सोमवार, 15 सितंबर 2014
जर्जर बांधों की जद में मप्र की आधाी आबादी
कभी भी दरक सकते हैं उम्रदराज बांध!
प्रदेश में 100 साल की उम्र पार कर चुके हैं 23 बांध
vinod upadhyay
भोपाल। इस बार भले ही पिछली बार की तरह जोरदार बारिश नहीं हुई है,फिर कई बांध लबालब भरने के बाद छलक पड़े। यही नहीं अगस्त के शुरूआत में ही डिंडोरी का गोमती बांध, हमेरिया बांध, रामगढ़ी, सिमरियानग, चांदिया, गोरेताल, लोकपाल सागर, भरोली सहित करीब दर्जनभर बांधों में रिसाव और दरार आने से आसपास के क्षेत्रों में दहशत फैल गई। हालांकि समय पर इन बांधों के रिसाव और दरार को दुरूस्त कर कदया गया, लेकिन ये घटनाएं इस बात का संकेत दे गईं की अगर बांधों की लगातार देखरेख और मरमत नहीं की गई तो ये कभी भी जानलेवा बन सकते हैं। बांधों में हुए रिसाव के बाद जब प्रदेश के बाधों की स्थिति का जायजा लिया गया तो यह तथ्य सामने आया की प्रदेश के करीब 91 बांध उम्रदराज हैं और ये कभी भी दरक सकते हैं।
मध्यप्रदेश वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट के आंकडों के अनुसार प्रदेश में पेयजल उपलब्ध कराने, सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए 168 बड़े और सैकड़ों छोटे बांध बनाए गए हैं। देखरेख और मेंटेंनेंस के अभाव में कई छोटे-बड़े बांध बूढ़े और जर्जर हो चुके हैं। इनमें से कुछ की उम्र 100 साल से ज्यादा है। इन उम्रदराज बांधों को लेकर बेपरवाह प्रशासन ने न तो इन्हें डेड घोषित किया और न ही मरम्मत की कोई ठोस पहल की। ऐसे लबालब ये बांध यदि दरक गए या टूट गए तो कभी भी बड़ी तबाही ला सकते हैं। इन बांधों की वजह से नदियां भी अपनी दिशा बदल सकती हैं। इससे भी बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन इस ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया है।
प्रदेश के लगभग आधा सैकड़ा बांधों की उम्र 50 साल पूरी हो चुकी है। जबकि 18 बांध तो 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ऐसे में इन बांधों की ठोस मरम्मत नहीं होने से इनके आधार कमजोर हो चले हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक बड़े बांधों की उम्र 100 वर्ष व छोटे बांध की उम्र लगभग 50 वर्ष मानी जाती है। इस उम्र तक इन बांधों की मजबूती बनी रहती है। बाद में ये धीरे-धीरे ये कमजोर होने लगते हैं। साथ ही नदियों के साथ आने वाले गाद भी बांधों को प्रभावित करते हैं। इससे बांधों की क्षमता कम होने लगती है।
वाटर रिसोर्सेज से जुड़े एक्सपर्ट इंजीनियर बांधों की उम्र 50 और 100 साल बताते हैं। छोटे बांधों को 50 वर्ष के हिसाब से डिजाइन किया जाता है, जबकि बड़े बांधों की उम्र 100 साल बताई जाती है। बांधों के सिलटेशन और मजबूती दोनों के आधार पर उम्र तय होती है। वर्तमान में ज्यादातर बांधों की उम्र बहुत ज्यादा हो चुकी है। जानकारों का कहना है कि जब बांध बने थे जब ज्यादातर स्थान जंगल थे। अब जंगल काटकर खेती होने लगी है। इसका असर भी बांधों पर पड़ा है। बांधों में सिलटेशन बढ़ चुके हैं। आजतक सरकार ने लाइव स्टोरेज ही नहीं मापी है। बेस में मिट्टी में सही तरीके से काम्प्रेशन नहीं किया गया है। आधार ही यदि कमजोर हो गया, तो बांध के बचने का सवाल ही नहीं।
गेट से ज्यादा खतरा
बांधों में सबसे ज्यादा खतरा गेट के खराब होने का रहता है। हर साल गेट की मरम्मत होनी जरूरी हैं। ज्यादातर गेट के रबर-सील कट जाते हैं, जिन्हें नहीं सुधारने पर बगैर गेट खोले ही पानी बहने लगता है। इसके अलावा उलट व चोक नालियां भी खतरा बन सकती हैं। पिछले चार साल से करीब दो दर्जन बांध जब बारिश के दिन में लबालब होते हैं तो उनके गेट से पानी बहने लगता है। लेकिन मध्यप्रदेश वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। बताया जात है हर साल सैकड़ों एकड़ खेती तो बांध से निकले पानी से ही खराब हो जाती है। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि तीन साल पहले एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसमें बांधों की बदहाल स्थिति को बताया गया था। लेकिन रिपोर्ट फाइलों में ही दब कर रह गई है। प्रदेश के कई बांधों में रिसाव की समस्या आम है। आए दिन रिसाव वाली जगह से बांधों के आशिंक रूप से टूटने की खबरें आती रहती हैं। बांध टूटने से सैकड़ो एकड़ फसल के अलावा अन्य आर्थिक नुकसान भी होते हैं।
मंदसौर शहर को बाढ़ के खतरे से बचाने के लिए चार दशक पहले बने धुलकोट बांध पर अब खनन माफियाओं की नजर पड़ गई है। शहर के पश्चिमी इलाके में बने इस ढाई किलोमीटर लंबे बांध की पाल को मिट्टी माफियाओं ने खोदना शुरु कर दिया है और वे चोरी छिपे यहां से ट्रॉलियों में मिट्टी भरकर ले जा रहे है, जिसका ईंट बनाने में उपयोग कर रह रहे हैं। ईंट भट्टे मालिकों ने शमशान घाट और नरसिंहपुरा इलाके से गुजर रही बांध की पाल से इतनी भारी मात्रा में मिट्री की खुदाई की है कि करीब आधा किलोमीटर इलाके में बांध काफी जर्जर हो गई है। हैरत की बात ये है कि अधिकारी इस खुदाई से नावाकिफ हैं।
वहीं, खंडवा जिले में स्थित 'ओंकार पर्वतÓ की दरार से ओंकारेश्वर बांध (जल विद्युत सिंचाई परियोजना) को खतरा उत्पन्न होने की आशंका है। बांध के ठीक सामने पर्वत में दरार दिखाई दे रही है। बांध से लगभग 150 मीटर दूर पर्वत का एक हिस्सा दरकने लगा है। बांध और पर्वत के बीच कुछ चट्टानें कट गई हैं। आशंका व्यक्त की जा रही है कि नर्मदा नदी की तलहटी में दरार अंदर ही अंदर बांध तक पहुंच गई तो बड़े नुकसान का खतरा हो सकता है। जानकारों का कहना है कि नर्मदा में आने वाली बाढ़ से पर्वत चारों तरफ से कट रहा है। पर्वत पर कभी जंगल हुआ करता था, लेकिन क्षेत्र में गिनती के पेड़ रह गए हैं। पर्वत पर मठ, आश्रम, दुकान, मकान बन गए हैं। पर्वत की तलहटी में ज्योर्तिलिग मंदिर है, यह क्षेत्र अवैध भवन निर्माणों से घिरता जा रहा है। पर्वत पर अतिक्रमण हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कापरेरेशन लिमिटेड द्वारा बनाई गई ओंकारेश्वर जल विद्युत परियोजना में बांध द्वारा 520 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बांध में कुल 23 गेट लगे हैं। यहां पर 189 मीटर जलस्तर तक (समुद्र तल से) पानी भरा जाता है। अगर यह बांध दरकता है तो बड़ी जन हानि होगी।
संजय सरोवर परियोजना के तहत बनाए गए एशिया के सबसे बड़े मिट्टी के बांध पर खतरा मंडरा रहा है। एक तरफ इस बांध के तटबंध की मिट्टी लगातार बह रही है वहीं आतंकवादियों और नक्सलवादियों की भी कुदृष्टि इस बांध की ओर है। भीमगढ़ बांध में गेटों की सुरक्षा के लिए कन्ट्रोल रूम बनाया गया है जहां एक चोकीदार रहता है और वह भी नदारद रहता है और उसके सिवाय वहां कोई भी जबाबदार व्यक्ति सेवा नहीं देता।
इनकी होती है लगातार मॉनिटरिंग
एक तरफ जहां आधी शताब्दी पहले बने बांधों की देखरेख नहीं की जा रही है वहीं अभी हाल ही में बने बरगी, तवा, बरना, इंदिरा सागर,ओंकारेश्वर, बाणसागर, गांधी सागर, मनीखेड़ा, गोपीकृष्ण सागर, माही, कोलार और केरवा बांध ऐसे हैं जिनकी लगातार मॉनिटरिंग हो रही है। इन बांधों में किस दिन कितना पानी बढ़ा और कितना कम हुआ इसकी जानकारी प्रतिदिन मिलती है।
कितने सुरक्षित हैं बांध?...
सरकार ने माना था कि देश के कुल 5,000 बांधों में से 670 ऐसे इलाके में जो भूकंप संभावित जोन की उच्चतम श्रेणी में आते हैं। ऐसे बांधों में मप्र के करीब 24 बांध भी शामिल हैं। सवाल ये उठता है कि भूकंप संभावित इलाकों में मौजूद ये बांध आखिर कितने सुरक्षित हैं। मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले 100 से ज़्यादा बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। भारत में बांध बनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और पिछले 50 वर्षों में ही देश के विभिन्न राज्यों में 3,000 से ज़्यादा बड़े बांधों का निर्माण हुआ है।
एक ऐसे देश में, जहां आधी से ज़्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है वहां 95 प्रतिशत से ज़्यादा बांधों का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है।
भारत में बांधों का निर्माण और उनकी मरम्मत की निगरानी केंद्रीय जल आयोग करता है। आयोग के साथ सरकारें भी दोहराती रहीं हैं कि सभी बांधों की सुरक्षा जांच होती रही है और भूकंप संभावित ज़ोन में आने वाले बांध भी किसी आपदा को झेल सकने में सक्षम हैं।
कई विशेषज्ञों का मत है कि मप्र में सैंकड़ों बांध अब पुराने हो चले हैं और असुरक्षित होते जा रहे हैं। उनका कहना है कि पुराने बांधों को गिराकर उसी इलाके में नए और ज़्यादा मज़बूत बांधों का निर्माण आवश्यक है। साऊथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स के प्रमुख हिमांशु ठक्कर कहते है कि सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं गया है। ठक्कर ने बताया, मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले देश में 100 तथा मप्र में 23 बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। बांध पर बांध बने जा रहे हैं बिना ये सोचे की अगर ऊपर का एक बांध टूट गया तो नीचे किस तरह की प्रलय आ जाएगा।
मामले से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि भारत में किसी बांध का इस्तेमाल बंद कर देना इतना भी आसान नहीं है और उसे बंद करने से पहले विकल्प की तलाशने की ज़रूरत होती है।
भारत के 'सेंट्रल वॉटर कमीशनÓ के प्रमुख अश्विन पंड्या को लगता है कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है जहां आबादी का दबाव तेज़ी से बढ़ रही है, साथ ही सिंचाई और ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें बढ़ती जा रही हैं। ऐसे ताबड़तोड़ बांध बनाए जा रहे हैं, लेकिन इन बांधों को बनाने में कई तरह की बातों को दरकिनार किया जा रहा है,जो भविष्य के लिए खतरनाक है। वह कहते हैं कि भारत में दशकों पहले कंक्रीट से बने बांधों को भूकंप से बचाने के लिए नई बांध तकनीक से मजबूत करने की जरूरत है। इसके लिए आईआईटी के साथ मिलकर अमेरिका के विशेषज्ञ काम करने को तैयार हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ प्रो. एके चोपड़ा कहते हैं कि 1967 में भूकंप में पुणे का 'कोएना बांधÓ जिस तरह से टूटा-फूटा था, उसे लेकर कंक्रीट के बांधों को नई तकनीक से मजबूती देने की जरूरत महसूस हुई। भारत में अधिकांश बांध 50 से 60 साल पुराने हैं जिनकी क्षमता दिनों दिन घट रही है।
उल्लेखनीय है कि भारत में कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार ने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें देश के सभी बांधों के निरीक्षण और मरम्मत की बात कही गई थी। यह प्रस्तावित क़ानून अभी तक संसद से पारित नहीं हुआ है। हालांकि भारत में नई बनी मोदी सरकार में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है, हम हर बांध की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे और उसी हिसाब से उनकी समीक्षा की जाएगी।
धरती की गरमी बढ़ाते हैं बांध
बांधों से हो रहे पर्यावरण विनाश को लेकर पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं लेकिन हमारी सरकारें बांधों को विकास का प्रतीक बताने का ढिंढोरा पीटते हुए उनकी नसीहतों को अनसुना करती रही हैं। कैग की रिपोर्ट ने भी अपनी तरह से चेताया है। इस सबके बावजूद सरकार बड़े बांध बनाकर उसको विकास का नमूना दिखाना चाह रही है। सच यह है कि बांधों ने पर्यावरणीय शोषण की प्रक्रिया को गति देने का काम किया है जबकि बांध समर्थक इसके पक्ष में विद्युत उत्पादन, सिंचाई, जल, मत्स्य पालन और रोजगार आदि में बढ़ोतरी का तर्क देते हैं। वे बांधों को जल का प्रमुख स्रेत बताते नहीं थकते। जबकि विश्व बांध आयोग के सव्रेक्षण से स्पष्ट होता है कि बांध राजनेताओं, प्रमुख केन्द्रीयकृत सरकारी-अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बांध निर्माता कंपनियों के निजी हितों की भेंट चढ़ जाते हैं। सरकार इस मामले में दूसरे देशों से सबक लेने को तैयार नहीं है जो अब बांधों से तौबा कर रहे हैं।
विडम्बना यह है कि सरकार नए बांधों के निर्माण को तो प्रमुखता दे रही है लेकिन खतरनाक स्थिति में पहुंच चुके 50 साल पुराने तकरीब 655 बांधों के रखरखाव, भूकंप, बाढ़, मौसमी प्रभाव और सामान्य टूट-फूट से उपजी समस्याओं तथा बांधों के खतरे के आकलन सम्बंधी अध्ययन के लिए सचेत नहीं दिखती है। इस संबंध में जल संसाधन मंत्रालय के पास न तो कोई योजना है और न उसके लिए कोई बजट निर्धारित है। सरकार ने बांध सुरक्षा समिति गठित तो की है लेकिन मात्र सलाह देने के अलावा उसके पास कोई अधिकार नहीं है। यह सरकारी लापरवाही की जीती-जागती मिसाल है।
गौरतलब है कि आज भारत समेत दुनिया के बड़े बांधों को ग्लोबल वार्मिग के लिए भी जिम्मेदार माना जा रहा है। ब्राजील के वैज्ञानिकों के शोध इस तथ्य का खुलासा कर इसकी पुष्टि कर रहे हैं। उनसे स्पष्ट हो गया है कि दुनिया के बड़े बांध 11.5 करोड़ टन मीथेन वायुमंडल में छोड़ रहे हैं और भारत के बांध कुल ग्लोबल वार्मिग के पांचवे हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि दुनिया के कुल 52 हजार के लगभग बांध और जलाशय मिलकर ग्लोबल वार्मिग पर मानव की करतूतों के चलते पडऩे वाले प्रभाव में चार फीसदी का योगदान कर रहे हैं। इस तरह इंसानी करतूतों से पैदा होने वाली मीथेन में बड़े बांधों की अहम भूमिका है। हमारे यहां मौजदा समय में कुल 5125 बड़े बांध हैं जिनमें से 4728 तैयार हैं और 397 निर्माणाधीन हैं। भारत में बड़े बांधों से कुल मीथेन का उत्सर्जन 3.35 करोड़ टन है जिसमें जलाशयों से करीब 11 लाख, स्पिलवे से 1.32 करोड़ व पनबिजली परियोजनाओं की टरबाइनों से 1.92 करोड़ टन मीथेन उत्सर्जित होता है।
हर साल लाखों लोग होते हैं बेघर
मध्य प्रदेश की जमीन पर बने उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन बांधों के कारण पिछले कई दशक से मध्य प्रदेश हर साल बाढ़ से तबाही झेल रहा है। इन बांधों से मध्य प्रदेश को दोहरी मार पड़ रही है। एक तो यहां जमीनें खराब हो रही हैं और साथ ही बांधों के बकाए राजस्व की राशि दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
प्रदेश को होने वाली इस राजस्व की क्षति की वसूली के लिए प्रदेश की सरकारों ने कभी पहल नहीं की जबकि दूसरी ओर एक बड़े रकबे में भूमि सिंचित करने और बकाया भू-भाटक कोई जमा न करने से उत्तर प्रदेश सरकार के दोनों हाथों में लड्डू हैं।
इस बीच केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर भी सवालिया निशान उठ रहे हैं। इन बांधों के कारण मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा हुआ छतरपुर जिला अरसे से बाढ़ त्रासदी को झेल रहा है। जंगल और जमीन मध्य प्रदेश की है लेकिन उसका दोहन उत्तर प्रदेश कर रहा है। गौरतलब है कि आजादी से पहले एकीकृत बुन्देलखण्ड में सिंचाई की व्यवस्था थी। लेकिन प्रदेशों के गठन के बाद मध्य प्रदेश को इन बांधों के कारण दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। बांधों का निर्माण तो मध्य प्रदेश की जमीन पर हुआ है लेकिन व्यवसायिक उपयोग उत्तर प्रदेश कर रहा है। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में कुल 6 बांध निर्मित हैं जो उत्तर प्रदेश की सम्पत्ति हैं। लहचुरा पिकअप वियर का निर्माण सन् 1910 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। इसमें मध्य प्रदेश की 607.88 एकड़ भूमि समाहित है। तत्कालीन अलीपुरा नरेश और ब्रिटिश सरकार के बीच अलीपुरा के राजा को लीज के रकम के भुगतान के लिये अनुबन्ध हुआ था। आजादी के बाद नियमों के तहत लीज रेट का भुगतान मध्य प्रदेश सरकार केा मिलना चाहिए था लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई भुगतान नहीं किया। नियम कायदों के हिसाब से लहचुरा पिकअप वियर ग्राम सरसेड के पास है इसलिए 15.30 रूपया प्रति 10 वर्गफुट के मान से 607.88 एकड़ का 40 लाख 51 हजार 318 रूपया वार्षिक भू-भाटक संगणित होता है। लेकिन ये रकम उत्तर प्रदेश पर बकाया है।
इसी तरह पहाड़ी पिकअप वियर का निर्माण 1912 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। अनुबन्ध की शर्तों के मुताबिक दिनांक 01 अप्रैल 1908 से 806 रूपया और 1 अप्रैल 1920 से 789 रूपया अर्थात 1595 रूपया वार्षिक लीज रेट तय किया गया था। पहाड़ी पिकअप वियर के डूब क्षेत्र 935.21 एकड़ का वार्षिक भू-भाटक 62 लाख 32 हजार 875 रूपया होता है। यह राशि 1950 से आज तक उत्तर प्रदेश सरकार ने जमा नहीं की। करोड़ों रूपयों के इस बकाया के साथ-साथ बरियारपुर पिकअप वियर का भी सालाना भू-भाटक 8 लाख 36 हजार 352 रूपया होता है। इस वियर को भी 1908 में अंग्रेजी हुकूमत ने तैयार कराया था। इसमें तकरीबन 800 एकड़ भूमि डूब क्षेत्र में आती है।
छतरपुर के पश्चिम में पन्ना जिले की सीमा से सटे गंगऊ पिकअप वियर का निर्माण 1915 में अंग्रेजी सरकार ने कराया था। जिसमें 1000 एकड़ डूब क्षेत्र है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्य बांधों की तरह इस बांध का भी 6 लाख 53 हजार 400 रूपया वार्षिक भू-भाटक राशि को आज तक जमा नहीं किया। छतरपुर एवं पन्ना जिले की सीमा को जोडऩे वाले रनगुंवा बांध का निर्माण 1953 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कराया था। इसका डूब क्षेत्र भी तकरीबन 1000 एकड़ है। इस प्रकार से वार्षिक भू-भाटक 6 लाख 53 हजार 400 रूपया है। इस राशि को भी उत्तर प्रदेश सरकार की रहनुमाई का इन्तजार है। वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश की सीमा को जोडऩे वाली उर्मिल नदी पर बांध का निर्माण कराया था। इसके निर्माण के बाद मध्य प्रदेश की 1548 हेक्टेयर भूमि डूब क्षेत्र में आ गयी। इसका सालाना अनुमानित भू-भाटक 9 लाख 86 हजार 176 रूपए बनता है। लेकिन मप्र सरकार कभी भी उत्तर प्रदेश सरकार से अपने राजस्व का हिसाब नहीं कर सकी। जबकि हर बरसात में मध्य प्रदेश के गांवों को भीषण बाढ़ का सामना करने के साथ-साथ पलायन करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के इन अधिकंाश बांधों की समय सीमा अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इनसे निकलने वाली नहरों के रख-रखाव पर न ही सरकारों ने कोई ध्यान दिया और न ही जल प्रबन्धन के सकारात्मक समाधान तैयार किए हैं। रनगुंवा बांध से मध्य प्रदेश को अब पानी भी नहीं मिल पाता है। जल-जंगल और जमीन इन तीन मुद्दों के बीच पिसती उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की हांसिए पर खड़ी जनता की यह पीड़ा कहीं न कहीं उन बांध परियोजनाओं के कारण ही उपजी है। जिसने दो प्रदेशों के बीच वर्तमान में पानी की जंग और भविष्य में बिन पानी बुंदेलखंड के अध्याय लिखने की तैयारी कर ली है।
इन बांधों से है खतरा
बांध निर्मित वर्ष
बालाघाट
डोगरबोदी 1911
अमनल्ला 1916
बिठली 1910
बसीनखार 1909
रामगढ़ी 1915
तुमड़ीभाटा 1989
कुतरीनल्ला 1916
बड़वानी
रंजीत 1916
बैतूल
सतपुड़ा 1967
भोपाल
केरवा 1976
हथाईखेड़ा 1962
छतरपुर
मदारखबनधी 1964
गोरेताल 1663
दमोह
माला 1929
मझगांव 1914
हसबुआमुदर 1917
गोड़ाघाट 1913
चिरेपानी 1913
रेद्दैया 1910
छोटीदेवरी 1919
जुमनेरा 1910
नूनपानी 1952
दतिया
रामसागर(गुना) 1963
रामपुर 1917
अमाही 1917
खानपुरा 1907
जमाखेड़ी 1915
भरोली 1916
मोहरी 1916
केशोपुर 1916
खानकुरिया 1915
समर सिंघा 1917
ग्वालियर
हरसी 1917
तिगरा 1917
रामोवा 1931
टेकनपुर 1895
सिमरियानग 1976
खेरिया 1913
रीवा
गोविंदगढ़ 1916
सागर
नारायणपुरा 1926
रतोना 1924
चांदिया 1926
सतना
लिलगीबुंदबेला 1938
सीहोर
जमनोनिया 1938
सिवनी
अरी 1952
समाल 1910
चिचबुंद 1951
बारी 1957
शाजापुर
नरोला 1916
सिलोदा 1916
शिवपुरी
धपोरा 1913
चंदापाठा 1918
डिनोरा 1907
नागदागणजोरा 1911
झलोनी 1913
रजागढ़ 1914
अदनेर 1911
ककेटो 1934
विदिशा
घटेरा 1956
उज्जैन
अंतालवासा 1908
कड़ोडिया 1957
शाजापुर
नरोला 1916
सिलोदा 1916
होशंगाबाद
दुक्रिखेड़ा 1956
धनदीबड़ा 1956
इंदौर
यशवंत नगर 1933
देपालपुर 1931
हशलपुर 1950
जबलपुर
परियट 1927
बोरना 1920
पानागर 1912
कटनी
पिपरोद 1913
गोहबंनधा 1912
पथारेहटा 1918
दारवारा 1918
पब्रा 1912
अमेठा 1918
जगुआ 1921
जगुआ 1921
लोवर सकरवारा 1919
अपर सकरवारा 1919
बोहरीबंद 1927
अमाड़ी 1927
बोरिना लोवरटी 1923
मौसंधा 1917
मंदसौर
पोदोंगर 1956
गोपालपुरा 1954
पन्ना
लोकपाल सागर 1909
रायसेन
लोवर पलकसती 1936
सफेद हाथी बना एनवीडीए
वर्ष 1972 में बने मास्टर प्लान में तय किया गया था कि मध्यप्रदेश नर्मदा में उपलब्ध कुल जल का 65 फीसद यानि 18.25 मिलियन एकड़ फीट(एमएएफ ) जल का उपयोग कर प्रदेश को समृद्ध बनाएगा। इसके तहत 23 बड़ी, 135 मध्यम व तीन हजार से अधिक छोटी परियोजनाओं का निर्माण करना तय किया गया। वृहद परियोजनाओं के लिए 1985 में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए)का गठन हुआ। सभी बड़ी परियोजनाओं का जिम्मा प्राधिकरण को सौंपा गया। तय हुआ,कि नर्मदा का 11.36 एमएएफ जल एनवीडीए, 5.39 एमएएफ जल सिचांई विभाग व डेढ़ एमएएफ जल का उपयोग लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी व उद्योग विभाग को करना है। यह भी आश्चर्यजनक ही है,कि करीब तीन दशक के इस सफर में यह प्राधिकरण महज 7 परियोजनाओं के जरिए अब तक करीब 9.114 एमएएफ पानी का उपयोग ही कर पाया है।
हालांकि भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही नर्मदा घाटी परियोजनाओं की सुध ली तो दिसंबर 2003 में विजन 2012 नामक मसौदा तैयार किया गया। इसमें नर्मदा घाटी की सभी वृहद परियोजनाओं का निर्माण 11वीं पंचवर्षीय योजना यानि साल 2011-12 में पूरा कर लेने का दावा किया गया। इन पांच सालों में भी करोड़ों रुपए व्यय हुए लेकिन एक भी नई परियोजना अंजाम तक नहीं पहुंची। तर्क दिया गया,कि केंद्र ने अनुमनितयां देने में देर की। नया विजन 2015 तैयार हुआ और इसमें 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंत अर्थात वर्ष 2015 तक सभी प्रस्तावित योजनाओं को पूरा करने का लक्ष्य तय हुआ। नया विजन तैयार हुए तीन साल का वक्त गुजरने को है,लेकिन प्राधिकरण निर्धारित नए लक्ष्य का 25 फीसदी हिस्सा भी पूरा नहीं कर सका। जानकार बताते हैं,कि प्राधिकरण ने इससे पहले वर्ष 2007 में एक रिवर्स कैलेण्डर भी तैयार किया था,लेकिन यह केवल कागजों तक सीमित रहा। योजनाओं के क्रियान्वयन की यही स्थिति रही तो फिर एक नया विजन तैयार होगा। संभव है,कि नया विजन राज्य सरकार के विजन 2018 को लक्ष्य कर बनाया जाए। हास्यास्पद पहलू यह,कि प्राधिकरण अपना काम तो समय पर कर नहीं पाता, दूसरे के काम पर उसकी निगाह है। इसके चलते उक्त विजन में तय हुआ,कि प्राधिकरण जलसंसाधन विभाग को आवंटित (5.39 एमएएफ जल उपयोग की) की विस्तृत परियोजनाओं में पचास फीसदी के डीपीआर तैयार करने का काम करेगा और उन 50 फीसदी परियोजनाओं को भी अपने हाथ में लेगा जिन्हें जल संसाधन विभाग अब तक शुरु नहीं कर सका है।
तीन दशक में केवल दो परियोजनाएं की पूरी
प्राधिकरण में कामकाज की गति का आंकलन इसी बात से लगाया जा सकता हैकि इन तीन दशकों में प्राधिकरण केवल दो बड़ी परियोजनाएं मान व जोबट ही पूरी कर सका। इनसे केवल 0.2045 एमएएफ नर्मदा जल का उपयोग ही किया जा सका। वहीं पांच परियोजनाएं वर्ष 1988 से पहले जल संसाधन विभाग द्वारा पूरी की गई। इनसे नर्मदा का 2.952 एमएएफ जल का उपयोग हुआ। करीब 6 एमएएफ जल उपयोग के लिए एनवीडीए की सात परियोजनाएं रानी अवंतीबाई लोधी सागर परियोजना(जल उपयोग1681एमसीएम), बरगी डायवर्जन (2510.6 एमसीएम),इंदिरा सागर (1625.26 एमसीएम),ओंकारेश्वर(1300 एमसीएम), अपर वेदा(101.09 एमसीएम), पुनासा लिफ्ट (130.20 एमसीएम)एवं लोअर गोई (136.65 एमसीएम)निर्माणाधीन हैं। वहीं 0.2537 एमएएफ जल की दो परियोजनाएं हालोन एवं अपर नर्मदा के लिए निर्माण का कार्य शुरुआती दौर में ही है। जबकि 1.57 एमएएफ जल उपयोग की सात परियोजनाएं अब तक शुरु ही नहीं की जा सकी। इनके लिए सर्वे,अन्वेषण एवं डीपीआर बनाने का काम ही पूरा नहीं हो सका।
यहां यह भी गौरतलब है,कि वर्ष 1956 से 1988 तक अर्थात 22 सालों में प्रदेश के ही जल संसाधन विभाग ने नर्मदा की सहायक नदियों पर पांच बांध (बारना,कोलार,मटियारी,सुक्ता व तवा)तैयार कर नर्मदा के 2.952 एमएएफ जल का उपयोग किया। वहीं प्राधिकरण 25 साल में महज दो बांध मान व जोबट ही बना पाया। धन की कमी का हवाला देकर दो बांध इंदिरा सागर व ओंकारेश्वर सागर राष्ट्रीय जल विद्युत विकास निगम (एनएचडीसी)को हस्तांतरित कर दिए गए। एनएचडीसी ने इस कार्य को महज चार साल में ही पूरा कर दिया। बीते पांच सालों में ही प्राधिकरण महज एक बांध अपर बेदा पर तैयार कर पाया। इसमें भी तीन साल अधिक लगे। वहीं फरवरी 2009 में शुरु हुआ लोअर गोई बांध का जो काम तीन साल में हो जाना चाहिए था वह अभी प्रगतिरत है।
लागत बढ़ाने सांठगांठ
बांध हों या इनसे निकलने वाली नहरें। सभी के निर्माण में विलंब की एक प्रमुख बजह भ्रष्टाचार रहा। यह मनमानी निर्माण दरों पर काम दिए जाने और इस पर भी विलंब कर कार्य की लागत बढ़वा कर किया गया। उदाहरण के तौर पर रानी अवंति बाई लोधी सागर परियोजना से बांयी तट नहर के द्वारा इलाके की 1.57 लाख हेक्टेयर सिंचाई का लक्ष्य तय किया गया। करीब 135 किमी लंबी यह नहर व 1915 किमी लंबे इसके वितरण नेटवर्क का काम आठ साल में पूरा हो जाना चाहिए था,लेकिन यह कार्य अब तक पूरा नहीं हो सका। आपको यह जान कर हैरत होगी कि परियोजना की शुरुआती लागत महज 252 करोड़ थी जो इन 25 सालों में अब बढ़ कर 12 सौ करोड़ से अधिक हो गई है। प्राधिकरण का दावा है,कि इस नहर को 2015 तक पूरा कर लिया जाएगा। नहर से अब 1.23 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता विकसित की जा चुकी है,लेकिन हकीकत यह ,कि इस नहर से तीस हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र कभी सिंचित नहीं हो सका। नरसिंहपुर के समीप निर्माण का काम लंबे समय से अटके रहने के कारण जिले की 34 हजार हेक्टेयर से ज्यादा रकबे को परियोजना का लाभ अब तक नहीं मिला। जबकि विजन 2012 में तय पांच साल की अवधि के दौरान ही प्राधिकरण को 6 हजार करोड़ रुपए से अधिक का बजट आवंटित किया गया। इसमें से प्राधिकरण ने करीब साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए खर्च भी किए ,लेकिन इस अवधि में वह किसी भी बड़ी परियोजना की नहर प्रणाली को अंजाम तक नहीं पहुंचा सका। इस मामले में गड़बड़ी मुख्यालय से लेकर मैदानी स्तर तक रही। जिन ठेकेदारों को काम मिल भी गया ,वे साल दर साल बढ़ती अनैतिक मांगों से घबरा कर या तकनीकी कारणों से काम को आधा-अधूरा छोड़ भाग खड़े हुए।
बीते 25 सालों में करीब 15 हजार करोड़ रुपए खर्च कर एनवीडीए नर्मदा के पांच प्रतिशत जल का उपयोग ही कर सका। जल उपयोग की अंतिम समय सीमा वर्ष 2024 को देखते हुए उसके पास अब भी करीब एक दशक का समय है। जानकारों का मानना है,कि प्राधिकरण यदि वर्ष 2020-21 को ही लक्ष्य बना कर कार्य करता है तो उसे करीब इकतीस हजार करोड़ रुपए की आवश्यकता और होगी।
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