें हर प्रकार से सही मानें? क्योंकि इन जैसे संतों को देखकर मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अभी न जाने कितने और इच्छाधारी है, जिनका पता ही नहीं चल सका है. इस दोनों सवालों पर गंभीरता से विचार करना जरुरी है. बाबाओं के बजाय भगवान पर विश्वास करना ज्यादा ठीक है. जिस प्रकार से इच्छाधारी संत का खुलासा हुआ है वह निश्चित ही लोगों को यह सोचने पर विवश कर देगा कि आखिर संतों पर विश्वास का आधार क्या हो? जरुरी यह है कि इस प्रकार के संतों से बचने के लिए लोग खुद जागरुक हों और किसी को भी गुरू मानकर उसकी पूजा करने से पहले उसके बारे में अच्छी तरह जाने, समझे और परखें. अभी भी न जाने ऐसे कितने इच्छाधारी होंगे जिनकी असलियत सामने ही नहीं आई है.

पुलिस को पूछताछ के दौरान पता चला है कि धर्म के नाम पर सेक्स रैकेट चलाने वाले फर्जी बाबा के गिरोह में 600 से भी ज्यादा देशी-विदेशी लड़कियां शामिल थीं. ढोंगी बाबा का कारोबार पूरे देश में फैला था और वो काफी संगठित ढंग से धर्म की आड़ में यह गोरखधंधा चला रहा था. पुलिस को यह भी पता चला है कि लड़कियां सप्लाई करने के लिए बाबा 10 फीसदी कमीशन लेता था. देश के कई प्रमुख शहरों और जानी-मानी हस्तियों व राजनेताओं से सेक्स माफिया ढोंगी बाबा के तार जुड़ते नजर आ रहा हैं. हालांकि, पुलिस ने इस संदर्भ में फिलहाल कोई खुलासा नहीं किया है. बाबा के पास मिली डायरी से पता चला है कि उसकी योजना विदेशों में भी आश्रम खोलने की थी. इसके अलावा वह ब्याज पर पैसा भी देता था.

इच्छाधारी बाबा के सेक्स रैकेट का जाल मायानगरी मुंबई से लेकर धार्मिक नगरी बनारस और अन्य शहरों तक फैले होने का पता चला है. उसका सेक्स रैकेट लक्जरी तरीके से चलता था. वह इन शहरों में लड़कियों को प्लेन से भेजता था. पुलिस ने मंगलवार को इच्छाधारी की वह 8 डायरियां कोर्ट में प्रस्तुत की, जिसमें उसके काले कारोबार का चि_ा बंद है. यहां तक कि दिल्ली से सटे सूरजकुंड के कई होटलों व वहां के रूम रेंट तक का डायरियों में जि़क्र है. पुलिस ने दो मोबाइल फोन की डिटेल्स से बरामद तीन हजार लोगों के नंबर लिस्ट भी कोर्ट को दी. पुलिस ने दावा किया है कि उसके रैकेट में हजारों लड़कियां व सैकड़ों दलाल शामिल हैं. बरामद 8 डायरियों के लेखे-जोखे में यह भी पता चला है कि वह लड़कियों को फ्लाइट के जरिए इन शहरों में भेजता था. डायरी में इन शहरों के कई होटलों व रूम के किराए तक की डिटेल्स लिखी है. रिमांड के दौरान पता चला है कि गोवर्धन में भी उसकी प्रॉपर्टी है. उसके दो मोबाइलों की कॉल डिटेल्स से पुलिस को तीन हजार नंबर मिले हैं, जिनमें कई अहम नाम शामिल हैं. चित्रकूट ले जाने के दौरान पुलिस ने उसकी कुछ सीडी भी बरामद की, जिसमें उसे नाचते-गाते दिखाया है. इन सीडी से भी उसे रैकेट में शामिल लोगों के बारे में जानकारी मिलने की उम्मीद है. दिल्ली पुलिस ने तर्क दिया कि उसके फरार साथियों के बारे में भी अब पूछताछ की जानी है. वहीं बचाव पक्ष ने दलील दी कि वह जिन डायरियों की डिटेल्स और प्रॉपर्टी का जि़क्र कर रहे हैं, उनके सबूत कोर्ट मे पेश करें. प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री कोर्ट को दिखाएं. दोनों पक्षों की दलील के बाद कोर्ट ने बाबा को 21 मार्च तक पुलिस रिमांड में भेजने के आदेश दिए.

सेक्स रैकेट चलाने के आरोप में गिरफ्तार इच्छाधारी बाबा ग्राहकों को इंटरनेट के माध्यम से फांसता था. उसने इसके लिए ग्राहकों का कई स्तरों पर वेरीफिकेशन सिस्टम बना रखा था, ताकि पुलिस उस तक न पहुंच सके. बाबा ने इसके लिए दो वेबसाइटें खोल रखी थीं. इनमें से पहली वेबसाइट 2005 को खोली गई. इसमें संपर्क के लिए 9953459309 नंबर भी डाला गया था. तीन साल पहले वेबसाइट को अपडेट करने पर नया नंबर 9910639999 डाला गया था. इसमें जिया मेहता नामक लड़की का फर्जी प्रोफाइल डाला गया था. खबर यह भी है कि इस वेबसाइट से भारी संख्या में यूजर कनेक्ट रहते थे. इसमें पॉर्न साइट्स का लिंक भी दिया गया था. वेबसाइट किसी सुमित मल्होत्रा के नाम पर रजिस्टर्ड थी, जिसका अभी तक पता नहीं चला है. खबर है कि वेबसाइट और सुमित के बारे में पड़ताल की जा रही है. सूत्रों के अनुसार, ग्राहकों को पहले अपना लैंडलाइन नंबर दर्ज करना पड़ता था. इसके बाद बाबा के लोग उस पर फोन कर यह पता लगाते थे कि कहीं वह पुलिसवाला तो नहीं है

इच्छाधारी बाबा पर लगा मकोका :- भगवा चोला धारण कर सेक्स रैकेट चलाने वाले राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी संत के खिलाफ पुलिस ने महाराष्ट्र कंट्रोल आफ आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट [मकोका] के तहत मामला दर्ज कर लिया है. दिल्ली के साकेत थाने में दर्ज इस मामले के बाद इस ढोंगी बाबा का जेल से जल्द जमानत पर बाहर आना मुश्किल होगा. उसकी संपत्तिभी जब्त हो सकती है. पुलिस के अनुसार, राजीव रंजन द्विवेदी के संगठित रूप से अपराध अंजाम देने की बात का खुलासा हुआ है. मकोका के तहत लगाए गए आरोप सच साबित हुए तो बाबा को पांच साल से लेकर उम्र कैद तक की सजा संभव है. जांच में अगर उसके द्वारा किसी का कत्ल करने की बात सामने आती है तो बाबा को फांसी की सजा भी हो सकती है.

इच्छाधारी संत कामनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली में आने वाले विदेशी मेहमानों तक भी अपनी सेवाएं पहुंचाना चाहता था. इसके पीछे उसकी मंशा विदेशी ग्राहकों से मोटी कमाई करने की थी. जानकारी के अनुसार, जिस तरह बाबा ने बेवसाइट खोल रखी थी, उससे साफ है कि उसकी नजर खेलों के दौरान यहां आने वाले विदेशी मेहमानों पर भी थी, अपने सेक्स रैकेट के जरिए वह विदेशी मेहमानों को अपने जाल में फंसाने की पूरी तैयारी में था. सूत्रों का कहना है कि बाबा के घर से बरामद डायरियों में कुछ ऐसी भी हैं, जिनमें हिंदी व अंग्रेजी में विदेशी मेहमानों से बोलचाल व उन्हें रिझाने के तरीके लिखे गए हैं. इससे साफ है कि यह बाबा अपने साथ काम करने वाली लड़कियों को यह सिखा रहा था कि कैसे विदेशी मेहमान को अपनी सेवाओं से खुश किया जाए, जिससे कि वह दिल खोलकर उन पर रुपये की बरसात करें.

दिल्ली में बाबा की गिरफ्तारी ने देह व्यापार के मामले को हवा दे दी है. पुराने वक्त के कोठों से निकल कर देह व्यापार का धंधा वेबसाइटों तक पहुंच गया है. चूंकि यह धंधा एक मजबूत नेटवर्क के तहत चल रहा है. इंफरमेशन टेक्नोलॉजी के मामले में पिछड़ी पुलिस के लिए इस नेटवर्क को भेदना बेहद मुश्किल हो गया है. गौर करने वाली बात यह भी है कि देह व्यापार का धंधा चलाने का यह हाई फाई तरीका पंजाब के शहरों तक पहुंच चुका है. सिर्फ लुधियाना की बात करें तो दर्जनों वेबसाइटें ऐसी हैं, जो लुधियाना में कॉलगर्ल पहुंचाने का दावा करती हैं. इंटरनेट की जरा सी जानकारी रखने वाला व्यक्ति ऐसी वेबसाइटों को मात्र एक क्लकि पर ढूंढ सकता है. सिर्फ सर्च इंजन पर अपनी जरूरत लिखकर सर्च करने से ऐसी दर्जनों साइट्स के लिंक मिल जाएंगे. कुछ वेबसाइटों पर लड़कियों की तस्वीरें भी दिखाई गई हैं. वेबसाइटों पर कालेज छात्राएं, मॉडल्स और टीवी व फिल्मों की नायिकाएं तक उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं. कुछेक अपने पास विदेशी कालगर्ल होने का भी दावा करते हैं. धंधा चलाने वाले शातिर संचालकों ने वेबसाइट पर ज्यादा जानकारी नहीं छोड़ी है, जिससे पुलिस के हाथ उन तक पहुंच पाएं. धंधे के संचालकों के मोबाइल फोन इस साइट पर बड़े अक्षरों में कई जगह मिल जाएंगे. इनमें से ज्यादातर मोबाइल नंबर दिल्ली के हैं. वेबसाइट पर देश के अन्य शहरों में भी कालगर्ल उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं. पंजाब में कालगर्ल उपलब्ध कराने वाली वेबसाइटों पर पंजाब के भी नंबर हैं.

इंटरनेट माहिरों के अनुसार भारत में पोर्न साइट पर पाबंदी है. शातिर संचालक वेबसाइट आउटसोर्सिग के जरिए अपनी वेबसाइट विदेशों से बनवा लेते हैं. साइबरफ्रेम साल्युशंस के सीईओ के अनुसार ऐसे लोग यह वेबसाइट अकसर विदेशी सर्वर पर बनवाते हैं. इन पर भारतीय कानून के तहत रोक लगाना मुश्किल हो जाता है. यह गंभीर मामला है. पुलिस ने समय समय पर देह व्यापार के कई रैकेट पकड़े हैं.

गुरुवार, 18 मार्च 2010

अभ्यारण बने बाघों की कब्रगाह

भारत का हृदय स्थल मध्यप्रदेश अपने शानदार घने जंगलों और राष्ट्रीय पशु बाघ की दहाड़दार मौजूदगी के कारण पूरे विश्व में जाना जाता है। बाघ की शानदार आबादी के कारण मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट का दर्जा भी मिला हुआ है। लेकिन वन अधिकारियों, वन माफिया और तस्करों की मिली भगत से पन्ना अभ्यारण्य में ऐसा खूनी खेल खेला गया कि अब यह ताज छीने जाने की पूरी तैयारी हो चुकी है। विभाग की लापरवाहियों के चलते मध्यप्रदेश अब बाघ विहीन होता जा रहा है। उधर प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह ने इस मामले में जिस तरह तत्परता दिखाई है अगर पूर्ववर्ती सरकार के मंत्रियों ने दिखाई होती तो आज यह स्थिति नहीं बनती और मध्यप्रदेश को विश्व समुदाय के सामने नीचा नहीं देखना पड़ता।
प्रदेश के सबसे सुरक्षित और अधिक बाघों की संख्या वाले पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ न होने की खबर ने सनसनी तो फैलाई ही है उस पर वन मंत्री द्वारा बाघों के गायब होने की जॉच सीबीआई से कराने की अनुशंसा अपनी सरकार से करने को कह कर मामले की गंभीरता को उजागर किया है। क्योंकि कुछ दिनों पूर्व ही उन्होंने विभाग के उन अधिकारियों की फाइल तलब की है जिन पर वर्षो पूर्व से भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं और जांच के नाम पर फाइलें धूल खा रही थी। उल्लेखनीय है कि पन्ना अभ्यारण्य कुख्यात डकैत ठोकिया की शरण स्थली था। इस दौरान पन्ना में सबसे अधिक बाघों की हत्या हुई है, जिससे अंदेशा लगाया जा रहा है कि अधिकारियों की मिलीभगत से ठोकिया ने अंतर्राष्ट्रीय वन्यप्राणी तस्कर संसार चंद और शब्बीर के लिए बाघों को मारा होगा। पन्ना अभ्यारण्य वैसे भी हमेशा से संवेदनशील रहा है क्योंकि उत्तरप्रदेश से इसकी सीमा मिलती है और हमेशा वहां के शिकारी घुसपैठ करते रहते हैं। पिछले दिनों ही वन विभाग के अमले ने अभ्यारण्य में कुछ हथियारबंद लोगों को घूमते देखा, लेकिन काफी खोजबीन के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
उल्लेखनीय है कि विगत माह ही प्रदेश के सभी अभ्यारण्यों और जंगलों में वन्य प्राणियों की गिनती हुई है और रिर्पोट मंत्री तक पहुंच गई है। पहले से माना जा रहा था कि यह समिति विभाग के अफसरों को बचाने के उद्देश्य से गठित की गई है तभी राज्य सरकार ने केंद्र द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की और राज्य स्तरीय समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया। कहा जा रहा है कि समिति के एक सदस्य, राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण तथा टाईगर प्रोजेक्ट के सदस्य राजेश गोपाल समिति की इस मुहिम में शामिल नहीं हुए और इसीलिए होली के एक दिन पहले जो जांच रिपोर्ट सौंपी गई, उसमें उनके हस्ताक्षर नहीं हैं।
सूत्रों का कहना है कि उन्होंने अलग से अपनी रिपोर्ट सौंपी है जिसमें केंद्रीय समिति की तर्ज पर बाघों के गायब होने के लिए शिकारियों के साथ पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में पदस्थ रहे संचालकों तथा भोपाल में बैठकर तमाशबीन बने रहे विभाग के आला अफसरों को भी जवाबदार ठहराया गया है। वन मंत्री सरताज सिंह ने जांच रिपोर्ट दिखाते हुए कहा कि रिपोर्ट 160 पेज की है। जिसे अब तक न मैने पढ़ी और संभवत: न ही अधिकारियों ने पढ़ी होगी। उन्होंने रिपोर्ट के नीचे राजेश गोपाल के हस्ताक्षर न होने की बात भी स्वीकारी लेकिन उनके द्वारा कोई समानांतर रिपोर्ट सौंपने की जानकारी से इंकार किया।
वन मंत्री सरताज सिंह के कड़े रुख से बाघों ेकेगायब होने का मामला एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। उन्होंने यह मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया है और इससे संबंधित प्रस्ताव विभाग की ओर से राज्य सरकार के पास भेज भी दिया गया है। श्री सिंह का कहना है, उचेहरा में एक बाघ के शिकार तथा पकड़े गए आरोपी के भाग जाने का मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया गया था लेकिन यहां तो कम से कम 20 और ज्यादा से ज्यादा 34 बाघों के गायब होने का सवाल है जिनकी आज तक लाश नहीं मिली।
उन्होंने कहा कि रिपोर्ट विरोधाभाषी है और सीबीआई जांच होने पर सारी स्थिति अपने आप स्पष्ट हो जाएगी। वैसे भी जनता को इस मामले की सच्चाई जानने का अधिकार है। इसलिए उचेहरा प्रकरण के साथ इसे भी जोड़ दिया गया। श्री सिंह ने कहा कि यह प्रदेश के लिए कलंक की बात है कि एक टाइगर रिर्जव के सभी बाघ गायब हो गए। उन्होंने कहा कि इसमें निश्चित रूप से किसी अंतर्राष्ट्रीय तस्कर गिरोह का हाथ है जिसका सहयोग भले ही स्थानीय लोगों का मिला हो। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस दौरान बाघ गायब हुए, भले मौजूदा मुख्य सचिव अवनि वैश्य तब वन विभाग के प्रमुख सचिव थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें सीबीआई जांच में कोई आपत्ति होगी। फिलहाल वनमंत्री के कदम से वन महकमे के उन आला अफसरों में हड़कंप की स्थिति है जो इस मामले से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं।
बाघों की संख्या में गिरावट के लिए मुख्यरूप से अवैध शिकार करके उनके अंगों का व्यापार करने वाले व्यापारी ही जिम्मेदार हैं। सवाल है ये गिरोह किसकी मिलीभगत से पनपते हैं? ऐसा क्यों होता है कि बाघों के संरक्षण के लिए खड़े किये गये तंत्र ऐसे गिरोहों की गतिविधियों पर काबू पा सकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। सरकारी अमला भ्रष्ट, लापरवाह और लालची हो सकता है पर समाज को क्या हुआ है?
प्रतीत होता है कि बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए बने अभ्यारण्य ही आज उनकी कब्रगाह बन गये हैं। इस बात को उस समय और बल मिल गया जब प्रदेश में वन्य प्राणियों की गिनती का काम चल रहा था उस समय पन्ना टाइगर रिजर्र्व क्षेत्र में चन्दननगर रेंज के पास अमदरा नाला, सुकवाहा, पलकोहा आदि के जंगलों में खुदाई की गयी जहां सनसनी खेज रूप से मृत शेर, तेंदुआ, रीछ सहित कई जानवरों के अवशेष पाये गये। इनकी बड़ी पैमाने में हड्डियां भी निकली हैं। जिससे यह आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि इन जानवरों की ह्त्या कर उनके अवशेषों को छिपाने के लिए टाइगर रिजर्व क्षेत्र में ही गाड़ दिया गया है। हैरान करने वाला तथ्य तो यह है कि जिस क्षेत्र में बाघ गायब हुए उसी क्षेत्र में वन्य प्राणियों के अवशेष मिले हैं।
फील्ड डायरेक्टर निवास मूर्ति द्वारा यह बात स्वीकार करते हुए कहा गया है कि टाईगर रिजर्व क्षेत्र में मिली हड्डियों की जांच फॉरेंसिक लेबोरेटरी द्वारा की जायेगी एवं वन्य जीव विशेषज्ञों द्वारा यह जांच की जाएगी। इस रहस्योद्घाटन के बाद पन्ना टाईगर रिजर्व की पोल खुद वा खुद खुलती नजर आ रही है। यहाँ के अफसरों के भ्रष्ट रवैये के चलते धीरे-धीरे बाघों के शिकार होते गये और बाघ एक के बाद एक गायब होते चले गये।
लेकिन कहावत है कि चोर की दाढ़ी मे तिनका और शायद यही तिनका बाघ के गायब होने का रहस्य सुलझा सकता है। जानवरों के अवशेष कई सवालों को जन्म देते हैं कि क्या टाइगरों की हत्या कर इन्हें गाड़ा गया? क्या इन हत्याओं में टाइगर रिजर्व के अधिकारी कर्मचारी शामिल हैं? क्या पन्ना के टाइगर अधिकारियों के भ्रष्ट रवैये की भेंट चढ़ गए?
केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि इस समय देश में महज 1411 बाघ बचे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 290 मध्य प्रदेश में हैं। लेकिन बाघों के मामले में नंबर एक मध्य प्रदेश बाघों की मौत के मामले में भी नंबर एक है। इस साल अब तक 14 राज्यो में जो 59 बाघ मरे हैं उनमें से अकेले मध्यप्रदेश में 14 बाघ मारे गए हैं। मध्य प्रदेश के बाद असम (10) और कर्नाटक (9) का नंबर है। वहीं मध्य प्रदेश वन विभाग के एक बड़े अफसर यह कहने में शर्म भी नहीं करते हैं कि मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या देखते हुए मौत का यह आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है।
यह बेशर्मी है या अज्ञानता। कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मध्यप्रदेश की सरकार को ही बाघों की चिंता नहीं तो ये अफसर भला क्या करेंगे।
देश की आजादी के समय बाघों की संख्या 40 हजार थी। लेकिन अगले कुछ ही सालों में शिकार के शौकीन रईसों और पुरानी सियासतों के झंडाबरदारों ने जंगल के असली राजा का लगभग सफाया कर दिया है। 1972 की गणना में कुल 1827 बाघ बचे थे। 1973 में इंदिरा गांधी ने राजस्थान के टाईगर मैन कहे जाने वाले कैलाश सांखला की पहल पर बाघ परियोजना शुरू की थी।
लेकिन बढऩे की बजाय बाघ कम होते गये। सरकारी आंकड़े बाघों के मारे जाने की पुष्टि करते है। इसी साल 12 फरवरी को राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि सत्तर के दशक में शुरू किया गया महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट टाईगर अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया है और देश में बाघों की संख्या अब तक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी है। 2002 में की गयी गणना के अनुसार देश में 3642 बाघ थे वहीं वर्तमान में 1411 बाघ बचे हैं। जो कि साठ के दशक में की गयी गणना 1800 बाघों से भी कम है।
ताजा गणना के अनुसार राजस्थान में 32, उत्तर प्रदेश में 109, उत्तराखण्ड में 179, बिहार में 10, आंध्र प्रदेश में 75, छत्तीसगढ़ में 26, महाराष्ट्र में 103, उड़ीसा में 45, कर्नाटक में 290, केरल में 46, तमिलनाडु में 76, अरुणाचल में 14, मिजोरम 6 और पश्चिम बंगाल में 10 बाघ बचे हैं। साफ है कि अभ्यारण्य बाघों को बचाने के कारगर उपकरण साबित नहीं हुए हैं।
वाईल्ड लाईफ प्रोटेक्शन सोसायटी के सर्वेक्षण के अनुसार पिछले दस सालों में (1994 से जनवरी 2005) हमारे अभ्यारण्यों में 734 बाघ और 2474 तेंदुए शिकारियों के हत्थे चढ़ चुके हैं। रिकार्ड के आधार पर संसारचंद गिरोह पर तीस से पैंतीस हजार वन्यजीवों की हत्या कर उनके खालों और अंगों की तस्करी की गयी।
वाईल्ड लाईफ संस्थान का मानना है कि देश के आठ राष्ट्रीय पार्कों-इंद्रावती, श्रीसेलम, डंपा, पलामू, पन्ना, रणथंभौर, सरिस्का, बांधवगढ़ में बाघ सबसे ज्यादा संकट में हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की नयी रपट भी इस बात की पुष्टि करता है कि 2003 से 2005 के बीच 728 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र खत्म हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि देश के कुल भू-भाग का मात्र 20.6 प्रतिशत हिस्सा ही वन क्षेत्र है उसमें भी सघन वनों का हिस्सा मात्र 1.6 प्रतिशत है। ग्यारह अभ्यारण्यों में वन क्षेत्र घटा है।
जंगल और बाघों को बचाने के लिए अनाप-शनाप पैसा मिलता है। 2008-2009 के दौरान प्रोजेक्ट टाइगर के तहत मध्यप्रदेश के छह अभ्यारण्यों को 70 करोड़ के आसपास रकम मिली। सबसे ज्यादा 21 करोड़ पन्ना को मिले, जहां कोई बाघ बचा ही नहीं। 70 करोड़ रुपये में 300 बाघों की देखभाल बड़ी बात नहीं है लेकिन बाघों का पैसा बाघों पर खर्च तो हो। मध्यप्रदेश में बाघों को बचाने के लिए बनाई गई टाइगर फाउंडेशन सोसाइटी को भी इधर-उधर से मोटा बजट मिलता है लेकिन इस बजट का कितना लाभ बाघों को हो रहा है?
हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन इस प्रदेश का वन विभाग और सरकार इस खूबसूरत जानवर को लेकर गंभीर नहीं है और इसे खोने पर तुली है। अब तो मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार से पूछ लिया है कि वो बाघों को बचाने के प्रति कितनी गंभीर है और इस दिशा में उसने क्या कदम उठाया। प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी है। कहा जा सकता है कि अगर लापरवाही का यही हाल चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मध्यप्रदेश अपने टाइगर स्टेट का दर्जा खो बैठेगा।
भारत के इतिहास में अब तक सबसे कम बाघ दर्ज हुए हैं। यह संख्या 1972 में हुई बाघ गणना के आँकड़ों से भी कम है जब देश में इस राष्ट्रीय पशु की संख्या घटकर महज 1827 रह गई थी। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पहल पर देश में प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना शुरू हुई। देश में अब 28 प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए और 1997 में बाघों की संख्या बढ़कर साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई।
2001-02 में भी ये 3642 बनी रही लेकिन नई शताब्दी का पहला दशक इस धारीदार जानवर के लिए घातक सिद्ध हुआ और इस दशक के अंत तक ये सिमटकर मात्र 1411 रह गए। फरवरी 2008 में बाघों की यह गणना देशभर में भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने की थी। उल्लेखनीय है कि आजादी के ठीक बाद यानी 1947 में भारत में 40000 बाघ थे। बाघों की इस संख्या को लेकर भारत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था लेकिन बढ़ती आबादी, लगातार हो रहे शहरीकरण, कम हो रहे जंगल और बाघ के शरीर की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भारी बढ़ोत्तरी इस खूबसूरत जानवर की जान की दुश्मन बन गई।
2008 में हुई गणना से पहले मध्यप्रदेश वन विभाग प्रदेश में 700 से ज्यादा बाघ होने के दावे किया करता था लेकिन इस गणना के बाद उन सब दावों की हवा निकल गई और असली संख्या 264 से 336 सामने आई। भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार इस गणना में पता चला है कि सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में ही कम हुए हैं। कम होने या गायब होने वाले बाघों की संख्या 400 के आसपास है। आशंका जताई गई कि इनमें से ज्यादातर का शिकार कर लिया गया और उनके अंग दूसरे देशों को बेच दिए गए। 2010 इस जानवर के लिए और भी कड़ी परीक्षा वाला साबित होने वाला है क्योंकि शिकारियों की संख्या जहाँ लगातार बढ़ रही है वहीं बाघों की संख्या और उनका इलाका लगातार कम हो रहा है।
मध्यप्रदेश का राष्ट्रीय उद्यान पन्ना बाघों के खत्म होने का सबसे पहला प्रतीक बना। 2007 में वन विभाग ने यहाँ 24 बाघ होने का दावा किया था। ्रलेकिन रघु चंद्रावत जैसे स्वतंत्र बाघ विशेषज्ञ ने यहाँ सिर्फ एक बाघ की मौजूदगी बताई थी। तब बाघिन का यहाँ नामोनिशान तक नहीं मिला।
आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने 1973 में बाघों को बचाने के लिए टाईगर प्रोजेक्ट का श्रीगणेश किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है। जिस तरह सरकार के उपेक्षात्मक रवैए के चलते देश में गिद्ध की प्रजाति दुर्लभ हो गई है, ठीक उसी तरह आने वाले दिनों में बाघ अगर चिडियाघर में शोभा की सुपारी की तरह दिखाई देने लगें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल, भुखमरी, रोजगार के साधनों के अभाव और कम समय में रिस्क लेकर ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बड़ी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं।
सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हड्डियां एक लाख से डेढ़ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नाखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढ़ा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।
सरकार की पैसा फेंकने की योजनाओं के लागू होते ही उसे बटोरने के लिए गैर सरकारी संगठन अपनी अपनी कवायदों में जुट जाते हैं। वन्य प्राणी और बाघों के संरक्षण के मामले में भी अनेक एनजीओ ने अपनी लंगोट कस रखी है। जनसेवकों के पे रोल पर काम करने वाले इन एनजीओ द्वारा न केवल सरकारी धन को बटोरा जा रहा है, बल्कि जनसेवकों के इशारों पर ही सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजनाओं में अडंगे भी लगाए जा रहे हैं।
बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रकिृया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडऩे के बजाए कराह ही रहे हैं। जंगल की कटाई पर रोक और वन्य जीवों के शिकार के मामले में आज आवश्यक्ता सख्त और पारदर्शीं कानून बनाने की है। सरकार को सोचना होगा कि आखिर उसके द्वारा इतनी भारी भरकम राशि और संसाधन खर्च करने के बाद भी पांच हजार से कम तादाद वाले बाघों को बचाया क्यों नही जा पा रहा है। मतलब साफ है कि सरकारी महकमों में जयचन्दों की भरमार है। भारत में बाघ एक के बाद एक असमय ही काल कलवित हो रहे हैं और सरकार गहरी निन्द्रा में है।
बाघ बचाने लिए सरकार को चाहिए कि वह जंगल की कटाई पर रोक के लिए सख्त कानून बनाए, टाईगर रिजर्व के आस पास कड़ी सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराए, इसके लिए विशेष बजट प्रावधान हो, नए जंगल लगाने की योजना को मूर्तरूप दिया जाने के साथ ही साथ बाघ को मारने पर फांसी की सजा का प्रावधान किया जाना आवश्यक होगा। वरना आने वाले एक दशक में ही बाघ भी उसी तरह दुर्लभ हो जाएगा जिस तरह अब गिद्ध हो गया है। वनों के संवर्धन और संरक्षण का उत्तरदायित्व राज्यों में वन विभाग के अमलों का होना है। वनों के रखरखाव के लिए तैनात भारी भरकम शासकीय कर्मियों की फौज होते हुए भी जिस पैमाने पर वनों का विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। उल्टे, यह हो रहा है कि जंगलों की कटाई और वनोपजों की निरंतर हो रही चोरियों के कारण वनों के क्षेत्रफल घटते चले जा रहे हैं। रसूखदारों द्वारा वनसंपदाओं के अवैध व्यापार पर न तो कठोरता से नियंत्रण हो पा रहा है और न ही शासकीय स्तर पर क्षतिपूर्ति वनरोपण की दिशा में गंभीरता परिलक्षित हो रही है। परिणाम स्वरूप वनों का सत्यानाश होता जा रहा है।

सोमवार, 15 मार्च 2010

प्रदेश सरकार को नहीं मिली वीरांगना?

वर्ष 2006 में मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा रानी अवंतीबाई के नाम पर राज्य स्तरीय वीरता पुरस्कार तथा राजमाता विजयाराजे सिंधिया के नाम पर समाजसेवा पुरस्कार स्थापित किया गया। यह पुरस्कार वर्ष 2006 और 2007 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर साहसी महिलाओं को दिया भी गया। लेकिन वर्ष 2008 के बाद सरकार इन महान विभूतियों के नाम पर शुरू किए गए इन पुरस्कारों को देना भूल गई। ऐसा लगता है जैसे 1300 करोड़ रूपए के वार्षिक बजट वाले महिला एवं बाल विकास विभाग को इन वर्षो में कोई वीरांगना ही नहीं मिली। यहा फिर ऐसा भी हो सकता है कि एक-एक लाख रूपए के नगद पुरस्कार के लिए विभाग के पास बजट ही नहीं बच पाया हो। हालांकि यह असंभव है क्योंकि जिस प्रकार विभाग की मंत्री और आईएएस अधिकारी महिलाओं और बच्चों के नाम पर फिजूल खर्ची कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वह भूल गए हैं। वर्ना हर साल महिला एवं बाल विकास विभाग अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महज आठ घंटों के दिखावे के लिए 30 से 40 लाख रूपए फूंक डालता है। ऐसे में 2 लाख रूपए खर्च करने में इनका क्या जाता है। सूत्रों की माने तो विभाग की मंत्री रंजना बघेल थोड़ी-सी भुलक्कड़ भी हैं, तभी तो राजकाज में उनके पति महोदय हाथ बंटाते रहते हैं।
महिला एवं बाल विकास विभाग की इस भूल पर दो पंक्तियां याद आती हैं...
एक तपती दोपहर है नारियों की जिंदगी..
हर सदी में दांव पर है नारियों की जिंदगी
यह पंक्तियां कब लिखी गई थीं हमें नहीं मालूम लेकिन ये आज भी अपने संदर्भ पर सही उतर रहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्यप्रदेश में देखने को मिलता है। लेकिन विडंबना तो यह है कि यह सब उस विभाग में हो रहा है जिसकी मुखिया महिला हैं।
ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश सहित देशभर में महिलाओं के कल्याण के लिए सबसे सक्रिय और बालिकाओं के मामा की उपाधि से विभूषित मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वर्ष 2006-07 में 1857 की आजादी की लड़ाई में देश के राजाओं को एक कर अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाली रानी अवंतिबाई और भाजपा को बालपन से पोषित कर यौवन तक संरक्षित रखने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया के नाम पर वीरता और समाजसेवा पुरस्कार शुरू किया था लेकिन जिस विभाग (महिला एवं बाल विकास विभाग) को यह जिम्मेदारी सौंपी गई वह इसे भूल गया। या यूं कहे तो सार्थक होगा कि प्रदेश सरकार को वीरांगना ही नहीं मिली।
राज्य शासन के महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा मध्यप्रदेश की ऐसी महिलाएं जिन्होंने महिला एवं बच्चों को उत्पीडऩ से बचाने और उनके पुनर्वास में योगदान का प्रमाणिक कार्य किया हो। बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसे सामाजिक कुरीति को रोकने का साहसिक कार्य किया गया हो। उनके लिए रानी अवंतिबाई राज्य स्तरीय वीरता पुरस्कार स्थापित किया गया है। इसी तरह ऐसी महिलाएं जिन्होने सामाजिक सुधार के क्षेत्र में (स्वास्थ्य शिक्षा, साक्षरता, पर्यावरण की स्थिति में सुधार, आर्थिक गतिविधियों के संचालन, अधिकारियों के प्रति जागृति, सामाजिक उत्थान) उल्लेखनीय कार्य किया है उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया, समाज सेवा पुरस्कार स्थापित किया गया है। दोनों पुरस्कारों के लिए राशि रु. 1 लाख नगद, पुरस्कार व प्रतीक चिन्ह से युक्त प्रशंसा पत्र दिये जाते हैं। वर्ष 2006 का रानी अवंती बाई वीरता पुरस्कार कुमारी अनिता सिंह लोधी, जिला पन्ना एवं राजमाता विजयाराजे सिंधिया समाजसेवा पुरस्कार से इंदौर की श्रीमती मनोरमा जोशी को सम्मानित किया गया। जबकि वर्ष 2007 में उज्जैन जिले की कु. प्रिया सैनी को रानी अवंतिबाई राज्य स्तरीय वीरता पुरस्कार और इंदौर जिले की निवासी डॉ. श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन को राजमाता विजयाराजे सिंधिया समाज सेवा पुरस्कार दिया गया। जबकि वर्ष 2008,09 और 2010 के पुरस्कारों के लिए प्रदेश की वीरांगनाएं और समाजसेवी महिलाएं इंतजार ही करती रहीं कि सरकार सूचना प्रकाशित कराएगी तो वे आवेदन करेंगी लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। इसके लिए विभाग के पास कोई बहाना भी नहीं है। अगर विभाग की इस भूल का हम आंकलन करें तो पाते हैं कि वर्ष 2008 में तो कोई कारण नहीं था लेकिन वर्ष 2009 में आचार संहिता के कारण पुरस्कार नहीं दिए गए फिर आया वर्ष 2010। इस बार भी विभाग को इन पुरस्कारों सुध नहीं आई। वह भी तब जब हम पूरे विश्व के साथ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं और देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, सत्तारूढ दल की अध्यक्ष, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष महिलाएं हैं और महिलाओं को लोकसभा में 35 प्रतिशत आरक्षण मिलने जा रहा है। इस मामले में जब महिला एवं बाल विकास विभाग के नवनियुक्त संचालक अनुपम राजन से बात की गई तो उन्होंने बताया कि मैने आज ही कार्यभार ग्रहण किया है। मुझे इस बारे में अधिक जानकारी नहीं है। इस मामले की जानकारी विभाग से लेकर आपको बताऊंगा। जब इस संदर्भ में विभागीय मंत्री रंजना बघेल से उनके मोबाइल पर बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि अभी मैं विभागीय मीटिग में व्यस्त हूं आप बाद में बात करें।
इन पुरस्कारों के मामले में विभाग की जबावदेह मंत्री और अफसर द्वारा दिए गए बयान लगभग इस गंभीर विषय पर पर्दा डालने जैसे प्रतीत होते हैं वह भी तब जब इन पुरस्कारों को देने के पीछे सरकार की मंशा यह थी कि एक सामान्य महिला भी कई बार किसी की जीवन अथवा अस्मिता की रक्षा जैसे या सामाजिक कुप्रथाओं, विषमताओं, दुष्प्रवृत्तियों अथवा शोषण के विरुध्द व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से संघर्ष अथवा जनचेतना जागृत करने जैसे साहसिक कार्य को अंजाम दे सके, जिन्हें निश्चय ही वीरतापूर्ण कार्य कहा जा सकता है। अक्सर ऐसी महिलाओं के कृतत्व अनदेखे और अनसराहे रह जाते हैं। यदि ऐसी महिलाओं के उन साहसिक कार्यों को पर्याप्त सराहना और पारितोषिक मिले तो न केवल उन्हें वरन् उनकी जैसी अन्य कई महिलाओं को प्रोत्साहन मिल सकता है और वे आगे आ सकती है।




प्रदेश सरकार ने ऐसी साहसिक महिलाओं को सम्मानित एवं पुरस्कृत करने हेतु वीरता पुरस्कार स्थापित किया गया।
यह पुरस्कार प्रतिवर्ष प्रदेश की किसी एक साहसी महिला को रानी अवंतिबाई के नाम से दिया जाएगा, जिन्होंने स्वयं शौर्य और वीरतापूर्वक कार्यों के जरिए एक प्रतिमान स्थापित किया है। यह पुरस्कार राशि एक लाख रुपये और प्रशंसा पत्र के रूप में दिया जाता है।


प्रिया सैनी को रानी अवंतिबाई वीरता पुरस्कार 2007
उज्जैन जिले की मूल निवासी कुमारी प्रिया सैनी को रानी अवंतिबाई वीरता पुरस्कार वर्ष 2007 से सम्मानित किया जा रहा है।
कुमारी प्रिया ने वीरता की मिसाल पेश करते हुए उत्तरप्रदेश के मुजफ्फर नगर में दो गुंडे बदमाशों को धर-दबोचा। विगत 25 अप्रैल 2007 को शाम 7 बजे मुजफ्फरनगर में प्रिया अपनी मौसी सुदेश सैनी के साथ एक विवाह समारोह से लौट रही थी तभी दो बदमाशों ने मौसी के गले से चैन खींची और प्रिया को धक्का देकर भागने लगे। प्रिया ने बहादुरी दिखाते हुए उनमें से एक को दबोच लिया। बदमाश ने प्रिया के मुंह और शरीर पर जोरदार प्रहार किए लेकिन प्रिया ने उसे नहीं छोड़ा। तब दूसरे बदमाश ने प्रिया की पीठ पर अपनी बंदूक से गोली मार दी, लेकिन प्रिया ने बदमाश को पकड़े रखा। इससे हड़बड़ाये बदमाशों का हौसला पस्त हो गया और शोर-शराबा सुनकर इक_ा हुए लोगों ने गुंडों को पकड़ लिया। अब वे मुजफ्फरनगर जेल में बंद हैं।
प्रिया वर्तमान में उज्जैन में अध्ययनरत है ओैर शहर की युवतियों में हौसला अफजाई के लिये विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होकर महिलाओं की मानसिकता सशक्त करने के लिए अपना उदाहरण पेष करती हैं। सामान्य परिवार की इस वीर बेटी पर पूरे शहर और प्रदेश को नाज है।
बदमाशों द्वारा गोली चलाने के बावजूद प्रिया ने हिम्मत दिखाते हुए बदमाश को नहीं छोड़ा । इस घटना को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने वीरता की मिसाल के रूप में पेश किया। देश भर के सामाजिक संगठनों और लोगों ने प्रिया की इस बहादुरी को सराहा, साथ ही युवतियों-महिलाओं ने प्रेरणा भी ली।
जिला प्रशासन मुजफ्फर नगर द्वारा इस बहादुरी के लिये कुमारी प्रिया को सम्मानित किया गया है। पुलिस अधीक्षक मुजफ्फर नगर ने भी प्रिया के हौसले को सम्मानित किया। स्टार टेलीविजन नेटवर्क ने प्रिया की वीरता को अपने चेैनल के माध्यम से पूरे देश में पहुॅचाकर हौसला अफजाई के पुरस्कार से नवाजा। उज्जेैन स्थित महिलाओं के संगठन च्ज्संगिनी गुपज्ज् ने भी प्रिया का सम्मान किया। स्वस्थ संसार, उज्जेैन स्थित महिला जिम ने प्रिया सेैनी को रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार प्रदान किया और समाचार पत्र च्ज्राज एक्सप्रेसज्ज् ने 15 अगस्त, 2007 को आयोजित संभाग स्तरीय कार्यक्रम में सुश्री सैनी को वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया राज्य स्तरीय पुरस्कार
अनेक महिलाएं स्व-प्रेरणा से ही घर और आस-पड़ौस से ही शुरू करके सफल समाज सुधार के विशिष्ट कार्य करती ऐसे कार्य, चाहे लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, पर्यावरण, आर्थिक गतिविधियों के संचालन, अधिकारों के प्रति जागृति, सामाजिक उत्थान के ही क्यों न हो, समाज सुधार के क्षेत्र में सभी गतिविधियाँ महत्वपूर्ण हैं। अनेक बार महिलाओं के ऐसे कार्यो को मान्यता नहीं मिल पाती है और वे कार्य अनजाने से रह जाते हैं। जिससे समाज में जो व्यापक सकारात्मक वातावरण बनना चाहिए, वह नहीं बन पाता।
प्रदेश सरकार द्वारा समाज सेवा के क्षेत्र में कार्यरत ऐसी महिलाओं के ऐसे योगदान के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए स्वर्गीय राजमाता विजयाराजे सिंधिया, के नाम से महिलाओं के लिए राज्य स्तरीय पुरस्कार स्थापित किया गया है। यह पुरस्कार राशि रूपये एक लाख और प्रशंसा पत्र के रूप में दिया जाता है।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया समाजसेवा पुरस्कार वर्ष 2007 से सम्मानित डॉ. श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन
इंदौर जिले की निवासी डॉ. श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन को राजमाता विजयाराजे सिंधिया समाजसेवा पुरस्कार वर्ष 2007 से सम्मानित किया जा रहा है। डॉ. श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन, 1985 से आज तक आदिवासी एवं ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए लगातार प्रशिक्षित करते हुए उनके समग्र विकास की दिशा में संपूर्ण रूप से समर्पित महिला हैं। पिछले 23 सालों से महिलाओं को लगातार छ: माही व एक साल के आवासीय समग्र विकास का व्यवहारिक प्रशिक्षण देकर उन्हें सषक्त बनने में पूरा सहयोग दे रही हैैं। इन कार्यक्रमों में सामाजिक ओैर आर्थिक रूप से पिछडे, जैसे कि अनुसूचित जाति-जनजाति, आदिवासी अन्य पिछडे वर्ग, अपंग, अनाथ, विधवाएं, तलाकशुदा एवं उपेक्षित महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती रही है। यह सेवा ही उनके जीवन का उद्देश्य है। प्रशिक्षण देने में पूरे वैज्ञानिक शोध को आधार बनाकर नवान्वेषण को निरन्तर महत्व देती आ रही है। अपने संस्थान से जिन महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाता है पिछले कुछ सालों से इन प्रशिक्षाथिर्यों को नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ ओपन स्कूलिंग की परीक्षाएं दिलाकर इन महिलाओं की निरन्तर सहायता की जा रही है।
उन महिलाओं को ही प्रशिक्षिका भी बनाया जाता है। ग्रामीण अंचलों में पुन: जाकर उन सशक्त महिलाओं के सेवाकार्यों को प्रमाणित कर प्रोत्साहित भी करती है। इस प्रकार पुन: परीक्षण और पुनरावर्तन का मार्ग अपनाने के कारण डॉ. श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन का समाज सेवा कार्य अत्यंत सार्थक साबित हुआ है। अब तक इनके संस्थान से 4000 से भी अधिक ग्रामीण आदिवासी महिलाएं प्रशिक्षित होकर अपने गांव लौटी हैं।
श्रीमती जनक को ऑल इंडिया विमेन्स कान्फ्रेंस अखिल भारतीय महिला सम्मेलन द्वारा आदिवासी व ग्रामीण महिलाओं के लिए की गई सेवाओं के उपलक्ष्य 1992 में सम्मान दिया गया। वे संयुक्त राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) न्यूयार्क द्वारा रियो डी जिनेरियो, ब्राजील में ग्लोबल 500 रोल ऑफ ऑनर (विश्व 500 क्रम का सम्मान) द्वारा झाबुआ जिले के 302 गाँवों में नारू उन्मूलन की सेवाओं के लिए जून, 92 में सम्मानित की गई।
ऑल इंडिया वाटर वर्क्स एसोसियेशन, इंदौर द्वारा अक्टूबर 1995 में आदिवासी व ग्रामीण महिलाओं को स्वच्छ जल के लिए प्रशिक्षित करने हेतु सम्मानित की गई। इनर व्हील क्लब, इंदोर से ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं के लिए की गई सेवाओं के उपलक्ष्य में अक्टूबर 2000 को सम्मानित की गई!
स्टेट बैंक ऑफ इंदोर (प्रमुख कार्यालय) के समाज सेवा प्रकोष्ठ के पांचवें स्थापना दिवस 2 अक्टूबर 2000के उपलक्ष्य में आदिवासी व ग्रामीण महिलाओं की विशिष्ट सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।
इन्दोर जिले के तत्कालीन कलेक्टर श्री मनोज श्रीवास्तव द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 60 स्थानीय स्वैच्छिक संगठनों के समूह महिला सशक्तिकरण महासंगठन द्वारा प्रदेश की आदिवासी एवं ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के लिए की गई महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए 8 मार्च 2001 को सम्मानित की गई।
भारतीय दलित साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश द्वारा उज्जैन में आयोजित च्ज्महिला सृजन के विविध आयाम-महिलाओं की वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं भारतीय परिवेश में सामंजस्य की समस्याज्ज् पर च्राष्ट्रीय अम्बेडकर साहित्य सम्मानज् से 20-21 अक्टूबर 2001 को सम्मानित की गई। सम्प्रीति से ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं के बीच की गई सेवाओं के उपलक्ष्य में 15 जनवरी 2003 को सम्मानित की गई। उन्हें शिक्षक कल्याण सदन समिति, इंदोर द्वारा 29 अप्रैल 2003 को मालव शिक्षा सम्मान अलंकरण च्समाज सेवा संवर्गज् सम्मान से सम्मानित किया गया। राजीव गांधी अक्षय उर्जा पखवाडा अपारंपरिक उर्जा स्त्रोत मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अगस्त 2005 में सम्मानित की गई।
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल द्वारा आदिवासी व ग्रामीण महिलाओं के समग्र विकास के साथ साथ अपंग, अनाथ, तलाकशुदा औेर अन्य उपेक्षित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, जागरूकता, उत्कृष्ट समाज सेवा के लिए 25 सितम्बर 2005 को च्महिला समाजसेवी सम्मानज् राज्यपाल श्री बलराम जाखड़ द्वारा प्रदान किया गया।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 2006 को मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग, इन्दौर द्वारा समाज हित में किये अविस्मरणीय कार्यों के लिये मानव अधिकार मित्र के रूप् में सम्मानित हुई।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 2007 को इंदौर के विभिन्न शैक्षणिक एवं सामाजिक संगठन द्वारा आदिवासी महिला कल्याण के क्षेत्र में सतत् साधना एवं त्याग तपस्या पूर्ण सेवाओं के लिए संभागायुक्त श्री अशोक दास, इंदौर द्वारा सम्मानित की गई। गांवों में नेत्र से जुडी समस्याओं का निदान करने के लिए महामहिम राज्यपाल डॉ. बलराम जाखड़ द्वारा 24 जुलाई 2007 को डॉ. एम.सी. नाहटा राष्ट्रीय नेत्र सुरक्षा पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दागी अफसरों पर क्यों नहीं गिरी गाज?

पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से बाघों के गायब होने मामले में नया मोड़

वन मंत्री सरताज सिंह के कड़े रुख से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से बाघों के गायब होने का मामला एक बार फिर सुर्खियों में है। उन्होंने यह मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया है और इससे संबंधित प्रस्ताव विभाग की ओर से राज्य सरकार के पास भेज भी दिया गया है। श्री सिंह का कहना है, उचेहरा में एक बाघ के शिकार तथा पकड़े गए आरोपी के भाग जाने का मामला सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया गया था लेकिन यहां तो कम से कम 20 और ज्यादा से ज्यादा 34 बाघों के गायब होने का सवाल है जिनकी आज तक लाश तक नहीं मिली। इसलिए उचेहरा प्रकरण के साथ इसे भी जोड़ दिया गया। सरताज सिंह का कहना है, पन्ना से बाघों के गायब होने का प्रकरण इतना गंभीर है कि इसे बहुत पहले सीबीआई को सौंप देना चाहिए था। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस दौरान बाघ गायब हुए, भले मौजूदा मुख्य सचिव अवनि वैश्य तब वन विभाग के प्रमुख सचिव थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें सीबीआई जांच में कोई आपत्ति होगी। बहरहाल, राज्य सरकार सीबीआई जांच के लिए यह मामला भेजती है या नहीं और सीबीआई इसे जांच के लिए स्वीकार करती है या नहीं, यह बात अलग है लेकिन फिलहाल वनमंत्री के कदम से वन महकमे के उन आला अफसरों में हड़कंप की स्थिति है जो इस मामले से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। जुड़े हो सकते हैं अंतर्राष्ट्रीय तस्कर वन मंत्री ने कहा कि गणना में बाघों की संख्या 20 रही हो या 34 लेकिन वे गायब हुए इसलिए मामला बड़ा और गंभीर है। फिर किसी बाघ की कोई बाडी नहीं मिली, कोई पकड़ा नहीं गया, इसलिए इस मामले से अंतर्राष्ट्रीय तस्करों के जुड़े होने से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट विरोधाभाषी है और सीबीआई जांच होने पर सारी स्थिति अपने आप स्पष्ट हो जाएगी। वैसे भी जनता को इस मामले की सच्चाई जानने का अधिकार है।

ऐसा लगता है, वन मंत्री सरताज सिंह ने अब चौके-छक्के लगाने का मन बना लिया है। यही वजह है कि पहले उन्होंने प्रदेश के सबसे चर्चित पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से बाघों का खात्मा मामले की सीबीआई से जांच कराने का निर्णय लिया और दूसरा, विभिन्न मामलों में आरोपों से घिरे कोई 67 वन अफसरों पर नजर गड़ा दी। ये वे अफसर हैं, जिनके ऊपर अलग-अलग तरह के आरोप हैं लेकिन पहले तो इन्हें आरोप पत्र देकर विभागीय जांच बैठाने में देर की गई और इसके बाद मामले का निराकरण करने में विलंब किया गया। सरताज सिंह का कहना है कि मैंने सभी मामलों की फाइलें अपने पास बुला ली हैं। इनका परीक्षण किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि जो दोषी हैं उनके खिलाफ तो कार्रवाई होगी ही, इसके साथ जिन अफसरों ने इन्हें बचाने के उद्देश्य से जांच बैठाने तथा प्रकरण का निराकरण करने में विलंब किया उन्हें भी नोटिस जारी किए जाएंगे। जिन अफसरों के खिलाफ प्रकरण लंबित हैं उनमें एक दर्जन से ज्यादा आईएफएस अफसरों के साथ राज्य वन सेवा के अफसर तथा अन्य वन कर्मचारी शामिल हैं। सूत्रों का कहना है कि ये मामले लंबे समय से लंबित हैं, इनमें कई अफसर सेवानिवृत्त भी हो गए लेकिन उनके खिलाफ जांच का निराकरण नहीं हुआ। वन मंत्री श्री सिंह सभी प्रकरणों का परीक्षण करा रहे हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि प्रकरणों के निराकरण में बहुत विलंब हुआ है इससे स्पष्ट है कि दोषियों को बचाने की कोशिश हुई। उन्होंने कहा कि प्रकरणों का निराकरण समयसीमा में कराया जाएगा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई भी की जाएगी।

वनमंत्री ने भले ही दागी अफसरों की फाइलें तलब कर ली हो, लेकिन अभी तक इन अफसरों पर कोई मंत्री लगाम नहीं कस सकाह है। वन विभाग में आधा दर्जन से अधिक अधिकारियों पर आर्थिक गड़बड़ी सहित अन्य आरोप लगे हैं और इसके बावजूद ये भारतीय वन सेवा के अधिकारी मनचाहा पद प्राप्त करने में सफल रहे हैं।

वन विभाग में आधा दर्जन से अधिक अधिकारियों ने अनुशासहीनता सहित अन्य मामलों में फंसे हैं, लेकिन विभागीय जांच का हवाला देकर इन मामलों को ठंडे बस्ते में भेज दिया गया। यहां तक विभाग की जांच शाखा ने वन मुखिया को दागी अफसरों पर कार्रवाई करने के लिए पत्र लिखा तो उल्टा उन्हीं पर विभाग के मुखिया ने कार्रवाई कर दी और उनकी शाखा ही बदल दी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में वन विभाग के मुख्य वन संरक्षक जेपी शर्मा है। जिनका तबादला सिर्फ इसी कारण से किया गया कि उन्होंने वन मुखिया को दागी अफसरों पर कार्रवाई करने के लिए पत्र लिखा था।

डाबास ने फिर लिखा पत्र
वर्तमान में झाबुआ में पदस्थ एएस डाबास ने एक बार फिर विभाग की पोल खोल दी है। उन्होंने एक पत्र वन मुखिया को लिखा है, जिसमें उन्होंने यह बताया है कि वन विभाग की कोई भी योजना जमीनी स्तर झाबुआ में क्रियान्वित नहीं हुई। सभी योजनाएं विफल है और भ्रष्टाचार जारी है।

ये विभाग के दागी अफसर

एके दुबे, पीसीसीएफ, वन विभाग – वर्तमान में वन विभाग के दागी अफसरों में वन मुखिया एके दुबे स्वयं ही शामिल है। इनके खिलाफ लोकायुक्त में एक प्रकरण दर्ज है। इसके बावजूद भी शासन द्वारा इनको मुखिया बनाया गया। फिलहाल जांच प्रक्रिया में है।
रविन्द्र सक्सेना, एपीसीसीएफ, वन विभाग – ज्वाइंट फारेस्ट मैनेजमेंट के एपीसीसीएफ रविन्द्र सक्सेना पर आर्थिक अनियमितता सहित कई आरोप लगे हैं। वर्ष 1993 में उनके कार्यकाल में डेम के निर्माण, फोन बिल में सहित अन्य मामले में अनियमितता उजागर हुए। विभागीय जांच में भी सही पाया गया, लेकिन अभी तक इन पर कार्रवाई नहीं हुई। बकायदा शासन द्वारा इन्हें पदोन्नति दी गई।
अनिल ओबेराय, एपीसीसीएफ आईटी – पीडीए क्रय खरीदी हुई गड़बड़ी सहित अन्य आरोप लगे हैं, लेकिन विभागीय जांच के बाद इसको दबा दिया गया। जबकि पीडीए क्रय खरीदी के पेपर ही इनकी करतूत बयां करता है, लेकिन आला अफसरों का सहयोग होने के कारण पूरा मामला ठंडे बस्ते में है। खास बात यह है कि साहब का कोई भी प्रोजेक्ट जमीनी स्तर पर सफल नहीं है।
भानु गुप्ता, सीसीएफ, जनसंपर्क, वन विभाग – सागर में सीसीएफ पद पर पदस्थ भानु गुप्ता को विभाग की विजीलेंस शाखा ने एक मामले में उनका वेतन काट लेने के निर्देश दिए थे, लेकिन वन मुखिया में कोई कार्रवाई नहीं। वर्ष 2009 में भानु गुप्ता द्वारा एक ट्रक सामान सागर से भोपाल भेजा जा रहा था। जिसे नाका चेकिंग में पकड़ लिया गया और उक्त अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह विभाग ने पूरा मामला ही दबा लिया।
सत्येंद्र बहादुर, सीसीएफ, सिवनी – खंडवा में पदस्थापना के दौरान अवैध वनों की कटाई का मामला ईओडब्ल्यू में दर्ज है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। साहब अभी भी सर्किल में पदस्थ है।
आरडी महला – एक करोड़ रुपए की वर्गीकरण की क्षतिपूर्ति का मामला वर्ष 2002 में दर्ज हुआ, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई।
आशीष गोपाल, सीसीएफ मंत्रालय वित्त सचिव – डीएफओ सिवनी में पदस्थापना के दौरान परिवहन अनुज्ञा पत्र के मामले में आरोप पत्र जारी हुआ, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं।
आरजी सोनी, सीसीएफ, बालाघाट – विधानसभा में गलत जानकारी देने, पेंशन में लाखों रुपए का घोटाला। इसके बावजूद भी सर्किल में पदस्थ है।

भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में पढि़ए सनसनी खेज पर्चा

शिवराजसिंह सरकार के सामने आईएएस अधिकारियों की संपत्ति एवं उनके अवैध संबंधों को लेकर एक नया संकट खड़ा हो गया है।

वल्लभ भवन में पर्चे बंटे
हाल ही में वल्लभ भवन में आईएएस अधिकारियों के अवैध संबंधों को लेकर एक पर्चा जारी हुआ, जिसमें आईएएस अधिकारियों की पोल खोली गई है। इन पर्चो में आईएएस अधिकारियों की रंगरैलियों के किस्से दिए गए हैं। इन किस्सों को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। इसी तरह हाल ही में एक और पर्चा विधानसभा में जारी हुआ है, जिसमें 135 आईएएस अधिकारियों की अवैध संपत्ति का वर्णन विस्तार से किया गया है।

ऐसा लगता है कि होली के अवसर पर इन अधिकारियों की पोल पट्टी खोलकर एक नया माहौल बनाया जा रहा है। देखना यह है कि अब सरकार इन पर्चो को लेकर क्या रवैया अपनाती है।

पर्चे में अधिकारियों की तीन श्रेणी बताई गई है जिसमें भ्रष्टों को श्रेणी नं. I, महाभ्रष्ट को श्रेणी नं. II तथा अय्याश अफसरों को श्रेणी नं. III दी गई है। इनके नाम इस प्रकार हैं –

संदीप खन्ना 72 बैच श्रेणी नं.I–III, राकेश साहनी 72 बैच श्रेणी नं. II–III, जेमनी शर्मा 75 बैच श्रेणी नं. I–III, प्रशान्त मेहता 75 बैच श्रेणी नं. II–III, दिलीप मेहरा 75 बैच श्रेणी नं. I–III, उदय वर्मा 76 बैच श्रेणी नं. I, मलय राय 77 बैच श्रेणी नं. I, ओपी रावत 77 बैच श्रेणी नं. I, विश्वपाल द्विवेदी 77 बैच श्रेणी नं. I, सत्यप्रकाश 77 बैच श्रेणी नं. I–III, देवेन्द्र सिंघई 78 बैच श्रेणी नं. I, अरविन्द जोशी 79 बैच श्रेणी नं. II–III, स्वदीप सिंह 79 बैच श्रेणी नं.I, गोपाल कृष्ण 79 बैच श्रेणी नं. I–III, विमल जुल्की 79 बैच श्रेणी नं. II–III, टीनू जोशी 79 बैच श्रेणी नं.II–III, लवलीन कक्कड़ 79 बैच श्रेणी नं.I, इन्द्रनील दाणी 80 बैच श्रेणी नं.I, पुखराज गारू 80 बैच श्रेणी नं.II–III, प्रभूदयाल मीणा 80 बैच श्रेणी नं. I, स्वर्ण माला रावला 80 बैच श्रेणी नं.I–III, पी.के. दास 81 बैच श्रेणी नं. I, एम.एम. उपाध्याय 81 बैच श्रेणी नं. II–III, अजिता वाजपेयी 81 बैच श्रेणी नं. II–III, अमिता शर्मा 81 बैच श्रेणी नं. I–III, प्रवेश शर्मा 82 बैच श्रेणी नं. I–III, राकेश अग्रवाल 82 बैच श्रेणी नं. I, एस. आर. मोहंती 82 बैच श्रेणी नं. II–III,राघव चन्द्रा 82 बैच श्रेणी नं. II, देवराज विरदी 82 बैच श्रेणी नं.I, के सुरेश 82 बैच श्रेणी नं. 2, मनोज गोयल 83 बैच श्रेणी नं. 1, आर. के. स्वाई 84 बैच श्रेणी नं. II–III, जयदीप गोविन्द 84 बैच श्रेणी नं. I, सेवाराम 84 बैच श्रेणी नं. I, सुदेश कुमार 84 बैच श्रेणी नं. I, राघेश्याम जुलानियों 85 बैच श्रेणी नं. II , प्रभांशु कमल 85 बैच श्रेणी नं. I–III, अनिल श्रीवास्तव 85 बैच श्रेणी नं. II, के. के. सिंह 85 बैच श्रेणी नं. I, के.पी. सिंह 85 बैच श्रेणी नं. II, विनोद सेमबाल 85 बैच श्रेणी नं. I, एम.के. सिंह 85 बैच श्रेणी नं. II–III, अनिल जैन 86 बैच श्रेणी नं.I, पी. के. दास 86 बैच श्रेणी नं. II, राजगोपाल नायडू 86 बैच श्रेणी नं. II–III, जे.टी. इम्का 86 बैच श्रेणी नं. I, सलीना सिंह 86 बैच श्रेणी नं. II–III, मनोज झलानी 87 बैच श्रेणी नं. I, शिवा दुबे 87 बैच श्रेणी नं. II–III, प्रवीण कृष्ण 87 बैच श्रेणी नं. I, संजय सिंह 87 बैच श्रेणी नं. I, आर.के. चतुर्वेदी 87 बैच श्रेणी नं. I, अजय तिस्की 87 बैच श्रेणी नं. I, एम मोहन राव 87 बैच श्रेणी नं. II–III, गोरी सिंह 87 बैच श्रेणी नं. I, वसीम अख्तर 87 बैच श्रेणी नं. I, प्रवीण गर्ग 88 बैच श्रेणी नं. I, वीरा राणा 88 बैच श्रेणी नं. I, मो. सुलेमान 89 बैच श्रेणी नं. II–III, संजय वदोंपाध्याय 88 बैच श्रेणी नं. II–III, आशीष उपाध्याय 89 बैच श्रेणी नं. II–III, विनोद कुमार 89 बैच श्रेणी नं. I, टी धर्माराव 89 बैच श्रेणी नं. I–III, एस.डी. अग्रवाल 89 बैच श्रेणी नं. I, कोमल सिंह 89 बैच श्रेणी नं. I, राजेश राजौरा 90 बैच श्रेणी नं. II, एस.एन. मिश्रा 90 बैच श्रेणी नं. I, पंकजराग 90 बैच श्रेणी नं. I, अशोक शाह 90 बैच श्रेणी नं. I–III, एस.के. वेद 90 बैच श्रेणी नं. I, वी. एस. निरंजन 90 बैच श्रेणी नं. I, पी.के. पराशर 90 बैच श्रेणी नं. I, अल्की उपाध्याय 90 बैच श्रेणी नं. I–III, प्रमोद अग्रवाल 91 बैच श्रेणी नं. I, अशोक वर्णमाल 91 बैच श्रेणी नं. I, मनु श्रीवास्तव 91 बैच श्रेणी नं. I, सतीश मिश्रा 91 बैच श्रेणी नं. I, विश्वमोहन उपाध्याय 91 बैच श्रेणी नं. II–III, एम. के. वाशष्णे 91 बैच श्रेणी नं. I, अरूण तिवारी 91 बैच श्रेणी नं. II, एस.के. मिश्रा 91 बैच श्रेणी नं. I, पंकज अग्रवाल 92 बैच श्रेणी नं. I, गुप्ता 92 बैच श्रेणी नं. II–III, बीएन कान्ताराव 92 बैच श्रेणी नं. I, कल्पना श्रीवास्तव 92 बैच श्रेणी नं. I, श्रीवास्तव 92 बैच श्रेणी नं. I, गौतम 92 बैच श्रेणी नं. I, अरूण पाण्डे 92 बैच श्रेणी नं. II–III, बी.के. बाथम 92 बैच श्रेणी नं. II–III, नीरज मंडलोई 93 बैच श्रेणी नं. I, अनुपम राजन 93 बैच श्रेणी नं. II, अनिरूद्ध मुखर्जी 93 बैच श्रेणी नं. I, देवनी मुखर्जी 93 बैच श्रेणी नं.I, अन्जू बघेल 93 बैच श्रेणी नं. II , एस.वी. सिंह 93 बैच श्रेणी नं. II, राकेश श्रीवास्तव 93 बैच श्रेणी नं. I, अरूण भट्ट 93 बैच श्रेणी नं. I, संजय शुक्ला 94 बैच श्रेणी नं. II–III, विवेक अग्रवाल 94 बैच श्रेणी नं. II , हरि रंजन राव 94 बैच श्रेणी नं. I–III, शेखर शुक्ला 94 बैच श्रेणी नं. I, मनीष श्रीवास्तव 95 बैच श्रेणी नं. II, एस.के. पाल 94 बैच श्रेणी नं.I, अमित राठौर 96 बैच श्रेणी नं. I, उमाकान्त उमराव 96 बैच श्रेणी नं. I, सिंह 97 बैच श्रेणी नं. I, एम. गीता 97 बैच श्रेणी नं. III, सुखवीर सिंह 97 बैच श्रेणी नं.I, गुलशन 97 बैच श्रेणी नं. I, आकाश त्रिपाठी 98 बैच श्रेणी नं. II–III, मुकेश गुप्ता 98 बैच श्रेणी नं. I, निकुंज श्रीवास्तव 98 बैच श्रेणी नं. II, के.पी. राही 98 बैच श्रेणी नं. II, पवन शर्मा 98 बैच श्रेणी नं. II, ई रमेश कुमार 99 बैच श्रेणी नं. II, केदार शर्मा 99 बैच श्रेणी नं. II, शोभित जैन 2000 बैच श्रेणी नं. II, विवेक पोडवाल 2000 बैच श्रेणी नं. II–III, संदीप यादव 2000 बैच श्रेणी नं. I, ए.के. सिंह 2000 बैच श्रेणी नं. II–III, नवनीत कौठारी 2001 बैच श्रेणी नं. I, अखलेश श्रीवास्तव 2001 बैच श्रेणी नं. II, निशाद वडबडे 2003 बैच श्रेणी नं. I–III।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

आईएएस अफसरों की विश्वसनीयता संकट में

जब हमारा देश आजाद हुआ, उस समय देश का प्रशासन आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेस) के हाथ में था। नया संविधान 1952 में लागू हुआ, तब इन अफसरों का पदनाम बदलकर आईएएस हो गया यानी इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस, भारतीय प्रशासनिक सेवा। इन अफसरों के हाथ में देश के प्रशासन की बागडोर सौंपी गई और उन्हें दिए गए खजाने की राशि खर्च करने के अधिकार। आईएएस अफसर की सेवाएं मुख्य रूप से भारत सरकार के अधीन है, फिर इनका कैडर बनाया गया, जिनमें हर राज्यों का कोटा फिक्स किया गया। यह अधिकारी जिस प्रदेश में हैं, उन्हें प्रदेश के कैडर में शामिल किया गया। इनका स्थानांतरण राज्यों से हटकर केन्द्र में भी होता है। हर राज्य में कलेक्टर, मुख्य सचिव तक के अधिकारी आईएएस ही होते हैं। इनके अधिकार और कर्तव्य की बकायदा एक संहिता होती है। इनका काम है विधानसभा द्वारा पारित प्रस्तावों का क्रियान्वयन करना तथा प्रदेश में लागू अलग-अलग विभाग के नियम और कानूनों का पालन करना। उदाहरण के लिए जिस जिले का जो कलेक्टर है, उसके असीमित अधिकार हैं। पूरे जिले की सरकारी जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ के अलावा राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की विभिन्न योजनाओं की राशि भी कलेक्टर की अनुमति से ही खर्च होती है। कलेक्टर के पास कानून व्यवस्था कायम करने का भी दायित्व है, वह एक तरह से संविधान की धाराओं का पालन कराने के लिए कटिबद्ध है और करने पर वह दंड भी दे सकता है। राज्यों में इसी प्रकार के दायित्व संभागायुक्त, विभागीय आयुक्त, उपसचिव, प्रमुख सचिव और मुख्य सचिव के पास हंै। केन्द्र में बैठे एक आईएएस अफसर के पास कई हजार करोड़ का बजट रहता है तो राज्यों में भी इन अफसरों के पास सौ करोड़ से लेकर एक हजार करोड़ तक बजट है। पिछले कु छ वर्षों से देश के आईएएस अफसर मंत्रियों की तरह भ्रष्टïाचार, घोटाले और सेक्स स्कैंडल में पकड़े गए हैं। 1970 के पूर्व तक 10 प्रतिशत आईएएस भ्रष्टï थे, जो कि 2010 तक आते-आते 90 प्रतिशत आईएस भ्रष्टï हो गए हैं। यह लोग राजनेताओं से मिलकर ही यह घोटाला कर रहे हैं। अभी तक यह माना जाता रहा है कि नेता तो भ्रष्टï होते ही हैं, लेकिन अब यह माना जाने लगा है कि आईएएस उनसे ज्यादा भ्रष्टï होते हैं, हाल ही म.प्र. और छत्तीसगढ़ में जो आईएएस अफसर पकड़े गए हैं, उनके पास 50 से 500 करोड़ रुपए तक की सम्पत्ति मिली है। यह तो वे लोग हैं, जो पकड़े गए हैं। हाल ही में भोपाल में एक पर्चा निकला है, जिसमें 23 आईएएस अफसरों के बारे में जानकारी दी गई है, जिसमें लिखा है कि किस अफसर के पास कितनी सम्पत्ति है तथा उनकी जमीन, मकान, प्लाट आदि कहां हैं? इसी तरह के पर्चे उत्तरप्रदेश के लखनऊ में भी निकाले गए थे, जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के मुख्य सचिव के पास अरबों की सम्पत्ति मिली थी। यहां यह सवाल उठता है कि हमारे ये आईएएस अफसर कितने गिर चुके हैं, इनका चरित्र, चाल और चेहरे कितने काले हैं। दरअसल, इन अफसरों को बेइमान किसने बनाया? क्या इन्हें भ्रष्टाचार करने की ट्रैनिंग दी गई है या यह परिस्थितिवश भ्रष्टï हुए हैं? हकीकत यह है कि जब से प्रदेशों में गैर कांग्रेसी सरकारें आई हैं, चाहे वे मुलायम, लालू, मायावती, करुणानिधि, प्रकाशसिंह बादल की हो, सभी जगह यही आलम है। क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने बाहुबल से इन अफसरों से दबाव डालकर काम करवाया। यह करते हुए धीरे-धीरे आईएएस भी भ्रष्टï होते गए। अब स्थिति यह है कि आईएएस अपनी नियुक्ति के लिए बकायदा करोड़ों रुपए देते हैं और उसके बाद वे अरबों कमा रहे हैं। आखिर यह कब तक चलेगा? आईएएस अफसरों की विश्वसनीयता, ईमानदारी और कार्यप्रणाली संकट में है और संकट में है देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था, इसलिए हम देखते हैं कि एक नेता जो कभी गुंडा था, वह करोड़ों में खेल रहा है, क्योंकि उसे न तो कलेक्टर का भय है और न ही एसपी का। समाज की कमजोरी यह है कि वह गुंडेनुमा नेता का विरोध इसलिए नहीं कर पाता है, क्योंकि प्रशासन उसकी जेब में है, इसलिए अंधेर नगरी और चौपट राजा वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। ऐसा कोई सरकारी दफ्तर नहीं है, जहां बिना पैसा दिए काम होता हो। क्या यह हमारे विधायक, सांसद या अन्य जनप्रतिनिधि नहीं जानते। सभी जानते हैं, लेकिन वे स्वयं भी इसी में लिप्त हैं। यही कारण है कि देश की गरीबी 63 वर्ष में दूर नहीं हो पा रही है, क्योंकि जो पैसा गरीबी दूर करने में लगाना था, वह तो नेताओं और अफसरों की जेब में जा रहा है, हर शहर और गांव में यदि किसी का बंगला बना है तो वह नेता का होगा या अफसर का। दरअसल, आईएएस अफसरों का भ्रष्ट होना एक कलंक है। यह देश के स्वास्थ्य के लिए खतरा है और यह भविष्य में देश की एकता और अखंडता को भी खतरे में डालने वाला है। आईएएस अफसर के पास कई लुप्त सूचनाएं होती हैं, जिन्हें बेचकर वह अमीर हो सकता है, लेकिन इससे देश गुलाम बन सकता है। देश में अरबों रुपए के नकली नोट क्यों चल रहे हैं, क्योंकि कहीं न कहीं आईएएस और आईपीएस उनसे मिले हुए हैं। अरबों के नकली स्टाम्प वर्षों तक चलते रहे और एक भी अफसर सस्पैंड नहीं हुआ, इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? कहीं न कहीं आईएएस अफसरों पर लगाम लगानी होगी। इसके लिए केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह एक कमेटी बनाकर इन अफसरों की जांच कर नए सिरे से इनके अधिकार और कर्तव्यों की व्याख्या करे वरना यह देश फिर किसी दिन गुलाम बन जाएगा।

चर्चित पर्चे की पोल

- 133 अफसरों के खिलाफ बंटा पर्चा तो फुस्सी बम निकला

भोपाल में 133 आईएएस अफसरों के खिलाफ बंटे चर्चित पर्चे को लेकर बवाल मचा है और मुख्यमंत्री तक इस पर्चे से चिंतित हो गए। जब इस पर्चे की हकीकत जानी तो ये फुस्सी बम ही साबित हुआ। इन्दौर के सभी पूर्व कलेक्टरों को महाभ्रष्टï बताने वाले इस पर्चे में इन्दौर के बिल्डर के रूप में सिर्फ पंकज संघवी का ही नाम है, जिनके यहां अफसरों का करोड़ों रुपया इन्वेस्टमेंट होना बताया गया।
आयकर विभाग ने वरिष्ठï आईएएस दंपत्ति अरविंद जोशी और उनकी पत्नी श्रीमती टीनू जोशी के यहां छापा मारकर करोड़ों रुपए नगद तो जब्त किए ही, वहीं बेनामी संपत्तियां भी पाईं। उसके बाद से ही भोपाल में भ्रष्टï आईएएस अफसरों के खिलाफ मुहिम शुरू हो गई और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की नींद भी उड़ गई। उन्होंने इन अफसरों की बैठक ली और उन्हें दो टूक कहा कि कुछ तो शर्म करो। इसके पश्चात आईएएस लॉबी में हलचल मच गई और एक नौ पेज का पर्चा भी निकाला गया, जिसमें 133 भ्रष्टï आईएएस अफसरों की सूची बनाई गई, जिसमें 4 कैटेगरी में इन अफसरों को रखा गया। कैटेगरी-1 में भ्रष्टï, कैटेगरी-2 में महाभ्रष्टï, कैटेगरी-3 में अय्याश और कैटेगरी-4 में इन अफसरों का इन्वेस्टमेंट दिल्ली, मुंबई, भोपाल, ग्वालियर से लेकर इन्दौर और यहां तक कि विदेशों में भी बताया गया। इनमें से कई अफसर तो दो से तीन कैटेगरी में रखे गए। मजे की बात यह है कि इन्दौर में रहे सभी कलेक्टरों को महाभ्रष्टï और अन्य अफसरों को इसी कैटेगरी में रखा गया है। अग्निबाण ने जब इस पर्चे को हासिल किया और उसका विश्लेषण समझा तो पता लगा कि पर्चे में ठोस जानकारी नहीं दी गई है, सिर्फ अनुमान ही लगाया है कि फलां अफसर महाभ्रष्टï या अय्याश है और उसने इन्दौर से लेकर अन्य शहरों में अचल संपत्तियां खरीद रखी हैं, लेकिन इन आरोपों के कोई प्रमाण इस पर्चे में नहीं दिए गए, बल्कि जनरल होने वाली चर्चा के आधार पर ही पर्चा तैयार कर बंटवा दिया गया। इस पर्चे में इन्दौर के पूर्व कलेक्टरों, जिनमें एस.आर. मोहंती, एम. गोपाल रेड््डी, मनोज श्रीवास्तव, मोहम्मद सुलेमान, राजेश राजौरा, विवेक अग्रवाल से लेकर मौजूदा कलेक्टर राकेश श्रीवास्तव का नाम भी शामिल है। वहीं अन्य विभागों में रहे विश्वपति द्विवेदी, अशोक दास, प्रभुदयाल मीणा से लेकर हीरा राणा, आशीष उपाध्याय, प्रभात पाराशर, प्रमोद अग्रवाल, नीरज मंडलोई, संजय शुक्ला, राघवेंद्र सिंह, आकाश त्रिपाठी से लेकर वर्तमान निगमायुक्त सी.बी. सिंह के नाम भी शामिल हैं। मजे की बात यह है कि इन्दौर में रहे इन तमाम आईएएस अधिकारियों का जो पैसा बिल्डर के यहां इन्वेस्टमेंट करना बताया गया, उन सभी में एक ही नाम पंकज संघवी का शामिल किया गया है, जबकि पंकज संघवी राजनेता हैं और जमीनी कारोबार से सीधा उनका नाता कम ही है। अलबत्ता उनका परिवार अवश्य जमीन के धंधे में शामिल है। इन सभी 133 आईएएस अफसरों के पास 10 करोड़ से लेकर 500 करोड़ रुपए तक का काला धन बताया गया है, लेकिन एक भी अफसर के खिलाफ कोई पुख्ता प्रमाण नहीं दिए गए। यहां तक कि भोपाल की ही अरेरा कॉलोनी, कोलार रोड, भदभदा से लेकर अन्य कॉलोनियों और फार्महाउसों में इन अफसरों का बेनामी पैसा लगा होना बताया गया है। कुल मिलाकर यह पूरा पर्चा 'खोदा पहाड़ और निकली चूहियाÓ का ही प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें एक भी अफसर के खिलाफ पुख्ता जानकारी नहीं है, सिर्फ कयास ही लगाए गए हैं।
राज टॉवर तोड़ा तो करोड़ों का इन्वेस्टमेंट कैसे?
पर्चे में शामिल 133 आईएएस अफसरों की सूची में कई ईमानदार और कड़क छवि वाले अफसरों को भी जबरन घसीट लिया गया है। इसका एक ही उदाहरण इन्दौर के पूर्व कलेक्टर रहे मनोज श्रीवास्तव का भी है। पर्चे में उनका नाम भी शामिल है और पंकज संघवी बिल्डर के यहां करोड़ों रुपए का इन्वेस्टमेंट बताया गया, जबकि हकीकत यह है कि मनोज श्रीवास्तव ने ही संघवी परिवार के बहुचर्चित राज टॉवर को ध्वस्त किया था और इन्दौर में ही करोड़ों-अरबों रुपए के जमीनों के घोटालों का पर्दाफाश भी किया। इसी कारण मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रदेशभर के जमीन घोटालों की जांच की जो एक सदस्यीय कमेटी बनाई, उसका मुखिया भी मनोज श्रीवास्तव को ही बनाया गया। ऐसे दबंग और ईमानदार अफसर को भी इस पर्चे में शामिल किया गया। जिस बिल्डर के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई की, उसी के यहां करोड़ों का इन्वेस्टमेंट कैसे संभव है। पर्चे में इसी तरह कई अच्छी छवि वाले अफसरों को भी जबरन घसीटा गया है।

शनिवार, 6 मार्च 2010

बिक गई और बन गई पारो

जिस साल पारो और देवदास वाली फिल्म परदे पर धूम मचा रही थी, उसी साल सीमा की आंखों में दूर देश के सुंदर सपने भर दिए गए। इससे पहले कि सीमा इस सपने का सच जान पाती, उसे पारो बना दिया गया।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में देह व्यापार के आरोप में अपने कुछ अन्य साथियों के साथ पकड़ाने के बाद अगले दिन अदालत से बरी हुई सीमा से हमारी मुलाकात नादरा बस स्टैन्ड पर हुई,जहां वह एक युवक के साथ टे्रन छूट जाने के बाद बस पकडऩे आयी थी। मीडिया से जुड़े होने के कारण वह युवक मुझे जानता था। मुझे देखते ही युवक ने पास आकर नमस्कार किया और अपने आने का कारण भी बयां कर दिया।
मैंने उस युवक से कह कर सीमा से मुलाकात की और अपना परिचय देते हुए जब उससे देह व्यापार के इस घिनौने क्षेत्र में आने का कारण पूछा तो वह फफक पड़ी। वह बोली,मुझे एक ट्रक ड्राइवर लेकर आया था। 500 रुपये उसने मेरे सौतेले बाप को सौंपा और मेवात के इलाके में लाकर किसी के घर छोड़ कर चला गया। वो आदमी मुझसे धंधा करवाना चाहता था। उसने कहा-जा कमा कर ला। मैं यह काम नहीं करना चाहती थी, लेकिन भूख मिटाने के लिए शुरू किया धंधा अब नासूर बन गया है। उसने बताया मेवात के इलाके में ऐसी सैकड़ों पारो हैं। पारो यानी राज्य की सीमा पार से खरीद कर लाई गई वह लड़की, जिसका मनचाहा इस्तेमाल किया जा सकता है। बीवी बनाने से लेकर बच्चा पैदा करने की मशीन या फिर देह व्यापार कराने तक।
उसे लगा कि मैं उसकी व्यथा पर विश्वास नहीं कर रहा हूं,इस लिए अपने पर्स से कुछ फोटों निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए कहा, आप खुद ही देख लिजिए।
सीमा के साथ आए युवक ने बताया कि दिल्ली से सटे आईटी सिटी गुडग़ांव के पास है मेवात का इलाका। 6,662 बूचडख़ाने वाले आधा हरियाणा और आधा राजस्थान के इस इलाके को गोकशी के लिए जाना जाता है, टकलू क्राइम यानी सोने की ईंट बेचने के धंधे के लिए जाना जाता है और पारो की खरीद फरोख्त के लिए मेव, जाट और अहीर बहुल इस इलाके में 'पारोÓ का खूब चलन है। बेचारगी के साथ दलील दी जाती है कि गरीबों को यहां का कोई धनाढय़ व्यक्ति अपनी लड़की नहीं देता। ऐसे में हमारे पास 'पारोÓ के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
वहां हर कदम पर पारो मिलेगी। कई गांवों में आधी संख्या पारो की है। ये अलग बात है कि लोग अपने घरों में कैद पारो के मुद्दे पर बात करने से बचना चाहते हैं। थोड़ी चालाकी के साथ बात करें या फिर घरवालों को लगे कि बात करने का कोई लाभ मिल सकता है तो लोग थोड़ा-थोड़ा खुलने लगते हैं। तरह-तरह के किस्से आपके सामने आने लगेंगे। मध्य प्रदेश,झारखंड, आंध्र प्रदेश, असम, बंगाल और देश के अलग-अलग हिस्सों से खरीद कर, बहला फुसला कर या जबरन उठा कर लाई गई हर पारो के पास अपनी-अपनी कहानी है लेकिन सबके हिस्से का दुख एक जैसा है, पहाड़ सा।
सीमा ने मुझसे आग्रह किया की कुछ मीडिया कर्मियों के साथ आप वहां का दौरा करें तो उन्हें न्याय मिल सकता है। युवक ने बताया कि मैंने तो पूरे क्षेत्र को देखा है। वहां सलमबा गांव में एक पारो मिली,रुक्सिना। असम की हैं, पिछले सात साल से यही हैं। अपने गांव घर का रास्ता भूल चुकी हैं। किस्मत ने उन्हें एक अधेड़ मर्द अकबर की दूसरी बीबी बना दिया हैं। जब वह हमें मिलीं तो उनकी गोद में एक बच्चा था। बच्चे को गोद में चिपटाए, बेहद डरी सहमी-सी। घरवालो से घिरी हुई, पूछने पर टुकुर-टुकुर मुंह ताकने लगती हैं। साथ में खड़ी एक मेवाती महिला बताती हैं- इसका मायका गरीब है। रोटी के लाले पड़ते हैं, वहां जाकर क्या करेगी? यहां दो वक्त की रोटी तो नसीब हो रही है ना। दो वक्त की रोटी के नाम पर रुक्सिना की जिंदगी कैद में बदल गई, भूख का भूगोल जीवन के सारे पाठों पर भारी पड़ गया। सपने, तस्करी और पारो नूंह कस्बे में चार महीने पहले एक और पारो झारखंड से आई है, नाम है सानिया, उम्र कोई 15 वर्ष, ना वह सामने आई, ना उसके घरवालों ने बात की। पड़ोसियों ने बताया कि गरीबी की वजह से 50 वर्षीय मजलिस के साथ मेवात में किसी ने अपनी बेटी नहीं ब्याही। अंतत: वह किसी स्थानीय एजेंट के साथ झारखंड गया और अपने लिए कम पैसे में एक पारो का इंतजाम कर लाया। मजलिस ने अपने अरमान पूरे किए और सानिया के अरमानों पर उम्र के इस फासले ने हमेशा के लिए पानी फेर दिया।
अनवरी खातून की उम्र है 22 साल, वह मूल रूप से झारखंड के हजारीबाग की रहनेवाली हैं, पिछले साल उन्हें मेवात जिले के घासेड़ा गांव में लाकर एक अधेड़ व्यक्ति के घर में बिठा दिया गया। उन्हें झारखंड से यह झांसा देकर लाया गया कि दूर के रिश्तेदार के यहां मिलने जा रहे है। यहां आते ही अधेड़ व्यक्ति की ब्याहता बना दी गई, जबरन।
डरते-डरते अनवरी बताती हैं, एक आदमी ने मेरे पति से मेरे बदले दस हजार रुपये लिए। ये सिर्फ अनवरी की नहीं उनके जैसी अनेक लड़कियों की कहानी है। युवक तो पूरी तन्मयता से वृतांत सुना रहा था लेकिन मेरी हड्ï्डियों मेें दर्द होने लगा था । अब सीमा की बारी थी। उसने बताया कि साहब अरावली पहाडिय़ों से घिरे पूरे मेवात क्षेत्र में ऐसी अनेक लड़कियां हैं, जो तस्करी करके लाई गई हैं। जहां उन्हें या तो किसी खूंटे में बांध दिया जाता है या फिर नीलाम किया जाता है। कहीं-कहीं घर वाले धंधा करवाते हैं या दर-दर भीख मांगने पर मजबूर कर देते हैं। ऊपर से देखने पर मामला सिर्फ शादी और लड़का पैदा करने जैसा दिखाई देता है लेकिन अंदर-अंदर मौज मस्ती और कई तरह धंधे के साथ-साथ तस्करी का बहुत मजबूत तंत्र है जिसमें यहां का एख बहुत बड़ा वर्ग लिप्त है। तस्करी यहां एक कारोबार की तरह है, कुछ ट्रक ड्राइवर भी इसमें लिप्त हैं। कुछ स्थानीय दलाल है जो सौदा कराते हैं, पुलिस तक शिकायतें पहुंचती हैं, सामाजिक संस्थाएं भी काम कर रही हैं, जरूरत है कि पुलिस उदासीन रवैया छोड़कर यहां अभियान चलाए।
सीमा बताती है कि जान मोहम्मद की पत्नी रेहाना अब मेवात में रच-बस चुकी हैं और इज्जतदार जिंदगी जी रही है। उन्होंने भी हैदराबाद से 'पारोÓ लाकर अपने बेटों को दी है। पहले सिर्फ रेहाना को 'पारोÓ कहते थे, तो उन्हें बुरा लगता था, अब चार बहुएं 'पारोÓ हैं इसलिए रेहाना अकेली नहीं है। वह कहती हैं, हमें बुरा लगता है, जब कोई हमें पारो कहता है, हमें अब तक बाहरी मानते हैं, हम माहौल बदलना चाहते थे, इसलिए बाहर की पढ़ी-लिखी लड़कियां लाते हैं, चाहे कोई कुछ कहे। रेहाना की एक बहू जीनत भी पारो है, जो बमुश्किल यहां अपना सामंजस्य बिठा पाई है। जीनत बताती है, ये पैसे वाले इज्जतदार लोग हैं, इसलिए मैं सुरक्षित जिंदगी जी रही हूं, लेकिन मुझे साल भर बहुत दिक्कत आई, हमारी संस्कृति में बहुत फर्क है, जीनत खुशकिस्मत है। लेकिन ऐसी किस्मत दूसरी पारो की कहां होती है?
वहां तो कई किस्से और घटनाएं ऐसी हैं, जिसे सुनकर आपका दिल दहल जाए। 'पारोÓ सिर्फ दैहिक शोषण के लिए नहीं, बच्चा पैदा करने की मशीन भी हैं। कई 'पारोÓ को एक भाई के लिए लड़का पैदा करने के बाद दूसरे भाई के लिए लड़का पैदा करने को कहा जाता है। उनका तर्क सुनिए, गरीबों को भी तो परिवार आगे बढ़ाना है। वह बताती है घासेड़ा गांव की कुछ पारो वड़कली चौक पर भीख मांगती हुई दिखाई देती हैं। उनसे बात करें तो सच पता चलेगा। उनमें से कुछ अपने बीमार पति के लिए भीख मांग रही होती हैं तो कुछ घर का खर्चा चलाने के लिए ।
झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता संजय मिश्रा बताते है- सिर्फ झारखंड से 45 हजार लड़कियों को दूसरे राज्यों में ले जाकर बेच दिया गया है। कभी उन्हें काम का लालच दिखाया जाता है तो कभी फिल्मों में एक्टर बनाने का लोभ, लेकिन यहां से जाते ही उन्हें वस्तु की तरह भोग के लिए बेच दिया जाता है। पिछड़ापन और तस्करी का कारोबार
भारत में 1991 की जनगणना में प्रति हजार पुरुषों के पीछे 945 महिलाएं थीं और यह अनुपात 2001 की जनगणना में घटकर लगभग 927 रह गया था. पंजाब और हरियाणा में तो महिलाओं की स्थिति और दयनीय है। सन्ï 2001 की जनगणना के मुताबिक हरियाणा में प्रति हजार पुरुषों पर सिर्फ 861 महिलाएं हैं। हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या अपने चरम पर है। जाहिर है, ऐसे में 'पारोÓ का बाजार भी सजेगा और बोलियां भी लगेंगी।
दरअसल हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या के चलते लड़कियों की संख्या पुरुषों के मुकाबले लगातार गिर रही है। लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही है। स्वयंसेवी संगठन पारो समस्या का सीधा संबंध इससे जोड़ते है स्थानीय पत्रकार कासिम खान कहते हैं, पारो को लाने का काम ट्रक ड्राइवरों ने शुरू किया। ये हर राज्य में जाते हैं। वहां से लड़कियां इधर-उधर करते हैं। धीरे-धीरे यहां का समाज इसका आदी हो गया। हालांकि मेवात का पिछड़ापन भी एक बड़ी वजह है।
मेवात के विकास के लिए यहां अलग से मेवात डेवलपमेंट एजेंसी अस्तित्व में है। यहां अल्पसंख्यको के लिए अलग से बजट का प्रावधान है। मगर विकास का कोई काम धरातल पर दिखाई नहीं देता। पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य का मेवात से कोई नाता नहीं है। सरकारी योजनाएं फाइलों में ही बनती-बिगड़ती रहती हैं और इन सबके बीच कोई लड़की अपने हिस्से का नर्क लिए मेवात में धकेल दी जाती है, एक और पारो बनने के लिए।

अनुदान के लिए चल रहे मदरसे

मध्यप्रदेश में 8 हजार के करीब मदरसे संचालित हैं

भले ही मदरसों को कुछ सियासी लोग संदेह की नजर से देखें और मदरसों को लेकर सवाल खड़े किए जायें, लेकिन मदरसों की तादाद लगातार बढ़ रही है। वजह भी साफ है मदरसों को संचालित करने वाले लोगों को अनुदान के रूप में मिलने वाली राशि ने भोपाल में ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश में मदरसों की संख्या में अप्रत्याशित इजाफा कर दिया है।
दीनी तालीम के साथ आधुनिक शिक्षा देने की मंशा से 1998 में गठित किये गये मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड में मदरसों के रजिस्ट्रेशन की तादाद लगातार बढ़ रही है। यहां दर्ज मदरसों की संख्या गठन के बाद से दस गुना बढ़ गई है। वर्तमान में प्रदेश में 8 हजार के करीब मदरसे संचालित किये जा रहे हैं। जिनमें मदरसों में पंजीकृत मदरसों की संख्या तकरीबन 5 हजार है। इसमें से मान्यता प्राप्त मदरसे कुल 3962 है। दबी जुबान में मदरसा बोर्ड भी यह स्वीकारता है कि मदरसों की बढ़ती तादाद की वजह अनुदान है।
भले ही मदरसों पर सियासी पार्टियां तोहमत लगाकर कठघरे में खड़ा करें, लेकिन मदरसों की तादाद लगातार बढ़ रही है। यही वजह है कि मदरसों में पढऩे वाले बच्चों को आधुनिक शिक्षा से जोडऩे के लिए सरकार भी अब गंभीर हो गई है। मदरसों को आर्थिक सहायता देने के लिए केन्द्र ने कई नई योजनाएं शुरू की और उससे मदरसों को जोडऩे का प्रयास किया है। एसपीक्यूईएम नामक इस योजना से जुडऩे के साथ मदरसों में आधुनिक शिक्षा की गुणवत्ता के साथ मदरसों के बच्चे शिक्षा की मुख्य धारा से जुड़ जाएंगे। इस योजना के तहत विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान, भाषा, कम्प्यूटर अनुप्रयोग तथा विज्ञान विषयों के शिक्षण हेतु शिक्षकों के लिए पूर्णकालिक स्नातक शिक्षक को छह हजार रुपए और स्नातकोत्तर या बीएड शिक्षक को 12 हजार रुपए प्रतिमाह की दर से वेतन दिया जाएगा। शिक्षकों की नियुक्ति का राज्य सरकार/मदरसा बोर्ड को अधिकार रहेगा।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत सहायता के लिए आवेदन करने के लिए वे मदरसे पात्र होंगे, जो कम से कम तीन वर्ष से अस्तित्व में है तथा केन्द्र अथवा राज्य सरकार के नियमों अथवा मदरसा बोर्ड अथवा वक्फ बोर्ड अथवा राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयीन शिक्षा के अंतर्गत पंजीकृत हैं।
पुस्तकालय को सुदृढ़ बनाने और प्राथमिक, मिडिल, माध्यमिक तथा वरिष्ठ माध्यमिक स्तरों पर अध्यापन सामग्री के लिए प्रत्येक मदरसे को 50 हजार रुपए की सहायता के साथ पांच हजार का वार्षिक अनुदान दिया जाएगा। वहीं विज्ञान व गणित किटों के लिए 15 सौ और विज्ञान एवं कम्प्यूटर प्रयोगशालाओं के लिए प्रत्येक को एक लाख की सहायता के साथ रखरखाव के लिए पांच हजार का वार्षिक अनुदान भी दिया जाएगा।
लेेेकिन मप्र मदरसा बोर्ड के एक फरमान ने मदरसा (स्टडी सेंटर) संचालकों को परेशानी में डाल दिया है। करीब 9 साल से संचालित स्टडी सेंटरों के संचालकों पर नवीनीकरण शुल्क थोप दिया गया है। स्टडी सेंटर की स्थापना से अब तक का बकाया शुल्क भी एकमुश्त मांगा जा रहा है।
मदरसा बोर्ड से संबद्ध परीक्षार्थियों के आवेदन मदरसा बोर्ड में जमा कराने के मकसद से वर्ष 2000 में स्टडी सेंटरों की स्थापना की गई थी। राजधानी में इस तरह के 50 और प्रदेशभर में 200 से ज्यादा सेंटर संचालित हैं। बोर्ड हर वर्ष मान्यता का नवीनीकरण करता है। इसका शुल्क नहीं लिया जा रहा था। सूत्रों के मुताबिक बोर्ड ने 12 फरवरी 09 को स्टडी सेंटर संचालकों को भेजे पत्र में मान्यता नवीनीकरण के बदले 500 रुपए शुल्क जमा करने के निर्देश जारी किए। इसके बाद 30 अप्रैल को पुन: इस आदेश को दोहराया गया। इसी क्रम में 23 जून को जारी किए गए पत्र में मदरसा बोर्ड ने इसमें संशोधन करते हुए नवीनीकरण शुल्क दोगुना कर दिया है। साथ ही स्टडी सेंटरों को स्थापना से अब तक का शुल्क जमा कराने की हिदायत भी दी गई है।
मप्र मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष मोहम्मद गनी अंसारी इस संबंध में कहते है कि स्टडी सेंटर संचालक विद्यार्थियों से कमाई कर रहे हैं फायदे में चल रहे इन मदरसों से नवीनीकरण शुल्क मांगा जाना कहां गलत है? इस आदेश के विरूद्घ मदरसा संचालक भी लामबंद हो गए है। आधुनिक मदरसा कल्याण संघ के सचिव मोहम्मद शोएब कुरैशी का कहना है कि किसी नए नियम को वर्तमान तारीख से लागू किया जाता है, न कि पिछले कार्यकाल से। इस फरमान के खिलाफ मदरसा संचालक अदालत जाएंगे।
मदरसा आधुनिकीकरण योजना के तहत मदरसों के बच्चों को आधुनिक शिक्षा से जोडऩे के लिए मदरसों के बच्चों को सर्व शिक्षा अभियान के तहत उपलब्ध कराई जाने वाली पाठ्य पुस्तकें समय पर उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। नए शिक्षा सत्र को शुरू हुए एक माह होने को आया लेकिन हालत यह है कि अभी तक किताबें मदरसों में नहीं पहुंची हैं। जिसकी वजह से सरकार की मदरसों को मुख्य धारा से जोडऩे की योजना बेेमानी साबित हो रही है।
बताया जाता है कि राजधानी के तकरीबन एक हजार से 12 सौ पंजीकृत मदरसों में से केवल 400 मदरसों को ही किताबें वितरित की जाती हैं, लेकिन इन मदरसों में भी किताबें समय पर नहीं पहुंची हैं। वहीं वर्षों से संचालित किए जा रहे तकरीबन 800 मदरसे तो सर्वशिक्षा अभियान से ही अछूते हैं। न तो इनमें तालीम पा रहे बच्चों को शासन की शिक्षा के क्षेत्र में चलाई जा रही योजनाओं का कोई लाभ मिल रहा है और न ही इन बच्चों को मध्यान्ह भोजन ही नसीब हो रहा है और न ही साईकिल। जिसके कारण मदरसों में शिक्षा के आधुनिकीकरण का काम पिछडऩे से इंकार नहीं किया जा सकता है।
अशोकागार्डन स्थित मदरसा सुल्तानिया के संचालक सरवर सुल्तान बताते है कि मदरसे में तकरीबन 80 बच्चे तालीम हासिल करते हैं, लेकिन इसके बावजूद यहां तुलवाओं को अभी तक किताबें उपलब्ध नहीं कराई गई है, जिससे बच्चों को परेशानी हो रही है। मदरसा तालिबीन संजय नगर की संचालिका शीबा सुल्तान प्रशानिक अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करते हुए कहती है कि अभी तक पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध नहीं कराई गई हैं, जिसके कारण बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ रहा है और बच्चों की पढ़ाई पिछड़ रही है। लेकिन मप्र मदरसा बोर्ड के सचिव मो. हनीफ कहते हैं कि मदरसा बोर्ड के माध्यम से अब सर्व शिक्षा अभियान के तहत पाठ्य पुस्तक वितरण नहीं की जाती। जिला परियोजना समन्वयक हरभजन सिंह तोमर की माने तो मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त जिले के 441 मदरसों में से मात्र 120 मदरसे ही शेष रह गए हैं जो अब तक किताबें लेने ही नहीं आए। बहरहाल आपसी खींचतान और विरोधाभासी बयानों के बीच नुकसान बच्चों को उठाना पड़ रहा है। वहंी मदरसों को सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ कर बच्र्चो केा शिक्षित करने की शासन की महात्वाकांक्षी योजना पर भी पलीता लगता दिखाई पड़ रहा है। जामिया इस्लामिया अरबिया मस्जिद तरजुमे वाली मदरसे के संचालक मौलाना मोहम्मद अहमद इन सबके लिए शासन की योजनाओं का क्रियांवयन करने वाले अधिकारी और कर्मचारियों को दोषी मानते हुए कहते है कि मदरसों के लिए आई विशेष योजना के तहत दी जा रही सुविधाएं बड़े मदरसों के लिहाज से पहले से नाकाफी तो है ही लेकिन छोटे मदरसों को मिलने वाली सुविधाएं भी उन्हें नही मिल पा रही है। यहां तैनात अधिकारी और कर्मचारी मदरसों को मिलने वाले लाभ से वंचित करने में लगे हैं।

फर्जी अफसरों से हारी सरकार

मध्यप्रदेश में अब तक 250 अधिकारयों कर्मचारियों के फर्जी जाति प्रमाण पत्र से सरकारी नौकरी हासिल करने का पता चला है। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, इनकम टैक्स आफसर, एसडीओ और थानेदार से लेकर रेल, वन और भेल में ऊंचे पदों पर बैठे अफसर तक शामिल हैं। प्रदेश के ये 250 फर्जी अफसर सरकार पर भारी पड़ रहे हंै। पहले इन्होंने फर्जी प्रमाण पत्र से सरकारी नौकरियां हासिल की और अब ऊंचे ओहदों पर पहुंचकर सरकार को अंगुलियों पर नचा रह हैं। उनके फर्जी होने के प्रमाण मिलने के बाद भी न तो शासन उन्हें बर्खास्त कर पा रहा है और न ही उनसे वसूली।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित उच्च स्तरीय छानबीन समति इनमं से 21 को नौकरी से निकालने और उस पर अपराध दर्ज करने के निर्देश दे चुकी है। हालही में हाईकोर्ट ने भी शासन को फटकार लगाई और कार्रवाई के लिए 21 दिन का अल्टीमेटम दिया है। बावजूद अफसरों के कानों पर जूं नहीं रेंग रही।
सूत्र बताते हैं कि इनमें से 21 उच्च और निम्न अधिकारियों के खिलाफ 20 सितंबर 06 को ही उच्च स्तरीय छानबीन समिति ने बर्खास्त कर अपराध दर्ज कराने, फर्जी जाति प्रमाण पत्र और उनके माध्यम से बनवाए गए दस्तावेज जब्त करने और सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के बदले वसूली करने के आदेश जारी कर दिए थे। प्रमुख सचिव पिछड़ा वर्ग एवं विकास विभाग की अध्यक्षता वाली इस समिति के निर्देशों को जिला कलेक्टर, एसपी और संबंधित विभाग प्रमुखों ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया है। इन पर कार्रवाई हो भी नहीं पाई और समिति के पास अन्य 65 लोगों के फर्जी प्रमाण पत्र के सहारे नौकरी में आने की शिकायत मिल गई। छानबीन समिति को जांच में इनके खिलाफ भी प्रमाण मिल गए हैं। समिति के निर्देश के बावजूद कार्रवाई नहीं होने पर पिछले महीने उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका लगाई। इस पर मुख्य न्यायाधीश आनंद कुमार पटनायक ने शासन को जमकर फटकार लगाते हुए 21 दिन में कार्रवाई कर रिपोर्ट मांगी है हाईकोर्ट द्वारा दी गई समय-सीमा भी गत दिवस समाप्त हो गई लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
उच्च स्तरीय छानबीन समिति ने कोलार नगर पालिका के वार्ड क्रमांक आठ के कांग्रेस पार्षद भैरो सिंह यादव और नगर पालिका अध्यक्ष मुन्नी यादव के पति मंगल सिंह के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के निर्देश के बाद फर्जी प्रमाण पत्र से आरक्षित सीट पर चुनाव लडऩे का धोखाधड़ी करने का प्रकरण कोलार थाने में दर्ज किया गया है।

मंत्रालय के 39 अधिकारी-कर्मचारी जांच के घेरे में

फर्जी जाति प्रमाण-पत्र को लेकर जारी जांच को पलीता लगाने राज्य मंत्रालय के आला अफसर सक्रिय हैं। फलत: शिकायत के पौने तीन वर्ष बाद भी जांच की गति बेहद मंथर है, जबकि शीर्ष अदालत के निर्देश पर ऐसे मामलों के त्वरित निराकरण के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित है, लेकिन प्रकरण का निपटारा वह भी आदर्श समय में कर पाने में असहाय साबित हुई है। यह मामला 14 दिसम्बर, 2006 को तब आरंभ हुआ, जब सत्तारूढ़ दल भाजपा के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने शिकायत की कि वल्लभ भवन में 39 शासकीय सेवक अनुसूचित जनजाति फर्जी प्रमाण-पत्र के आधार पर सेवारत हैं। इससे सचिवालय हरकत में तो आया, लेकिन उसके बाद प्रकरण शनै: शनै: दबता रहा। इसका कारण यह भी है कि शिकायत में दस आला अफसर भी आरोपित हैं। लिहाजा शिकायत को मरणासन्न बनाए रखने हेतु उच्च स्तर पर कवायद जारी है, बावजूद इसके गत मई माह में सामान्य प्रशासन विभाग ने गोपनीय रूप से एक आवश्यक जांच बिठा दी। संगणकीय कूट संकेत पीजी 9337146/06/15 पर दर्ज जनशिकायत के आधार पर जारी इस जांच के दौरान मंत्रालय में कम से कम एक दर्जन अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के जाति प्रमाण-पत्र विवादों और आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, लेकिन सचिवालय अभी तक कोई भी ऐसी पारदर्शितापूर्ण प्रक्रिया या कार्रवाई अंगीकार नहीं कर सका है, जिससे संदेह के बादल छंट सकें और मंत्रालय के इतिहास में यह पहली बार है, जब सैकड़ों की संख्या में जाति प्रमाण-पत्र शंकाओं के घेरे में आ चुके हैं।

मेरी बीवी बिकाऊ है!

महाभारत में सब कुछ हारने के बाद युधिष्ठिर को अपनी बीवी दांव पर लगाना तो सबने सुना है, परन्तु इस अकाल की स्थिति में किसान इस परिस्थिति को महसूस कर रहा है और बुंदेलखंड के किसान आज गरीबी के कारण अपनी पत्नी बेचने को मजबूर हैं।
देह जीवाओं की नगरी के लिए मशहूर उज्जैन का अभिशाप इन दिनों बुंदेलखण्ड के किसानों पर पड़ रहा है। कभी खेती किसानी के दम पर कमाए रुपयों को लेकर उज्जैन में देह जीवाओं के साथ मौज-मस्ती करने आने वाले किसान आज भंवर जाल में फंसे हुए हैं।
कर्ज में डूबे बुंदेलखंड के किसान अपनी पत्नियों का सौदा कर रहे हैं, कुछ पैसे लेकर तो कुछ स्टांप पेपरों पर अंगूठा लगा कर। इनका दाम 4,000 से लेकर 12,000 में लगाया जा रहा है। जितना सुन्दर चेहरा उतना ज्यादा मूल्य। स्टांप पेपरों पर विवाह अनुबंधन लिखा होता है। 23 वर्षीय कुंती को उसके पति ने अपने कर्जदार हरिप्रसाद 40, को बेच दिया है। पेपरों पर यह अंकित होता है की खरीदने वाला अकेला है तथा उसकी कोई पत्नी नहीं है।

बुंदेलखंड में जमीन की तरह ही इंसान भी सूखते जा रहे हैं। सूखा सिर्फ खेत ही नहीं संवेदनाएं भी सुखा रहा है। इस क्षेत्र में इंसान की इंसान के लिए इज्जत कोई मायने नहीं रखती। इस बेबसी, इस घुटन की सबसे खौफनाक शिकार हुई हैं बुंदेलखंड की महिलाएं। जिसे कोख से जन्मा उसकी परवरिश के लिए अपने शरीर का सौदा कर रही हैं महिलाएं, जिस परिवार में ब्याही गईं उसे पालने के लिए स्टांप पेपर पर बिक रही हैं महिलाएं। बुंदेलखंड को पांच साल के सूखे ने कितना बर्बाद किया है ये सब जानते हैं लेकिन स्टांप पेपर पर बिक रही महिलाओं की दिल दहला देने वाली हकीकत से कम ही लोग वाकिफ है। सूखे और भुखमरी की मार झेल रहे इस इलाके के लोगों ने पहले जानवर बेचे, फिर जमीन बेची अब बारी है औरतों के नीलाम होने की।
शुरुआत पुलिस स्टेशन में गुमसुम बैठी सविता (बदला हुआ नाम) से। सविता को किसी और ने नहीं बल्कि उसके पति ने ही बेच दिया। कीमत लगाई आठ हजार रुपए। सौदा पक्का करने और इस सौदे को कानूनी दर्जा दिलाने के लिए वो बाकायदा खरीदार के साथ कोर्ट भी पहुंचा लेकिन सविता वहां से भाग निकली।

सविता कहती है- उसने हमें बेच दिया है। पहले तो अच्छी तरह रखा लेकिन अब परेशान किया तो हम मायके चले गये तो पंचों ने फैसला कराया और उसके साथ पहुंचा दिया। फिर उसने झूठा दिलासा दिया और यहां ले आकर बेच दिया। पुलिस अधिकारी आरके सिंह ने बताया कि एक आदमी गुलाब इस महिला को लेकर शादी के लिये लाया था। इसके पति ने इसको गुलाब को बेच दिया था।

सविता बुंदेलखंड की उन हजारों औरतों में से एक है जिनका सौदा खुद अपनों ने ही कर डाला। बुंदेलखंड में भूख दो पाटों में बंट गई है। परिवार के लिए दो जून रोटी की भूख और औरतों के जिस्म की बोली लगाने वाले सौदागरों की भूख। पांच साल से सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड में औरतें मजबूर हो रही हैं अपने शरीर को बेचकर परिवार का पेट पालने के लिए। स्टांप पेपर की आड़ में जिस्म के सौदागर इसका जमकर फायदा उठा रहे हैं। कीमत चार से 12 हजार रुपए। कानून से बचने के लिए कचहरी में वकीलों की मौजूदगी के सामने स्टांप पेपर पर खरीद-फरोख्त हो रही है। औरतों का सौदा करने वालों ने इसे नाम दिया है विवाह अनुबंध। एक ऐसा विवाह जिसमें न अग्नि है, न फेरे हैं, न सप्तपदी है बस दस रुपए के कागज के टुकड़े पर शादी का एग्रीमेंट और बिक गई औरत।
शादी के ऐसे ही एक एग्रीमेंट के मुताबिक पहले से ही शादीशुदा कुंती की हरिप्रसाद नाम के शख्स से दोबारा शादी हो रही है। कुंती की उम्र महज 23 साल है जबकि हरिप्रसाद लगभग उसकी दुगनी उम्र 40 साल का है। कुंती के दस्तखत को देखें तो ये भी साफ हो जायेगा उससे एक अक्षर भी सही से नहीं लिखा गया। कहना मुश्किल है कि कुंती नाम की महिला ने स्टांप पर खुद साइन किया या फिर उससे कहा गया कि सोचे-समझे बिना कुछ भी उकेर दो। इसी स्टांप पेपर पर ये भी लिखा है कि कुंती ने ये फैसला बिना किसी डर के किया।
वकील कालीचरण बताते हैं कि वो दस रुपये के स्टांप पर एक कंप्रोमाइज लिख दिया जाता है कि क्योंकि हम वयस्क हैं और हमारी पत्नी नहीं है इसलिये हम शादी कर रहे हैं। तो फिर जिसने खरीदा है वहीं उसे बेच देता है, इस तरह एक नहीं लाखों मामले हैं यहां पर। ये भी जरूरी नहीं कि जिसने एक बार औरत खरीदी, वो उम्रभर उसे अपने साथ रखे। कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के नेवाड़ी थाने की पुलिस ने ऐसी ही तीन औरतों को दोबारा बिकने से बचाया। झांसी के गुरसराय थाने में बंद है सुखिया। उसने एक बूढ़े आदमी को बेरहमी के काट डाला लेकिन चेहरे पर अफसोस के कोई भाव नहीं। उसने ये अपराध किया अपनी इज्जत बचाने के लिए। सुखिया की मानें तो उसके पति ने गांव के दबंग सूदखोर से कुछ पैसे उधार लिए थे। इन पांच सालों में ब्याज चुकाते-चुकाते खेत और जानवर बिक गए। अब बारी थी सुखिया की। सूदखोर उसके पति पर लगातार ये दबाव बना रहा था कि या तो ब्याज दो या फिर सुखिया। सुखिया ने कहा- मैंने कर्जा लिया था और वो पैसा मांगने आया था। उसने कहा कि पैसे नहीं दो तो अपनी इज्जत दो। फिर हमने उसका गला दबा दिया और काट डाला।
बुंदेलखंड के गांवों में दबंग सूदखोर अब गरीब किसानों से इसी तरह वसूली कर रहे हैं। बगौली गांव का कालीचरण भी जब ब्याज के पैसे नहीं चुका पाया तो साहूकार ने उसकी बीवी को उठा लिया। कालीचरण कहता है कि हमने तीस हजार कर्ज लिया था। नहीं दे पाये तो साहूकार हमारी औरत को ले गया। पहले जेवर ले गया और कहा कि कर्जा पूरा हो जायेगा। कुछ ऐसा ही हाल दलपत का भी है। बीमारी के इलाज के लिए पांच साल में वो सूदखोर से 80 हजार रुपए कर्ज ले चुका है। घर बिकने के बाद अब बारी उसकी पत्नी की है। सूदखोर से हार चुका ये शख्स अब आत्महत्या करना चाहता है।
सूखे के चलते अपना सब कुछ गंवा चुके काशीराम ने 80 साल की उम्र में 13 हजार रुपये कर्ज लिया। आखिर बिटिया की शादी जो करनी थी। अब सूदखोर 20 हजार रुपये की मांग कर रहा है। घर में अन्न का एक दाना नहीं। पांच साल के सूखे ने आंख के आंसू भी सुखा दिए हैं। अब फिक्र है घर की इज्जत की।
किसान धनीराम कहता है-वास्तव में किसी की औरत अच्छी है तो उसे कर्जा आसानी से मिल जाता है। उसे कोई दिक्कत नहीं होती है। इज्जत लुटा कर सब काम आसानी से हो जाता है। बुंदेलखंड के लगभग हर गांव में, हर कस्बे में काशीराम, धनीराम या दलपत जैसे लोगों की भरमार है। घर में खाने के बर्तन खाली हैं। बच्चों के शरीर पर कपड़े नहीं हैं। सब कुछ बिक चुका है या गिरवी जा चुका है। लाखों लोग सूदखोरों के जाल में फंसते जा रहे हैं और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं।
कुछ महीने पहले झांसी पुलिस ने जिस्मफरोशी के एक अड्डे पर छापा मारा। बरामद हुई 19 साल की संगीता। पूछताछ में उसने जो कहानी सुनाई लोगों के पांव तले जमीन खिसक गई। पांच साल से जारी सूखे ने संगीता को इस धंधे की आग में झोंक दिया। सूखे के चलते बर्बाद हुए परिवार को सहारा देने के लिए वो मुंबई आई थी। पंद्रह सौ रुपए महीने की नौकरी का भरोसा था। लेकिन दलालों ने नौकरी के बजाय देह व्यापार की मंडी में ला बैठाया। वो बताती है-35 हजार रुपये में बात हुई थी लेकिन हमें एक भी रुपया नहीं मिला है। बांबे में कुछ पैसा भेजते हैं लेकिन किसे मिलता है नहीं पता। कुछ पैसा मुझे मिलता है। दिन में दो तीन लोग आते हैं और रात में भी आते हैं। एक महीने का कांट्रैक्ट हुआ था।
दिल दहला देने वाली ऐसी ही हकीकत है 16 साल की मासूम मीनू की। उसके गर्भ में बच्चा पल रहा है, लेकिन भविष्य का कोई ठिकाना नहीं। पुलिस ने उसे तब पकड़ा जब वो दलालों के चंगुल में थी। गरीबी और भुखमरी से निजात पाने के लिये इस लड़की ने घर की देहरी से पांव क्या निकाले, वो देह व्यापार के दलदल में जा गिरी। मीनू कहती है-वो लड़का स्टेशन पर मिला था। कहा कि होटल में चलो सुबह चली जाना। रात में उसने गलत काम किया। बच्चा मेरे गांव के एक आदमी का है।
पेट की आग ने इस इलाके को क्या से क्या बना डाला है। ऐसे ही एक बदनाम इलाके में नजर आईं ग्राहकों का इंतजार करती महिलाएं। गैर-सरकारी संगठनों की मदद से हमारे कैमरे के सामने आई पार्वती के परिवार में तीन बच्चे हैं। पति बीमार है और खेत कब के बिक चुके हैं। घर का चूल्हा-बर्तन भी सूना है। बच्चों को बचाने के लिये पार्वती ने देह व्यापार में उतरने का कड़ा फैसला किया। ये कहानी किसी एक की नहीं। यहां तो हर कोई पार्वती जैसी ही है।
यकीन करना मुश्किल है पर सच्चाई यही है। पुलिस भी है और सरकार भी लेकिन यहां कोई सुनवाई नहीं। औरत एक है लेकिन उसकी पीड़ाएं अनंत। कभी वो घर का चूल्हा जलाने के लिए बिकती है कभी एक रोटी जुगाडऩे के लिए। कौन कहता है कि इस देश में औरत और मर्द बराबर हैं।
वहीं झांसी के कमिश्नर ने फिर वही रटी-रटाई बात कही। बुंदेलखंड में महिलाओं को बचाने के लिए सख्त कदम उठाया जाएगा। टीपी पाठक कहते हैं -जो आत्मसम्मानी है वो ऐसी परिस्थिति में भी जी रहा है और ऐसी कल्पना करना कि सभी ऐसा करेंगे, मैं ऐसा मानने को तैयार नहीं हूं। अगर कहीं ऐसी दिक्कत है तो आप भी जरूर बताइये हम देखेंगे।
कुछ स्वयं सेवी संगठन देह व्यापार के दलदल में धंस चुकी औरतों और सूदखोरी के जाल में फंसे किसानों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। बुंदेलखंड किसान मोर्चा के अध्यक्ष गौरी शंकर कहते हैं कि सरकारी सहायता पूरी नहीं हो रही है। हमारी अपील है स्वयंसेवी संस्थाओं से और ऐसे लोगों से जो मदद कर सकते हैं, वो आगे आयें, यहां के किसानों की मदद करें।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

स्कूल नहीं, चकलाघर पहुंच रही हैं बच्चियां

कभी रईसों के राजसी ठाठ देख चुकी यह बस्ती अब निम्न और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की थकान उतारने का जरिया रह गई है। गांव देहात से लाई गई धंधेवालियां जिन्हें एनजीओ की भाषा में सेक्स वर्कर कहा जाता है, इस भड़कीले शहर के युवाओं को रिझाने में नाकामयाब हैं। फूहड़ तरीके से लगाई गई गहरी लाल लिपस्टिक और ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए करारी आवाज में दी गई गालियां उनकी बोल्डनेस को नहीं बदतमीजी को ही दर्शाते हैं। कमाई के लिए आग्रह इतना ज्यादा कि कई बार तो सड़क चलते ग्राहकों का हाथ पकड़ कर भीतर खींचने से भी नहीं चूकतीं। जहां कभी इत्र फुलेल और गजरों की महक गूंजती थी आज वहां सिर्फ सीलन और वीर्य की मिली जुली अजीब सी गंध तारी है। कोठो के कोने गुटखों की पीकों से रंगे पड़े हैं और ऐसे माहौल में एड्स की भयावहता का डर कई गुना होकर नजर आता है।
19 फरवरी को मुंबई के एक बार में पुलिस ने जब छापा मारा तो वहां के तहखाने में सीलन और वीर्य की मिली जुली अजीब सी गंध के बीच एक दर्जन बालाएं पकड़ाई,जो यहां आने वालों की प्यास बुझाती थीं। ऐसी ही बालाओं के बीच में रहती है खुशबू। खुशबू के इस पेशे को दुनिया धंधा कहती है। और खुशबू उसका असली नाम भी नहीं। धंधे में वो दूसरे नाम से जानी जाती है। वो ऐसे मंजी हुई प्रोफेशनल की तरह बात करती है कि लगता नहीं वो महज बारह साल की है। खुशबू के हाथ में स्कूल बैग होना चाहिये मगर उसके हाथ में है फैशनेबल पर्स। शायद क्लाइंट अट्रैक्ट करने का नुस्खा हो जो खुशबू को उसकी आंटी ने सिखाया है। खुशबू को इस छोटी सी उम्र में स्कूल जाना चाहिये मगर उसके दिन और रात का टाइम-टेबल तो उसकी आंटी सेट करती हैं। सुबह डॉक्टर के पास, दोपहर खरीदारी और शाम को ग्राहकों के पास।

दिल्ली और मुंबई सेक्स वर्कर की पहली पसंदीदा जगह हैं। भारत में नेपाल से आने वाली सेक्स वर्कर की बड़ी तादाद है। सेक्स के काले धंधे में बच्चों की मांग बहुत ज्यादा है। एक सर्वे के मुताबिक 60 फीसदी सेक्स वर्कर लोअर कास्ट से और 40 फीसदी सेक्स वर्कर ऊंची जातियों से ताल्लुक रखती हैं। औसतन एक सेक्स वर्कर महीने में 2 हजार से 24 हजार रुपए कमाती हैं जबकि कॉल गर्ल 40 हजार से 60 हजार रुपए महीना कमाती है।

वैसे खुशबू की आंटी से भी आपका तआर्रुफ कराते चलें। दुनिया इन्हें दलाल के नाम से जानती है। ये ही है खुशबू की माई-बाप। जिसके इशारे पर खुशबू नाचती है। हमने पड़ताल की तो पता चला नौकरी के बहाने खुशबू को उसके मां-बाप से छीन लिया गया और डाल दिया गया आंटी की मांद में। खुशबू की मासूूमियत कब छिन गयी ये जब तक उसे पता चलता उसका नाम धंधे की व्यापारियों के जुबां पर चढ़ चुका था। खुशबू की इस दर्दनाक दास्तान की तस्दीक यूएनडीपी द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट करती है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वेश्यावृत्ति में शामिल लोगों में 15 फीसदी तादात 15 साल से कम उम्र के बच्चों की है। इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन की रिपोर्ट भी इस बात को मानती है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ दिन पहले ये टिप्पणी की थी कि भारत बाल वेश्यावृति का केन्द्र बनता जा रहा है।

भारत में सेक्स वर्कर की संख्या करीब 28 लाख है। इनमें करीब 43 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जो उस उम्र में ही इस धंधे में धकेल दी गईं जब उनकी उम्र अठारह बरस भी नहीं थी। भारत में 15 से 35 साल तक की महिलाओं की गिनती की जाए तो उनमें से 2.4 फीसदी महिलाएं सेक्स वर्कर हैं। इनमें सबसे ज्यादा महिलाएं मध्य प्रदेश और बिहार से हैं। इसके बाद राजस्थान और यूपी का नंबर आता है। यहां इस बात को नजर अंदाज नहंी किया जा सकता है कि यह सेक्स वर्कर दलालों के माध्यम से देश के अन्य शहरों में भी अपनी सेवाएं देने जाती है। इसकी पुष्टि विगत वर्ष पुलिस गांधीनगर सामूहिक बलात्कार मामले में कर चुकी है। मतलब साफ है आज भी हमारे समाज की परिस्थितियां ऐसी हैं जो इन मासूमों को इस दलदल में उतरने के लिये मजबूर करती हैं। दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने ये अहम सवाल केंद्र सरकार से पूछा था कि वेश्यावृत्ति रोक नहीं सकते तो उसे कानूनी मंजूरी क्यों नहीं देते। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर दो अलग-अलग राय हैं। कुछ लोगों की राय में वैधानिक मान्यता इसका समाधान नहीं है। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने भी बाल वेश्यावृति रोकने के लिए एक स्पेशल जांच एजेंसी बनाने की बात कही। कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल से कहा है कि बच्चों से देह व्यापार करवाने वालों को जमानत नहीं मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बाल वेश्यावृति रैकेट के चलते हिन्दुस्तान सेक्स का हब बनता जा रहा है। कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि सरकार बाल वेश्यावृति करवाने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 के तहत मामला क्यों नहीं दर्ज करती। वही एक तरफ भारत सरकार का आदिम जाति कल्याण विभाग है जो आदिवासियों को समाज में सम्मान दिलवाने की तथा कथित कोशिशों में करोड़ों रुपए खर्च करता है। दूसरी तरफ महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं के साथ यौन शोषण किया जाता है और उनकी ब्लू फिल्में बेची जाती है। महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं को सेक्स स्कैन्डल में फंसाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है। ठाणे पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार किया है। जिनके पास से आदिवासी महिलाओं का आपत्तिजनक वीडियो मिला है। पुलिस के हत्थे चढ़े इस शख्स पर आदिवासी महिलाओं की अश्लील वीडियो बनाने का आरोप है। जहिर शेख नाम का ये शख्स भोलीं भाली आदिवासी महिलाओं को पहले अपने प्यार में फंसाता था, फिर उनके साथ प्यार का नाटक कर मोबाइल क्लिप बनाता था। बाद में वो इस क्लिप को बाजार में बेच देता था। बताया तो यह भी जा रहा है कि ऐसी ही कुछ आदिवासी लड़कियों को देह व्यापार के धंधे में उतारा गया है।

जाहिर शेख अश्लील वीडियो के इस गोरखधंधे में अकेला नहीं था। उसका दोस्त गिरीश चांदलानी इस काले कारोबार बराबर का भागीदार था। गिरीश के सायबर कैफे में ही एमएमएस की एडिटिंग की जाती थी। यहां आने वाले ग्राहकों को इसे बेचा जाता था। खास बात ये कि ये हर बार आदिवासी महिलाओं को ही अपना शिकार बनाता था। इस घटना के आसपास के सभी आदिवासी इलाको में खलबली मच गई है। उधर पुलिस यह पता लगाने में जुट गई है कि कितनी आदिवासी युवतियां पिछले कुछ सालों से अपने घरों से गायब हैं।